आज सिताब दियारा ब्लॉग पर ‘शुभनीत कौशिक’ की कवितायें
एक ....
झेलम हॉस्टल
देश की राजधानी के
एक हॉस्टल
जिसका नाम
लिया गया था
सुदूर उत्तर में बहने वाली
कलकल करती जेहलम से
उस हॉस्टल में एक कमरा रहता
था
वैसे दुनिया की बाकि चीजों
की तरह ही
उसने अपना नाम
नहीं चुना था खुद
एक रोज यूँ ही
जब जून की
गर्मियों में वह कमरा
जो हॉस्टल की
तीसरी मंज़िल पर रहता था
लूह के थपेड़े से
बेहाल था
आया था कोई
और बिना उससे
पूछे ही उसके ऊपर
लिख गया था, शायद चूने से या
सफ़ेद पेंट से
क्या लिख गया था
ये खुद कमरे को
नहीं पता था
या जब उसे पता
चला भी
तो शायद इंकार
कर दिया था उसने इसे मानने से
पर तब से सब उसे
एक नाम से पुकारने लगे थे
३-२-५
वैसे उस कमरे के
साथ
और भी कमरे उसी
हॉस्टल में
सालों से रहते
चले आये थे
पर अब उन कमरों
का समूचा व्यक्तित्व
अब सिर्फ इकाई
दहाई और तिहाई में ही
सिमट गया था
एक रोज उसी कमरे
में
जिसे लोगों ने ३-२-५
कहना शुरू कर
दिया था
कोई आकर उस कमरे
के साथ रहने लगा
कमरा पहले
सकुचाया
पर बाद में बढ़ा
दिए थे
दोस्ती के हाथ
उस आंगतुक के प्रति
और यकीं मानो तो
जब वह नवागंतुक
कुल जमा
पचास सीढ़ियां
चढ़कर
अपनी धौंकनी हुई
सांस ले
थका मांदा
पहुँचता था
कमरे के पास
तो कमरा बिलकुल
की माँ की मुद्रा में आ जाता
उसके उलझे हुए
बालों को
अपनी पतली
उँगलियों से सुलझाने लगता
और दूसरे हाथ से
पंखा डुलाने लगता
एक दिन नवागंतुक
एक दिन नवागंतुक
रंग और ब्रश के
साथ बड़े कैनवास लेकर आया था
अजीब सी तन्मयता
देखी थी कमरे ने उस दिन
नवागंतुक की
आँखों में
और उसी दिन से
कैनवास पर ढलने लगी थी
कोई तस्वीर
कमरे ने
नवागंतुक के साथ
दम साधकर लम्बा
इंतज़ार किया
और एक सुबह
जब नवागंतुक
कमरे के साथ न था
तब कमरे ने देखा
की एक नहीं
तीन हसीन
तस्वीरें
पूरी कर गया था
नवागंतुक
वे तस्वीरें यूँ
तो बिना रंग की थी
करीने से बनाई
गयी थी पेंसिल से
पर उन तस्वीरों
में
जो हसीन चेहरा
था
उसके होंठ सुर्ख
थे
उन होंठों की
सुर्खी देख कमरा कई दिनों
मादकता में
झूमता रहा
और तभी एक दिन
नवागंतुक आया था
बांसुरी के साथ
हालाँकि उसके
सुर सधे न थे
पर कमरा भी यह
मानता ही था
कि इस मामले में
उसके भी कान पक्के न थे
बांसुरी के उन
अनगढ़ सुरों को सुन
कमरा कई दिन
बेसुध पड़ा रहा
कमरे को कलाकार
की बेतरतीबी
उसके उलझे हुए
बाल
और सबसे बढ़कर हद
दर्जे की लापरवाही
देर तक सोते
रहने की आदत
पसंद थी
सब कुछ अच्छा चल
रहा था
कमरे और कलाकार
के बीच
कि एक रोज कोई
घुसपैठिया आ गया था
उनके दरम्यान
अपने संस्कारों
किताबों के भारी
बंडलों
और अपनी अलार्म
घडी के साथ
तब से कमरा
हमेशा उदास सा रहता है...
दो .....
कविता की आखिरी
पंक्ति
मेरी कविता की
आखिरी पंक्तियां
कुछ बेजान -सी
लगने लगती हैं
इस बारे में
जब मैंने कविता के एक
मर्मज्ञ से
जानना चाहा तो
उनका जवाब
बड़ा ही पैना और
कुछ यूँ था
कि उत्तर आधुनिकता के इस
दौर में
जब दुनिया और जिंदगी
दोनों ही
बेदम हो चली हैं तो
आखिरी पड़ाव तक
पहुँचते- पहुँचते
कविता कि सांस उखड़ जाना
तो लाजिमी ही है .
तीन ....
वहाँ हैं गांधी ...!
एक रोज
जब मेरे दोस्त ने पूछा
मुझसे
यूं ही
उस अलसायी हुई सांझ में
ढाबे पर
चाय की
चुस्कियां लगाते हुए
कहाँ हैं गांधी
हमारे बीच?
फौरी तौर पर
ज़वाब देना
न था मुमकिन
सो दोस्त से
विदा लेकर
अपने जेहन में
यह सवाल लेकर
मैं लौट आया
अपने कमरे में
और सोचने लगा कि
कहाँ हैं बापू...
पर पाता हूँ कि
सवाल का जवाब
ढूंढ़ने के बजाय
एक दूसरा सवाल
करता हूँ खुद से
कि कहाँ नहीं हो
सकते हैं गांधी?
और पाता हूँ कि
अब बात
कुछ-कुछ साफ़ हो चली
है
बापू नहीं हैं
उन सरकारी
दफ्तरों में
जहाँ लटक रही है
दशकों से उनकी
फ्रेम वाली धूल खायी तस्वीर
जिसमें मुस्करा
रहे हैं बापू
नहीं है बापू
उन पार्कों में
राजनीति के उन
गलियारों में
या कि सत्ता-प्रतिष्ठानों
में
जहाँ लगी हुई है
उनकी आदमकद
मूर्तियां
सदैव चलने की
मुद्रा में तत्पर
और नहीं हैं
बापू
उन लाइब्रेरियों
में
जिनकी बंद
आलमारियों में
रखा हुआ है
करीने से
सम्पूर्ण गांधी
वांगमय
लोगो
मैं पाता हूँ
बापू को
शोषण के खिलाफ
आवाज़ बुलंद करती
जनता के बीच
अपने वाज़िब हकों
के लिए
लड़ती महिलाओं के
बीच
और दिखते हैं
बापू
जहाँ इकठ्ठा हैं
लोग
अपने नदी, नालों, जंगलों
पहाड़ों, पत्थरों, और जमीं को
बचाने खातिर
एकजुट
और जब कोई
अपनी
प्रतिबद्धता के कारण
पड़ता है अकेला
फिर भी ठान लेता
है
मुहिम छेड़ने की
तब मैं देखता
हूँ लोगो
बापू अपनी लाठी
टेकते हुए
तेज कदमों से
उस एकलयात्री के
हमराह हो
गुनगुनाते जाते
हैं
एकला चलो रे...
और वहाँ होते
हैं बापू
जब दंगों से
अभिशप्त किसी शहर में
कोई हिन्दू लड़का
बचाता है अपने
सहधर्मी (!) आततायियों से
किसी मुस्लिम
महिला को
अपनी मौसी बताकर
या जब कोई
मुस्लिम जुलाहा परिवार
शरण देता है
अपने हिन्दू पडोसी को
और बचा लेता है
उसे प्रतिहिंसा की आग से
जब हिंसा के
भयावह तूफानों में
मानवता की नाव
डगमगाने लगती है
तो मैं देखता
हूँ
बापू मुस्कराते
हुए
निर्भीक
सम्यक प्रज्ञा
की मुद्रा में
खेते हैं
मानवता की नाव
को
अहिंसा और सत्य
के चप्पुओं से
लोगो
क्या आपने गांधी
को ऐसे ही देखा है?
चार ...
वीभत्स
अरे!
कौन है वह जो भागा जा रहा
है
चादर ओढ़े,
सहसा निकल आया था
चौराहे पर,
और बस इतना ही।
अब सिर्फ रह गयी है
उसके पदचापों के
ध्वनि की स्मृतिशेष
मूसलाधार वर्षा
में
बिना छाते के
कीचड़ से पटी सड़क
पर
द्रुत वेग से
भागा चला जाता था वह,
सांध्य वेला के
उस निवीड़ अंधकार में।
जैसे छुपाए हुए
खुद को
किन्हीं लोगों
से
किसी अज्ञात
छाया के भयवश हो,
बारिश, कीचड़ से बेखबर
डगमगाते, फिसलते भागा जा
रहा था।
पलट कर देखा था
उसने एक बार
और तभी सड़क पर
जाती हुई
मोटरगाड़ी के
प्रकाश में,
क्षण मात्र को
दिखी थी उसकी
भयाक्रांत आँखें,
और दिखा था
उनमें
अनिर्वचनीय भय
अकथनीय पीड़ा,
जैसे सदियों से
वह
अपने अंतस में
किए जाता था एकत्र
पीड़ा, भय का वह दारूण
पुंज
जिसमें
भस्मप्राय हो चली थीं,
सारी संवेदनाएं
भावनाओं से
आती थी
जले हुए शव की
चिरांध,
करुणा और शांत
रस
उसकी पीड़ा की
रौद्र अग्नि में
तप रह थे
उनके भाव-शरीर की खाल
उतार ली थी
उस असह्य अग्नि
ने।
सहसा एक चीख उठी
दूर बहुत दूर
किसी मनुष्य को
जैसे मार दिया
हो छुरा
पीठ के पीछे से।
बेबस कर देने
वाली
वह कातर ध्वनि
निकट और निकट
आती गयी
उसके बिलकुल
समीप आ जाने से
एकबारगी सड़क पर
आती-जाती
गाड़ियों का शोर
पड़ गया मंद,
और जैसे वह सारा
शोर
गाड़ियों के
निरंतर बजते हॉर्न
लोगों के पदचाप
फेरीवालों की
ज़ोर की आवाजें
समवेत स्वर में
बन गईं एक
सामूहिक चीख।
चीख
जो हलाल की जाती
बकरी के
मिमियाने में होती है,
मृत्यु से लड़ने
की
वह हताश कोशिश
जो उस मुर्गे के
तेजी से फड़फड़ाते
हुए
पंखों में होती
है,
जिसकी गर्दन पर
फिर गया है छुरा
जो आदमी के
पाँवों तले
मृत्यु के पंजों
से निकल जाने को
कर रहा है
जद्दोजहद,
मगर सब
निष्प्राय।
अब जब मुर्गे की
कटी हुई गर्दन से
खून का टपकना
बंद हो गया है
तो वह चीख़
कहीं गुम-सी हो गयी है
पर भीतर ही भीतर
उसने मेरे स्व
को चीर दिया है,
अपने भोथरे धार
वाले
किसी हथियार से।
असहाय पड़ा है
घिसटता हुआ
कीचड़ में लथपथ
मेरा स्व,
भोथरे हथियार की
मार से
उसकी अंतड़ियां
निकल आयीं हैं बाहर
मुंह से निकल
रहा है खून
आँखें अब बंद
होने को हैं
सांस धीरे-धीरे चल रही है।
मध्यरात्रि में
शहर का चौराहा
भी
अब बिलकुल
निर्जन है
वहीं एक कुतिया
पिला रही है
अपने बच्चों को
दूध
और दूर किसी
मोहल्ले के कुत्ते
रो रहे हैं
और उनका साथ
देने लगे हैं
दूसरे मोहल्ले
के कुत्ते।
और देखते ही
देखते
अब रोने लगे हैं
पूरे शहर के
कुत्ते
समवेत स्वर में
जैसे सृष्टि के
आरंभ से
वे रुदन ही करते
आयें हैं
जैसे किसी
आत्मीय की
अचानक मृत्यु से
अवाक हो
शब्दहीन हो गएँ
हो
वे
सब के सब।
और उस शब्दहीनता
के
सामूहिक
अपराधबोध ने
ले लिया हो एक
कर्णकटु चीख़ का
स्वर
और वह चीख़
राज्य, राष्ट्र को
ढहाए देती है,
और फैल रही है
मेघाच्छादित
आकाश में।
उसमें घनीभूत हो
रही है
मानव की पीड़ा
चर-अचर जगत का दुख
प्रकृति का
विषाद
सब सम्मिलित हो
उसे बनाए देते
हैं
एक असह्य बोझ।
जिसके तले दबा
जाता है
अस्तित्व
वर्तमान का
भविष्य फेर लेता
है
मुख
और अतीत,
हा! वह तो पहचान में
ही नहीं आता।
मुख विषण्ण हो
गया उसका
अजनबियों सा
बर्ताव करता है
अब वह
अन्यमनस्क-सा हो
वह कहीं जाता
प्रतीत होता है,
पर असल में,
कहीं आता या
जाता नहीं।
कोल्हू से निकाल
दिये गए
पुराने बैल की
तरह
वह गोल-गोल घूमा करता
है
उसकी परिधि
राष्ट्र-राज्य की सीमाएं
नहीं जानती,
वह तो यह भी
नहीं जानता
कि जिस केंद्र
की परिक्रमा किए जाता है वह
अनवरत
वहाँ आखिर बैठा
है कौन?
या केंद्र कुछ
है ही नहीं
याकि केंद्र वह
स्वयं है
और परिक्रमा कर
रहीं है
दसों दिशाएँ
उसकी
घनीभूत पीड़ा का
दुर्निवार बोझ
लिए।
और वर्तमान उसका
क्या?
उसके लिए नहीं
है प्रासंगिक
यह प्रश्न
उसके होने-न-होने से
यथार्थ, बदल नहीं जाता।
वह गोला, केंद्र या परिधि
के प्रश्नों
और
उनके अस्तित्व
से
बेख़बर
घिसटता हुआ
दक्षिण की ओर
बढ़ता है,
और इस अवस्था
में
वह बजबजाती हुई नाली
में
रेंगते
किसी कीड़े के
सदृश लगता है।
उसे प्रिय है
कूड़े के ढेर पर
भिनभिनाती हुई
मक्खियों का
सप्तसुर,
वह श्मशान में
जा
चिरनिद्रा लीन
हो जाता है।
और पहर भर बीत
जाने पर
देखता है
दुःस्वप्न
कि कोई दाबे जा
रहा है उसका गला
वह चाहता है
चीखना,
पर अचानक
उसकी घिग्घी बंध
गयी है
उसकी सांस
ऊपर की ऊपर
और नीचे की नीचे
रह गयी है।
उसकी कमजोर
ग्रीवा पर
उन बलिष्ठ हाथों
की पकड़
कसती ही जा रही
है,
वह असहाय अपने
पैर मारता है
शून्य में,
संघर्ष करता है
शून्य में किसी
विरोधी से
और अब उसके
पैरों की
छटपटाहट रुक गयी
है बिलकुल।
वे बलिष्ठ हाथ
नहीं हैं उसकी
ग्रीवा पर
वह पाता है
कि अब भी वह
चैतन्य है
तभी बारिश की
फुहार धो देती है
उसके मुख को,
और सूर्य की
पहली किरण पड़ती है
पूर्व से उसके
धूल और राख़ से
सने हुए चेहरे
पर।
वह उठता है
पसीने से लथपथ,
दुःस्वप्न का भय
उतर आया है
उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में,
अब बढ़ा जा रहा
है
वह
श्मशान के दूसरी
ओर
जहां बह रही है
नदी
जिसमें शायद बाढ़
आई है।
कहीं दूर से बह
आई
गर्भिणी गाय का
शव
लग गया है
किनारे,
धीरे-धीरे जमा हो गए
हैं
कौवे,
ऊपर आकाश में
बहुत ऊपर
मंडराने लगे हैं
गिद्धों के
झुंड।
वह उधर से फेर
लेता है
अपनी दृष्टि
और नाक की सीध
में
बढ़ जाता है नदी
की ओर।
नदी जो अपने
उफान पर है
मटियाई हुई
बह रही है
किनारों को काटती हुई
वीभत्स भयावह
विकल सुर में,
अचानक उतार देता
है
वह स्वयं को नदी
की
धार में,
कुछ पल वह
डूबता-उतराता प्रतीत
होता है
एक क्षण तो ऐसा
लगता है
जैसे मांग रहा
हो भिक्षा नदी से
जीवन की
या मृत्यु की।
भला वे कैसे बता
सकते हैं
भिक्षुक की
इच्छा के विषय,
जो स्वयं खड़े रह
गए किनारे
हाँ! अंत मे दिखा था
उसका डूबता हुआ हाथ
नदी की मध्यधारा
में,
अब प्रश्नातुर
है मन
क्या वह सचमुच
ही डूब गया?
निगल गयी उसे यह
बढ़ियाई हुई नदी
अपने विकल
प्रवाह में!
फिर भंग होने
लगी है
क्षण भर की वह
नीरवता
जो किसी के
अचानक डूब जाने से
पैदा होती है
अब सब कुछ होने
लगा है यथावत
जैसे वैसा ही
होता आया है
युगों-युगों से
निर्बाध।
उस निर्बाध क्रम
को
बढ़ाते हैं
क्षत-विक्षत
गाय के मांस का
टुकड़ा पाने को
लड़ते कौवे और
गिद्ध
कि अब कुछ
प्रतिद्वंद्वी आ जुटे हैं,
भूखे कुत्तों का
एक झुंड
जो सिर्फ कंकाल
मात्र रह गए हैं
वहाँ कौवे और
गिद्धों के साथ
झगड़ रहे हैं
जैसे मिला हो
किसी अनंतकाल से
बुभुक्षित को
सुस्वादु व्यंजन...
तभी कुष्ठगलित
शरीर वाला
एक मानव
आता है वहाँ,
उसके शरीर से
बहते मवाद से
आती है असह्य
दुर्गंध।
क्या मोटा चादर
ओढ़े
अपने दो पाँवों
पर खड़ा
यह वही है जो
कल साँझ भागे जा
रहा था
अविराम?
हाँ! वही जान पड़ता है
पर निश्चयपूर्वक
नहीं कहा जा सकता
कि यह वही है!
गिर गया है
अचानक वह
नदी के रेतीले
किनारे पर
पीड़ा से सूज गया
है उसका मुख
उसकी आँखें
आधी बंद हैं
आधी खुली हैं
मानो कहती हों
कि वे
जीवन और मृत्यु
के दो किनारों के बीच
कहीं अधर में खा
रहीं हैं हिचकोले
या सत्य यह है
कि
वे दो किनारे थे
मृग-मरीचिका मात्र
इस जीवन के तप्त
मरू में,
जहां अभिशप्त थे
हम सभी
जीवन के किनारे
से
मृत्यु के
किनारे तक जाने को।
कर रह थे यात्रा
आजीवन
जन्म के छोर से
मरण के छोर तक,
या सत्य यह है
कि
जन्म-मरण की इस
यात्रा में,
जो हर मानव की
पहली और अंतिम यात्रा है
जिसमें वह चाहे
या अनचाहे भागीदार है,
आरंभ और अंत का
बिन्दु एक है।
तभी उस
कुष्ठगलित मानव के मुख से
सहसा निकलती है
कातर चीख़
जो शायद इन सब
प्रश्नों का
एकमात्र उत्तर
है...
और अब सब कुछ
शांत है
रेत पर वहीं पड़ी
है उसकी देह
किसी हलचल के
बिना, यथावत,
उसके बहते हुए
ज़ख़्मों पर
अब भिनभिनाने
लगीं हैं मक्खियाँ,
पर अब उसके हाथ
पूर्ववत नहीं उठते
उन्हें हटाने के
लिए।
अब कुत्ते सहला
रहे हैं खुद को
चाटते हैं एक
दूजे को
जताते हैं
परस्पर स्नेह,
कौवे कर रहे हैं
पंचायत
और गिद्धों के
झुंड उड़ गए हैं
उत्तर की ओर।
आज शायद पूरी
हुई है
उनकी चिर-क्षुधा
या शायद न हुई
हो!
पर अब सब कुछ
शांत है
या सब मुक्त हैं!
पर यह शांति
यह मुक्ति,
प्रलय के बाद की
है
या प्रलय के
पूर्व की,
यह भला कौन
जानता है?
परिचय और संपर्क
शुभनीत कौशिक
३२५, झेलम हास्टल
जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय,
नई
दिल्ली-११००६७,
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