अलविदा अदम गोंडवी
गत 18 दिसंबर 2011 हिंदी के लोकप्रिय , क्रान्तिकारी और जनवादी शायर अदम गोंडवी का लखनऊ में निधन हो गया | उ.प्र. के गोंडा जिले में 22 अक्टूबर 1947 को जन्मे रामनाथ सिंह उर्फ़ अदम गोंडवी पिछले कुछ समय से लीवर में संक्रमण की बीमारी से जूझ रहे थे | आर्थिक अभावों ने उन्हें आरंभिक स्तर पर अच्छे और उपयुक्त इलाज से वंचित रखा और जब तक यह खबर आम होती और उनके समर्थको / शुभचिंतको द्वारा लखनऊ के पी.जी.आई. अस्पताल में दाखिल कराया जाता , तब तक उनका संक्रमण गंभीर हो चला था |अंततः इस संक्रमण ने दुष्यंत कुमार की परंपरा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिंदी जनवादी गजलकार को हमसे छीन लिया | उनकी प्रतिनिधि रचनाये "धरती की सतह पर " और "समय से मुठभेड़" है |
अदम गोंडवी ने जनवादिता और क्रांतिकारिता का पाठ जीवन की इसी पाठशाला से सीखा था | उन्हें किसी स्कूल या कालेज की शिक्षा कभी नसीब नहीं हुयी | दिखने में वे बेहद जनपदीय थे | मटमैली धोती और कुर्ते के साथ गले में गमछा लपेटे जब वे मंच को संभालते थे , तब यह भेद खुलता था कि वे खयालो और विचारो में कितने प्रगतिशील थे | कवि बोधिसत्व ठीक ही कहते है "उन्होंने आम अवाम का हमेशा पक्ष लिया और उसी के साथ आजीवन खड़े भी रहे | अंत तक न वे बदले , न उनकी कविता बदली और न ही उनका पक्ष बदला | बदलने और बिकने के लिए जहाँ इतना बड़ा बाज़ार मुँह बाये खड़ा हो , अदम साहब की यह अटलता अनुकरणीय और विस्मयकारी है |
अदम साहब का जन्म भारत की आज़ादी के साथ ही हुआ था | वह अपेक्षाओ और आकांक्षाओ का दौर था | लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया , हमारे देखे गए सपने बिखरते चले गए | इसी समय कविता के परिदृश्य पर धूमिल और मुक्तिबोध जैसे कवियों का आगमन हुआ | इनकी कविताओ में आज़ादी से मोहभंग , हताशा और ऊब को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है | हिंदी गजल में यही काम बाद में चलकर अदम गोंडवी ने किया | उनकी रचनाये व्यवस्था से मोहभंग की प्रतिनिधि आवाज बन गयी |उन्होंने लिखा -
"काजू भूने प्लेट में , व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज्य विधायक निवास में |
पक्के समाजवादी हैं , तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के लिबास में ||"
उन्होंने व्यवस्था द्वारा दिखाई गयी आंकड़ो की बाजीगरी पर भी करार प्रहार किया | हम सब इस बाजीगरी के आज भी भुक्तभोगी है , जब एक तरफ विकास दर के आसमानी होने का दावा किया जा रहा है , वही देश की तीन चौथाई जनता रसातल में जीवन यापन कर रही है |
"तुम्हारी फाईलो में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़े झूठे है , ये दावा किताबी है |
तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है ||"
एक तरफ वे व्यवस्था जनित विद्रूपताओ पर लगातार बरसते रहे , वही दूसरी ओर उन्होंने अपने समय के ज्वलंत सामाजिक सवालो से भी लगातार मुठभेड़ किया | साम्प्रदायिकता पर उन्होंने लिखा -
"हममे कोई हूण, कोई शक , कोई मंगोल है
दफ़न जो बात अब उस बात को मत छेड़िए |
छेड़िए इक जंग मिलजुलकर गरीबी के खिलाफ
दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए || "
उच्च वर्ण में पैदा होने के बावजूद उन्होंने सदियों से चली आ रही जातीय श्रेष्ठता और घृणा पर भी प्रहार किया -
"वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें|
लोकरंजन हों जहाँ शम्बूक वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करे |"
यह अदम गोंडवी ही थे , जिन्होंने "चमारो की गली " शीर्षक से एक लम्बी गजल लिखी | यह गजल आज भी शोषितों और दलितों की आवाज के रूप में जानी पहचानी जाती है |हिंदी क्षेत्र के जनवादी कार्यक्रमों में उनकी गजलों की हमेशा धूम रहा करती थी | हालाकि उन्हें इस बात का बहुत मलाल था , कि जिनके हाथों में कलम की ताकत है , वे चंद मुहरों के लिए अपना सब कुछ गिरवी रख देने पर आमादा हैं |
"जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ खुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुसकर तमाशा देखिये |
जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को
किस तरह अश्लील है कविता कि भाषा देखिये |"
यह देखना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि उर्दू के साथ साथ जब हिंदी गजल की एक बड़ी धारा भी प्रेयसी की जुल्फों और मयखानों की गलियों में उलझी हुयी थी , अदम गोंडवी ने हमेशा उसे जनवादी रास्ता ही दिखाया | यह काम उन्होंने उस मंचीय कविता का हिस्सा होते हुए भी किया जहाँ चुटकुलों और द्वी -अर्थी तुकबंदियों ने सारा मंजर अपने कब्जे में कर रखा है | जहाँ कविता पढना अपना उपहास उड़ाने के बराबर हों गया है , वहाँ भी वे कविता में जनवादिता और क्रांतिकारिता की मशाल लिए अपने पूरे तेवर के साथ बने रहे |
"आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी
हम गरीबो की नजर में इक कहर है जिंदगी |"
उन्होंने एक दूसरी गजल में लिखा -
" चाँद है जेरे कदम , सूरज खिलौना हो गया
हाँ मगर इस दौर में किरदार बौना हो गया
ढो रहा है आदमी काँधे पर खुद अपनी सलीब
जिंदगी का फलसफा अब बोझ ढोना हो गया |"
और ये पंक्तियाँ तो अदम साहब की ट्रेडमार्क ही हो गयी
"इस व्यवस्था ने नयी पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ और गोलियां सल्फास की |"
अदम गोंडवी आज हमारे बीच नहीं है , लेकिन उनकी क्रान्तिकारी कविताये सदा हमारे बीच रहेंगी | आलोचक आशुतोष कुमार कहते है " जीवन में उन्होंने घनघोर अभाव देखा , लेकिन अपनी मकबूलियत को कभी नहीं भुनाया |ऐसे समय में जब कारपोरेट और वित्तीय पूंजी का आतंक पूरे विश्व पर छाया हुआ है , आम लोगो के जिंदगी की , तकलीफों से उठने वाले प्रतिरोध की और भरोसे की इस आवाज का खामोश होना बेहद दुखदायी है | "अदम की स्मृतियों को हम सबका क्रान्तिकारी सलाम | अलविदा अदम गोंडवी |
रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
अभी अभी आपका आलेख पढ़ा. वाकई अदम जी के प्रति यह बेहतर श्रद्धांजलि लेख है. जिन्दगी भर जनवादी उसूलों के लिए यह प्रतिबद्धता आज कितने रचनाकारों में दिखायी पड़ती है. जोड़ तोड़ करने वाले, किसी भी कीमत पर केवल अपना हित साधने में माहिर, घडियाली आंसू बहाने वाले हमारे रचनाकार मित्र अगर अदम जी के जीवन से कुछ सीख ले सके तो इससे बढ़ कर और कोई श्रद्धांजलि नहीं हो सकती.
जवाब देंहटाएंMohan Shrotriya बढ़िया लिखा है, भाई. एक लेख कल मैंने अपने ब्लॉग पर भी दिया था. आपकी नज़र नहीं पड़ी शायद.
जवाब देंहटाएंadam sahab ke kavi vyaktitv par ek sarthak tippani
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