शिरीष कुमार मौर्य पहली बार सिताब दियारा ब्लॉग पर आ रहे
हैं | हम उनका तहे दिल से स्वागत करते हैं | और यह स्वागत इसलिए भी है, कि उन्होंने
एक मुकम्मल और मानीखेज कविता के साथ यहाँ पदार्पण किया है | यह कविता जितनी आधी
दुनिया के बारे में है, उससे कहीं अधिक उस पूरी दुनिया के बारे भी, जिस पर यह
सामने से बात करती हुए नहीं दिखाई देती है | इसमें लयात्मकता के साथ उतना
खुरदुरापन भी महसूस किया जा सकता है, जितना कि हमारा समाज हमें प्रदान करता है |
ये कविता की शक्ल में हमारी दुनिया से सवाल भी है, और कहें तो सलाह के साथ-साथ एक राह
भी |
तो आइये
पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग शिरीष कुमार मौर्य की कविता
झिर्री में आंखें
हिजाबो-लिहाज़ है कोई
इन आंखों में ख़्वाब है कोई
किसकी हिम्मत कि देख ले इनको
हम-सा ख़ाना ख़राब है कोई
दो आंखों का उजाला है बाक़ी
देखो कि अभी इस दुनिया को
कोई देखने वाला है बाक़ी
हर बात तबस्सुम में होगी
हर दर्द तरन्नुम में होगा
हाले-तबस्सुम क्या पूछो
अंजामे-तरन्नुम देखोगे
इन आंखों में जो बस्ती है
वां ईद है इतनी सोग भरी
मैं पूछूं हूं ख़ुद से ही अब
इस साल मुहर्रम देखोगे ?
रेशम क़िस्सों की बात है दुनिया दरअस्ल साटन की बनी है
यह उतनी भर है
जितनी एक झिर्री से दिखती है
झिर्री से उजाला नहीं दिखता
कभी कभी झिर्री में उजाला दिखता है
मुझे कुछ काम नहीं है मज़हब से
मैंने घूंघट भी देखे हैं घूंघट के भीतर के बेधक अपमान भी
उन पुराने लोगों से मिला हूं
जो बिना पत्नी का चेहरा देखे पहले बच्चे का पिता बन गए
वासुदेव सिंह उनमें से एक हैं - यह बात ख़ुद त्रिलोचन ने बताई मुझे
चेहरे की बहुरेखीय उज्जवला को
सपाट आवरण से ढांक देने का चलन अरब में रहा
तो गंगा के कछारों में भी
अपनी सुबहों में एकवस्त्रा थीं स्त्रियां
रसोई करने के समय
सूर्य को जल चढ़ाते समय
भगवान की कोठरी में कुछ भक्ति कुछ शोक में बुदबुदाते हुए
फिर ढंकी-छुपीं थी लगभग दुबकी हुई
घरों में प्यारी कहाई गईं बिल्लियां वे
घूंघटों और बुरक़ों में जितना क़ैद थीं
उतना ही महज देह होने के सरल लोकधर्म में भी
पुरुष थे आज़ाद अरब से बंगाल तक
मैंने बुरक़े की झिर्री से झांकती आंखों का
कलपता हुआ मानवीय उजाला देखा है एक यह भी लोकधर्म
अमानवीय दुनिया को धिक्कारता
उन आंखों का दु:ख
एक ज़माने तक दादी के चेहरे पर पड़े घूंघट की मजबूरी की तीखी याद में
कहीं घुलमिल जाता है
कौन हैं वो लोग जो कहते नया ज़माना आता है
आता है मानता हूं मैं
पर ये आते-आते कहां रुक जाता है
पश्चिम ने ख़ुद को पैमाना बनाते हुए पूरब को अध्ययन का विषय होने भर की
थोड़ी कुछ इज़्जत बख़्श रखी है
ज़्यादा हुआ तो पूरब के नाम पर एक वाद की कुछ बहस कर लेते हैं
इधर ये मुल्क है हमारा जहां हम अपने होने को ही कफ़स कर लेते हैं
तीलियां नहीं हमारे कफ़स में मोटी सलाख़ें हैं
हमारा कुल वजूद झिर्री से झांकती ये आंखें हैं
करो
कमबख़्तो कमरों में बैठकर परवाज़ की बातें करो
शाइरी पर मर मिटो जुदा अन्दाज़ की बातें करो
अब किसमें इतनी ग़ैरत है
कि इन जलती-बुझती आंखों को इनका पूरा चेहरा दे दे
रौ-ए-ज़माना सुन या तो इन्हें आज़ादी दे
या मेरा होना ज़ुर्म बता मुझे ज़ख़्म कोई गहरा दे दे
जा मैं हर लय छोड़ता हूं अब गद्य में गाली दूंगा
क़ब्ल उसके
ये आख़िरी बात है नाज़ुक
एक वाजिब ग़ुस्से से ठीक पहले के
दु:ख में कही हुई –
जिस्मे-ख़ाक था कि ख़ाके-जिस्म थी जिसको
हम छानते रहे हरदम, हाथ कुछ आया नहीं
पुनश्च :
मैं कुछ न बोलूंगा यहां उन आंखों की क़सम है मुझको
दर्द कुछ और बढ़ा
तिरी इंतिहा-ए-ज़ुल्म ये कम है मुझको
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परिचय और संपर्क
शिरीष कुमार मौर्य
13 सितम्बर 1973 को जन्म
हिंदी के चर्चित युवा कवि
लोकप्रिय ब्लॉग –‘अनुनाद’ के माडरेटर
पांच कविता संकलन दो आलोचना की पुस्तकें प्रकाशित
सम्प्रति – नैनीताल में अध्यापन
मो.न. - 09412963674
Varsh ki Behtreen kavitaon ki suchi me smaahit..... Vaah Maja aa gya..AAh ye baanka shirishpan .. !!!
जवाब देंहटाएंशिरीष जी की कवितायें यथार्थ की धरती पर बातें करती हैं .... वह ख़्वाब भी देखती है तो सच की जमीन पर .... वह कल्पनाओं के झूठे पंखों पर नहीं बुनती है अपना शरीर .... उनकी कविताओं में समाज का दर्द व्याप्त होता है .... और मैं इस मर्मस्पर्शी कविता पर यही कह सकती हूँ कि गनीमत है इस समाज ने अभी पर्दों में झिर्रियों को जगह तो दी है... वह तो इन आँखों को भी खुलने न देता ... लैंगिक असमानता से आहत है आज की महिला और संवेदनशील ह्रदय
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