पंकज मिश्र
पंकज मिश्र की कुछ कवितायें मैंने
फेसबुक पर पढ़ी हैं , और जहाँ तक याद आ रहा है , एक बार ‘असुविधा’ ब्लॉग पर भी | वे
कम लिखते हैं , और उससे भी कम छपना चाहते हैं | सिताब दियारा ब्लॉग यह दोनों नहीं
चाहता | मुझे लगता है , कि इन कविताओं को पढने के बाद आप भी शायद यही राय रखेंगे |
इनकी कविताओं में रिश्ते कुछ इस तरह से आते हैं , जैसे उन्हें जीवन में भी आना चाहिए
| इस तरह से नहीं , जैसे कि वे आजकल कार्य-व्यापार की तरह निभाये जाने लगे हैं |
तो
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर ‘पंकज
मिश्र’ की तीन कवितायें
एक .....
माँ
माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है
पार इस के
कोई कहाँ जा पाता है
मैं आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां तुम होगी
और मैं
खुल कर बातें करेंगे
जैसे बात करती है
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......
माँ
देखना है
तुम्हारा घूंघट
तुम्हारा वास्तव
शाश्वत छवि उलट
जानना है
किस धातु का बना है
तुम्हारा कंगन ,तुम्हारा बिछुवा
तुम्हारे सारे आभूषण
तुम्हारे स्वेद अश्रु के सान्द्र
विलयन में
सब घुलता आया है अद्यतन
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
तब इतनी
अघुलन शील क्यों
अपने स्त्री रूप में ...
क्यों नहीं घुल पाती
इस खारे विलयन में
क्यों फांस सी अटक जाती हूँ
तुम्हारे मन में
त्याग और ममता का आवरण भी
अब तो अक्सर
उतर जाता है
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक
चेहरा नज़र आता है
तुम्हारी अँगुलियों के नाखून भी
कितने बड़े हैं
मेरे कलेजे पे भी तो
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने
फिर मुझे सौंप रही हो
इस बोझ को ढोना नहीं चाहती
अब और रोना नहीं चाहती
किन युगों में
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक
क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया
जिसका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है
मैं
उस शास्त्र को
उन शास्त्रियों को
प्रणाम करना चाहती हूँ
और उनकी इजादों को भी
अंतिम प्रणाम ......
मैं,
आ रही हूँ.. माँ
तुम्हारे कंगन उतार
कुहासे से पार
जा रही हूँ .......माँ
दो ....
मैं, तुम्हारा
बाप हूँ
हाँ
,तो ....?
मैंने, तुम्हे
पैदा किया है
जानता
हूँ ,तो...?
मैंने, तुम्हे
पाला पोसा,बड़ा किया है
सच
है ,तो.....?
बुढ़ापे
में,
मैं और तुम्हारी माँ
कहाँ
जायेंगे ,कैसे रहेंगे
क्या, इसी
दिन के लिए,
तुम्हे, पैदा
किया
पाला
...पोसा.....बड़ा किया
शायद...
मतलब
?
मतलब
कि,
आप
यही रहेंगे
कही
नहीं जायेंगे
मैं
भी यही रहूँगा ,
आपके
साथ
आप
भी यही रहेंगे ,
मेरे
साथ
मैं
,
ये
इसलिए नहीं कह रहा
कि,आपने वो
सब किया
जो
एक बाप को करना चाहिए
कि, ये कोई
क़र्ज़ है
जो
उतरना चाहिए
कि
ये कोई एहसान है
जिसके
बोझ तले
मैं
दबा हूँ,
जिससे
निकलना चाहिए
मुझे
तो,
ये करना ही है
कि, ये
मेरे लिए
इंसानियत
कि शर्त है
कि,ये कोई
सौदा नहीं है
और
न
ही कोई उधारी......
सिर्फ, इंसानियत
....!
कंपकपाया,पिता का
स्वर यन्त्र
सिर्फ, इंसानियत
....!
कंठ
से फूटा हो जैसे मंत्र
सिर्फ, इंसानियत
....!
मैंने
सर उठाया
पिता
के नेत्रों से
झर
रहा,
ज्यों मंत्र
- निर्झर
झर
झर झर
झर
झर झर
काल
कुंठित, प्रौढ़ प्रेत से,
पिता लगे
संबंधों
के निर्वात से झांकते, पिता लगे
निष्प्राण
निर्वासन झेलता
बरस
बीता ,दशक बीता
आज
भी ,उसी प्रेत बाधा से ग्रस्त
जीवन
जी रहा
मिला
पाता आँख
न,अपने आप
से
न, अपने ही
सद्यः जात से
कदाचित, मिल ही
गयीं कभी
देखता
हूँ,
ज्यों
काल
कुंठित प्रौढ़ प्रेत का
वो
मंत्र--निर्झर झर रहा है
और
मेरे भीतर कोई बाप
धीरे
धीरे मर रहा है ....
तीन
एक
वक्ती सच मात्र होता है
किसी
का कहीं होना
या
फिर
कही
चले जाना,
फिर
भी
कभी
-कभी
किसी
के जाने के बाद भी
बाकी
रह जाती है खुश्क हवाओं में
उसके
अहसास की नमी
ठन्डे
जिस्म के गिर्द
उसके
आगोश कि गर्मी
दूर
तक ,रहती है
सूनी
,सर्द ,स्याह रातों में
लिहाफ
के भीतर
दबे
पाँव आकर
देर
तक ,कुछ कहती है
कैसे
और कब
बनता
जाता है
ऐसा
रिश्ता
रिश्ता
,
जो
फितरतन होता है
किसी
बेवफा माशूक कि तरह
और
फिसल सकता है
बंद
मुट्ठी से
रेत
की तरह
रिश्ता
,
जो
किसी के चाहने भर से ही
बन
तो नही सकता
हाँ
!
टूट
जरूर सकता है
किसी
के चाहने भर से ही |
इन
बेवफा ,बेमुरव्वत,रिश्तों
के दौर में
कोई
क्यों ??
जाने
के बाद भी
कभी
पूरा नहीं जाता
क्यों
थोड़ा वहीँ रह जाता है
जिस्म
के भीतर
कोई
काँटा
जैसे
टूट
जाए
और
दर्द
रह जाए |
ये
, कैसा रिश्ता तुम से है
कौन
हो तुम ?
मेरी
धमनियों में
रक्त
कि तरह
क्यूँ
बहते हो ?
मेरे
अशक्त फेफड़ों में
ये
सांस सा
क्या
भरते हो ?
मेरी
नींदों में
खवाब
सा
मेरे
गीतों में
राग
सा
मेरे
अंधेरों में
उजास
सा
क्या
रचते हो ??
परिचय और संपर्क
पंकज मिश्र
वाम
छात्र आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी
फिलहाल
गोरखपुर में रहते हैं
संबंधों के तीन महत्वपूर्ण सिरों को बहुत आत्मीयता से देखने वाली कविताएं... पिता वाली कविता तो सच में हिला देती है... बधाई पंकज जी... शुक्रिया रामजी...
जवाब देंहटाएंमाता, पिता के रिश्ते और रूमानी अहसास को व्यक्त करने वाली मन को छूने वाली कवितायेँ.सीधे सहज लहजे में गहरी बातें कही गयी है.
जवाब देंहटाएंपंकज का लेखन मुझे आरम्भ से ही पसन्द है.यह कवितायें मै पहले पढ़ चुका हूँ और इनकी प्रशंसा भी की है. आज इनको एक साथ पढ़ कर अधिक आनंद आया. पंकज को पुनः बधाई और रामजी भाई को उन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंमानवीय रिश्तों को सही और सधी दृष्टि से पारिभाषित करती हैं ये कवितायेँ । पंकज जी को बधाई और रामजी का इस प्रस्तुति के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंbahut asar daalti hain teeno kavitaaye'n...,pankaj ji ke is roop se parichit hona bahut bhaya....
जवाब देंहटाएंbahut achchhi kavitayen. Pankaj sir gazab!! Badhaiyan!
जवाब देंहटाएंबेहदसंवेदन शील .....महीन बुनाई को धीरे संभलकर उधेड़ती ...सार्थक कवितायें ...".माँ " बहुत पसंद आई ....बधाई पंकज सर को !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कवितायें पंकज जी...खासकर 'माँ' वाली तो बहुत ही अच्छी लगी मुझे....यूं ही पढ़वाते रहिए...बधाई आपको और धन्यवाद सिताब दियारा ....
जवाब देंहटाएंसुनीता
बहुत अच्छी लगीं सभी कविताएँ !
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