रविवार, 11 दिसंबर 2011

लन्दन के दंगे और पश्चिमी समाज






गत सितम्बर माह में इंगलैंड में भयावह दंगे हुए....हमने इन दंगो के दौरान पश्चिमी  समाज का वह चेहरा भी देखा , जो अपनी तमाम आधुनिकता के बावजूद इतना खोखला है ,कि एक छोटी सी ठोकर उसे औंधे मुह गिरा सकती है ....उन्ही दंगो के कारणों और परिणामों कि पड़ताल करता यह लेख आप सबके  लिए यहाँ प्रस्तुत है........यह लेख "समयांतर " पत्रिका के माह अक्टूबर अंक  में प्रकाशित हो चुका है...




                                                    लन्दन के दंगे और पश्चिमी समाज

दंगे समाज के चेहरे पर जख्म सरीखे होते हंैं,  जिनके निशान उन पर लगे घावों की तीब्रता के अनुसार ही बनते हैं। जब भी समाज इतिहास के आइने में अपना चेहरा देखता है, इन जख्मों के निशान उसकी सहिष्णुता/असहिष्णुता की कहानी बयान करते नजर आते है। जाहिर है, समाज कोई कपड़ा तो होता नहीं कि उस पर लगे हुए दाग/निशान समय के साथ धुल या मिट जाय, ना ही वह किसी स्लेेट जैसा होता है, जिस पर लिखी इबारत को अपनी सुविधानुसार मिटा दिया जाय, वरन् यह तो मानव जाति की जड़ांे में फैली स्मृतियों में बसा होता है, जहाँ से भविष्य की कोपलें फूटा करती हैं। वह मिटाने की तमाम नैतिक/अनैतिक कोशिशों के बावजूद मनुष्यता की स्मृतियों में अमरत्व को पा जाता है।
प्रत्येक दंगे की सामाजिक पृष्ठभूमि होेती है। उनसे पता चलता है कि उसके होने के समय और उससे पहले समाज किस दिशा में संचालित किया जा रहा था। प्रतिगामी ताकतों का वर्चस्व और प्रगतिशील तत्वांे के हासिये पर सिमट जाने की दास्तान इन दंगों में छिपी रहती है। कभी-कभी तो ऐसा भी देखा जाता है कि तत्कालीन व्यवस्था ही इन दंगों की पटकथा लिखती है। भारत में दंगों के इतिहास उपरोक्त सारी परिस्थितियों को बयान करते हैंै। हमारे देश के वर्तमान स्वरूप का उदय इन दंगों से पैदा हुये जख्मों की निशानी के लिए भी याद किया जाता है। उन दंगों का दिया हुआ घाव इतना गहरा था कि उसने इस देश के चेहरे को ही दो हिस्सों में तकसीम कर दिया। छः दशक गुजर जाने के बाद भी इन घावों से पैदा हुये जख्मों को भरा नहीं जा सका है और रह-रहकर उनसे टीस उभरती रहती है।
विभाजन से उत्पन्न उस आधे चेहरे को हमने बड़े जतन से मुकम्मल बनाने की कोशिश की, जो लगभग कामयाब भी रही लेकिन आजादी के बाद के दंगों ने इस बनाये चेहरे को भी साबुत नहीं रहने दिया। मेरठ, मुरादाबाद, भागलपुर, दिल्ली, बम्बई और गुजरात से मिले जख्मों के निशान स्पष्टता के साथ हमारे समाज के चेहरे पर देखे जा सकते हंै। हम जब भी अपना सिर उठाने की कोशिश करते हैं, इन जख्मो से कटा-फटा विद्रूप चेहरा हमें शर्मिन्दा कर देता है। ये सारी बाते आज अचानक मन में इसलिए उठ रही है कि अपने आपको बहुजातीय, बहुधार्मिक, उदार और लोकतंत्र की जननी कहे जाने वाले ब्रिटिश समाज का चेहरा भी इन दंगो से लहुलुहान हुआ है। उस विकसित और आधुनिक देश ने इन दंगों के दौरान दुनिया के सामने अपना वह चेहरा दिखाया है, जिस पर उसकी आने वाली नस्लें सिर्फ और सिर्फ शर्मिन्दा हो सकती है।
आइये! उस पूरे घटनाक्रम पर नजर दौड़ायें, जिसने उस तथाकथित सहिष्णु और प्रगतिशील समाज को इतना असहज बना दिया है। उत्तरी लन्दन का एक उपनगरीय इलाका है टोटेनहम, जहाँ से इन दंगों की शुरूआत हुयी। यह क्षेत्र अपनी बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय और बहुभाषायी विस्तार के लिए इंगलैण्ड ही नही वरन सम्पूर्ण यूरोप मे जना जाता है। अफ्रीकी, अमेरिकी, कैरेबियाई, एशियाई और यूरोपीय आबादी के मिश्रण से सुसज्जित इस क्षेत्र में लगभग 300 भाषाएँ बोल जाती हैं। 04 सितम्बर, 2011 को इसी इलाके में मार्क डगन नाम के एक एफ्रो-कैरेबियाई युवक  की पुलिस मुठभेड़ मंे मृत्यु हो गयी। पुलिस का कहना था कि उस पर मादक द्रव्यों की तस्करी और अवैध हथियार होने का संदेह था, जिसके आधार पर उसी तलाशी ली जानी थी। इसी तलाशी के दौरान उसने पुलिस पर गोली चला दी और पुलिस की जवाबी कार्यवायी में वह मारा गया। बाद की रिपोर्ट मेें इस बात का खुलासा हुआ कि उसके पास पिस्तौल तो थी, लेकिन उसने उसका इस्तेमाल नहीं किया था।
6 अगस्त, 2011 को उसके समर्थन में 200 लोगों का जत्था पुलिस स्टेशन पहुँचा। ये लोग इस घटना की स्वतन्त्र और निष्पक्ष जाँच की मांग कर रहे थे। पुलिस ने इन लोगों की बातों पर ध्यान नहीं दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उस जत्थे में शामिल अश्वेत युवाओं ने तोड़फोड़ शुरू कर दी। पहला निशाना टोटेनहम का पोस्टआफिस बना और देखते ही देखते पूरा टोटेहनहम इसकी चपेट में आ गया। अगले दिन अर्थात 7 अगस्त को इन घटनाओं ने पूरे लंदन को अपने आगोश मंे ले लिया। एनफील्ड, पोन्डर्स एण्ड, ब्रीक्स्टन के साथ-साथ लंदन के सभी उपनगरीय इलाके इसकी चपेट में थे। पहले दिन तो सिर्फ तोड़फोड़ चल रही थी लेकिन जैसे ही यह लंदन के उपनगरीय इलाकों में फैला, इसकी प्रकृति लूटपाट में बदल गयी।
08 अगस्त की सुबह और भी भयावह साबित हुयी। अव्यवस्था और लूटपाट का विस्तार पूरे इंग्लैण्ड में फैल गया। बर्मिंघम, लीवरपूल, लीड्स, ब्रीस्टल, नाटिंघम, मैनचेस्टर, लंकाशायर और मिडवे जैसे इंग्लैण्ड के लगभग सभी महत्वपूर्ण शहर इसकी विभीषिका में जलने लगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि एक तो इन दंगों की प्रकृति लूटपाट की थी, दूसरा कि इसमें सभी वर्गों के युवाओं की भागीदारी थी और तीसरा यह कि इन दंगाईयों के निशाने पर कोई भी एक वर्ग या समुदाय नहीं था। जिसको जो भी और जहाँ भी मिल रहा था, वह बहती टेम्स में हाथ धो रहा था।
9 अगस्त को भी दिन भर यही सब चलता रहा। टाईम पत्रिका ने इस सुबह के बारे में अपनी राय इस भयावह तरीके से दी ”द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लंदन में एक साथ इतनी बड़ी आगजनी की घटनाएँ कभी नहीं हुयी।” इसी दिन वहाँ के प्रधानमंत्री अपने विदेश के दौरे को बीच में छोड़कर वापस इ्रंग्लैण्ड लौटे। बैठकों और समीक्षाओं का सिलसिला आरम्भ हुआ और अब तक लगभग मूकदर्शक बनी ब्रिटिश पुलिस कुछ हरकत मंे आ गयी। पुलिस की निष्क्रियता इतनी अधिक थी कि विभिन्न वर्गों और समुदायों ने स्थानीय स्तर पर संगठन बनाकर अपनी रक्षा का जिम्मा स्वयं उठाना आरम्भ कर लिया था। 10 और 11 अगस्त को गिरफ्तारियों को सिलसिला आरम्भ हुआ, लगभग 2000 लोग हिरासत में लिये गये। 13 अगस्त को न्यूयार्क और लास एंजेल्स के पूर्व पुलिस प्रमुख बिल ब्राटन को प्रधानमंत्री का सलाहकार नियुक्त किया गया। अगले दिन अर्थात 14 अगस्त को इन दंगों की समाप्ति पर बीमा कम्पनियों ने यह अनुमान लगाया कि उन्हें लगभग 200 मिलियन पाउण्ड का हर्जाना देना होगा।
दंगों की इन घटनाओं को देखने के बाद कुछ महत्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने आते हैं। पहला तो यही कि पुलिस इसमें पूरी तौर पर निष्क्रिय बनी रही। शायद वह इनकी तीव्रता और फैलाव का अन्दाजा नहीं लगा सकी और यह भी कि उसे अपने अति-सक्रिय होने के इतिहास से भी डर लग रहा था। दूसरा तथ्य यह था कि इनका आरम्भ भले ही अश्वेत युवकों द्वारा हुआ, लेकिन शीघ्र ही इसके चपेट में सारे वर्ग और समुदाय आ गये। सभी वर्गों और समूहों के युवाओं ने ब्रिटिश समाज के सहिष्णुता और आधुनिकता के लबादे को नोच डालने में अपनी भूमिका निभायी। एक और तथ्य यह सामने आया कि इन्हें विस्तार देने के लिए संचार की आधुनिक तकनीकों का जमकर इस्तेमाल किया गया। फेसबुक, ट्वीटर और ब्लैकबेरी का दुरूपयोग इस तरह से भी किया जा सकता है, इनसे पता चला। ब्रिटिश समाज विश्लेषक डेलरीम्पल ने इन युवाओं के व्यवहार से इतने क्षुब्ध थे कि उन्होंने इन्हें ‘दुनिया के सर्वाधिक असंतुष्ट और हिंसक युवाओं’ की पदवी से नवाज दिया।
अब महत्वूपर्ण सवाल यह था कि इन दंगों के कारण क्या थे? जाहिर है इसका उत्तर भी अपनी-अपनी समझ और व्याख्या के अनुसार दिया गया। सामाजिक अलगाव, देश पर बढ़ते आर्थिक दबाव, उपभोक्तावाद की विलासितापूर्ण आदते, बेरोजगारी, जातीय संस्कृति और गैंग संस्कृति का मिला जुला काकटेल ही इस समाज को यहाँ तक खींच लाया। विश्व-व्यापी आर्थिक मन्दी और विकसित देशों की अर्थ व्यवस्थाआंे के उसमें लगातार फँसते चले जाने से ब्रिटेन जैसे देशों के समाज में गम्भीर समस्यायें पैदा हो गयी है। जब तक इन विकसित देशों के पास उपनिवेश होते थे, उनके पास यह सुविधा होती थी कि उन्हें लूटकर अपने समाज की खाइयों को पाट दिया जाय। आज ऐसी स्थिति रही नहीं। नीचे का तबका जिनके ऊपर इस मन्दी का सबसे बुरा असर हुआ है, अपनी आदतों को परिवर्तित नही कर पा रहा और उसे भी विलासता पूर्ण जीवन की लत लग चुकी है। उसने अपनी पुरानी पीढ़ी को सिर्फ ऐश करते देखा है और इतनी समस्याओं के बावजूद भी वह इस तथ्य को भी देख रहा है कि उसी के समाज का उच्च वर्ग ठस अहंकार के साथ ऐश्वर्य का नंगा नाच कर रहा है।
यह उस व्यवस्था का संकट है जिसने अपने समाज को इस नैतिक पतन तक पहुँचा दिया है। ध्यान रहे कि जो ब्रिटिश युवा आज इन दंगाइयों की कतार में खड़ा है, वह भूख से नहीं तड़प रहा और न ही उसके सामने अपने अस्तित्व का संकट है। उसके सामने ऐश का संकट है, विलासितापूर्ण जीवन जीने का संकट है और उसके सामने येन-केन-प्रकारेण इन चीजों का पाने का संकट है। उसका समाज उसे यही सिखाता आया है कि किसी भी प्रकार से उसके पास ऐसी चीजें होनी चाहिए। साधनों की पवित्रता उसके लिए पिछली शताब्दियों का मुहावरा है, जिसे उसके पूर्वजों ने उपहास बनाकर उड़ा दिया था। उसने जीवन की सिर्फ रंगीनियाँ देखी हैं, जिसे आज तक उसके उपनिवेश पूरे करते आये हैं।
एक पूँजीवादी समाज इसी परिणति तक पहुँचने के लिए अभिशप्त होता है। वह अपने ऊपर आये संकटों का ऐसा ही समाधान खोजता है। अपनी जरूरतों और विलासिताओं को नियन्त्रित करने के बजाय, उसे अपने ही लोगों को लूट लेने का विकल्प अधिक भाता है। कहा जाता है कि भूख और दरिद्रता नैतिक सवालों को दर किनार कर देती है। लेकिन यहाँ तो जीवन शैली और उसके अन्तर्विरोध ने यह कार्य कर दिखाया है। ऐसा नहीं कि उसने पहली बार ऐसा किया है, वह तो इतिहास में भी ऐसा करता आया है, फर्क यह है कि पहले वह अपने उपनिवेशों में यह कारनामा करता था और आज अपने पड़ोसी के साथ कर रहा है। लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ वही जिम्मेदार है, वह पड़ोसी नहीं। ऐसा नहीं है, जिम्मेदार तो वह पड़ोसी भी है, जो इन संकटों के समय भी धन, सत्ता और ऐश्वर्य  के शिखर पर नंगा नाच रहा है। अमेरिका और यूरोप से लेकर एशिया तक इस बुर्जुआ तबके को उसकी ऐयाशियों के लिए बेल-आऊट के रूप में करोड़ों अरबों का तोहफा दिया जा रहा है। दुनिया भर की सरकारों ने इनके लिए अपनी तिजोरियाँ खोल रखी हैं और यह मलाईदार अभिजात्य उसेदोनों हाथों से बटोर रहा है। उसे इस बात की थोड़ी भी चिन्ता नहीं कि हमारे अपने ही भाई बन्धु किस प्रकार घिसट रहे हैं। और वही क्यों? जिम्मेदार तो वह पूरी व्यवस्था है जिसने एक पूरे देश का, एक पूरी पीढ़ी का और एक पूरे समाज का नैतिक पतन कर दिया है। ब्रिटेन ही नहीं अमेरीकी कर्ज संकट का उदाहरण भी हमारे सामने है, जब वहाँ आर्थिक संकट खड़ा हुआ और यह प्रश्न आया कि करों में वृद्धि करके इस संकट से निपटा जाय या सामाजिक सेवा योजनाओं में कटौती करके तब उस अमेरिकी समाज ने वह दूसरा विकल्प ही चुना, जिसकी मार निम्न और मध्यवर्ग पर पड़नी थी। धन के एवरेस्ट पर बैठे उस समाज को पहला विकल्प स्वीकार नहीं था क्योंकि इससे अमीरों को अपनी जेब से चन्द अशरफियाँ निकालनी पड़ती।
हमें गैंग संस्कृति, बेरोजगारी, जातीय विभाजन और पुलिस की निष्क्रियता से आगे बढ़ कर देखने की जरूरत है। इसकी जड़े उस वयवस्था में फैली है, जिसे आज एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। लगे हाथ संचार तकनीकों के इस्तेमाल पर भी बात कर ली जाए। यह मूल प्रश्न से मुहँ चुराने वाली बात है। तकनीकें समाज का संचालन नहीं करती, वरन् उसे कुछ सुविधाएँ अवश्य दे सकती हैं और कुछ बेहतर भी बना सकती है लेकिन समाज का संचालन अनिवार्यतः और अन्ततः उस समाज का विवेक और नैतिकता ही करते हंै। यदि कोई भी समाज अपनी सामूहिक दृष्टि और चेतना से विचलित हो जायेगा, तो वह इन तकनीकों का आत्मघाती इस्तेमाल ही करेगा।
अन्त में इन दंगों के सबक को भारतीय पक्ष से भी देख लेना उचित होगा। जो लोग उन विकसित देशों की चकाचैंध को देखकर मन्त्रमुग्ध रहते हैं और भारत को भी वैसा ही बनाने का सपना देखते हैं, उन्हें भी यह जान लेना चाहिए कि धन के इतने भयावह अनैतिक संग्रह के बाद भी वह समाज घुटनों पर आ सकता है। महात्मा गाँधी ने उस प्रश्न के जवाब मेें कि ‘भारत कब इंग्लैण्ड जैसा बन जायेगा?’ बहुत उचित बात कही थी ”मैं कभी नहीं चाहता कि भारत इंग्लैण्ड जैसा बने। एक इतने छोटे देश को इस स्तर पर आने के लिए इतनी लूटपाट और अमानवीय तरीके की आवश्यकता होती है, फिर तो भारत के लिए ऐसी कई दुनिया चाहिए होगी।“ मजे की बात यह है कि इतनी लूटपाट के बाद भी बने उस देश के सामने संकट के समय पड़ोसी को लूट लेने का ही विकल्प बचता है। विकास चाहे कितना भी हो, समाज की सामूहिक नैतिकता ही इतिहास मेें उस समाज का चेहरा प्रस्तुत करती है।

रामजी तिवारी
बलिया



2 टिप्‍पणियां:

  1. राम जी भाई -.जब व्यवस्था अपने भूभाग ,जनसँख्या, के साथ न्याय नहीं कर पाती......जब तक समानता को व्यवस्था का अनिवार्य अंग नहीं बनाया जाता, ऐसे में सामाजिक मनोबृति संकीर्णता में तब्दील हो ही जाती है..........यही व्यैक्तिक विघटन........... सामाजिक विघटन की यात्रा में सामाजिक संकीर्णता के रूप में अभिव्यक्त होती है !!!!!!!!!!!!!...........................सादर..ravi shankar pandey...

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  2. सटीक टिप्‍प्‍णी... बधाई और शुभकामनाएं...shyam bihari shyamal.

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