शुक्रवार, 17 मई 2013

नीलम शर्मा की कवितायें


           


                       नीलम शर्मा
    

     सिताब दियारा ब्लॉग प्रत्येक नयी संभावना का स्वागत करता है .....
                 
        इसी कड़ी में प्रस्तुत हैं आज नीलम शर्मा की कवितायें


1 ….


कैसे जी लेते हो यूँ नीलकंठ बन के तुम ?
एक बार उगल दो ये सारा ज़हर .....
 क्या हुआ जो बसंत नीला हो जायेगा !!!
और सुनो ,
मेरे लिए मौसमों की फेहरिस्त 
इतनी लम्बी नहीं-
पतझड़ के बाद कोई मौसम 
आता ही नहीं .......!


2 ….

चलो एक बार फिर वहीँ लौट जाएँ 
जहाँ से रोज़ एक मुस्कराहट को 
दफ़न करने के सिलसिले शुरू हुए थे 
यूँ न हो कि तमाम उदासियाँ 
एक अधूरी नज़्म के ख्याल भर से 
खिल उठें .....
चलो लौट जाएँ उस अनकही कहानी की गोद में 
जिसके तमाम शब्द
 तितर बितर होने से पहले 
मेरे आँचल  में मुंह छिपा कर 
उसके अंत की आहट पर हँसे थे ....
या फिर गुम  हो जाएँ उसी अजनबी मोड़ पे 
जिसके दोनों तरफ लगे, राह बतलाते तीर 
तुमने अपनी ओर घुमा के कहा था 
कि मेरी हर राह सिर्फ तुम तक पहुँचती है ...
लौटना चाहो तो वो मंदिर भी वहीँ है 
जहाँ बरसते पानी की इबारत 
अब भी बिना पढ़े 
समझ ली जाती है ....
ये सब न हो सके तो 
मेरी कविता के आखिरी शब्दों में भी 
लौट सकते हो 
जिनका अर्थ सिर्फ तुम्हारी मौजूदगी में ही 
अपना सा लगता है ......


3 ….


जब सन्नाटों की चीखें गूंगी हो जाएँ 
और खामोशियों की खेती करने का ख्याल सर उठाये ,
तब तक सहेजी हुई स्मृतियों का गीलापन 
बार बार कडवे अहसासों को भिगोकर 
अंकुरित कर देता है ...
और तमाम ख्यालों के हकीकत बनने तक 
मौन की फसल लहलहा उठती है---!
          
उस आग के बारे में मत सोचो 
न ही उस राख की बातें करो 
जो कविता की तपिश को बाहर लाने की बजाय 
भीतर ही भीतर सुलगता छोड़ देती है 
और चंद फुहारों के इंतजार में 
वह खुद को अर्थहीन बना देती है .....!
ऐसी बेमकसद कविताओं के गूंगेपन पर 
कोई शर्मिंदा नहीं होता -
न ही किसी कविता को 
एक खूबसूरत ग़ज़ल में तब्दील करने के लिए 
अक्षरों को सहलाना, मनाना ज़रूरी होता है !

मैं जानती हूँ 
उन ढेर सारे  रंगों से मेरा अब कोई वास्ता नहीं 
जिनके लिए हमेशा मेरी बिंदिया मुस्कराती थी ....
रंगों का खुद में सिमट कर 
एक पीला मटमैला सा असर डालना 
मेरी तबियत को अब 
ज्यादा हरा कर देता है ......


4 ….

सारी संवेदनाओं को तिलांजलि दे 
जब कविता काठ हो जाती है ,
तब भी बेहतर होती है वह 
उन तमाम बेतरतीब खूंटों से 
जो शब्द उगा पाने में नाकामयाब होकर 
बस ,यूँ ही उठ खड़े होते हैं जहाँ तहां 
चाह और आह की जुगाली करने --
   यकीन मानो 
   कविता का मुस्कराना 
  कभी कभी उतना मायने नहीं रखता 
   जितना सन्नाटों को चुप्पा देने वाली 
   उसकी आखिरी सांसों का चढ़ना उतरना -
   जिसमें घुली हुई धुंए और राख की गंध 
   अब भी इशारा करती है 
    कि सब कुछ तबाह होने और ना होने के बीच 
    सिर्फ तुम्हारे क़दमों का यूँ बेआवाज़
    निशां छोड़ देना 
    उसे उसकी मंजिल की राहों का 
    एक नया पता देना भर है.....!


5 ….

अच्छा किया जो एक नदी के 

रेगिस्तान बनने तक ठहरे नहीं तुम -

ना जाने कैसे टांग पाती

तुम्हारी याद की एक-एक मछली को मैं 

आसमान से लटकती

तमाम  उम्मीदों के सहारे ....!

जानती हूँ-
 
मैं तुम्हारा बीता हुआ कल हूँ 

जिस पर तकलीफों की बेरहम धूल डाल 

तुम आगे बढ़ चुके हो 

बिना ये जाने 

कि संवेदनाओं की एक बूँद के 

गिर जाने भर से 

उग पड़ेंगे उस धूल में 

अब सिर्फ ---

यादों के कैक्टस .



6 ….


यादों की तलहटी से परावर्तित होकर 
अब मेरी आवाज़ अक्सर 
मुझ तक ही वापस पहुँच जाती है ....
शायद तुम्हें पीछे मुड़ कर देखने की 
आदत नहीं रही 
और मैं .....
कभी तुमसे आगे निकल न पाई !

तुम अब भी 
मुलाकातों के मुलम्मे चढ़ी यादों में 
बसर करते हो 
जबकि मेरे लिए 
तमाम उम्र का इंतजार भी काफी नहीं 
बसयूँ  ही तो 
कविताओं की बस्तियां उजडती हैं ---

रिश्तों का सौंधा कच्चापन छोड़ कर 
तुम्हें तब्दीलियों का पथरीलापन 
रास आने लगा है -
फिर भी मुझ में बस रहे 'तुम' को मैंने 
तल्खियों की धूप  से बचा रखा है .....
तुम जानते हो ना 
पाँवों के निशान हमेशा 
पगडंडियों पर ही उभरते है 
कोलतार की सड़कों पर नहीं ??


7 ….

जब जब भी समेटनी चाही 

तुम्हारी तोहमतों की बारिश ,

कामयाब होने की कोशिश में 

अक्सर बिखर जाती हूँ ....

ज़रा परे सरका दो तमाम वहमों को 

मान -अपमान की हर फब्ती को 

नकारने वाली मेरी आवाज़ 

उनमें दब के रह गयी है .

निगाहें उलझ के रह जाती हैं 

तुम्हारे बेतरतीब से बालों में 

और आँखों का पनीलापन

नज़रें चुरा लेता है ...

क्यूँ हलकी सी खरोंच को कुरेद कर

यूँ ही छोड़ देते हो

और ज़ख्मों की गिनती

बेवज़ह बढ़ जाती है .?

अब छोड़ दो यूँ तल्खियों में जीना

ज़रा याद करके बताना कि -

क्या अब भी बाकी है

मेरी हथेलियों में बसी साँसें

तुम्हारे कंधे पे ??

जहाँ दम तोड़ने से पहले

हाथ ज़रा सा टिक गया था .....




परिचय ..

नीलम शर्मा
अध्यापन कार्य 
स्थान उदयपुर , राजस्थान 









8 टिप्‍पणियां:

  1. बीते प्रेम की यादों और दिल को दिलासा देने के लिए किये उपायों पर संवेदनशील कवितायेँ.सम्पूर्ण अभिव्यक्ति नैसर्गिक लगती है.कविता को बिम्ब बनाकर नया प्रयोग.कविता का स्वरूप और स्वभाव बदलती मनोस्थिति से मेल खाता है.

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  2. बीते प्रेम की यादों और दिल को दिलासा देने के लिए किये उपायों पर संवेदनशील कवितायेँ.सम्पूर्ण अभिव्यक्ति नैसर्गिक लगती है.कविता को बिम्ब बनाकर नया प्रयोग.कविता का स्वरूप और स्वभाव बदलती मनोस्थिति से मेल खाता है.

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  3. स्वागत है .............अब आयेगा आपकी कवितायेँ पढने का मजा .

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  4. Behtareen Kavitayein Neelam ji, sundar shabd chayan, sundar abhivyakti. Kavita ke kaath ho jaane ki baat bahut umda kahi aapne, jab wah mehsoosna chod de, shaktimatt ho.kai kavitayein badhiya, maun ka fasal ugane, shanti ki himayat karne wali kavitayein laajawab.

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  5. bahut hi sundar kavitao ka sankalan hai neelam ..bahut bahut badhai..

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  6. बेनामी9:39 pm, मई 18, 2013

    लाजवाब कविताएं हैं ये... उर्दू नज्‍़मों जैसी रवानी लिए सीधे दिल में उतरती चली जाती हैं... नीलम जी को बधाई और शुभकामनाएं। * पीयूष *

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    1. बेनामी2:57 pm, मई 19, 2013

      सराहना के लिए ह्रदय से आभार सभी का ….

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