मंगलवार, 31 जनवरी 2012

यह क्रिकेट और बाजार की हार है , देश की नहीं....|



वे जब भी क्रिकेट -क्रिकेट चिल्लाते हैं
हमें देश-देश क्यों सुनाई देता है ..?

एक कवि-मित्र की इन पंक्तियों से अपनी बात आरम्भ करना चाहता हूँ | कल भारत -आस्ट्रेलिया टेस्ट श्रृंखला अपने चिर -परिचित परिणाम के साथ समाप्त हो गई | देश के क्रिकेट प्रेमियों का दिल टूटा हुआ है | उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा |टी.वी.चैनलों पर थोक के भाव मौजूद क्रिकेट-विश्लेषकों के होठों पर फेफरी पड़ी हुयी है | चेहरे पर उडती हवाईयों के मध्य चट्टी-चौराहों ,गलियों-बाजारों और  स्कूलों-कार्यालयों सहित क्रिकेट प्रेमियों के बीच हर कहीं उदासी पसरी हुयी है | इतनी महत्वपूर्ण श्रृंखला के चलते होने के बावजूद भी कोई किसी से क्रिकेट पर बात नहीं करना चाहता | अगल-बगल से वे टीम के घुटने टेक प्रदर्शन की जानकारियां तो लेते हैं , लेकिन जैसे ही कोई उस पर बात करने की कोशिश करता है , वे मुँह फेरते हुए उसे चुप करा देते हैं | उनका दुःख इतना भारी है कि वे उसकी तरफ देख कर ही दहल जाते हैं कि मैं इसे कैसे उठाऊंगा | ऐसी घड़ी में मैं उन सबका दिल नहीं दुखाना चाहता | हम सब जानते हैं कि खेल में अच्छा और बुरा दौर आता रहता है और दुनिया में कोई भी टीम ऐसी नहीं रही , जिसने उतार -चढाव नहीं देखा हो | वर्ष 2011 में इसी टीम ने जब विश्व कप क्रिकेट का ख़िताब जीता था, तब रात के ग्यारह बजे की आतिशबाजी और जश्न ने पुरे देश को सराबोर कर दिया था | हम उन अच्छे दिनों में भी टीम के साथ थे और आज भी उनके साथ खड़े होना चाहते हैं  ,लेकिन मन में कुछ ऐसे सवाल तो उठ ही रहे है, जिसे इस देश के खेल-प्रेमियों की तरफ से मैं अपनी टीम से पूछना चाहता हूँ | कि क्या यह प्रेम और समर्थन एकतरफा ही चलता रहेगा ? क्या इस टीम की यह जिम्मेदारी नहीं कि वह अपने अच्छे दिनों में हम आम देशवासियों का साथ दे ?                                                               
                  
                      आज हमसे कहा जाता है कि टीम के इस बुरे दौर में उन्हें हमारे समर्थन की सख्त आवश्यकता है , तो हमें यह सवाल उनसे नहीं पूछना चाहिए कि अपने अच्छे दौर में वे क्यों माल्या , अम्बानी ,  जिंटा , और खान जैसे बाजीगरों के पताकों को थामे घूमने लगते  हैं ? महान लेखक तोलस्ताय के इस सवाल के तर्ज पर कि "एक आदमी को आखिर कितनी जमीन चाहिए ?" , उनसे यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि एक आदमी को आखिर कितना पैसा चाहिए ? | बी.सी.सी.आई. द्वारा प्रति वर्ष लाखों-करोड़ों देने के बाद भी उन्हें इस देश की बृहत्तर जनता के हित में अनैतिक प्रचारो से अपने आप को नहीं हटा लेना चाहिए ? क्या वे यह नहीं जानते कि कोक और पेप्सी सरीखे उत्पाद  इस देश को बर्बाद करते जा रहे हैं | जब हम उन्हें प्यार से पलकों पर बिठाते है, तब वे हमारे जेब की बची-खुची चवन्नी को भी हमसे छीनकर कारपोरेट घरानों की तिजोरियों में क्यों जमा कर आते हैं ? वे प्रत्येक जीत के बाद आतताईयों के कंधे पर सवार होकर हमें ही रौंदने पर क्यों उतारू हो जाते हैं ? क्या उस जीत के समय वे हमारे साथ खड़े नहीं हो सकते , जिस तरह आज हमसे अपनी हार पर साथ खड़े होने की अपील कर रहे हैं....?.. 

                           क्रिकेट दरअसल आज सिर्फ एक खेल नहीं रह गया है | वह एक बाजार है , जिसे हमारे दौर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां नियंत्रित और संचालित करती हैं | वह एक ऐसा सुरसा बन गया है ,जो न सिर्फ अन्य सारे खेलों को लीलता चला जा रहा है, वरन उसके निशाने पर इस देश का मेहनतकश अवाम भी है , जो अपनी गाढ़ी कमाई से आज किसी तरह अपना जीवन यापन कर रहा  है | इसलिए आज जब वे मुंह के बल गिरे हैं , तो हम क्यों नहीं माने कि हमारे जेब की चवन्नी सलामत बच गई...? हमारे इसी देश में फुटबाल, हाकी, तैराकी , बालीबाल, बास्केटबाल, तीरंदाजी ,कबड्डी और एथेलेटिक्स अन्य खेलों की कभी धूम हुआ करती थी | इन्हें  शारीरिक और मानसिक विकास के साथ–साथ स्वस्थ प्रतियोगितात्मक वातावरण के लिए आवश्यक माना जाता था | ये बहुरंगी खेल हमारी सतरंगी सामाजिक विरासत के प्रतीक भी हुआ करते थे | आज क्रिकेट के इस बाजार ने खेल के स्तर पर इस देश को भी एकरंगी और पैसा कमाने के बाजार के रूप में तब्दील कर दिया है | क्रिकेट संघों पर वे लोग काबिज हैं , जो क्रिकेट छोड़ दूसरा ही खेल खेलने के माहिर हैं | वे इस खेल को मैदान के भीतर नहीं , वरन बाहर खेल रहे हैं , जिसे  समझने के लिए सिर्फ क्रिकेट विशेषज्ञ होना पर्याप्त नहीं है | उन सबके लिए यह कामधेनु गाय बन गया है , जिसका वे दूध ही नहीं , वरन खून भी चूस लेना चाहते हैं | वे देश के लिए जब खेलते ही नहीं तो देश से समर्थन किसलिए माँग रहे हैं | देश हार तो बर्दाश्त कर सकता है , बशर्ते उसके लिए कोई खेले तो ...|

                           सो , मित्रों ...! इस हार को दिल से मत लगाईये .....यह हमारे और आपके दुखी होने का समय नहीं है ..|यह समय है उन लोगो के मुँह के बल गिरने का , जिनके लिए ये सितारे अश्वमेधी घोड़े बने हुए हैं | आज खेल नहीं , उसका बाज़ार हारा है |  इसलिए देश को नहीं , उसके बाजार को ही दुखी भी होना चाहिए ...|.....फिर भी आप उन्हें चाहें तो समर्थन दे सकते हैं | बस उन सितारों से इतना पूछ लीजियेगा , कि अपने अच्छे दिनों में वे आपका साथ देंगे या बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेट घरानों का ..?....

                                             

                                       रामजी तिवारी
                                              
                                          


रविवार, 15 जनवरी 2012

जिसकी मीडिया -उसका लोक ...............




दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका "रचना-क्रम" का "मीडिया और लोक" केंद्रित अंक प्रकाशित हुआ है | इसी पत्रिका में छपा मेरा यह लेख उसके स्थानीय पक्ष कि पड़ताल करता है | आप भी इसे देखें और संभव हो तो अपनी बेबाक प्रतिक्रिया भी दें..........................................रामजी .............................



                मीडिया और लोक---स्थानीय संदर्भ में


          आदर्श स्थिति तो यह है कि मीडिया और लोक एक दूसरे से अविभाज्य हों लेकिन आज परिदृश्य इसके उलट दिखाई देता है। खबरें वह बनती हैं, जिनसे आम आदमी का कोई वास्ता नहीं होता और ऐसी खबरें रह जाती है, जिससे हमारा अधिसंख्य समाज प्रतिदिन जूझता है। जाहिर है इसके अपवाद हो सकते हैं, जिन्हंे उपरोक्त बातों को काटने के लिए प्रयुक्त भी किया जा सकता है लेकिन स्थिति कुल मिलाकर यही है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि सूचना तंत्र के फैलते जाल और तकनीकी विकास की ऊचाईयाँ छूते देश में आम आदमी अपनी समस्याओं के साथ मीडिया के बाहर ही कराह रहा है ? क्या यह अनायास है या सायास ?
          इस सवाल को जानने के लिए मीडिया के वर्तमान चरित्र को जानना परखना होगा। आखिर यह किसकी मीडिया है ? इसे कौन संचालित करता है ? इस संचालन के पीछे उसकी कौन सी प्रेरणा काम करती है ? और अन्ततः वह इस मीडिया से क्या हासिल करना चाहता है? ये कुछ ऐसे सवाल है, जिनका बिना सामना किये आप मीडिया और लोक के बीच की खाई को नहीं समझ पायेगें।
          वैसे तो यह परख आज सपूर्ण मीडिया पर ही लागू होती है लेकिन प्रिन्ट मीडिया के सन्दर्भ में यह पड़ताल आँखों को खोलने वाली हो सकती है, जिसका अपना लम्बा गौरवशाली इतिहास रहा है। इसके भीतर आये कुछ खास परिवर्तनों को रेखांकित करने से इस बदलाव की झांँकी मिल सकती है। पहला परिवर्तन तो यह है कि वर्तमान मीडिया के प्रेरक तत्व बदल गये हैं। वह समाज सेवा, उसे बदलने की ईच्छा और नैतिक आग्रहों के साथ अपनी समझ को साझा करने की पुरानी बात से विचलित हो गयी है। आज यह उद्योग है, व्यवसाय है और व्यापार है, जिसका सूत्र वाक्य मुनाफा है। यह मुनाफा पैसा, पद, प्रतिष्ठा और सत्ता किसी भी रूप में अर्जित किया जा सकता है। दूसरा बड़ा परिवर्तन केन्द्रीकरण और संलयन की अवधारणा है। आज पहले के उलट मीडिया पर कुछ बड़े घरानों का कब्जा है और यह कब्जा धीरे-धीरे बढ़ता चला जा रहा है। इसमें छोटे और स्थानीय संस्थान सिमटते और बन्द होते जा रहे हैं। तीसरा बड़ा परिवर्तन पूँजी की विशालता है। इस परिवर्तन ने यह तय कर दिया है कि इसका मालिकाना हक किसी पूँजीपति के हांथ ही में रहेगा। चौथा परिवर्तन मालिक और सम्पादक के बीच का मिटता अन्तर है। पहले दोनों की अलग-अलग पहचान होती थी। आज यह खत्म हो चली है। एक और बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि आज के पत्र पत्रिकाओं की लागत और उसके बिक्री मूल्य का अन्तर तर्कातीत हो गया है। 20 रूपये की लागत वाला अखबार 3 रूपये में बिकता है और शेष को पाटने का जिम्मा विज्ञापन उद्योग निभाता है।
          ऊपर के स्तर पर आये इन परिवर्तन को आप स्थानीय स्तर पर भी महसूस कर सकते हैं। एक छोटे शहर की प्रिंट-खासकर अखबारी मीडिया के सन्दर्भ में यह पड़ताल हमें यह बताती है कि शीर्ष पर आये सारे बदलावों ने इन स्थानीय परिदृश्यों में आमूल चूल परिवर्तन किया है।
          स्थानीय अखबारों की बन्दी या हासिये से बाहर चले जाने को आप किसी भी छोटे शहर में देख सकते हैं। बड़े घरानों के अखबार स्थानीय संस्करणों के साथ यहाँ उपस्थित है, जिनके पास संसाधनों की बड़ी ताकत है। इनको देखकर यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि ये राष्ट्रीय समाचार पत्र ही है। सोलह पेज के अखबार का चार पृष्ठ ही राष्ट्रीय होता है। मुख्य पृष्ठ, आर्थिक जगत, सम्पादकीय पृष्ठ और खेल जगत। शेष 12 पृष्ठ स्थानीय पृष्ठ भूमि के होते हैं। इन्हें आप एक से दूसरे पड़ोसी जिले में जाकर बदला हुआ पायेंगे। विरोधाभास यह है कि स्थानीय समाचारों की बाढ़ में भी आम आदमी की खबरें नदारद है। यह हैरान करने वाली बात है कि एक छोटे से जिले के लिए छ पेज निर्धारित होने के बावजूद भी जिले की मुख्य समस्यायें अनदेखी और अनकही कैसे रह जाती हैं ?
          यहाँ भी सारा मसला परिवर्तनों और प्रेरक तत्वों का ही है। प्रत्येक जिले में प्रत्येक अखबार का का एक जिला सम्वाददाता है, जो कि वितरक और जिला प्रसारक भी है। उसकी जिम्मेदारी अखबार को बेचने की भी है, खबरों को जुटाने की भी और विज्ञापनों के माध्यम से कमाने की भी। कहने के लिए एक व्यूरो प्रमुख है, जिसकी तनख्वाह 5 हजार के आसपास है। उसके पास 4 से 5 टाईप करने वाले लड़के हैं, जिन्हे 2 से 3 हजार का मासिक भुगतान किया जाता है। हर तहसील पर एक स्वनियुक्त संवाददाता है जो जिला संवाददाता की ही तर्ज पर कार्य करता है। वह पत्रकार भी है, वितरक भी और विज्ञापन जुटाने वाला भी।
                 इस तहसील स्तर वाले संवाददाता का कार्य प्रत्येक चट्टी-चौराहे पर अपने ही जैसा स्वघोषित पत्रकार नियुक्त करने का होता है। जिला संवाददाता , व्यूरो प्रमुख और कुछ टाईप करने वाले को छोड़कर किसी के भी पारिश्रमिक का भुगतान अखबार नहीं करता। नीचे की पूरी टीम अपने पैरों पर खड़ी है। वह अखबार का इस्तेमाल हथियार के रूप में करती है, जिसके माध्यम से छोटे-मोटे अधिकारियों,डाक्टरों, स्थानीय नेताओं, ठेकेदारों और व्यापारियों से विज्ञापन वसूला जाता है। इस विज्ञापन वसूली का सिद्धान्त भी बड़ा निराला है। वह सालों साल चलता है। राष्ट्रीय पर्व हो,धार्मिक त्यौहार हो, अखबार का स्थापना दिवस हो, जिले की महत्वपूर्ण तिथि हो और इन सबके न होने पर भी कुछ ऐसा ही गढ़ लिया जाता है, जिससे यह धन्धा जारी रख जा सके। विज्ञापन किससे लिया जायेगा और उसमें मूल्यों, मान्यताओं की क्या जगह होगी, यह बहस के बाहर का विषय है। अखबार स्वयं अपने पहले पृष्ठ पर ही नो आईडिया सर जी!की बात कह कर मानदण्ड को साफ कर देता है।
          अखबार इन स्थानीय खबरचियों को कुछ नहीं देता, फिर भी इनकी रोजी-रोटी चलती है, तो यह विज्ञापनों के विविध आयामों से ही सम्भव हो सका है। पहला आयाम है कि लोग स्वयं अपना विज्ञापन अखबार को देते हैं। इनमें बड़ी कम्पनियाँ, कोचिंग संस्थाए, सरकारी विभाग और अपराध से राजनीति में प्रवेश करता स्वघोषित समाजसेवी शामिल होता है। ये सभी विज्ञापन बड़े स्तर के होते हैं और छुटभैये पत्रकारों की भूमिका से बाहर ही तय कर लिये जाते हैं। बड़े शहरों के नामी-गिरामी पत्रकारों (?) की टीम इसका प्रबन्ध करती है।
          दूसरा आयाम बड़े और छोटे व्यक्तियों, संस्थाओं से सम्पर्क कर विज्ञापन जुटाने का होता है। इस कार्य को अखबार का प्रत्येक चरण सम्पादित करता है। वह छोटा-मोटा चट्टी-चौराहे वाला स्वनाम धन्य संवाददाता हो या फिर शीर्ष पर बैठे नामी-गिरामी पत्रकारों की टीम। विज्ञापन के आधार पर कमीशन दिया जाता है। तीसरा आयाम अधिकतर स्थानीय स्तर पर ही संचालित होता है। इसमें लोगों को उनकी जेब के  आधार पर चयनित किया जाता है और उनके नाम से विज्ञापन छाप दिया जाता है। बाद में अखबार की कटिंग और प्रकारान्तर से धौंस पट्टी दिखाकर वसूली कर ली  जाती है। इन सबसे अलग एक चौथा आयाम भी है। इसमें विज्ञापन के लिए सम्पर्क किया जाता है, जिसमें विज्ञापन देने वाला उनकी दरों की अधिकता का रोना रोता है और उस विज्ञापन को अपने लिए अनुपयोगी बताता है। यहाँ एक हजार के विज्ञापन की दर पाँच सौ में तय होती है, जिसे वह पत्रकार अपनी जेब में रख लेता है। अव्वल तो विज्ञापनदाता अपने विज्ञापन को देखता ही नहीं क्योंकि वह खुद ही अनिच्छुक रहता है और यदि कभी देखने का प्रयास भी करता है तो यह समझा दिया जाता है कि आपका विज्ञापन पड़ोसी जिले के संस्करण में चला गया है।
          स्थानीय संवाददाताओं/पत्रकारों की टीम विज्ञापनों के इसी कुटीर उद्योग के सहारे अपने पैरों  पर खड़ी रहती है। हाँ इसके अलावा छोटे-मोटे वैध-अवैध कार्य भी अखबार को हथियार बनाकर संपादित कराये जाते हैं। अब चूँकि वे संवाददाता भी है, तो लगे हाथ कुछ खबरे भी जिले तक पहुँचा दी जाती है। इन खबरों का भी अपना समाजशास्त्र और अर्थ शास्त्र है। प्राइवेट ट्रीटी और पेड न्यूज के सिद्धान्त को इन स्थानीय संवाददाताओं ने बखूबी समझा है। कुछ बड़े और रसूखदार लोगों से समझौता रहता है कि उनके खिलाफ कोई भी खबर इस जिले से नहीं जायेगी। यह प्राईवेट ट्रीटी का स्थानीय संस्करण होता है वहीं पेड न्यूज के अनुसार सौ, दौ सौ, हजार के हिसाब से भुगतान कर आप अपने मुताबिक खबरे अखबार में छपवा सकते हैं।
          यहाँ समाचार स्वयं चल कर आते हैं। जिनके पास यह ताकत होती है वे अखबारों के पन्नें तक पहुँच जाते हैं और जिनके पास यह क्षमता नहीं होती है, वे गलियों-कूचों में ही दम तोड़ देते हैं। इनके कुछ अपवाद भी है। जिनमें आपराधिक घटनाएँ, दुर्घटनाएँ, नेताओं और अधिकारियों के समाचार शामिल है। बीच-बीच में जनहित के समाचार भी लगाये जाते हैं। लेकिन यह तथ्य हमेशा ही याद रखा जाता है कि सरकारी नीतियों और व्यवस्था की विद्रूपताओं के उद्घाटन की सीमा क्या हो। अखबार की सम्पादकीय नीति भी चुभते और असहज कर सकने वाले सवालों से बचती है और वही काम यहाँ की स्थानीय पत्रकारिता भी करती है।
          कुल मिलाकर पूँजी और बाजार का खेल मीडिया में इस कदर हावी है, कि इस तक नहीं पहुँच सकने वाले लोगों के लिए यह खट््राग बन कर रह गया है। हमारे क्षेत्र के सभी स्थानीय अखबार आज लगभग बन्द पड़े हैं। इन्हंे चलाने के लिए ना तो वह पूँजी है ना ही वह तकनीक। फिर उनका सामना बड़े घरानों के अखबारों से है जिनके 10 पृष्ठ के जिला/स्थानीय संस्करण है। लाजिमी है कि ये अखबार अपनी अन्तिम साँस गिने। थोड़ी सी संख्या में इन्हंे छापकर सरकारी दफ्तरों में पहुँचाया जाता है, जिससे अखबार के चलते रहने का पता लग सके और उसको मिलने वाली सरकारी मदद को जारी रखवाया जा सके।
          ऐसी मीडिया से यदि आमजन गायब है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। अखबार और टीवी मीडिया के अपने लोग और अपना व्यापार है। इनमें छपने/दिखने वाली खबरें उनकी ही होती है, जिसके बल पर ये चलते हैं। मुख्य धारा की पत्रिकाओं की स्थिति भी कमोवेश ऐसी ही है। लेकिन पत्रिकाओं में ही उम्मीद की किरण भी है। यहीं पर वह वैकल्पिक मीडिया दिखती है, जो अपने कम संसाधनों में भी पत्रकारिता के मूल्यों को जिन्दा रखे हुये है। इनमें छपने वाली खबरों का विस्तार और सरोकार न सिर्फ व्यापक होता है वरन लोकतांत्रिक और प्रगतिशील भी।
          हर समय और समाज की मुख्यधारा कुछ मिथकों को आधार बनाकर संचालित की जाती है। हमारे समय का एक मिथक मीडिया भी है, जिसे लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में पवित्र बना दिया गया है और इस पवित्रता की कीमत हमारा समाज चुका रहा है। वह उसे अपनी आवाज मानता है, जो दरअसल उसी के खिलाफ खड़ी है। तो क्या दोष मीडिया का ही है? नहीं। उसके लिए समाज और व्यवस्था दोनों जिम्मेदार है। जैसी व्यवस्था होगी, वैसा ही समाज होगा और वैसी ही मीडिया भी। हांलाकि यह मीडिया का बचाव नहीं हो सकता क्योंकि उसकी भूमिका उस समाज और व्यवस्था के निर्माण की भी होती है, जिसमें वह संचालित होती है। जरूरत व्यवस्था को ठीक करने की है, जो दरअसल लोकतांत्रिक हो | जाहिर तौर पर  इसे रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी मीडिया की भी है। फिलहाल तो उस प्रश्न के उत्तर में कि यह किसकी मीडिया और किसका लोकहै ? यही कहा जा सकता है कि यह जिसकी मीडिया उसका ही लोकहै।

                                                                                


                              रामजी तिवारी 
                              बलिया , उ.प्र.
          
          

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

अनहद ....समकालीन सृजन का समवेत नाद




साहित्य को गतिशील बनाये रखने और उसे समाज के बड़े तबके तक पहुँचाने में लघु पत्रिकाओं कि भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है | हिंदी सहित भारत की  अन्य भाषाओं में इनका स्वर्णिम इतिहास उपरोक्त तथ्य की गवाही देता है | इन पत्रिकाओं में एक तरफ जहाँ साहित्य कि मुख्य विधाएं फली-फूली और विकसित हुयी है , वही उसकी गौड़ विधाओं  को भी पर्याप्त आदर और सम्मान मिला है | इनकी बहसों ने तो सदा ही रचनात्मकता के नए मानदंड और प्रतिमान स्थापित किये हैं | हिंदी में इन लघु पत्रिकाओं का लगभग सौ सालो का इतिहास हमें गर्व करने के बहुत सारे  अवसर उपलब्ध करता है |

इन पत्रिकाओं का वर्तमान परिदृश्य दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा नजर आता है | एक तरफ तो इस पूरे आंदोलन पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा किया जा रहा है , वहीँ दूसरी ओर इन पत्रिकाओं की भारी उपस्थिति और उनमे गुड़वत्ता की  दृष्टि से रचे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य को भी स्वीकार्यता मिल रही  है | पत्रिकाएं प्रतिष्ठानों तक ही सीमित नहीं रही, वरन  व्यक्तिगत एवम सामूहिक प्रयासों तक भी फैलती चली गयी हैं | आज हिंदी में सौ से अधिक लघु पत्रिकाएं  निकलती हैं | मासिक, द्वी-मासिक , त्रय-मासिक और अनियतकालीन आवृत्ति के साथ उन्होंने साहित्यिक परिदृश्य की  जीवंतता बरक़रार रखी हैं | अनहद ऐसी ही एक साहित्यिक लघु पत्रिका है |

युवा कवि संतोष चतुर्वेदी के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाली इस पत्रिका का दूसरा अंक हमारे सामने है | इस अंक को देखकर यह कहा जा सकता है कि अनहद ने प्रवेशांक की  सफलता को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए अपने ही प्रतिमानों को और ऊपर उठाया है | लगभग 350 पृष्ठों की इस पत्रिका का यह अंक वैसे तो एक साल के लंबे अंतराल पर प्रकाशित हुआ है , लेकिन उसकी भारी भरकम सामग्री ( गुड़वत्ता और मात्रा दोनों ही स्तरों पर ) और संपादक के व्यक्तिगत प्रयासों को देखते हुए यह तनिक भी अखरता नहीं है |यह पत्रिका हर प्रकार से बहु-आयामी कही जा सकती है |इसमें एक तरफ नए-पुराने साहित्यकारों का संगम है , वही दूसरी ओर साहित्य की  मुख्य और गौड़ विधाओं का विपुल साहित्य भंडार भी|

अनहद पत्रिका की  एक बानगी को यहाँ पर देखना समीचीन होगा | स्मरण स्तंभ में दो महान विभूतियों भीमसेन जोशी और कमला प्रसाद को गहराई के साथ नए-पुराने साथियों ने याद किया है | भीमसेन जोशी पर जहाँ विश्वनाथ त्रिपाठी और मंगलेश डबराल ने लिखा है , वहीँ कमला प्रसाद पर भगवत रावत, कुमार अम्बुज और उमाशंकर चौधरी ने अपनी लेखनी चलायी है| प.किशोरीलाल को याद करते हुए प्रदीप सक्सेना ने अदभुत स्मरण लेख लिखा है | हम चंद्रकांत देवताले की डायरी का आनंद उठाते है |फिर हमारे सामने राजेश जोशी अपनी पांच कविताओं के साथ उपस्थित होते हैं |आगे चलकर हमें भगवत रावत की  झकझोर देने वाली कविता का  दीदार होता है |इसी खंड में परमानन्द श्रीवास्तव ,केशव तिवारी और सुबोध शुक्ल ने भगवत रावत की कविताओं से हमारा बेहतरीन परिचय भी कराया है | हमारे समय के कवि शीर्षक में पांच युवा कवियों देवेन्द्र आर्य , अरुण देव , सुरेश सेन निशांत , अशोक कुमार पाण्डेय और शिरोमणि महतो को स्थान मिला है |

पत्रिका इन महत्वपूर्ण रचनाओं के सहारे तब अपनी ऊँचाई पर पहुंचती है , जब शताब्दी वर्ष शीर्षक के अन्तर्गत नागार्जुन के साहित्य और व्यक्तित्व को विभिन्न कोणों से जांचा-परखा जाता है | शेखर जोशी , शिव कुमार मिश्र , जवरीमल पारेख ,राजेंद्र कुमार , बलराज पाण्डेय, कमलेश दत्त त्रिपाठी , प्रफुल्ल कोलख्यान , कृष्ण मोहन झा , कर्मेंदु शिशिर , बलभद्र, वाचस्पति और उनके पुत्र शोभाकांत ने उस पर इतनी रोशनी डाली है ,कि बाबा का साहित्य और व्यक्तित्व हमारे सामने सम्पूर्णता में चमक उठा है | फिर विशेष लेख शीर्षक के तहत चित्रकार-लेखक अशोक भौमिक ने महान चित्रकार जैनुल आबेदीन को जिस संजीदगी से जांचा-परखा है , वह कमाल का है |पत्रिका में जैनुल के बनाये 35 चित्र भी उकेरे गए है , जो हर तरह से विलक्षण है |इसी ऊँचाई पर संजय जोशी और मनोज सिंह ने प्रतिरोध के सिनेमा की आहटें शीर्षक से एक लेख लिखा है | ज.स.म. की इकाई के रूप में 2005 गठित प्रतिरोध का सिनेमा आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है |

 
पत्रिका में दिनेश कर्नाटक, सुमन कुमार सिंह , विजय गौड़ और कविता की चार कहानियां भी पढ़ी जा सकती हैं | नवलेखन विमर्श में खगेन्द्र ठाकुर ने समकालीन कविता की पड़ताल की है, तो सरयू प्रसाद मिश्र ने नयी पीढ़ी के नए उपन्यासों को जांचा-परखा है | राकेश बिहारी कहानियों में डूबकर सार्थक टटोल रहे हैं, तो भरत प्रसाद आलोचना के प्रतिमानों के बीच खड़े है | यहाँ प्रख्यात आलोचक मधुरेश द्वारा शताब्दी के पहले दशक के उपन्यासों का किया गया मूल्यांकन विशेष महत्व का बन पड़ा है | कसौटी शीर्षक में किताबों की समीक्षा है , जिसमे हरिश्चंद्र पाण्डेय , मधुरेश, वैभव सिंह , अमीर चंद वैश्य , अभिषेक शर्मा, अनामिका , रघुवंश मणि , महेश चंद्र पुनेठा, आत्मरंजन , विमल चंद्र पाण्डेय, अरुण आदित्य , और रामजी तिवारी ने अपने अंदाज में हमारे दौर की 12 महत्वपूर्ण पुस्तकों से हमारा परिचय कराया है |

इस परिचय को पाकर आप स्वयं यह तय कर सकते है कि बिना किसी प्रतिष्ठान से जुड़े संतोष चतुर्वेदी के अनथक प्रयास ने अनहद के दूसरे अंक को किस  ऊँचाई पर स्थापित किया है |अब साहित्य प्रेमी मित्र/पाठक होने के नाते हम सबका यह कर्तव्य बनता है कि हम अनहद के इस गंभीर प्रयास को  मुक्तकंठ से सराहें/स्वागत करें | जाहिर तौर पर लघु-पत्रिकाओ का भविष्य इन व्यक्तिगत प्रयासों को सामूहिक प्रयासों में तब्दील करके ही संवारा जा सकता है

                                प्रस्तुतकर्ता - रामजी तिवारी 
 अनहद                            बलिया , उ.प्र.
वर्ष-2, अंक-2
मूल्य रु-80  
                                          

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

अलविदा अदम गोंडवी

                                    


                                              अलविदा अदम गोंडवी 

                           गत 18 दिसंबर 2011 हिंदी के लोकप्रिय , क्रान्तिकारी और जनवादी शायर अदम गोंडवी का लखनऊ  में निधन हो गया | उ.प्र. के गोंडा जिले में 22 अक्टूबर 1947 को जन्मे रामनाथ सिंह उर्फ़ अदम गोंडवी पिछले कुछ समय से लीवर में संक्रमण की बीमारी से जूझ रहे थे | आर्थिक अभावों ने उन्हें आरंभिक स्तर पर अच्छे और उपयुक्त इलाज से वंचित रखा और जब तक यह खबर आम होती  और उनके समर्थको / शुभचिंतको  द्वारा लखनऊ के पी.जी.आई. अस्पताल में दाखिल कराया जाता , तब तक उनका संक्रमण गंभीर हो चला था |अंततः इस संक्रमण  ने दुष्यंत कुमार की परंपरा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिंदी जनवादी गजलकार को हमसे छीन लिया | उनकी प्रतिनिधि  रचनाये "धरती की सतह पर " और "समय से मुठभेड़" है |
                           
                          अदम गोंडवी ने जनवादिता और क्रांतिकारिता का पाठ  जीवन की इसी पाठशाला से सीखा था | उन्हें किसी स्कूल या कालेज की शिक्षा कभी नसीब नहीं हुयी | दिखने में वे  बेहद जनपदीय थे  | मटमैली धोती और कुर्ते के साथ गले में गमछा लपेटे जब वे मंच को संभालते थे , तब यह भेद खुलता था कि वे खयालो और विचारो में कितने प्रगतिशील थे | कवि बोधिसत्व ठीक ही कहते है "उन्होंने आम अवाम का हमेशा पक्ष लिया और उसी के साथ आजीवन खड़े भी रहे | अंत तक न वे बदले , न उनकी कविता बदली और न ही उनका पक्ष बदला | बदलने और बिकने के लिए जहाँ  इतना बड़ा बाज़ार मुँह  बाये खड़ा हो , अदम साहब की यह अटलता अनुकरणीय  और  विस्मयकारी है |
                                                         
                           अदम साहब का जन्म भारत की आज़ादी के साथ ही हुआ था | वह अपेक्षाओ और आकांक्षाओ   का दौर था | लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया , हमारे देखे गए सपने बिखरते चले गए | इसी समय कविता के परिदृश्य पर धूमिल और मुक्तिबोध जैसे कवियों का आगमन हुआ | इनकी कविताओ  में  आज़ादी से मोहभंग , हताशा और ऊब को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है | हिंदी गजल में यही काम बाद में चलकर अदम गोंडवी ने किया | उनकी रचनाये व्यवस्था से मोहभंग की प्रतिनिधि आवाज बन गयी |उन्होंने लिखा  -

                                       "काजू भूने प्लेट में , व्हिस्की  गिलास में 
                                        उतरा है रामराज्य विधायक निवास में |
                                        पक्के समाजवादी हैं  , तस्कर हों या डकैत 
                                        इतना असर है खादी  के लिबास में ||"

                               उन्होंने व्यवस्था द्वारा दिखाई गयी आंकड़ो की बाजीगरी पर भी करार प्रहार किया | हम सब इस बाजीगरी के आज भी भुक्तभोगी है , जब एक तरफ विकास दर के आसमानी होने का दावा किया जा रहा है , वही देश की तीन चौथाई जनता रसातल में जीवन यापन कर रही है |
                       
                                           "तुम्हारी फाईलो में गाँव  का मौसम गुलाबी है 
                                             मगर ये आँकड़े झूठे है , ये दावा किताबी है  |
                                             तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारे जाम सोने के 
                                             यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है ||"
                
                    एक तरफ वे व्यवस्था जनित विद्रूपताओ पर लगातार बरसते रहे , वही दूसरी ओर उन्होंने अपने समय के ज्वलंत  सामाजिक सवालो से भी लगातार मुठभेड़ किया | साम्प्रदायिकता  पर उन्होंने लिखा -

                                             "हममे कोई हूण, कोई शक , कोई मंगोल है 
                                              दफ़न जो बात अब उस बात को मत छेड़िए |
                                              छेड़िए इक जंग मिलजुलकर गरीबी के खिलाफ 
                                              दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए || "
                   
                         उच्च वर्ण में पैदा होने के बावजूद उन्होंने सदियों से चली आ रही जातीय श्रेष्ठता और घृणा  पर भी प्रहार किया -

                                            "वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं 
                                             वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें|
                                             लोकरंजन हों जहाँ  शम्बूक वध की आड़ में 
                                             उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करे |"

                         यह अदम गोंडवी ही थे , जिन्होंने "चमारो की गली " शीर्षक  से एक लम्बी गजल लिखी | यह गजल आज भी शोषितों और दलितों की आवाज के रूप में जानी पहचानी जाती है |हिंदी क्षेत्र के  जनवादी कार्यक्रमों में उनकी गजलों की हमेशा धूम रहा करती थी | हालाकि उन्हें इस बात का बहुत मलाल था , कि जिनके हाथों में कलम की ताकत है , वे चंद मुहरों के लिए अपना सब कुछ गिरवी रख देने पर आमादा हैं |

                                        "जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ खुलासा देखिये 
                                         आप भी इस भीड़ में घुसकर तमाशा देखिये  |
                                         जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को 
                                         किस तरह अश्लील है कविता कि भाषा देखिये |"

                         यह देखना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि उर्दू के साथ साथ जब हिंदी गजल की एक बड़ी धारा भी प्रेयसी की जुल्फों और मयखानों की गलियों में उलझी हुयी थी , अदम गोंडवी ने हमेशा उसे जनवादी रास्ता ही दिखाया | यह काम उन्होंने उस मंचीय कविता का हिस्सा होते हुए भी किया जहाँ  चुटकुलों और द्वी -अर्थी तुकबंदियों ने सारा  मंजर अपने कब्जे में कर रखा है | जहाँ कविता पढना अपना उपहास उड़ाने के बराबर हों गया है , वहाँ  भी वे कविता में जनवादिता और क्रांतिकारिता की मशाल लिए अपने पूरे तेवर के साथ  बने रहे |

                                     "आप कहते हैं  सरापा गुलमुहर है जिंदगी 
                                      हम गरीबो की नजर में इक कहर है जिंदगी |"
                 
 उन्होंने एक दूसरी गजल में लिखा -
                                   
                                    " चाँद है जेरे कदम , सूरज खिलौना हो गया 
                                      हाँ मगर इस दौर में किरदार बौना हो गया 
                                      ढो रहा है आदमी काँधे पर खुद अपनी सलीब 
                                      जिंदगी का फलसफा अब बोझ ढोना हो गया |"

और ये पंक्तियाँ तो अदम साहब की ट्रेडमार्क ही हो गयी 
                                   
                                      "इस व्यवस्था ने नयी पीढ़ी को आखिर क्या दिया 
                                       सेक्स की रंगीनियाँ और गोलियां सल्फास की  |"

                      अदम गोंडवी आज हमारे बीच नहीं है , लेकिन उनकी क्रान्तिकारी कविताये सदा हमारे बीच रहेंगी | आलोचक आशुतोष कुमार कहते है " जीवन में उन्होंने घनघोर अभाव देखा , लेकिन अपनी मकबूलियत को कभी नहीं भुनाया |ऐसे समय में जब कारपोरेट और वित्तीय पूंजी का आतंक पूरे विश्व पर छाया हुआ है , आम लोगो के जिंदगी की , तकलीफों से उठने वाले प्रतिरोध की और भरोसे की इस आवाज का खामोश होना बेहद दुखदायी है | "अदम की स्मृतियों को  हम सबका क्रान्तिकारी सलाम | अलविदा अदम गोंडवी | 

                                                                                                                                                           
                                                                                        रामजी तिवारी
                                                                                                                बलिया ,  उ.प्र.                                            

रविवार, 11 दिसंबर 2011

लन्दन के दंगे और पश्चिमी समाज






गत सितम्बर माह में इंगलैंड में भयावह दंगे हुए....हमने इन दंगो के दौरान पश्चिमी  समाज का वह चेहरा भी देखा , जो अपनी तमाम आधुनिकता के बावजूद इतना खोखला है ,कि एक छोटी सी ठोकर उसे औंधे मुह गिरा सकती है ....उन्ही दंगो के कारणों और परिणामों कि पड़ताल करता यह लेख आप सबके  लिए यहाँ प्रस्तुत है........यह लेख "समयांतर " पत्रिका के माह अक्टूबर अंक  में प्रकाशित हो चुका है...




                                                    लन्दन के दंगे और पश्चिमी समाज

दंगे समाज के चेहरे पर जख्म सरीखे होते हंैं,  जिनके निशान उन पर लगे घावों की तीब्रता के अनुसार ही बनते हैं। जब भी समाज इतिहास के आइने में अपना चेहरा देखता है, इन जख्मों के निशान उसकी सहिष्णुता/असहिष्णुता की कहानी बयान करते नजर आते है। जाहिर है, समाज कोई कपड़ा तो होता नहीं कि उस पर लगे हुए दाग/निशान समय के साथ धुल या मिट जाय, ना ही वह किसी स्लेेट जैसा होता है, जिस पर लिखी इबारत को अपनी सुविधानुसार मिटा दिया जाय, वरन् यह तो मानव जाति की जड़ांे में फैली स्मृतियों में बसा होता है, जहाँ से भविष्य की कोपलें फूटा करती हैं। वह मिटाने की तमाम नैतिक/अनैतिक कोशिशों के बावजूद मनुष्यता की स्मृतियों में अमरत्व को पा जाता है।
प्रत्येक दंगे की सामाजिक पृष्ठभूमि होेती है। उनसे पता चलता है कि उसके होने के समय और उससे पहले समाज किस दिशा में संचालित किया जा रहा था। प्रतिगामी ताकतों का वर्चस्व और प्रगतिशील तत्वांे के हासिये पर सिमट जाने की दास्तान इन दंगों में छिपी रहती है। कभी-कभी तो ऐसा भी देखा जाता है कि तत्कालीन व्यवस्था ही इन दंगों की पटकथा लिखती है। भारत में दंगों के इतिहास उपरोक्त सारी परिस्थितियों को बयान करते हैंै। हमारे देश के वर्तमान स्वरूप का उदय इन दंगों से पैदा हुये जख्मों की निशानी के लिए भी याद किया जाता है। उन दंगों का दिया हुआ घाव इतना गहरा था कि उसने इस देश के चेहरे को ही दो हिस्सों में तकसीम कर दिया। छः दशक गुजर जाने के बाद भी इन घावों से पैदा हुये जख्मों को भरा नहीं जा सका है और रह-रहकर उनसे टीस उभरती रहती है।
विभाजन से उत्पन्न उस आधे चेहरे को हमने बड़े जतन से मुकम्मल बनाने की कोशिश की, जो लगभग कामयाब भी रही लेकिन आजादी के बाद के दंगों ने इस बनाये चेहरे को भी साबुत नहीं रहने दिया। मेरठ, मुरादाबाद, भागलपुर, दिल्ली, बम्बई और गुजरात से मिले जख्मों के निशान स्पष्टता के साथ हमारे समाज के चेहरे पर देखे जा सकते हंै। हम जब भी अपना सिर उठाने की कोशिश करते हैं, इन जख्मो से कटा-फटा विद्रूप चेहरा हमें शर्मिन्दा कर देता है। ये सारी बाते आज अचानक मन में इसलिए उठ रही है कि अपने आपको बहुजातीय, बहुधार्मिक, उदार और लोकतंत्र की जननी कहे जाने वाले ब्रिटिश समाज का चेहरा भी इन दंगो से लहुलुहान हुआ है। उस विकसित और आधुनिक देश ने इन दंगों के दौरान दुनिया के सामने अपना वह चेहरा दिखाया है, जिस पर उसकी आने वाली नस्लें सिर्फ और सिर्फ शर्मिन्दा हो सकती है।
आइये! उस पूरे घटनाक्रम पर नजर दौड़ायें, जिसने उस तथाकथित सहिष्णु और प्रगतिशील समाज को इतना असहज बना दिया है। उत्तरी लन्दन का एक उपनगरीय इलाका है टोटेनहम, जहाँ से इन दंगों की शुरूआत हुयी। यह क्षेत्र अपनी बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय और बहुभाषायी विस्तार के लिए इंगलैण्ड ही नही वरन सम्पूर्ण यूरोप मे जना जाता है। अफ्रीकी, अमेरिकी, कैरेबियाई, एशियाई और यूरोपीय आबादी के मिश्रण से सुसज्जित इस क्षेत्र में लगभग 300 भाषाएँ बोल जाती हैं। 04 सितम्बर, 2011 को इसी इलाके में मार्क डगन नाम के एक एफ्रो-कैरेबियाई युवक  की पुलिस मुठभेड़ मंे मृत्यु हो गयी। पुलिस का कहना था कि उस पर मादक द्रव्यों की तस्करी और अवैध हथियार होने का संदेह था, जिसके आधार पर उसी तलाशी ली जानी थी। इसी तलाशी के दौरान उसने पुलिस पर गोली चला दी और पुलिस की जवाबी कार्यवायी में वह मारा गया। बाद की रिपोर्ट मेें इस बात का खुलासा हुआ कि उसके पास पिस्तौल तो थी, लेकिन उसने उसका इस्तेमाल नहीं किया था।
6 अगस्त, 2011 को उसके समर्थन में 200 लोगों का जत्था पुलिस स्टेशन पहुँचा। ये लोग इस घटना की स्वतन्त्र और निष्पक्ष जाँच की मांग कर रहे थे। पुलिस ने इन लोगों की बातों पर ध्यान नहीं दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उस जत्थे में शामिल अश्वेत युवाओं ने तोड़फोड़ शुरू कर दी। पहला निशाना टोटेनहम का पोस्टआफिस बना और देखते ही देखते पूरा टोटेहनहम इसकी चपेट में आ गया। अगले दिन अर्थात 7 अगस्त को इन घटनाओं ने पूरे लंदन को अपने आगोश मंे ले लिया। एनफील्ड, पोन्डर्स एण्ड, ब्रीक्स्टन के साथ-साथ लंदन के सभी उपनगरीय इलाके इसकी चपेट में थे। पहले दिन तो सिर्फ तोड़फोड़ चल रही थी लेकिन जैसे ही यह लंदन के उपनगरीय इलाकों में फैला, इसकी प्रकृति लूटपाट में बदल गयी।
08 अगस्त की सुबह और भी भयावह साबित हुयी। अव्यवस्था और लूटपाट का विस्तार पूरे इंग्लैण्ड में फैल गया। बर्मिंघम, लीवरपूल, लीड्स, ब्रीस्टल, नाटिंघम, मैनचेस्टर, लंकाशायर और मिडवे जैसे इंग्लैण्ड के लगभग सभी महत्वपूर्ण शहर इसकी विभीषिका में जलने लगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि एक तो इन दंगों की प्रकृति लूटपाट की थी, दूसरा कि इसमें सभी वर्गों के युवाओं की भागीदारी थी और तीसरा यह कि इन दंगाईयों के निशाने पर कोई भी एक वर्ग या समुदाय नहीं था। जिसको जो भी और जहाँ भी मिल रहा था, वह बहती टेम्स में हाथ धो रहा था।
9 अगस्त को भी दिन भर यही सब चलता रहा। टाईम पत्रिका ने इस सुबह के बारे में अपनी राय इस भयावह तरीके से दी ”द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लंदन में एक साथ इतनी बड़ी आगजनी की घटनाएँ कभी नहीं हुयी।” इसी दिन वहाँ के प्रधानमंत्री अपने विदेश के दौरे को बीच में छोड़कर वापस इ्रंग्लैण्ड लौटे। बैठकों और समीक्षाओं का सिलसिला आरम्भ हुआ और अब तक लगभग मूकदर्शक बनी ब्रिटिश पुलिस कुछ हरकत मंे आ गयी। पुलिस की निष्क्रियता इतनी अधिक थी कि विभिन्न वर्गों और समुदायों ने स्थानीय स्तर पर संगठन बनाकर अपनी रक्षा का जिम्मा स्वयं उठाना आरम्भ कर लिया था। 10 और 11 अगस्त को गिरफ्तारियों को सिलसिला आरम्भ हुआ, लगभग 2000 लोग हिरासत में लिये गये। 13 अगस्त को न्यूयार्क और लास एंजेल्स के पूर्व पुलिस प्रमुख बिल ब्राटन को प्रधानमंत्री का सलाहकार नियुक्त किया गया। अगले दिन अर्थात 14 अगस्त को इन दंगों की समाप्ति पर बीमा कम्पनियों ने यह अनुमान लगाया कि उन्हें लगभग 200 मिलियन पाउण्ड का हर्जाना देना होगा।
दंगों की इन घटनाओं को देखने के बाद कुछ महत्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने आते हैं। पहला तो यही कि पुलिस इसमें पूरी तौर पर निष्क्रिय बनी रही। शायद वह इनकी तीव्रता और फैलाव का अन्दाजा नहीं लगा सकी और यह भी कि उसे अपने अति-सक्रिय होने के इतिहास से भी डर लग रहा था। दूसरा तथ्य यह था कि इनका आरम्भ भले ही अश्वेत युवकों द्वारा हुआ, लेकिन शीघ्र ही इसके चपेट में सारे वर्ग और समुदाय आ गये। सभी वर्गों और समूहों के युवाओं ने ब्रिटिश समाज के सहिष्णुता और आधुनिकता के लबादे को नोच डालने में अपनी भूमिका निभायी। एक और तथ्य यह सामने आया कि इन्हें विस्तार देने के लिए संचार की आधुनिक तकनीकों का जमकर इस्तेमाल किया गया। फेसबुक, ट्वीटर और ब्लैकबेरी का दुरूपयोग इस तरह से भी किया जा सकता है, इनसे पता चला। ब्रिटिश समाज विश्लेषक डेलरीम्पल ने इन युवाओं के व्यवहार से इतने क्षुब्ध थे कि उन्होंने इन्हें ‘दुनिया के सर्वाधिक असंतुष्ट और हिंसक युवाओं’ की पदवी से नवाज दिया।
अब महत्वूपर्ण सवाल यह था कि इन दंगों के कारण क्या थे? जाहिर है इसका उत्तर भी अपनी-अपनी समझ और व्याख्या के अनुसार दिया गया। सामाजिक अलगाव, देश पर बढ़ते आर्थिक दबाव, उपभोक्तावाद की विलासितापूर्ण आदते, बेरोजगारी, जातीय संस्कृति और गैंग संस्कृति का मिला जुला काकटेल ही इस समाज को यहाँ तक खींच लाया। विश्व-व्यापी आर्थिक मन्दी और विकसित देशों की अर्थ व्यवस्थाआंे के उसमें लगातार फँसते चले जाने से ब्रिटेन जैसे देशों के समाज में गम्भीर समस्यायें पैदा हो गयी है। जब तक इन विकसित देशों के पास उपनिवेश होते थे, उनके पास यह सुविधा होती थी कि उन्हें लूटकर अपने समाज की खाइयों को पाट दिया जाय। आज ऐसी स्थिति रही नहीं। नीचे का तबका जिनके ऊपर इस मन्दी का सबसे बुरा असर हुआ है, अपनी आदतों को परिवर्तित नही कर पा रहा और उसे भी विलासता पूर्ण जीवन की लत लग चुकी है। उसने अपनी पुरानी पीढ़ी को सिर्फ ऐश करते देखा है और इतनी समस्याओं के बावजूद भी वह इस तथ्य को भी देख रहा है कि उसी के समाज का उच्च वर्ग ठस अहंकार के साथ ऐश्वर्य का नंगा नाच कर रहा है।
यह उस व्यवस्था का संकट है जिसने अपने समाज को इस नैतिक पतन तक पहुँचा दिया है। ध्यान रहे कि जो ब्रिटिश युवा आज इन दंगाइयों की कतार में खड़ा है, वह भूख से नहीं तड़प रहा और न ही उसके सामने अपने अस्तित्व का संकट है। उसके सामने ऐश का संकट है, विलासितापूर्ण जीवन जीने का संकट है और उसके सामने येन-केन-प्रकारेण इन चीजों का पाने का संकट है। उसका समाज उसे यही सिखाता आया है कि किसी भी प्रकार से उसके पास ऐसी चीजें होनी चाहिए। साधनों की पवित्रता उसके लिए पिछली शताब्दियों का मुहावरा है, जिसे उसके पूर्वजों ने उपहास बनाकर उड़ा दिया था। उसने जीवन की सिर्फ रंगीनियाँ देखी हैं, जिसे आज तक उसके उपनिवेश पूरे करते आये हैं।
एक पूँजीवादी समाज इसी परिणति तक पहुँचने के लिए अभिशप्त होता है। वह अपने ऊपर आये संकटों का ऐसा ही समाधान खोजता है। अपनी जरूरतों और विलासिताओं को नियन्त्रित करने के बजाय, उसे अपने ही लोगों को लूट लेने का विकल्प अधिक भाता है। कहा जाता है कि भूख और दरिद्रता नैतिक सवालों को दर किनार कर देती है। लेकिन यहाँ तो जीवन शैली और उसके अन्तर्विरोध ने यह कार्य कर दिखाया है। ऐसा नहीं कि उसने पहली बार ऐसा किया है, वह तो इतिहास में भी ऐसा करता आया है, फर्क यह है कि पहले वह अपने उपनिवेशों में यह कारनामा करता था और आज अपने पड़ोसी के साथ कर रहा है। लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ वही जिम्मेदार है, वह पड़ोसी नहीं। ऐसा नहीं है, जिम्मेदार तो वह पड़ोसी भी है, जो इन संकटों के समय भी धन, सत्ता और ऐश्वर्य  के शिखर पर नंगा नाच रहा है। अमेरिका और यूरोप से लेकर एशिया तक इस बुर्जुआ तबके को उसकी ऐयाशियों के लिए बेल-आऊट के रूप में करोड़ों अरबों का तोहफा दिया जा रहा है। दुनिया भर की सरकारों ने इनके लिए अपनी तिजोरियाँ खोल रखी हैं और यह मलाईदार अभिजात्य उसेदोनों हाथों से बटोर रहा है। उसे इस बात की थोड़ी भी चिन्ता नहीं कि हमारे अपने ही भाई बन्धु किस प्रकार घिसट रहे हैं। और वही क्यों? जिम्मेदार तो वह पूरी व्यवस्था है जिसने एक पूरे देश का, एक पूरी पीढ़ी का और एक पूरे समाज का नैतिक पतन कर दिया है। ब्रिटेन ही नहीं अमेरीकी कर्ज संकट का उदाहरण भी हमारे सामने है, जब वहाँ आर्थिक संकट खड़ा हुआ और यह प्रश्न आया कि करों में वृद्धि करके इस संकट से निपटा जाय या सामाजिक सेवा योजनाओं में कटौती करके तब उस अमेरिकी समाज ने वह दूसरा विकल्प ही चुना, जिसकी मार निम्न और मध्यवर्ग पर पड़नी थी। धन के एवरेस्ट पर बैठे उस समाज को पहला विकल्प स्वीकार नहीं था क्योंकि इससे अमीरों को अपनी जेब से चन्द अशरफियाँ निकालनी पड़ती।
हमें गैंग संस्कृति, बेरोजगारी, जातीय विभाजन और पुलिस की निष्क्रियता से आगे बढ़ कर देखने की जरूरत है। इसकी जड़े उस वयवस्था में फैली है, जिसे आज एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। लगे हाथ संचार तकनीकों के इस्तेमाल पर भी बात कर ली जाए। यह मूल प्रश्न से मुहँ चुराने वाली बात है। तकनीकें समाज का संचालन नहीं करती, वरन् उसे कुछ सुविधाएँ अवश्य दे सकती हैं और कुछ बेहतर भी बना सकती है लेकिन समाज का संचालन अनिवार्यतः और अन्ततः उस समाज का विवेक और नैतिकता ही करते हंै। यदि कोई भी समाज अपनी सामूहिक दृष्टि और चेतना से विचलित हो जायेगा, तो वह इन तकनीकों का आत्मघाती इस्तेमाल ही करेगा।
अन्त में इन दंगों के सबक को भारतीय पक्ष से भी देख लेना उचित होगा। जो लोग उन विकसित देशों की चकाचैंध को देखकर मन्त्रमुग्ध रहते हैं और भारत को भी वैसा ही बनाने का सपना देखते हैं, उन्हें भी यह जान लेना चाहिए कि धन के इतने भयावह अनैतिक संग्रह के बाद भी वह समाज घुटनों पर आ सकता है। महात्मा गाँधी ने उस प्रश्न के जवाब मेें कि ‘भारत कब इंग्लैण्ड जैसा बन जायेगा?’ बहुत उचित बात कही थी ”मैं कभी नहीं चाहता कि भारत इंग्लैण्ड जैसा बने। एक इतने छोटे देश को इस स्तर पर आने के लिए इतनी लूटपाट और अमानवीय तरीके की आवश्यकता होती है, फिर तो भारत के लिए ऐसी कई दुनिया चाहिए होगी।“ मजे की बात यह है कि इतनी लूटपाट के बाद भी बने उस देश के सामने संकट के समय पड़ोसी को लूट लेने का ही विकल्प बचता है। विकास चाहे कितना भी हो, समाज की सामूहिक नैतिकता ही इतिहास मेें उस समाज का चेहरा प्रस्तुत करती है।

रामजी तिवारी
बलिया



मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

संतोष चतुर्वेदी की कविता - "माँ का घर "

संतोष चतुर्वेदी




माँ पर लिखी गयी कविताओ की हमारे यहाँ  एक लम्बी परंपरा रही है...हर छोटे- बड़े कवि ने इस विषय पर अपनी लेखनी चलायी है...फिर भी यह विषय आज भी कविता के लिए उतना ही नवीन और आकर्षक है... "माँ"  जैसे विषय पर पहले और आज के दौर में लिखी जा रही कविताओ में ऊपर से देखने पर तो समानता ही लगती है , जिसमे माँ के प्रति आदर और सम्मान का पाया जाना साफ साफ़ दिखाई देता है , लेकिन फिर भी आज के दौर में आये कुछ बदलावों  को देखा जा सकता  है...एक तरफ जहा बदलते दौर में "माँ" के नजरिये को भी कविता में जगह मिली  है , वही दुखद यह है कि "माँ - बाप " हमारे जीवन से लगातार बाहर होते जा रहे है.....कविताओ और कहानियो में उनकी भारी उपस्थिति और जीवन में उनकी दूर दूर तक कोई  खबर तक नहीं ...? हमारे समय की इस बड़ी त्रासदी को आखिर किस रूप में देखा जाना चाहिए..?  ..संतोष जी की इस कविता को पढ़ते हुए मेरे मन में ऐसे ही कई सवाल उभरते है...उसका अपना घर नहीं ... उसका अपना नाम नहीं .....और  उसे  कोई शिकायत तक नहीं ? बावजूद इसके ,  हमारी पीढ़ी द्वारा उसकी इतनी उपेक्षा ?  सवाल कई है , जो हमें मथ रहे है.....आप भी इस बहस में शामिल हो , जिसमे अपनी नब्ज स्वयं हमें ही टटोलनी है....   






        माँ  का घर

मैं नहीं जानता अपनी माँ  की माँ  का नाम
बहुत दिनों बाद जान पाया मैं यह राज
कि जिस घर में हम रहते हैं
वह दरअसल ससुराल है माँ  की
जिसे अब वह अपना घर मानती है
फिर माँ  का अपना घर कहाँ है
खोजबीन करने पर यह पता चला
कि मामा के जिस घर में
गर्मियों की छुट्टियों में
करते रहते थे हम धमाचौकड़ी 
वही माँ  का घर हुआ करता था कभी
जहाँ और लड़कियों की तरह ही वह भी
अपने बचपन में सहज ही खेलती थी कितकित
और गिट्टियों का खेल
जिस घर में रहते हुए ही
अक्षरों और शब्दों से परिचित हुई थी वह पहले पहल
वही घर अब उसकी नैहर में
तब्दील हो चुका है अब

अपना जवाब खोजता हुआ मेरा सवाल
उसी मुकाम पर खड़ा था
जहाँ  वह पहले था
माँ  का घर एक पहेली था मेरे लिए अब भी
जब यह बताया गया कि
हमारा घर और हमारे मामा का घर
दोनो ही माँ  का घर है
जबकि हमारा घर माँ  की ससुराल
और मामा का घर माँ  का नैहर हुआ करता था

हमारे दादा ने रटा रखा था हमें
पाँच सात पीढी तक के
उन पिता के पिताओं के नाम
जिनकी अब न तो कोई सूरत गढ पाता हॅू
न ही उनकी छोड़ी गयी किसी विरासत पर
किसी अहमक की तरह गर्व ही कर पाता हॅू
लेकिन किसी ने भी क्यों नहीं समझी यह जरूरत
कि कुछ इस तरह के ब्यौरे भी कहीं पर हों
जिनमें दर्ज किये जाय अब तक गायब रह गये
माताओं और माताओं के माताओं के नाम

हमने खंगाला जब कुछ अभिलेखों को
इस सिलसिले में
तो वे भी दकियानूसी नजर आये
हमारे खेतों की खसरा खतौनी
हमारे बाग बगीचे
हमारे घर दुआर
यहाँ तक कि हमारे राशन  कार्डों तक पर
हर जगह दर्ज मिला
पिता और उनके पिता और उनके पिता के नाम
गया बनारस इलाहाबाद के पण्डों की पुरानी पोथियाँ भी 
असहाय दिखायी पड़ी
इस मसले पर

माँ  और उनकी माँ  और उनकी माताओं के नाम पर
हर जगह दिखायी पड़ी
एक अजीब तरह की चुप्पी
घूंघट में लगातार अपना चेहरा छुपाये हुए

तमाम संसदों के रिकार्ड पलटने पर उजागर हुआ यह सच
कि माँ  के घर के मुददे पर
बहस नहीं हुई कभी कोई संसद में
दिलचस्प बात यह कि
बेमतलब की बातों पर अक्सर हंगामा मचाने वाले सांसदों ने
एक भी दिन संसद में चूं तक नहीं की
इस अहम बात को ले कर
और बुद्धिजीवी समझे जाने वाले सांसद
पता नहीं किस भय से चुप्पी साध गये
इस मुद्दे पर

और अपने आज में खोजना शुरू किया जब हमने माँ  को
तब भी तकरीबन पहले जैसी दिक्कतें ही पेश आयीं
घर की मिल्कियत का कागज पिता के नाम
बैंकों के पासबुक हमारे या हमारे भाइयों या पिता के नाम
घर के बाहर टंगे हुए नामपट्ट पर भी अंकित दिखे
हम या हमारे पिता ही

हर जगह साधिकार खड़े दिखे
कहीं पर हम
या फिर कहीं पर हमारे भाई
या फिर कहीं पर हमारे पिता ही
जब हमने अपनी तालीमी सनदों पर गौर किया
जब हमने गौर किया अपने पते पर आने वाली चिट्ठियों
तमाम तरह के निमन्त्रण पत्रों
जैसी हर जगहों पर खड़े दिखायी पड़े
हम या हमारे पिता ही
अब भले ही यह जान कर आपको अटपटा लगे
लेकिन सोलहो आने सही है यह बात कि
मेरे गाँव  में नहीं जानता कोई भी मेरी माँ  को
पड़ोसी भी नहीं पहचान सकता माँ  को
मेरे करीबी दोस्तों तक को नहीं पता
मेरी माँ  का नाम

अचरज की बात यह कि
इतना सब तलाश  करते हुए भी
जाने अंजाने हम भी बढे जा रहे थे
लगातार उन्हीं राहों पर
जिन्हें बड़ी मेहनत मशक्कत  से संवारा था
हमारे पिता
हमारे पिता के पिता
हमारे पिता के पिता के पिताओं ने
एक लम्बे अरसे से

खुद जब मेरी शादी हुई
मेरी पत्नी का उपनाम न जाने कब
और न जाने किस तरह बदल गया मेरे उपनाम में
भनक तक नहीं लग पायी इसकी हमें
और कुछ समय बाद मैं भी
बुलाने लगा पत्नी को
अपने बच्चे की माँ  के नाम से
जैसा कि सुनता आया था मैं पिता को
बाद में मेरे बच्चों के नाम में भी धीरे से जुड़ गया
मेरा ही उपनाम

अब कविता की ही कारीगरी देखिए
जो माँ  के घर जैसे मुद्दे को
कितनी सफाई से टाल देना चाहती है
कभी पहचान के नाम पर
कभी शादी ब्याह के नाम पर
तो कभी विरासत के नाम पर

न जाने कहाँ  सुना मैंने एक लोकगीत
जिसमें माँ  बदल जाती है
कभी नदी की धारा में
कभी पेड़ की छाया में
कभी बारिस की बूंदों मे
कभी घर की नींव में होते हुए
माँ  बदल जाती है फिर माली में
बड़े जतन से परवरिश  करती हुई अपने पौधों की
फिर बन जाती है वह मिट्टी
जिसमें बेखौफ उगते अठखेलियां करते
दिख जाते हैं पौधे
पौधों में खोजो
तो दिख जाती है पत्तियों में
डालियों में फूलों में फलों में
फिर धीमे से पहुँच जाती हमारे सपनों में

धान रोपती बनिहारिने गा रहीं हैं
कि जिस तरह अपने बियराड़ से बिलग हो कर
धान का बेहन दूसरी धूल मिट्टी में गड़ कर
लहलहाने लगता है फूलने फलने लगता है
उसी तरह गुलजार कर देती हैं अपनी विस्थापित उपस्थिति से
किसी भी घर को महिलाएं
खुद को मिटा कर

और जहाँ  तक माँ  के घर की बात है
मैं हरेक से पूछता फिर रहा हूँ 
अब भी अपना यह सवाल
कोई कुछ बताता नहीं
सारी दिशाएँ चुप हैं
पता नहीं किस सोच में

जब यही सवाल पूछा हमने एक बार माँ  से
तो बिना किसी लागलपेट के बताया उसने कि
जहाँ  पर भी रहती है वह
वही बस जाता है उसका घर
वहीं बन जाती है उसकी दुनिया
यहाँ  भी किसी उधेड़बुन में लगी हुई माँ  नहीं
बस हमें वह घोसला दिख रहा था
जिसकी बनावट पर मुग्ध हो रहे थे हम सभी   
  
                                                                              संतोष चतुर्वेदी 




नाम- संतोष चतुर्वेदी 
जन्म तिथि- 2 नव.1971  
जन्म स्थान - बलिया 
सम्प्रति - प्रवक्ता (इतिहास विभाग) एम.पी.पी.कालेज  मऊ, 
               जिला -चित्रकूट , उ.प्र.  
इलाहबाद से निकलने वाली अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका  " अनहद " का संपादन 
 सभी प्रमुख हिंदी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओ में कविताये और लेख प्रकाशित 
इतिहास और संस्कृति पर लिखी पुस्तकों के अलावा " पहली बार " शीर्षक से 2010 में काव्य संग्रह भी प्रकाशित 
मो. न.-   9450614857 
ब्लाग - www.pahleebar.blogspot .com