बुधवार, 26 नवंबर 2014

वंदना शुक्ला की कवितायें




वन्दना शुक्ला को आप पहले भी सिताब दियारा ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं |  इनकी कवितायें बेहद सरल-सहज शब्दों के सहारे अपने परिवेश और समाज को समझने की कोशिश करती हैं |

                            

                 तो आइये पढ़ते हैं
     
           
         आज सिताब दियारा ब्लॉग पर वन्दना शुक्ला की कवितायें
                        


खानाबदोश


कभी वो समय भी आएगा
जब हम कश्मीरी विस्थापितों को देखकर
या आगे कभी हमारी उजाड़ कौमों को देखकर
लोग उन पर उंगली उठाकर कहेंगे
‘’देखो कश्मीरी खानाबदोश ‘’
जिन्हें जिलावतन कर दिया गया अपनी ही ज़न्म भूमि से
इनके इतिहास में कोई मिथक नहीं –अंजुली भर संकल्प लेने को
कोई महाराणा प्रताप नहीं –ढाल बनने को
ये आसमान और धरती के बीच लटके त्रिशंकु हैं
क्यूँ कि इन ज़िलावतनों का
पूरे ब्रम्हांड में अपना कोई वतन नहीं
न राजा
न ज़मीन
न आकाश
ये अपना वतन ,अपनी ज़मीन ,अपने आंसू ,और अपना आकाश
अपने दिल में लिए घूमते हैं |
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हैसियत

ये ज़िक्र है भोपाल के जहांगीराबाद क्षेत्र के एक
पुराने टुकड़े का जिसका नाम बरखेडी है
जहाँ अब भी कुछ कुछ निशान बाकी हैं
दो दिसंबर की उस काली रात के
जब एक अमरीकी फेक्ट्री के एक चेंबर से
जाड़ों की ठंडी सुनसान अधूरी रात में
मौत चुपचाप रिसने लगी थी
और देखते देखते
एक सैलाब बनकर बहने लगी थी
तमाम शहर में
सडक पर अपनी जान बचाने के लिए भागते लोगों
स्टेशनों पर सोते भिखारियों
सिनेमा घरों से निकले दर्शकों
रातपाली में पहरा देते गार्डों
झोंपड़ियों में अपने बच्चों को लपेटे पड़े
हारे थके श्रमिकों
लेडी हॉस्पिटल में भरती मरीजों के सोये हुए रिश्तेदारों के 
मुर्दा जिस्मों की छाती पर
अट्टहास करती तांडव करती रही थी 
धुल चुके हैं समय की स्लेट से
अब उसके निशाँ
जो बच गए थे उस रात
वो लोग नहीं जानते अब भी कि
एंडरसन कौन था ,जो पिछले दिनों
उनके रिश्तेदारों की तरह बेमौत नहीं
बल्कि ज़िंदगी को भरपूर ठसक से जीकर
अपने देश में
अपनी मौत मरा
सोचती हूँ उस दुनियां में जाकर
जब मिले होंगे वो मृतक उससे
जो हार चुके थे अपनी ज़िंदगी
एंडरसन की उस वहशी जीत में
क्या माँगी होगी माफी उसने मृतकों से ?
या दी होगी उन्हें ये खबर कि
तुम्हारी सरकार को उससे ज्यादा कीमत चुका दी है मैंने
तुम्हारी जान की
जिसका हजारवां हिस्सा भी नहीं तुम्हारे अपने देश में
एक नागरिक की ज़िंदगी की कीमत
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इंतज़ार

आज एक पुरानी दोस्त ने फोन किया
कहा कि दोपहर एक बजे के आसपास आयेगी वो घर
लंच करेंगे साथ में
हम दौनों मिलकर याद करेंगे अपने बचपन और जवानी के दिन
जो हमने मौज मस्ती में बिंदास बताये
बताएँगे एक दुसरे को उसके बाद के दिनों की घटनाएं
जो हमारी अकेले अकेले घटीं
मैंने इन दिनों की एक एक घटना
एक एक हंसी
कई आंसू और थोड़ी उलाहना
सहेज कर रख ली हैं आँखों में
खंगाल चुकी हूँ अतीत को
निकाल चुकी हूँ उनमे से कुछ यादगार लम्हे
मट्ठे से मक्खन की तरह ..
रात के दो बज रहे हैं
मैं अब भी उसके आने का इंतज़ार कर रही हूँ
एक लावारिस सपने की तरह
तमाम बातें ज़ेहन में अनाथ फांस की तरह धंसी हुई हैं |
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किस्सा-ए-ज़िंदगी

मेरे जीवन की पांडुलिपि में
जगह जगह खींच दिए गए हैं गोले
या
शब्दों पर,वाक्यों पर ,पैरा पर
खींच दी गयी हैं लकीरें
प्रूफ रीडिंग की गलतियाँ बताकर
या व्यर्थ की घटना कहकर
उन लोगों ने जो इस पटकथा के
किसी हिस्से के किरदार रहे
किसी ने कहा ‘’शुरुवात ऐसी होती तो बेहतर था ‘’
किसी ने कहा ‘’अंत होने से ज़रा पहले कहानी फिसल गयी ट्रेक से
अब मैं अपने जीवन की उस
कटी फटी अस्वीकृत लौट आई
लहुलुहान पांडुलिपि को
सामने रखे बैठी हूँ
सारे के सारे प्रष्ट जाया हो चुके हैं इसमें
ना वाईटनर है,न इरेज़र,
और तो और एक भी कोरा पन्ना भी नहीं
बस खूब सारी कलमें हैं अपनी नोकों और स्याही के साथ
घूरती हुई
जितने चाहूँ गोले खींच लूँ याकि
 एक बड़ा सा क्रोस बना दूँ पूरी पाण्डुलिपि पर
और यूँ कर दू
किस्सा ही ख़त्म
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चुप्पियाँ

मुझे दुनिया की कोई चीज़ नहीं डराती उतना
जितनी डराती हैं किसी की चुप्पियाँ
सवालों को निगल जाने वाली
दर्द को छिपा जाने वाली
क्रोध को विष की तरह पी जाने वाली
आंसुओं को सोख लेने वाली
दुखों को होठों में भींच लेने वाली
इन चुप्पियों के गहरे अन्धकार के पीछे
कुलबुलाते दीखते हैं ‘’ताम्बे के कीड़े’’
दुःख में सर झुकाये खड़े पेड़ के शोक गीत गाते हुए तने पर
दो बलत्कृत लड़कियों के टंगे शव
पश्चाताप की रुंधी सिसकियाँ
बुद्धि के अखाड़े में कापुरुषों के कुचक्र
बंद आँखों के पीछे किसी दुनिया में खोये
समाधिरत योगी
बुद्धि-जंतुओं के तलघरों में
पासे फेंकते खिलाड़ी
भूखों मरते फटे कपडे पहने
अपने जीवन की भीख मांगती
एक जीनियस की लकीरों रहित हथेलियाँ
ये पराजय स्वीकृति नहीं तो और क्या है?
चुप्पियों
लानत है तुम पर
तुम्हारी कायरता पर ,तुम्हारी विमुखता पर
निराशा की धुंध और हताश अँधेरे के इस काले परदे को
हटाओ तो ज़रा
देखो कि बाहर सुबह उग रही है
उसके साथ २ उग रहे हैं द्रश्य
पहाड़ों से सरकती धुप के
नाव की पालों और
सुर्ख सफ़ेद बगुलों की कतारों के
निकलकर आओ अपने अंधेरों से बाहर
चुप्पियों .....
देखो कि धरती के रंग बदल रहे हैं .................................................................................................................
                                 

खोए हुए बच्चे

खोए हुए बच्चे
जब तलाशने लगते हैं खुद को
अपने ही भीतर
निकल आते हैं वो
प्रथ्वी की हद से बाहर
अकेले बिलकुल नहीं होते वह
संभावनाओं की उंगली पकडे चलते हैं वो
उनके साथ होता है सपनों का हुजूम
उनके सपनों में रहती हैं फिल्म स्टारों की कहानियाँ
या पीठ से चिपकी होती है
पिता की संटीयों की मार
वो अपने भविष्य की पीठ पर लदे
परिक्षा के अंकों की गर्द को
अपने दिमाग से झाड देते हैं
रस्ते में
भागने से पहले अपने माता पिता के
सपनों की पोटली में गाँठ लगा
दबा आते हैं घर के किसी कोने में
संभावित दुर्घटनाओं को अपने दिमाग से
पोंछते हैं बार बार
पसीने की तरह
घुमने लगते हैं प्रथ्वी के साथ साथ
किस्मत को अपनी जन्मकुण्डली से
फेंक देते हैं किसी अन्तरिक्ष में |
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मछलियां

आजकल फेंकते हैं लोग
अपने शब्दों के जाल
धूप में चमकती नदी की
पानी की सतह पर
और प्रतीक्षा करते हैं नदी किनारे बैठ
अपने शिकार की
तौलते हैं भार मछलियों का अंदाज़े से
और दम अपनी बाजुओं में
इन जालों पर हैं पूरा भरोसा उन्हें
उनकी मजबूती,बुनावट व् सुन्दरता पर
उनकी वफादारी पर
मछलियाँ इनमे ज़रूर फंसेंगी ..और फंसती हैं
मगर के बराबर की विशाल मछलिया
ये मछलियाँ ही उनके जीवन की
उपलब्धियां हैं
जो फकत शिकार के लिए ही
जन्मती हैं इस धरती पर |


परिचय और सम्पर्क

वन्दना शुक्ला
कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित
संगीत और रंगमंच में गहरी रूचि
भोपाल में रहनवारी     
मो.न. 09928831511






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