निलय उपाध्याय
निलय उपाध्याय कविताओं में जिस तरह से अपने
गाँव - समाज को पकड़ते हैं , उनमे आये परिवर्तनों , बदलाओं की शिनाख्त करते
हैं , उसी प्रामाणिक तरीके से उनका कथा साहित्य भी इधर बीच हमारे सामने आ रहा है । यहाँ प्रस्तुत कहानी 'उड़ाह' को पढ़कर आप जान पायेंगे , कि निलय जी अपनी कहानियों को किस भावभूमि पर रच रहे हैं ।
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर निलय उपाध्याय
की कहानी 'उड़ाह'
उड़ाह
मैं कल्पना कर सकता हूं कि इस कुंवे की खुदाई के वक्त
मेरे दादाजी ने पीले रंग की धोती पहनी होगी, पीले रंग की मिरजई,सिर पर पीले रंग का गमछा होगा और यहीं कहीं
बैठे होंगे दादी के साथ । उनकी पगडी और दादी का आंचल एक सिक्के के साथ बंधा होगा।दयानंद पंडित ने अक्षत, दूब, सुपारी और तांबे का पैसा हाथ में देकर पपीता के दूध और
गंगा जल से पुत्र प्राप्ति मंत्र पढकर संकल्प कराया होगा।
मैं यह भी कल्पना कर सकता हूं कि इस
संकल्प से पहले मेरी दादी लाल चुनरी में सजी. माथे पर कलश, कलश मेंआम्र पल्लव और आम्र पल्लव पर अंखुवाया हुआ नारियल लेकर घर से निकली
होगी।उनके पीछे चलती औरते ग्राम –गीतों में वरूण का आह्रवान कर
रही होगी सबके पीछे होगी अकालू बो चमारिन चाची की मानर ध्वनि।सबके मन में वंश का ही ख्वाब होगा।
जिस कुंवे का उड़ाह थोड़ी देर पहले शुरू हुआ है उसे मेरा
परिवार कुंवा नहीं, वह कोंख मानता है जिसने वंश परंपरा को आगे बढ़ाया।मेरी मां जब भी कुंवे पर जाती
है,
सिर पर आंचल रख लेती है।हम भी जब कभी कुंवे के पास
जाते ऎसा लगता जैसे हम कुंवे पर नहीं अपने घर के आंगन में हो।
गांव के लोग इसे पंडिजी का कुंवा कहते है। यह कुवां
मेरे घर में नहीं बल्कि गांव के ठीक बाहर सडक किनारे मिलकी के मेरे खेत में हैऔर
अपने जन्म काल से पिछले पांच साल पहले चापा कल लगने से पहले खेत में काम करने वाले
मजदूरों और किसानों की प्यास बुझाया करता था।पानी निकलना बन्द हो जाने के बाद भी
वह गांव के लिए एक धरोहर की तरह है, इस ईलाके को लोग अब भी पंडिजी का कुवा ही कहते है। बाहर के
लोग आते तो पंडिजी का कुंवा पूछतेहै। मेरे गांव की शुरूआत पंडिजी के कुवे से होती है
मेरे पिताजी ने आरंभ से ही घर के भीतर ऐसा वातावरण बना
रखा है जिसमे विनम्रतापूर्वक किसी की बात का विरोध किया जा सकताहै । दस दिनों की
छुट्टी पर गांव आया हूं। मेरे आने से पहले पिताजी ने योजना बना ली थी कि क्या कया
करना है। जब काम की चर्चा आरंभ हुई तो मैंने कुंवे के उड़ाह पर चुप्पी साध ली थी जिसका सीधा
अर्थ था कि आज के दौर में जब गांव में कुंवे की जरूरत नहीं रही फिर उड़ाह क्यों...? घर में चापा कल
लग गया था। जहां कुंवा था वहां भी चापाकल था।
मेरी बात सुन कर पिताजी का रोबदार चेहरा झटका खा गया।
उन्हें मुझसे इसकी उम्मीद नहीं थी। मेरी मां ने
चाचा को इशारा किया। चाचा मुझे किनारे ले गए और दादी का किस्सा बताया।
मेर यह घर कच्ची मिट्टी का
था।पिताजी ने इसे ईंट का बनवाया। हमारे कुल देवता शोखा बाबा है। मिट्टी की एक
दीवाल में उनका स्थान था। जब मकान का नक्शा बना तो मिट्टी के दीवार का स्थान बदल
गया। दादी जिद्द पर अड गई थी दीवार वहीं रहेगी जहां थी और शोखा बाबा का स्थान भी
वहीं रहेगा जहां था और हार कर पिताजी को नक्शा बदलवाना पडा था।
कुंवा पिताजी के जन्म की मनौती से जुड़ा था। उनकी इच्छा थी इसके कारण मुझे अपराधबोध हुआ। इसके बाद इस उड़ाह को मैंने न
सिर्फ चुनौती के स्तर पर स्वीकार किया था बल्कि उसे सजाने और बेहतर रूप देने की आकांक्षा
भी बलवती हो गई थी। इस कुंवे की जगत और इसके समानान्तर एक पार्क और पानी निकालने के लिए मोटर भी मेरी योजना में शरीक हो
गया था ताकि उसका सोत खुला
रहे।
इस वक्त मैं उसके लिए कुछ भी दांव लगाने को तैयार था।
मेरा निर्णय जान कर पिताजी खुश
हो गए। उनकी इच्छा थी कि पहले की तरह पुरे गांव में चलावा जाय और उडाह हो। इस बार
चाचा ने कहा
अब चलावा संभव नहीं है।
पिताजी नाराज हो गए-क्यों संभव
नहीं है
अब गांव मे किसी के घर डोर
बाल्टी नही है। और उडाह में वहीं लोग भाग लेते थे जो उस कुंवे का पानी पीते थे, अब कौन आएगा।
पिताजी को इस बार बात समझ में आ
गई।चाचा ने योजना बनाई कि कितनी बाल्टियां चाहिए कितने डोर और कितने आदमी।पिताजी
ने कहा –बाल्टी क्यों? वो तो
मिल जाएगी न गांव में?
कहां मिलेगी ,सबके घर अब प्लास्टिक की बाल्टियां है और उनसे उडाह नहीं
होगा,
इस बार मां ने कहा तो पिताजी चुप
हो गए।
२
मेरे घर के पीछे शंकर भगवान का छोटा सा मंदिर है।
मंदिर के पास वाले कुंवे के उड़ाह की स्मृति मेरे मन में आज भी ताजा है। तब मैं चौथी कक्षा मेंपढ़ता था।गांव में उड़ाह को लेकर खास तरह
का उत्साह था ठीक उसी तरह जैसे होली दीवाली या दशहरे पर होता है।उडाह के लिए टोले
केघर –घर में चलावा गया था।चलावा का मतलब था जो
लोग कुंवे का पानी उपयोग में लाते थे,हर घर से एक आदमी, एक बाल्टी और एक डोर।जिनके घर से कोई नहीं आया था, उनसे एक रूपया लिया गया। तब एक रूपए की
कीमत थी। रूपयों से खैनी, बीड़ी और गुड़ आया।पीपल की छांव में चैकिया डाल दी गई, एक बडी सी दरी बिछा दी गई और हम बच्चों को समेट कर दरी पर
बिठा दिया गया।बृद्ध समुदाय के लोग चैकियों पर
जम गए
और जवान लोगों की टोली अपनी बाल्टी और अपनी डोर लेकर कुंवे की ओर बढ गए।
उड़ाह में शामिल लोगों में गजब का उत्साह था। पानी निकालने की होड़ लगी थी और
अनजाने ही स्पर्धा बन गई थी । कई युवक पानी निकालने के लिए अपनी भुजाओं का इस्तेमाल भी रस्सियों
की तरह करने लगे थे।मशीन के अंदाज में बाल्टियां गिरती पानी निकलता और पसरता चला
जाता। पानी बह कर जब हमारे लिए बिछी दरी के पास आ गया तो दरी को मंदिर के बरामदे
में बिछा दिया गया। महज देखने का रोमांच ऎसा था कि कोई भी लडका बरामदे में नहीं
गया और उडाह का पहला दिन इस तरह समाप्त हो गया।
दूसरे दिनमैं थोडा देर से पहुंचा । स्कूल से
लौट कर आया तो बस्ता फ़ेक कर मंदिर की ओर भागा। पहुंचा तो कुवे से पानी निकालने का काम पूरा हो चुका
थाऔर अब भीतर की मिट्टी काटी जा रही थी। वहां पहले दिन की तरह उत्साह नहीं था और खास तरह की गम्भीरता थी ।मिट्टी पांक की शक्ल ले चुकी थी
और बाल्टी से निकाला जा रहा था।
मिट्टी की बाल्टी गिरने के साथ वहां जगत के पास बैठे लोग कीचड
में हाथ लगा कुछ ढूंढते और
निकलने वाले समान को धोकर चैकियों पर रख देते जहां कई बृद्ध लोग बैठे थे।लोगआ-आकर उन समानों को देखते और उसके
बारे में अनुमान लगाते कि यह किसका है।
चौकी पर पडे सामानो की सूची बहुत
लंबी नहीं थी।
नीम की कई गुल्लियां निकली थी और बबूल के
डंडे। मुझे याद आया कि जब भी खेल
में बेइमानी होती, चंदर गुस्से में गुल्ली – डंडे को कुंवे में डाल देता। चंदर उन दिनों गांव छोड़कर चला
गया था ।जिस नन्ही बच्ची की चांदी का छागल
मिला था वह बच्ची बड़ी हो चुकीथी और अपने ससुराल चली गई थी। उसकी मां ने पायल को पहचाना और
अपने घर ले गई।गेद निकली थी किन्तु उनकी पहचान
नष्ट हो चुकी थीऔर उनको खेलने वाले दूसरे कामों में लग गए थे। एक तांबे की लोटकी निकली थी। लोगों को यह अनुमान लगाने में
दिक्कत नहीं हुई कि यह राम –धिराज सिंह की पत्नी की होगी ।तीन बरस पूर्व वे मर चुकी थी। लोटकी उनकी बहू के पास भिजवा दीगई।
अचानक कुंवे केभीतर किसी के चीखने की आवाज आईऔर लोग सन्न
रह गए।गोरख भईया जो कुंवे
में भीतर कुदाल से मिट्टी काट रहे थे और बाल्टी में भर रहे थे,के पांव में शीशा चुभ गया था और खून रिस रहा था। गोरख भईया को रस्सी के सहारे निकाला गया ।डाक्टर आए। मरहम पट्टी हुई ।लोगोंको यह अनुमान करने में कोई
दिक्कत नहीं हुई कि वह हृदयासाह के घर के आईने का शीशा है। उसके अन्य टुकड़े भी निकले।हृदया बो चाची ने स्वीकार कर लिया
कि आईना टूट जाने के बाद उन्होंने उसे कुंवे में डाल दिया था। हृदयाचाचा उनकी पिटाई पर उतर आए
किन्तु लोगों ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। चाचाने सार्वजनिक रूप से इसके
लिए माफी मांगी और इलाज का खर्च देना कबूल किया।
आखिर में जमोट की लकडी को धोया
गया। पहली बार मुझे पता चला कि कुंवे की जगत के नीचे जामुन की लकडी होती है जिसे
जमोट कहते है। इसी लकडी पर ईंट के जगत की जुडाई होती है।जामुन की लकडी की यह खास
विशेषता होती है कि पानी में चाहे जितने दिन रखा जाय सडती नहीं है बल्कि और मजबूत
हो जाती है।जमोट की सफ़ाई के बाद बाहर हवन हुआ और हर हर महादेव की ध्वनि के साथ
कुवें के अन्दर पानी का सोत खोल दिया गया।
पहले लोटे का जल निकला तो शंकर भगवान की प्रतिमा पर चढ़ा। हे विषपायी शंकर, हे भोले नाथ , इस जल के भीतर का सारा विष तुम ग्रहण करो और हमें हमारा सुस्वाद
जल वापस कर दो।
दूसरा लोटा जल का एक चुल्लू लेकर सबसे पहले गांव के बुजुर्ग
राजपूजन महतो पिया और कहा –अमृत है ,अमृत है.इस कुंवे का पानी। उसके बाद
लोगों के बीच बतासा और गुड बंटा । सबने पानी पिया और राहत की सांस ली। पानी उतना
ही सुस्वादु था जितना पहले। बचा हुआ बतासा लोगों के घर प्रसाद के रूप में भेज दिया
गया।
३
कुंवे के आसपास की मिट्टी पूरी तरह गीली हो चुकी थी और पानी बहता
हुआ अब खेतों की ओर बढ़ रहा था। गीली मिट्टी पर आते
जाते लोगों के कदमों के निशान उग आए थे।सामने खड़ा मथुरा ब्रहम का पीपल सिर हिला रहा था और हवा का सहारा पाकर उसकी टहनियों
से नई नवेली कोंपले उचक-उचक झांक रहीथी और पूछ रही थी कि ये क्या हो रहा है?
उडाह हो रहा था मगर इस उड़ाहमें गांव
के सार्वजनिक जीवन के
सहभागिता का उत्साह नहीं था, पानी उलीचने वाले मजदूर थे। वो भी कितनी कठिनाई से मिले,
इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। बस इतना जान लेना समझने के लिए काफ़ी होगा कि
सबको दूनी मजदूरी और दो पहर के भोजन पर रखा गया था।
मालिक-आवाज सुन कर मैं चौका।
मेरे सामने फुलेसर खड़ा था। फुलेसर उन मजदूरों में एक था जो
पानी निकाल रहे थे ।मैंने उसके चेहरे की ओर देखा वहां खास तरह की ब्यग्रता थी।
क्या है फुलेसर?
मालिक पानी सड़ गयाहै।
सड गया है?
हां, भक भक गंध मारता है।
अरे भाई जब पानी निकलना बंद हो गया तो कुवां कहा रहा, सडेगा ही
यह जबाब मेरे चाचा ने दिया था जो अभी –अभी मेरे पास आए थे। चाचाके बारे में
बता दूं कि वे मेरे सगे चाचा न थे बल्कि पिताजी के चचेरे भाई थे मगर हर समय यह जताने की
कोशिश करते थे कि मेरे सगे से भी सगे है।आठ दिन से मैं गांव में हूं और उनको पहचान गया हूं। चाचा ने ही
मेरे पिताजी को उकसाया था कि उडाह होना चाहिए । बाजार जाकर सारा सामान वहीं ले आए
थे और उडाह के इस अभियान में एक तरह से वे मेरा सहयोग कर रहे थे।कई दिनों से मैं
यह भी देख रहा हूं गांव में शराब का प्रचलन इस कदर बढ़ गया है कि किसी आदमी की नैतिकता खरीदी जा सकती
है। हो सकता है कि
पानी सडने का मुद्दा बना मेरे चाचा ने ही मजदूरो कों उकसाया हो ताकि शराब मंगाई जा
सके और मेरा अनुमान सही निकला जब चाचा ने फ़ुलेसर के समर्थन
में कहा–
हम तो वहीं खडे
थे।पानी सचमुच सड़ गया है।
मैने उनकी ओर देखा-तो
चाचा ने मेरे कान में कहा-इ सब को थोडा पिला देना ठीक रहेगा नशा के झोंक
में जल्दी –जल्दी उलीचेगे वरना एक दिन के
काम में तीन दिन लगाएगा।
चाचाने इस तरह कहा जैसे उन्होंने मेरे हितों को ध्यान मे रखते हुए
यह सुझाव दिया हो।मैं मन ही मन इसके लिए तैयार था।सौ के दो नोट चाचा को दिया और
कहा- चाचा यह सब आप ही सम्भालिए,
मैंने देखा कि चाचा के चेहरे पर चमक आ गई है।
चाचा मजदूरों के साथ सामने के बगीचे में पीपल
के पेड के नीचे जमेहुएथे।महुए का मादक ठहाका रह रह कर सुनाई दे जाता। काम रूका हुआ
था,अचानक मेरी निगाह सामने सड़क की ओर गई।
अरे कामता चाचा...।
कामता चाचा गांव में मेरे बचपन के मित्र रविकांत के पिता
थे और मुझे भी बेटे की तरह मानते थे।रविकांत का दो वर्ष पहले अपहरण हुआ था और हत्या कर दी गई थी। इसकी सूचना मुझे मिली थी और
रोज रोज की सूचनाओं में कहीं गुम हो गई थी। गांव आया तो कई कामों में इस तरह फ़ंसा
रहा कि मिलने नहीं जा पाया। रविकांत की हत्या के बाद गांव में उनके बारे में यह बात
पसर गई थी
कि कामता सिंह ने रूपया बचाने के लिए उन्होंने अपने बेटे मरवा दिया।मैं चाहकर भी अपने को रोक नहीं
सका और आगे बढ़ गया और हाथ जोड कर कहा।
चाचा प्रणाम
कौन ..?
वे मुझे पहचान नहीं पाये।चश्मा ठीक कर गौर करने के बाद
भी नहीं, आवाज से भी नहीं। दप दप आग की तरह जलता रहने वाला चेहरा मुरझाए फ़ूल सा लग रहा था।
मैं निलू
कौन ?
रविकांत का दोस्त निलू
इस बार मेरी आवाज सुन उनके चेहरे
पर मुस्कान तैर गई।
अरे निलू,अरे बबुआ तुम्हारे पास ही तो मैं आया था
सुना कि गांव आए हो और उड़ाह करवा रहे हो, छाती चौड़ी हो गई बबुआ।भगवान तुम्हारे जैसा बेटा सबको
दे, दुश्मन को भी।
इस बार चाचा को मैंने गौर से देखा।सिर के सघन बाल पतले हो गए थे।चेहरा भी वह न था लगा जैसे सदियों की थकान झुर्रियों से बाहर
निकलने के लिए छटपटा रही हो।मैंनेउन्हेंआरामसे बगल में पडी कुर्सी पर बिठाया।
निलू
जी चाचा
मेरे पास आओ।
मैं उनके पास गया तो मेरे सिर से चेहरे तक जाने
कितनी बार अपनी खुरदरी हथेलियो से सहलाया जैसे मेरे चेहरे में रविकांत का चेहरा
टटोल रहे हो। फ़िर कहने लगे लगा किसी गहरे कुंवे से उनकी आवाज आ रही हो।
जब रविकांत मैट्रिक में था। तुम भी थे ।
जी चाचा
तुमको याद है, उसी साल बथान से घर गैया बैल खोल
ले गए थे मेरा ।अगले दिन खबर मिल गई कि आठ सौ
रूपया पनहा पहुंचा दो तो बैल मिल जाएगा । हमने पता लगा लिया कि यह काम लसाढ़ी के अहिरों का है। पनहा नहीं देने पर वे उसे रानीसागर
के कसाइयों के यहां बेचेंगे।हमने पनहा नहीं दिया।तीन दिन तीन रात लसाढ़ी की राह पर सोये ।चौथे दिन जब वे
रात में बैल को रानी सागर लेकर चले तो पकड कर हम लोगों ने अहीरों को ऐसा मार मारा कि चोरी
का उनका धंधा ही छुड़ा दिया।
कहकर चुप हो गए चाचा।मैंने उनके चेहरे पर अपनी नजर
गड़ा दी उनकी आंखों में पानी आ रहा था।
मगर पच्चीस बरस बाद ठीक पच्चीस वरस बाद वहीं जब
मेरे रवि के साथ हुआ तो कुछ भी नहीं कर सका ।बूढ़ा हो गया हू न।
उनकी बात सुन कर मैं चुप रह गया।
पशुओं की भाखा में पनहा और आदमी की भाखा में फिरौती
पच्चीस साल का समय उनकी आंखों में मुझे साफ़ साफ़
दिखाई दे रहा था। पच्चीस साल में गांव ने क्या खोया,क्या पाया।कैसा बदलाव आया। गांव में कोई नहीं कहता जो
हुआ गलत हुआ।सब कहते है कि कामता चाचा ने रुपया दिया होता तो रवि बच जाता। विरोध उन्हीं लोगों के पास है
जो बूढ़े हो चुकेहै या कुछ कर सकने की हालत में नहीं है।सीधे सादे ढंग से कामता चाचा ने
इस बात को इस तरह कह दिया था कि बदले हुए समय और उसके अर्थ की गिरह पर मेरा ध्यान
कस गया।
अच्छा चलता हूं बेटा।
मैं यह भी न कह सका कि मिठाई ले लीजिए क्यों कि कुंवे से पानी उलीच रहे मजदूर मुझे बुला रहे थे। शायद वहां कोई नई समस्या आ गई थी।
4
कुंवे में पानी तो पहले ही
बहुत कम था, थोडी देर तक उलीचने के अब और कम हो गया था। जगत
से नीचे झांकने पर कुवे के तल की मिट्टी दिखाई देने लगी थी।उसे हिड़ोरने और कुंवे में उतरने
के लिए मजदूर मेरी इजाजत चाहते थे।
इजाजत तो एक बहाना था।
मूल चीज थी वख्शीष। मैं सोच रहा
था कि जब मजदूरी पर काम हो रहा है फ़िर बख्शीष कैसी ?यह तो
यजमानी सभ्यता की चीज थी, जहां मजदूरी
देने का रिवाज नहीं था।मगर चाचा ने मेरे आते ही बिना मुझसे पूछे , बिना सलाह किए प्रत्येक मजदूर को इक्यावन रूपए देने की घोषणा की और कुंवे में
उतरने की इजाजत भी दे दी।
कल रात पिताजी ने मुझसे कहा था कि
चाचा से सावधान रहना। हमेशा अपने जोगाड में लगे रहते है। मैं समझ गया कि इसमें
जरूर इनका भी हिस्सा होगा। लेकिन जाने क्या मन में आया कि मैने उनका विरोध नहीं
किया और रूपए निकाल कर दे दिए।
हम अब कुंवे में झांक रहेथे।
मजदूर कुदाल लेकर कुंवे में
रस्सी के सहारे उतर गए। लंबी लंबी सांस ली और जब यकीन हो गया कि अन्दर हवा कम नहीं
तो कुदाल से काट काट कर पानी में मिट्टी के हिडोरने का काम तेजी के साथ आरम्भ हो
गया। जब सब कुछ सहज हो गया तो मैं बांसवार की ओर बढ गया।
मेरे दादाजी कभी आसाम गए थे तो
इस बांस की जड को लेकर आए थे और मिलकी के खेत के एक छोर पर लगा दिया था। ये बांस
हमारे यहां उगने वाले बांसों से बहुत अलग थे। इनका रंग पीला पन लिए था और ये
ज्यादा मोटे नहीं होते । इस बांस की तब गांव में बहुत मांग थी। उस समय गांव के
लगभग हर घर में इस बांसवार के बांस की लाठी, भाला
या बरछा मौजूद था। जब कोंपल निकलती तभी से मांग आरम्भ हो जाती और किसी के नाम से
तय हो जाता। लाठी भाला बरछा का जमाना खतम हो गया था और अब वह जंगल की तरह लग रहा
था। बहुत सारे बांस सूख गए थे और उन्हें निकाला नहीं गया था। पिताजी ने मुझसे कहा
था कि ये बांस बिकते ही नहीं। अच्छा होगा कि बांसवार को उखडवा दो ,खेत बढ जाएगा। मुझे उस लट्टू की याद आ रही थी जो इस बांसवार
के जड से बनी थी। लडकों के साथ लट्टू खेलते समय दूसरे लट्टूऒं की गूंज उसमे गड
जाती मगर फ़टती नही थी। गांव के लडके बाद में कहने लगे कि उस लट्टू से खेलोगे तो
नहीं खेलेंगे।
मै इन्ही स्मृतियों में खोया था कि अचानक मुझे
चाचा की आवाज सुनाई पडी। उनकी आवाज सहज नहीं थी। मै तेजी से बढता कुवे की ओर गया
तो जो मजदूर कुवे के भीतर काम कर रहे थे बाहर निकल कर खडे थे।मैं समझ नहीं पाया कि यह
क्या हो गया। चाचा
मुझे और मजदूरो को किनारे ले गए जैसे कोई गोपनीय बात कहने जा रहे हो।
क्या बात है फुलेसर
मलिक, यह उड़ाह हमसे नहीं होगा।
क्यो...?
हम लोग बाल बच्चे वाले गरीब आदमी है मालिक
मैं समझ नही पा रहा था कि अचानक यह क्या हो गया। अब तक बढ चढ कर भाग लेने वाले मेरे चाचा भी डर गए थे। सहमते हुए बस
इतना ही कहा- भीतर..?
भीतर क्याहै...?
मैने पूछा तो मेरी बात का किसी
ने जबाब नहीं दिया ।इस बार मैने डांट लगाने के अंदाज में पूछा।
बोलते क्यों नहीं..
एक मजदूर ने कहा-विजली का तार है मालिक....
सारी बातें मेरी समझ में आ गई। कल रात किसी
ने मेरे गांव और बलिहार के बीच का तार काट लिया था और सुवह से गांव में विजली नहीं
थी। लेकिन तार यहां इस कुंवे किस तरह आ गया यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी।
चाचा ने मुझे समझाया कि अभी काम बन्द कर देना चाहिए
क्यों?
गांव जंगल हो गया बबुआ। बहुत
शिकारी आते है गांव में
उनका चेहरा देख मुझे लगा कि वहां
खडे लगभग सभी को मालूम था कि यह काम किसका है और क्यो किया गया है। वे ब्यर्थ में
झंझट मोल लेना नही चाहते थे और रात में चुपके से तार निकाल कर उसे कहीं खपा देना
चाहते थे।
मुझे चाचा की चालाकी समझ में आ
गई। वे चाहते थे कि तार को रात में निकाल कर बेच दिया जाय और किसी को पता न चले।
वे उससे भी कुछ कमाई कर लेना चाहते थे।मैंने उन्हें ढाढस बंधाया और हर संभव सहयोग
करने का जिम्मा लिया तब जाकर मजदूर कुंवे में उतरे मगर उनके
चेहरे अब भी सहमे से थे।तारको रस्सी से बांध कर बडी मुश्किल से बाहर निकाला गया। उसका वजन एक क्वींटल से
कम नहीं होगा।
जब तार बाहर आ गया तो चाचा ने पूछा
इसका क्या होगा?
पुलिस को खबर कर देते है?
तार बाहर निकालने के बाद एक
हड्डी निकल आई पैर की। सब अनुमान करने लगे कि पैर की हड्डी निकली है तो और
हड्डियां होगी। सभी अनुमान लगाने कि यह किसकी हो सकती है। एक प्लास्टिक की बोरी से मजदूर का हाथ टकराया। बोरी को बाहर निकाल खोला गया तो उसमें से दो देशी कट्टे निकल आए।
मजदूरों के दो पहर के खाने का वक्त था । वे बाहर
निकल आए थे। उड़ाह के लिए जो उत्साह उपेक्षित था उसकी जगह अब भय भरी मुर्दनी छा गई
थी। उपस्थित लोगों ने जैसे मौन व्रत
ले लिया था। उनके चेहरे पर कोई और चेहरा चिपक
गया था।मुझे याद आ रहा था पच्चीस वर्ष
पहले कुंवे का उड़ाह, बच्ची की छागल, पूजा की लोटकी और गेंद। मैं समझ ही
नही पा रहा था कि यह क्या हो रहा है, तभी मैने देखा
कि चाचा मजदूर और वहां खडे सभी तेजी से एक ओर भागे जा रहे है।इसके पहले कि मै जान
पाता कि मेरी निगाह सडक पर गई और मैने देखा कि एक जीप खडी है और एक हवलदार दो
सिपाहियों के संग तेजी से भागता हुआ कुंवे की ओर आ रहा है।
४
तेज कदमों से चलता जब मैं घर
पहुंचा तो भीतर से बाहर तक लोगों की भीड लगी थी और बाहर पुलिस की एक जीप खडी थी।
मेरे कदम और तेज हो गए। मुझे आता देख भीड ने मुझे रास्ता दिया और बरामदे में पहुंच
कर तो मेरे रोंगटे खडे हो गए।
पिताजी के सामने कुर्सी पर एक
तोदियल दरोगा बैठा हुआ था और पिताजी का चेहरा सहमा हुआ था।मुझे आया देख पिताजी की
आंख भर आई। मुझे गुस्सा आया मगर मैं चुप रहा ताकि हालात का जायजा ले सकूं। क्या
करना है यह निर्णय लेना मेरे लिए जरूरी था।
मुझे आया देख पिताजी फ़ूट पडे और
रोने लगे।
अब तक का बेदाग पिताजी का जीवन
एक बारगी इलाके के चोरो का सरगना होने के आरोप से बिंध गया था और वे अपने आपको
बेबस महसूस कर रह रहे थे। पिताजी का चेहरा देख मुझे गुस्सा आ गया और मन हुआ कि
दरोगा का कालर पकडूं और तमाचे जड दूं। मगर यह धीरज से काम लेने का वक्त था। कोई भी
जल्द बाजी बना हुआ काम बिगाड सकती थी।
मैने दरोगा से पूछा- क्या बात है
दरोगा जी
दरोगा अब तक जान चुका था कि मैं ही उनका बडा बेटा हूं। शहर में रहता हूं और मेरी कमाई ठीक ठाक है और मामले को रफ़ा दफ़ा करने के एवज में अच्छी वसूली हो सकती है।उसने उसी लहजे में कहा-
दरोगा अब तक जान चुका था कि मैं ही उनका बडा बेटा हूं। शहर में रहता हूं और मेरी कमाई ठीक ठाक है और मामले को रफ़ा दफ़ा करने के एवज में अच्छी वसूली हो सकती है।उसने उसी लहजे में कहा-
बात यहां नहीं थाने पर चलने के
बाद होगी।
कह कर जिस तरह मुस्कराया,मैं गुस्से में भर गया।
मन हुआ कि कहूं तुम्हारा थाना
विश्वनाथ मंदिर है? मगर चुप रह गया। पिछले साल गांव आते ही
मुझे पता चला था कि नाकट चाचा का लडका रजिन्दर गांव आया था और बाहर का अपना दलान
बनवाना चाहता था। अचानक पुलिस आई और घर में तलाशी लेते समय गांजा रख दिया और पूरे
बीस हजार रूपए लेकर छोडा था। आज तक वह दालान नही बन सकी।
तभी मुखिया जी आ गए। दरअसल मेरा
पंचायत महिलाओं के लिए आरक्षित हो गया था।मुखिया का चुनाव उनकी पत्नी ने जीता था
मगर उसका सारा काम वहीं करते थे और मुखिया भी कहलाते थे। उनकी पत्नी को लोग
मुखियाईन कहते थे। आने के बाद उन्होंने इस तरह नाटक किया जैसे उन्हें कुछ नहीं पता
हो। वे पहले दरोगा के पास गए और जानने की कोशिश करते रहे कि बात क्या है।दरोगा से
बात करने के बाद पिताजी से बात किया और पिताजी ने जब सब कुछ मुझ पर छोड दिया तो
मुझे किनारे ले गए ।
एक मंजे हुए खिलाडी की तरह पहले
तो उन्होने मेरा हाल चाल पूछा फ़िर पुलिस और प्रशासन की आलोचना कर समझाने लगे कि
कुछ ले देकर मामला सलटा लिया जाय। विजली का तार पाईप गन और हड्डी भी निकली है।
आर्म्स एक्ट भी लगा कर उलझा देगा। जितनी बेईज्जती होनी थी हो गई अब सजा से बचना
चाहिए। उन्होने यह भी समझाया कि आज कल थानों में चुन चुन कर बैकवर्ड दरोगा की
पोस्टिग हुई है ताकि वे फ़ारवर्ड लोगों को परेशान कर सके। अंत में अहसान करने के
अंदाज में यह भी कहा कोई और होता या किसी और के घर की बात होती तो मै आता ही नहीं, चूकि हमारे पारिवारिक संबंध गहरे है इसलिए आ गया । आप कहिए
तो मैं दरोगा से बात करू?
हमारे बीच बात चल ही रही थी और
अभी किसी निर्णय तक नहीं पहुंची थी कि मेरे पिताजी आ गए और दुबारा फ़फ़क कर रोने
लगे। उनके भीतर अब यह अपराध बोध गहरा हो गया था कि अगर उन्होने कुंवे के उडाह के
लिए नही कहा होता या मेरी बात मान ली होती तो यह संकट नहीं आता।पिताजी बुरी तरह
टूट चुके थे। उन्होने मुझसे कहा कि मेरे पास अगर पैसे न हो तो भी मैं चिन्ता नहीं
करूं और मुखिया जी के साथ मिलकर दरोगा से बात चीत कर मामले को निपटा लूं। बेईज्जती
तो हो गई है घर की । किस्मत में यह दिन भी देखना लिखा था ,औरतो
के बीच घर में भीतर घुस कर पुलिस तलाशी ले रही है।
तलाशी?
हां वे लोग घर के भीतर जाकर
तलाशी ले रहे है। बात कर लो बेटा ,मुखिया जी है
तो कुछ कम भी करवा देंगे।थाने पर जाने के बाद उ किसी की नही सुनेगा।
मैं समझ गया कि मेरे आने से पहले
मुखिया जी पिताजी से बात कर चुके है अब उस पर बस मेरी स्वीकृति की मुहर लगनी है।
मगर घर में पुलिसवाले तलाशी ले रहे है सुन कर मैं आपे से बाहर हो गया था।बिना एक
शब्द बोले मैं तेजी से घर में समा गया।
आंगन में मेरी मां खडी थी। उसके
पीछे सहमी सी मेरी बहन और मेरी पत्नी खडी थी। घर के भीतर तीन सिपाही थे। कभी समान
हटाने के लिए और कभी बक्सा खोलने के लिए कहते। मैं अन्दर आया और मोबाईल से उनकी
तस्वीरे खीचने लगा। तस्वीरे खींचते देख सिपाही सहम गए।
उनमे से एक ने कहा-क्या कर रहे
हो
वहीं जो तुम कर रहे हो, कोर्ट में सबूत चाहिए न
और उसके बाद मैने गुस्से में
कहा-चल अब बाहर निकल यहां से
मेरा यह रूख देख मेरी मां बहन और
पत्नी डर गई। मेरी तेज आवाज सुन बाहर से मुखिया जी और पिताजी और गांव के कई लोग आ
गए और यह जान लेने के बाद कि मै उन्हें भगा रहा हूं, मुझे
ही समझाने की कोशिश करने लगे। उनको समझाता देख सिपाहियो का मनोबल बढ गया।
उसमे एक ने कहा-कहते है कि पढे
लिखे है इनको तो बात करते की तमीज नहीं है
मैने समझा रहे लोगो को झटक कर
कहा- तमीज देखेगा, पहले चल बाहर निकल
ऎसे क्यो बोलता है
कह कर एक ने आंखे तरेरी तो अनयास
ही मेरे मुंह से गाली निकल गई- बाहर निकलता है मादर जात कि नही...
गाली सुन उनमें से एक तैश में आ
गया-गाली दे रहे हो
अभी मारूंगा स्साले। मैं भी
कानून जानता हूं
मेरी इस बात का उन पर अच्छा
प्रभाव हुआ और वे तमतमा कर बाहर निकलने लगे।उनके जाने के बाद पिताजी ने मेरे पैर
पकड लिए और कहा-
आग सांप और पुलिस से डरना चाहिए
बेटा। सांप के बिल में हाथ मत डालो।
मैने पिताजी को समझाया आप चिन्ता
मत कीजिए । बक्सर के डी एस पी मेरे दोस्त है। मैं इनको इनकी औकात बता दूंगा।
मेरी बात सुन पिताजी के चेहरे की
रंगत बदल गई और मुखिया जी का चेहरा उतर गया।
बाहर निकला तो सिपाही सारा वाकया
दरोगा को बता चुके थे और वह सांप की तरह फ़न निकाले मेरे इंतजार में खडा था।जब मैं
उसके सामने आया तो गुस्से में कहा
हीरो बनते हो।
मुझे अपने किसी दोस्त की बात याद
आई कि पुलिस महकमे में आदमी होने की शुरूआत डी एस पी से होती है। डी एस पी के नीचे
विनम्रता वश किसी पुलिस वाले को आप नही कहना चाहिए।तभी न जाने कहां से कामता चाचा
आ गए और कहने लगे-
बनता नहीं है. हीरो है।
उनकी बात सुन गांव के लोग इस तरह
हंस पडे जैसे उनका मजाक उडा रहे हो।मेरा मूड अभी भी गरम था और आज दरोगा से निपट
लेना चाहता था।
मैने उसी अंदाज में कहा-पहले
सर्च वारंट दिखा, बाद में मैं दिखाऊंगा कि हीरो हूं या
क्या हूं
एक पल में दरोगा समझ गया कि यहां
उसकी दाल गलने वाली नही है ।
उसने तुरत साथ आए एक सिपाही से
कहा- जीप मे से कागज लाकर सर्च वारंट बना तो...
यह सुनने के बाद मेरे मुंह से
जाने कैसे गालियां ही गालियां निकलती चली गई। मुझे याद नहीं कि मैने जीवन में कभी
किसी को इतनी गालिया दी हो। तुम्हारे पास सर्च वारंट नहीं है,तुम्हारे पास महिला कांस्टेबल नहीं है, तुमने तलाशी के पहले घर के मालिक से परमिशन नहीं लिया। क्या
समझते हो अपने आप को। मैं तुमको जेल भिजवाऊंगा...जैसे जैसे मैं बोल रहा था कामता
चाचा भी उसमे अपना सुर मिलाते बोल रहे थे । जाने कहां से उनके भीतर ताकत आ गई थी
।लेकिन उनको कोई सुन नहीं रहा था।
गांव के कई लोग जो कुछ और तमाशा
देखने आए थे मगर यहां कुछ और दिख रहा था।
मुखिया जी के बीच बचाव और यह बता
देने के बाद भी कि ये डी एस पी के मित्र है दरोगा कुछ देर अपनी अकड दिखाता रहा और
फ़िर बचने का रास्ता खोजने लगा और अंत में वापस चला गया।इस घटना के बाद कामता चाचा
और पिताजी के चेहरे पर गर्व था कि बेटा हो तो ऎसा।
गांव के लोगों के बीच चर्चा थी
कि चाहे जो हो जाय दरोगवा छोडेगा नहीं। जब यहां से चले जाऎंगे तो किसी न किसी
मामले में जरूर फ़ंसाएगा।और मैं कुवे की जगत पर खड़ा सोच रहा था
कि अगर यहां का डी एस पी सचमुच मेरा मित्र नहीं होता तो क्या मैं इस तरह विरोध कर
पाता?
रहस्यमय होते जाते कुंवे के तलों पर मैंने अपनी आंख गड़ा
दी।
मुझे लगा कि मैं कुंवे में नहीं अपने गांव में झांक रहा
हूं और मटमैले कीचड में मुझे तमाम चेहरे साफ़ साफ़ दिखाई दे रहे है। पीछे खडे पिताजी
ने मेरे कंधो पर हाथ रखा और धीरे से कहा- बेटा क्या सोच रहे हो
कल दूसरे मजदूरों की तलाश करूंगा
नही, अब भरवा दो इसे।
मैंने चौंक कर पिताजी को देखा।
ये आप कह रहे है
हां बेटा, आज मैं तुम्हारी बात मान गया। मेरा और अपनी मम्मी का भी
टिकट करवा देना। गांव का एक और घर खंडहर हो जाएगा।कहते हुए पिताजी की आंख भर आइ थी
और मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि यह बात पिताजी कह रहे है।
शायद कोई और था जो समा गया था उनके भीतर...?
निलय उपाध्याय
सुपरिचित
कवि
इस समय मुंबई में रहते हैं
Bilkul Badhiya Rahal.
जवाब देंहटाएंकहानी उडाह पसंद आई ..स्कूल से लौटते ही उडाह को दौड़ चलना ..मेरे लिए ये नितांत नया परिवेश था ..सच कहूँ तो नगर जीवन से भी मेरा ठीक-ठाक सा परिचय नहीं ..फिर ये कहानी तो मुझे ऐसे परिसर में ले गई जिसे पास से देखने की इच्छा लिए आधी से अधिक जिन्दगी निकल गई .अच्छी कहानी के लिए रामजी का अभार. सिताब आप खूब लगन से चला रहे हैं .बधाई आपको .
जवाब देंहटाएंek kuan kis tarah kitne rahsy uleech deta hai.. aur hamari parmpraayen sirf dikhave ke liye hee bachi hain.. nilayji ki kvitaon me gaanv kee chhaap saaf dhadkti hai.. kahaani me bhi hai.. kahaani me gaanv ke parivesh ko bakhoobhi ukera hai unhone.. bahut achhi lagi kahani
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