इस संस्मरण के बहाने अशोक कुमार पाण्डेय अपने अतीत के
दिनों को याद करने की कोशिश कर रहे हैं | उन दिनों को, जिसमें किसी भी मनुष्य के
बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली क़िस्त में उन्होंने गोरखपुर
विश्वविद्यालय में अपने हास्टल के दिनों को याद किया था | इस क़िस्त में वे 6
दिसंबर 1992 के उस मनहूस दिन को याद कर रहे हैं, जिसने हमारी सामाजिक समरसता पर एक
गंभीर आघात दिया था |
तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक कुमार
पाण्डेय के
संस्मरण
‘ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर’ की ग्यारहवीं क़िस्त
समय के साथ सेन्स आफ टाइमिंग भी गड़बड़ा जाता है. चीज़ें
गड्डमगड्ड हो जाती हैं. अभी भी सोच रहा हूँ तो ठीक ठीक याद नहीं कर पा रहा कि उस
साल विश्वविद्यालय के चुनाव पहले हुए थे या छः दिसंबर पहले आया था. स्मृति दोनों
की ताज़ी है. लेकिन आज छः दिसंबर की याद ही. चुनाव तो हर साल होने थे. पर वह
अन्धेरा दिन जीवन में कभी कभी ही आता है और एक लम्बे वक्फे में तारीकी के स्याह
रंग भर जाता है. इस बार यही क़िस्सा. दिसंबर 92 की उन रातों की एक याद. यह एक अलग
से लिखा टुकड़ा कुछ दुहराव के ख़तरों के बावज़ूद...कि इसके बिना मेरा कोई संस्मरण पूरा
नहीं हो सकता.
वह एक ठंढी खामोश रात थी जिसके बाद निकलने वाले सूरज को हमेशा के लिए
स्मृति में एक अँधेरे की तरह दर्ज़ हो जाना था. गोरखपुर में बस स्टेशन के ठीक बगल
स्थित लड़कों के छात्रावासों में से एक नाथ चंद्रावत छात्रावास. विश्वविद्यालय ही
नहीं शहर और शहर के बाहर भी किस्से मशहूर थे इसके. कैसे इस हास्टल में पुलिस ने
रात भर घेराबंदी कर बोरों में भर-भर कर हथियार बरामद किये थे, किस नंबर के कमरे
में लाश मिली थी, किस कमरे में फलां सिंह या अलां मिसिर को गोली मारी गयी थी. एक
किस्सा यह भी था कि इसका नाम एक बार बी बी सी पर भी आया था. जी हाँ, वह उदारीकरण
के दौर का शुरूआती साल था जहाँ बी बी सी हमारा इकलौता उपलब्ध ग्लोबल चैनल था,
जिसका कहा पत्थर की लक़ीर था. खैर, इन सब किस्से-कहानियों के बावज़ूद वह सर्द रात
इम्तिहान के दिनों के ठीक पहले वाली रात थी और इन किवदंतियों के साथ यह बात भी
मशहूर थी हमारे छात्रावास की कि यहाँ से कोई फेल नहीं
होता...रतजगे-पढ़ाई-भूख-बहसें....इन सबके बिना कोई हास्टल नहीं बनता. इन सबसे रौशन
वह रात थी. इम्तिहान के पहले के दिनों की रात जब हास्टल में अखबार, रेडियो,
अड्डेबाजी...सब बंद हो जाती थी...पढाई-पढाई...बस पढ़ाई. लेकिन उस बरस ख़बरें इस क़दर
चक्रवात सी घूम रही थीं फिज़ा में कि बीच-बीच में कुछ न कुछ कहीं से आ ही जाता
था...अयोध्या में पांच लाख कारसेवक (यह हम जैसे पूरबिहों के लिए नया शब्द था)
पहुँच चुके हैं, पूरी मस्जिद के नीचे बारूद बिछा दिया गया है, कल्याण सिंह ने
पुलिसवालों से कहा है कि कोई एक गोली नहीं चलाएगा, साध्वी ऋतंभरा ने अपने योगबल से
सारी फ़ौज को वश में कर लिया है, उमा भारती ज़मीन के नीचे किसी सुरंग से एक लाख
लोगों के साथ पहुँच रही हैं. सेना से बात हो गयी है और बहुत जल्द आडवाणी देश के
प्रधानमंत्री बना दिए जायेंगे. ..वगैरह-वगैरह! ये अफवाहें थीं. देवरिया जैसे शांत
इलाके में रहे मुझ जैसों के लिए योजनाबद्ध अफ़वाहों और भूमिगत प्रचार-तंत्र के
गोएबली संस्करणों से मुठभेड़ का पहला अवसर, बाद में गुजरात में गोधरा और उसके बाद
के दौर के पहले और बाद में इससे मेरा दूसरा साक्षात्कार हुआ. इन सबके साथ बजते
ऋतंभरा और उमा भारती के भाषणों के कैसेट, चमकदार कवर वाली किताबें – ‘हिन्दू समाज
के गौरव का प्रतीक – रामजन्मभूमि’, ‘ताजमहल एक हिन्दू मंदिर था’...वगैरह-वगैरह (इस
वगैरह-वगैरह को बर्दाश्त कीजिए दोस्तों, कोई दो दशक बीत गए और स्मृतियों में जो दर्ज
है उसका बड़ा हिस्सा वगैरह-वगैरह की शक्ल में ही).
थोड़ा पीछे घूम आयें? केवल तीन-चार हफ्ते पहले? जहाँ दो दशक की बात है
वहां कुछ हफ़्ते और सही. रोज़ निकलते जुलूसों सा ही यह एक और जुलूस था देवरिया की
मालवीय रोड पर ... रामलला हम आयेंगे-मंदिर वहीँ बनायेंगे...जिस हिन्दू की भुजा न
फडकी/ खून न खौला सीने का/ भारत माँ का लाल न होगा/ होगा किसी कमीने का...जुलूसों
में लाल पताका माथे पर बाँधे, लम्बे तिलक लगाए, मुट्ठियाँ लहराते एक गहरे काले रंग
के बड़ी-बड़ी आँखों वाले लड़के को पहचानिए...पहचाना? यह वही है कुछ महीनों पहले जो
शहर के राजकीय इंटर कालेज की सुबह की प्रार्थना के बीचो-बीच मंच पर मुट्ठियाँ
लहराते पहुँच गया था और हाई-स्कूल में चौहत्तर परसेंट नंबर लेकर पास हुए भौतिकी के
नामचीन प्रोफ़ेसर के इस लड़के को मंच से चिल्ला-चिल्ला के मंडल कमीशन के खिलाफ भाषण
देते, कालेज बंद कराते, फिर घूम-घूम कर सारा शहर बंद कराते, जिलाधिकारी के
कार्यालय के सामने कोई चार हज़ार लोगों की भीड़ के आगे भाषण देते, सड़कों पर धरना
देते, लाठियाँ खाते, गिरफ्तारी देते देख कालेज के शिक्षक ही नहीं बहुत सारे लोग
हैरान रह गए थे...पर इकलौता वही नहीं, मंडल के खिलाफ भीड़ में हिस्सेदारी करता
युवाओं का पूरा जत्था इस समय इसी रूप में लाल पताका माथे पर बाँधे, लम्बे तिलक
लगाए, मुट्ठियाँ लहराते मौजूद था ...बस नारे बदल गए थे...चेहरे वही. हम सब
मध्यकालीन योद्धाओं में तब्दील हो गए थे...अपने ध्वस्त होते जातीय गौरव के बरक्स
आर-पार की लड़ाई में सन्नद्ध. [उसके बाद का किस्सा थोडा व्यक्तिगत है. विवेकानंद
छात्रावास के (जहाँ प्राचीन इतिहास के प्रोफ़ेसर शैल नाथ त्रिपाठी, सच्चिदानंद
मिश्र उर्फ़ सनम के राज में ब्राह्मण राज था...लेकिन एम ए तक पहुँचते-पहुँचते मुझे
और निर्भय पाण्डेय को अच्छे परसेंटेज के बावजूद वहां कमरा नहीं मिला कि हम ‘दिशा
वाले’ बन चुके थे...कम्यूनिस्ट!) किसी कमरे में ए बी वी पी की बैठक, वहाँ
मुसलमानों के लिए किए गए तंज, मेरा विरोध, उनके नेता मस्तराज शाही से तीखी बहस,
फिर समाजवादी नाना से लम्बी बात, पिता द्वारा, जो अपनी तमाम ‘ब्राह्मणोचित’
प्रवृतियों के बावजूद कट्टर नहीं हो पाते थे, इस आन्दोलन से जुड़े लूम्पेन तत्वों
के इतिहास का विस्तृत वर्णन और सबसे अधिक डा डी पी सिंह से, जो उस दौर में मेरे
संपर्क में आये इकलौते लिबरल व्यक्ति थे, बेहद जहीन अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर, कीट्स
के प्रेमी, नेहरूवादी सेकुलर (एक और चीज़ जोड़ दूं कि वह मेरे नाना के शिक्षक रह
चुके थे) लम्बी बातचीत...सबका असर यह हुआ कि मैंने इन सब से खुद को अलग किया और
परीक्षा देने का निर्णय लेकर सतुआ-पिसान ले हास्टल पहुँच गया.]
तो फिर लौटते हैं उसी रात की ओर. कोई नौ बजे होंगे. हम खाना इसीलिए कम
खाते थे कि कहीं नींद न आ जाए. हास्टल में मेस जैसी कोई चीज़ थी नहीं और सहारा था
बस स्टेशन का कैंटीन, जहाँ कोई चालीस बरस का, ग़रीब तोंद और खिचड़ी मूंछों वाला
‘सुंदरी’ एक रुपये की चाय और उतने की ही सुहाली के साथ अपने आठवें-नवें सुर में
गाने सुनाता और सीनियर्स के नींद भगाने के नुस्खे के रूप में खोजे गए महान प्रयोग के अनुकरण में हम सिगरेट की राख
चाय में डालकर पीते. ज़्यादा भूख लगने पर रेलवे स्टेशन का पूड़ी सब्जी का स्टाल था
जहाँ मसले हुए उबले आलूओं के साथ आठ गरम पूरियाँ पांच रुपये में मिलतीं (बाद में
दिशा से जुड़ने के बाद, जिसका आफिस स्टेशन के ठीक सामने था, यह भोजन वर्षों हमारा
नियमित डिनर बना) या हास्टल गेट के ठीक सामने का भरपेट भोजनालय जहाँ आठ रूपये में
पर्याप्त खाना मिलता, लेकिन वह दस बजे तक बंद हो जाता. उस रात भी हम बाहर निकले.
अगर स्मृति ठीक साथ दे रही है तो साथ में थे आलोक सिंह (जो इन दिनों अन्ना आन्दोलन
में सक्रिय हैं), निर्भय पाण्डेय और शायद एक-दो और मित्र. बस स्टैंड तक पहुंचे तो
भयावह सन्नाटा था. हमेशा गुलज़ार रहने वाला जनता मार्केट ही नहीं बस स्टैंड भी बंद.
हम रेलवे स्टेशन की ओर चले. कोई पचास कदम चले होंगे कि सामने से एक जीप ने रोका.
अन्दर से निकले दरोगा साहब. कड़क आवाज़ में पूछा – कहाँ जा रहे हो? हमने जवाब दिया –
हास्टल के हैं. फिर सवाल- लेकिन आज के दिन बाहर क्यों निकले. हमने कहा – भूख लगी
थी. वैसे आज सब बंद क्यों है? उनका जवाब – तुम्हें नहीं पता क्या हुआ? अयोध्या में
मस्जिद गिरा दी सालों ने. देश भर में बवाल मचा है. हमने कहा – लेकिन सुबह से कुछ
नहीं खाया. बहुत भूख लगी है. उनका चेहरे के भाव बदले – इस समय खाना कहाँ मिलेगा? हमने कहा – स्टेशन पर पूरी-सब्जी मिल जायेगी. वह थोड़ी
देर सोचते रहे फिर हमें जीप में बिठाया. मन ने कहा ल्लो बेट्टा गए जेल में. पर जीप
स्टेशन पहुँची. निर्देश मिला दस मिनट में खा के लौटो. लौटे. उन्होंने हास्टल छोड़ा
और कहा जल्दी से जल्दी घर निकल जाओ...आग लगेगी. साले सब जला के मानेंगे. हमने उनका
बिल्ला पढ़ा – वह मुसलमान नहीं थे!
लौटकर बी बी सी लगाया गया. मस्जिद तबाह हो चुकी थी और देश जल रहा था.
दंगों का पहला अनुभव था यह हमारे लिए. चौरासी में कुल नौ साल के थे और सिखों की
लुटती दुकानें बस धुंधली स्मृति की तरह दर्ज थीं. दुकान वाले समृद्ध परिवार के
गुरमीत को स्कूल छोड़कर दादाजी के साथ ठेले पर स्टोव सुधारते देखा तो था पर उस तरह
महसूस नहीं कर पाते थे. पर इस बार महसूस किया. गनीमत यह थी कि उस दौर में भी
गोरखपुर-देवरिया या पूर्वांचल के किसी ज़िले में दंगे नहीं हुए. वह आदित्यनाथ नहीं
उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ का दौर था जो हिन्दू महासभा में होने के बावजूद बड़े काज़ी
साहब के मित्र थे, उनके यहाँ टेनिस खेलते थे. इस इलाक़े में दंगों को अभी एक दशक और
इंतज़ार करना था...आदित्यनाथ के परिदृश्य में आने तक का.
घर लौटकर मुसलमान दोस्तों को फोन किया पर घर जाने की हिम्मत बहुत देर
से जुटा पाए. कर्फ्यू देखा पहली बार और गायत्री मंदिर पर बैठकर शान्ति धुनें सुनता
रहा. शायद किसी भी मंदिर में वह मेरा अंतिम प्रवेश था. रातोरात देश की राजनीति को
बदलते देखा. बहुत से लोगों के लिए जो साम्प्रदायिक होते जाने का प्रस्थान बिंदु था
वह मेरे लिए इस साम्प्रदायिकता और जातिवाद के गठजोड़ को समझने और इसके लगातार खिलाफ़
होते जाने का था. साल बीतते न बीतते मार्क्सवादी हो चुका था. यह समाजवादी नाना,
‘अ-राजनीतिक’ पिता ही नहीं नेहरूवादी डी पी सर के लिए भी बड़ा झटका था..तब मैंने
जाना कि लोहियावादी समाजवादी हो कि नेहरूवादी कांग्रेसी...कम्यूनिस्ट सबके लिए
शत्रु पक्ष ही हैं. दंगे पहली बार मेरे लिए चिंता ही नहीं उत्कंठा का भी विषय बने.
पढने का शौक पहले से ही था अब और बढ़ गया और दिशा से जुड़ाव के बाद यह एक नशे में
तब्दील हो गया.
अजीब संयोग था कि बानबे में
उत्तर-प्रदेश में था तो दो हज़ार दो में गुजरात में. इस बार बानबे की यादें साथ थीं
... सैंतालिस की एक समझ भी..तो उसे देखने का नजरिया बिलकुल अलग था...प्रतिक्रिया
भी .. लेकिन वह किस्सा फिर कभी.
....................................जारी है .............
परिचय और संपर्क
अशोक कुमार पाण्डेय
वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल
दिल्ली में रहनवारी
अभी भी कानों में भयावह नारे गूँज रहे हैं"राम लला हम आयेंगे ,मंदिर वहीँ बनायेंगे","सौगंध राम की खाते हैं,हम मंदिर वहीँ बनायेंगे"..हमारे समय की भयावह घटना.मुझे तो तब राम शब्द से डर लगने लगा था..अब घृणा ...
जवाब देंहटाएंसभी किश्ते पढ़ रहा हूं ! हाजिरी दर्ज करें !
जवाब देंहटाएंकितना भयानक था वो दंगा।
जवाब देंहटाएंवो मंदिर और मस्जिद के नारे कानो में गूंजने लगे।
हमेशा की तरह बहुत बढ़िया लिखा है। लिखने में रवानी कमाल की है।
वह भयावह दौर था ।
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