रविवार, 15 जनवरी 2012

जिसकी मीडिया -उसका लोक ...............




दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका "रचना-क्रम" का "मीडिया और लोक" केंद्रित अंक प्रकाशित हुआ है | इसी पत्रिका में छपा मेरा यह लेख उसके स्थानीय पक्ष कि पड़ताल करता है | आप भी इसे देखें और संभव हो तो अपनी बेबाक प्रतिक्रिया भी दें..........................................रामजी .............................



                मीडिया और लोक---स्थानीय संदर्भ में


          आदर्श स्थिति तो यह है कि मीडिया और लोक एक दूसरे से अविभाज्य हों लेकिन आज परिदृश्य इसके उलट दिखाई देता है। खबरें वह बनती हैं, जिनसे आम आदमी का कोई वास्ता नहीं होता और ऐसी खबरें रह जाती है, जिससे हमारा अधिसंख्य समाज प्रतिदिन जूझता है। जाहिर है इसके अपवाद हो सकते हैं, जिन्हंे उपरोक्त बातों को काटने के लिए प्रयुक्त भी किया जा सकता है लेकिन स्थिति कुल मिलाकर यही है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि सूचना तंत्र के फैलते जाल और तकनीकी विकास की ऊचाईयाँ छूते देश में आम आदमी अपनी समस्याओं के साथ मीडिया के बाहर ही कराह रहा है ? क्या यह अनायास है या सायास ?
          इस सवाल को जानने के लिए मीडिया के वर्तमान चरित्र को जानना परखना होगा। आखिर यह किसकी मीडिया है ? इसे कौन संचालित करता है ? इस संचालन के पीछे उसकी कौन सी प्रेरणा काम करती है ? और अन्ततः वह इस मीडिया से क्या हासिल करना चाहता है? ये कुछ ऐसे सवाल है, जिनका बिना सामना किये आप मीडिया और लोक के बीच की खाई को नहीं समझ पायेगें।
          वैसे तो यह परख आज सपूर्ण मीडिया पर ही लागू होती है लेकिन प्रिन्ट मीडिया के सन्दर्भ में यह पड़ताल आँखों को खोलने वाली हो सकती है, जिसका अपना लम्बा गौरवशाली इतिहास रहा है। इसके भीतर आये कुछ खास परिवर्तनों को रेखांकित करने से इस बदलाव की झांँकी मिल सकती है। पहला परिवर्तन तो यह है कि वर्तमान मीडिया के प्रेरक तत्व बदल गये हैं। वह समाज सेवा, उसे बदलने की ईच्छा और नैतिक आग्रहों के साथ अपनी समझ को साझा करने की पुरानी बात से विचलित हो गयी है। आज यह उद्योग है, व्यवसाय है और व्यापार है, जिसका सूत्र वाक्य मुनाफा है। यह मुनाफा पैसा, पद, प्रतिष्ठा और सत्ता किसी भी रूप में अर्जित किया जा सकता है। दूसरा बड़ा परिवर्तन केन्द्रीकरण और संलयन की अवधारणा है। आज पहले के उलट मीडिया पर कुछ बड़े घरानों का कब्जा है और यह कब्जा धीरे-धीरे बढ़ता चला जा रहा है। इसमें छोटे और स्थानीय संस्थान सिमटते और बन्द होते जा रहे हैं। तीसरा बड़ा परिवर्तन पूँजी की विशालता है। इस परिवर्तन ने यह तय कर दिया है कि इसका मालिकाना हक किसी पूँजीपति के हांथ ही में रहेगा। चौथा परिवर्तन मालिक और सम्पादक के बीच का मिटता अन्तर है। पहले दोनों की अलग-अलग पहचान होती थी। आज यह खत्म हो चली है। एक और बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि आज के पत्र पत्रिकाओं की लागत और उसके बिक्री मूल्य का अन्तर तर्कातीत हो गया है। 20 रूपये की लागत वाला अखबार 3 रूपये में बिकता है और शेष को पाटने का जिम्मा विज्ञापन उद्योग निभाता है।
          ऊपर के स्तर पर आये इन परिवर्तन को आप स्थानीय स्तर पर भी महसूस कर सकते हैं। एक छोटे शहर की प्रिंट-खासकर अखबारी मीडिया के सन्दर्भ में यह पड़ताल हमें यह बताती है कि शीर्ष पर आये सारे बदलावों ने इन स्थानीय परिदृश्यों में आमूल चूल परिवर्तन किया है।
          स्थानीय अखबारों की बन्दी या हासिये से बाहर चले जाने को आप किसी भी छोटे शहर में देख सकते हैं। बड़े घरानों के अखबार स्थानीय संस्करणों के साथ यहाँ उपस्थित है, जिनके पास संसाधनों की बड़ी ताकत है। इनको देखकर यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि ये राष्ट्रीय समाचार पत्र ही है। सोलह पेज के अखबार का चार पृष्ठ ही राष्ट्रीय होता है। मुख्य पृष्ठ, आर्थिक जगत, सम्पादकीय पृष्ठ और खेल जगत। शेष 12 पृष्ठ स्थानीय पृष्ठ भूमि के होते हैं। इन्हें आप एक से दूसरे पड़ोसी जिले में जाकर बदला हुआ पायेंगे। विरोधाभास यह है कि स्थानीय समाचारों की बाढ़ में भी आम आदमी की खबरें नदारद है। यह हैरान करने वाली बात है कि एक छोटे से जिले के लिए छ पेज निर्धारित होने के बावजूद भी जिले की मुख्य समस्यायें अनदेखी और अनकही कैसे रह जाती हैं ?
          यहाँ भी सारा मसला परिवर्तनों और प्रेरक तत्वों का ही है। प्रत्येक जिले में प्रत्येक अखबार का का एक जिला सम्वाददाता है, जो कि वितरक और जिला प्रसारक भी है। उसकी जिम्मेदारी अखबार को बेचने की भी है, खबरों को जुटाने की भी और विज्ञापनों के माध्यम से कमाने की भी। कहने के लिए एक व्यूरो प्रमुख है, जिसकी तनख्वाह 5 हजार के आसपास है। उसके पास 4 से 5 टाईप करने वाले लड़के हैं, जिन्हे 2 से 3 हजार का मासिक भुगतान किया जाता है। हर तहसील पर एक स्वनियुक्त संवाददाता है जो जिला संवाददाता की ही तर्ज पर कार्य करता है। वह पत्रकार भी है, वितरक भी और विज्ञापन जुटाने वाला भी।
                 इस तहसील स्तर वाले संवाददाता का कार्य प्रत्येक चट्टी-चौराहे पर अपने ही जैसा स्वघोषित पत्रकार नियुक्त करने का होता है। जिला संवाददाता , व्यूरो प्रमुख और कुछ टाईप करने वाले को छोड़कर किसी के भी पारिश्रमिक का भुगतान अखबार नहीं करता। नीचे की पूरी टीम अपने पैरों पर खड़ी है। वह अखबार का इस्तेमाल हथियार के रूप में करती है, जिसके माध्यम से छोटे-मोटे अधिकारियों,डाक्टरों, स्थानीय नेताओं, ठेकेदारों और व्यापारियों से विज्ञापन वसूला जाता है। इस विज्ञापन वसूली का सिद्धान्त भी बड़ा निराला है। वह सालों साल चलता है। राष्ट्रीय पर्व हो,धार्मिक त्यौहार हो, अखबार का स्थापना दिवस हो, जिले की महत्वपूर्ण तिथि हो और इन सबके न होने पर भी कुछ ऐसा ही गढ़ लिया जाता है, जिससे यह धन्धा जारी रख जा सके। विज्ञापन किससे लिया जायेगा और उसमें मूल्यों, मान्यताओं की क्या जगह होगी, यह बहस के बाहर का विषय है। अखबार स्वयं अपने पहले पृष्ठ पर ही नो आईडिया सर जी!की बात कह कर मानदण्ड को साफ कर देता है।
          अखबार इन स्थानीय खबरचियों को कुछ नहीं देता, फिर भी इनकी रोजी-रोटी चलती है, तो यह विज्ञापनों के विविध आयामों से ही सम्भव हो सका है। पहला आयाम है कि लोग स्वयं अपना विज्ञापन अखबार को देते हैं। इनमें बड़ी कम्पनियाँ, कोचिंग संस्थाए, सरकारी विभाग और अपराध से राजनीति में प्रवेश करता स्वघोषित समाजसेवी शामिल होता है। ये सभी विज्ञापन बड़े स्तर के होते हैं और छुटभैये पत्रकारों की भूमिका से बाहर ही तय कर लिये जाते हैं। बड़े शहरों के नामी-गिरामी पत्रकारों (?) की टीम इसका प्रबन्ध करती है।
          दूसरा आयाम बड़े और छोटे व्यक्तियों, संस्थाओं से सम्पर्क कर विज्ञापन जुटाने का होता है। इस कार्य को अखबार का प्रत्येक चरण सम्पादित करता है। वह छोटा-मोटा चट्टी-चौराहे वाला स्वनाम धन्य संवाददाता हो या फिर शीर्ष पर बैठे नामी-गिरामी पत्रकारों की टीम। विज्ञापन के आधार पर कमीशन दिया जाता है। तीसरा आयाम अधिकतर स्थानीय स्तर पर ही संचालित होता है। इसमें लोगों को उनकी जेब के  आधार पर चयनित किया जाता है और उनके नाम से विज्ञापन छाप दिया जाता है। बाद में अखबार की कटिंग और प्रकारान्तर से धौंस पट्टी दिखाकर वसूली कर ली  जाती है। इन सबसे अलग एक चौथा आयाम भी है। इसमें विज्ञापन के लिए सम्पर्क किया जाता है, जिसमें विज्ञापन देने वाला उनकी दरों की अधिकता का रोना रोता है और उस विज्ञापन को अपने लिए अनुपयोगी बताता है। यहाँ एक हजार के विज्ञापन की दर पाँच सौ में तय होती है, जिसे वह पत्रकार अपनी जेब में रख लेता है। अव्वल तो विज्ञापनदाता अपने विज्ञापन को देखता ही नहीं क्योंकि वह खुद ही अनिच्छुक रहता है और यदि कभी देखने का प्रयास भी करता है तो यह समझा दिया जाता है कि आपका विज्ञापन पड़ोसी जिले के संस्करण में चला गया है।
          स्थानीय संवाददाताओं/पत्रकारों की टीम विज्ञापनों के इसी कुटीर उद्योग के सहारे अपने पैरों  पर खड़ी रहती है। हाँ इसके अलावा छोटे-मोटे वैध-अवैध कार्य भी अखबार को हथियार बनाकर संपादित कराये जाते हैं। अब चूँकि वे संवाददाता भी है, तो लगे हाथ कुछ खबरे भी जिले तक पहुँचा दी जाती है। इन खबरों का भी अपना समाजशास्त्र और अर्थ शास्त्र है। प्राइवेट ट्रीटी और पेड न्यूज के सिद्धान्त को इन स्थानीय संवाददाताओं ने बखूबी समझा है। कुछ बड़े और रसूखदार लोगों से समझौता रहता है कि उनके खिलाफ कोई भी खबर इस जिले से नहीं जायेगी। यह प्राईवेट ट्रीटी का स्थानीय संस्करण होता है वहीं पेड न्यूज के अनुसार सौ, दौ सौ, हजार के हिसाब से भुगतान कर आप अपने मुताबिक खबरे अखबार में छपवा सकते हैं।
          यहाँ समाचार स्वयं चल कर आते हैं। जिनके पास यह ताकत होती है वे अखबारों के पन्नें तक पहुँच जाते हैं और जिनके पास यह क्षमता नहीं होती है, वे गलियों-कूचों में ही दम तोड़ देते हैं। इनके कुछ अपवाद भी है। जिनमें आपराधिक घटनाएँ, दुर्घटनाएँ, नेताओं और अधिकारियों के समाचार शामिल है। बीच-बीच में जनहित के समाचार भी लगाये जाते हैं। लेकिन यह तथ्य हमेशा ही याद रखा जाता है कि सरकारी नीतियों और व्यवस्था की विद्रूपताओं के उद्घाटन की सीमा क्या हो। अखबार की सम्पादकीय नीति भी चुभते और असहज कर सकने वाले सवालों से बचती है और वही काम यहाँ की स्थानीय पत्रकारिता भी करती है।
          कुल मिलाकर पूँजी और बाजार का खेल मीडिया में इस कदर हावी है, कि इस तक नहीं पहुँच सकने वाले लोगों के लिए यह खट््राग बन कर रह गया है। हमारे क्षेत्र के सभी स्थानीय अखबार आज लगभग बन्द पड़े हैं। इन्हंे चलाने के लिए ना तो वह पूँजी है ना ही वह तकनीक। फिर उनका सामना बड़े घरानों के अखबारों से है जिनके 10 पृष्ठ के जिला/स्थानीय संस्करण है। लाजिमी है कि ये अखबार अपनी अन्तिम साँस गिने। थोड़ी सी संख्या में इन्हंे छापकर सरकारी दफ्तरों में पहुँचाया जाता है, जिससे अखबार के चलते रहने का पता लग सके और उसको मिलने वाली सरकारी मदद को जारी रखवाया जा सके।
          ऐसी मीडिया से यदि आमजन गायब है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। अखबार और टीवी मीडिया के अपने लोग और अपना व्यापार है। इनमें छपने/दिखने वाली खबरें उनकी ही होती है, जिसके बल पर ये चलते हैं। मुख्य धारा की पत्रिकाओं की स्थिति भी कमोवेश ऐसी ही है। लेकिन पत्रिकाओं में ही उम्मीद की किरण भी है। यहीं पर वह वैकल्पिक मीडिया दिखती है, जो अपने कम संसाधनों में भी पत्रकारिता के मूल्यों को जिन्दा रखे हुये है। इनमें छपने वाली खबरों का विस्तार और सरोकार न सिर्फ व्यापक होता है वरन लोकतांत्रिक और प्रगतिशील भी।
          हर समय और समाज की मुख्यधारा कुछ मिथकों को आधार बनाकर संचालित की जाती है। हमारे समय का एक मिथक मीडिया भी है, जिसे लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में पवित्र बना दिया गया है और इस पवित्रता की कीमत हमारा समाज चुका रहा है। वह उसे अपनी आवाज मानता है, जो दरअसल उसी के खिलाफ खड़ी है। तो क्या दोष मीडिया का ही है? नहीं। उसके लिए समाज और व्यवस्था दोनों जिम्मेदार है। जैसी व्यवस्था होगी, वैसा ही समाज होगा और वैसी ही मीडिया भी। हांलाकि यह मीडिया का बचाव नहीं हो सकता क्योंकि उसकी भूमिका उस समाज और व्यवस्था के निर्माण की भी होती है, जिसमें वह संचालित होती है। जरूरत व्यवस्था को ठीक करने की है, जो दरअसल लोकतांत्रिक हो | जाहिर तौर पर  इसे रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी मीडिया की भी है। फिलहाल तो उस प्रश्न के उत्तर में कि यह किसकी मीडिया और किसका लोकहै ? यही कहा जा सकता है कि यह जिसकी मीडिया उसका ही लोकहै।

                                                                                


                              रामजी तिवारी 
                              बलिया , उ.प्र.
          
          

3 टिप्‍पणियां:

  1. bahut kaam ka lekh likha hai aapne. meri badhaai sveekaarain.

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  2. बढ़िया लिखा है रामजी भाई...सटीक और मारक

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  3. ramji bhaee, aapne media ki hakikat ko bade karine se udghaatit kiya hai. mitra media ke sach bada bhayavah hain. jis media ko loktantra ke chauthe stambha ki sangya di jati hai, jab usi ki andar yah hal hai to apne loktantra ki majbooti ko ham bakhoobi samajh sakte hain. behtar lekh padhane ke liye aabhar. santosh chaturvedi.

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