आज सिताब दियारा ब्लॉग पर कैलाश
बाजपेयी के कविता संग्रह “डूबा-सा
अनडूबा तारा”
पर युवा अध्येता आशीष मिश्र की यह
समीक्षात्मक टिप्पणी
छोटी कविताओं में जरूरी नहीं है, कि आप कवि
के रचना केंद्र से पूर्ण अवगत हो सकें या यह थोड़ा कठिन होगा । छोटी कविताओं में वह
अपने रचनात्मक व्यक्तित्त्व के द्वन्द्वों पर परदा डालते हुए आपको सबकुछ अन्वितिपूर्ण, व्यवस्थित और निश्चित दिखा सकता है । अर्थात, यदि
उसमें इतना आत्मबल न हो, कि वह अपने ‘आत्म’ को यथारूप आपके सामने रख सके तो वह आपको बहला सकता है । पर वही कवि
प्रबन्ध या प्रबंधात्मक कविता में यह ऐयारी नहीं कर सकता, हज़ार
कोशिशों के बावजूद नहीं कर सकता । अगर कवि का रचनात्मक व्यक्तित्त्व अन्वितिपूर्ण
नहीं है तो प्रबन्ध का अंजर-पंजर बजता हुआ और सबकुछ अपने चूल से सरका हुआ लगेगा।
भारत में आधुनिकता की जड़ें जमने के बाद, हिन्दी साहित्य में
प्रबंधात्मक कृतियों के सन्दर्भ में ऐसा सामान्यतः देखा जाता है । अगर कोई चाहे तो
इन प्रबंधों की रूप-रचना को खंघालते हुए सभ्यता-समीक्षा की गहरी सीढ़ियाँ उतर सकता
है । आज़ जब हमारा आत्म अनगिनत भाव-विचारों की युद्ध-भूमि बना हुआ है, जब हमें अपने ‘सार’ के नाम पर
एक-दूसरे के विरोधी उलझे विचार और चाहतें मिलती हैं तो ऐसे में सिर्फ़
सुन्दर-भविष्य के प्रति पक्षधरता और सर्जनात्मक हस्तक्षेप ही हमारे व्यक्तित्त्व
को अन्विति प्रदान कर सकता है। यही वह प्रक्रिया है जो हमें ‘चीज़ों का बण्डल’ बनने से बचा सकती है । यही वह भूमि
है जहाँ से कोई जरूरी सृजन सम्भव होगा । वरना हम सारे मूल्यों, भावों और विचारों को गड्डमड्ड करने वाली वैश्वीकरण के नृशंस परियोजना का
हिस्सा बन जाएँगे । हमें एक गहन वैचारिकता से इसका प्रतिरोध रचते हुए सामान्य जन
की मूल्यधर्मी संवेदना से जुड़ना होगा । आज़ हमारे लिए जरूरी है, कि किसी कृति के भाव-बोध और रूप-रचना पर इस दृष्टि से भी विचार किया जाए
।
कैलाश वाजपेयी की जड़ें भारतीय संस्कृति और इसके
मिथकों में बहुत गहरे तक पैठ रखती हैं । अगर इनकी कविताओं को देखें तो हमारी जातीय
स्मृतियों से संवाद करती हुई काल के बारे में हमारे सामान्य बोध को तोड़ती रहती हैं
। इससे कविताएं न सिर्फ़ जातीयता को नये ढ़ंग से अर्जित करने में सफल हैं बल्कि वे
विविध अर्थ-छवियों से दीप्त भी हो उठती हैं । इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा
सहयोगी इनकी भाषा है, जो समकालीन कविता में अलग से पहचानी जा सकती है । इस सबके
बावजूद किसी व्यवस्थित वैचारिकी के अभाव में एक स्तर के बाद रचनाएँ बिखर जाती हैं
। इसे सापेक्षतः लम्बी कविताओं या इनके प्रबन्धों में सबसे ज़्यादा महसूस किया जाता
है । इसी तरह की रचना है ‘डूबा-सा अनडूबा तारा’। जिसे कवि धारावाही प्रबन्ध कहता है । धारावाही प्रबन्ध कहने का ठीक-ठीक
क्या अर्थ है, बताना कठिन है । पर अन्य संदर्भों से इसका जो
सामान्य भाव समझ में आता है वह शायद यह है , कि यहाँ प्रबन्ध
के शास्त्रीय नियमों का पालन नहीं किया गया है । जो कि गलत नहीं है । कमियाँ और
कहीं हैं ,गहरे अर्थों में रचनाकर-व्यक्तित्त्व में ।
इस प्रबन्ध में अश्वत्थामा और हिन्दू धर्म के
चार प्रसिद्ध अश्वत्थ वृक्षों के मिथक को आधार बनाया गया है । फ़िर इन चार वृक्षों
से कृष्ण,
बुद्ध, शंकर और कबीर को जोड़ा गया है । पर इतने विस्तृत और
विभिन्न देश-काल व नायकों के लिए जिस सघन स्थापत्य की आवश्यकता थी , वह कहीं नहीं दिखता ! भूमिका में कवि के संकल्प व प्रबन्ध की दिशा में
कोई संबंध नहीं । शुरुआत में लगता है कि कवि भ्रूण-हत्या को विषय बना रहा है पर
पूरे पाठ के बाद मिलेगा, कि अश्वत्थ के मिथक को स्थापित करते
हुए प्रबन्ध कृष्ण, बुद्ध, शंकर और
कबीर में बिखर गया है; जिसे ज़बर्दस्ती तान कर फैलाया गया
अश्वत्थामा का मिथक थाम नहीं पा रहा है । महत्त्वाकांक्षा तो ज़्यादा है पर इसे मोम
के पंख थाहा नहीं जा सकता था। इसके लिए जिस संवेदनात्मक और वैचारिक सूत्रता की
आवश्यकता थी, वह सिरे से गायब है । शुरुआत में धृतराष्ट्र
परेशान हैं, उन्हें नींद नहीं आ रही है ,वे विदुर से उपाय पूछते हैं। इस पर विदुर सबसे पहले अपना परिचय देते
हैं-“मैं दासी-पुत्र /जन्मा दलित कोख से”। जैसे धृतराष्ट्र को विदुर के बारे में
कुछ पता ही न हो ! पहले धृतराष्ट्र की मलामत करते हुए नींद को बेहद जरूरी सुन्दर
चीज़ मानते हैं फ़िर मृत्यु का अभ्यास ,मृत्यु की सहेली, वंश-वृक्ष पर छैली बेल; सारी बातें उलझ गयी हैं ।
एक जगह नींद को ग्लोरीफ़ाई करते हैं तो दूसरी जगह
लिखते हैं-“
नींद के
गुलाम सिर्फ़ साधारण
जन ही नहीं
पशु,पेड़,चिड़िया,सभी जीवधारी
नींद के
गुलाम हैं |
जो चीज़ इतनी सुन्दर है उसके लिए यह कहना कि लोग
उसके गुलाम हैं,
गलत है ! जो लोगों को गुलाम बनाती है वो सुन्दर कैसे हो सकती है ! कविता ख़त्म होते
न होते जीव-विज्ञान सम्बन्धी जानकारी और मुहावरों के रूप में एक मूल्य इस तरह चू
पड़ा है, जिसका पूरी कविता से कोई संबंध नहीं-“
ऐसे भी जीव
हैं दुनिया में
थोक में पड़े
रहते हिम निद्रा में
सबसे बड़ा है
वह आदमी
जो जागता
सारी रात
कि अन्य सो
सकें”।
इन पंक्तियों में भाषिक सर्जनात्मकता और कविता
खोजने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ । पूरी संरचना से संबंध ख़ोज रहा हूँ । वह भी नहीं
है ! एक जगह जरा को उपदेश देते हुए कृष्ण कहते हैं-“
चाह कर न चाह
कर
हर कोई हत्या
ही करता है
********हर
तरह की सत्ता का महल
हत्या की
नींव पर खड़ा है
सिर्फ़ अनत्ता
ही निरंजन है
********** बृंदा
के गुण लोग आगे कभी जानेंगे
क्यों उकसाया
झूठ के लिए सत्यवादी को(पार्थ के बहाने ही सही )
हत्या तो
हत्या है
तथाकथित
तर्कशीलों के लिए”
अगली कविता में वे प्रेम को हत्या और आत्म हत्या
कह देते हैं । संभवतः किसी ग्रंथ में, कृष्ण ने तो ऐसा नहीं कहा है । यह समझ
कैलाश वाजपेयी जी की ही है- प्रेम हत्या और आत्म हत्या है! मिथक अमूल्य हैं जो
हमारे चेतन-अवचेतन को निर्मित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं । हम इनकी पुनर्रचना
और पुनर्पाठ से सामाजिक चेतना के संस्कार में योग दे सकते हैं पर उनका क्षयकारी
उपयोग चैत्यिक अपराध है। थोड़ी देर बाद केशव (?) का नैतिक-बोध
जागता है –“
अव्यक्त होने
से पूर्व
व्यक्त रह कर
वर्ष दर वर्ष
मैंने
प्रयत्न किया युद्ध न हो
बना रहे
सौमनस्य
शर्त है जो
ज्ञानी कहलाने की”
केशव की इन दोनों बातों में से किस बात को सही
माना जाए । हत्या स्वाभाविक है तो फ़िर सौमनस्य का प्रयत्न क्यों ? हत्या और
हत्या में अन्तर करने वाले कर्मशीलों को किस बात का अपराधबोध है ! यह रचना इस तरह
के अंतर्विरोधों से भरी पड़ी है । रचना का अन्त इस शुभाकांक्षा से होता है-
“बोध, प्रीतिशोध, क्रोध
अब सब बेमानी
सिर्फ़
प्राथना भर
की जा सकती
है
इस दुर्मद
काल में
कोई अनाम
पराचेतना आए
झकझोर कर
हमें जागा दे
गहरी नींद से”
सारी नैतिकता और सौंदर्य का नकार, सबकुछ को
धूधला करना,बोध,प्रतिशोध,क्रोध सबको बेमानी कहना ; इस अनाम परचेताना के अवतरण
के लिए जगह बनाने का प्रयास था । पूरे टेक्स्ट को गहराई से पढ़ें परा चेतना की जगह
पर पूँजी और फ़ासिज़्म मिलेगा । सारे विचार और प्रतिरोध को झूठा और धुधला इसलिए किया
जा रहा है ताकि आप पूँजी-तंत्र के सामने हताश होकर नतमस्तक हो जाएँ । कृष्ण, बुद्ध, शंकर और कबीर के जीवन से कवि को अनाम
पराचेतना का ज्ञान होता है ! ऐसा नहीं है , ख़ुद रचनाकार इनका
चित्रण किसी परचेताना के रूप में नहीं करता; अपने
बाह्य-आभ्यंतर संघर्षों से बोध को लब्ध होते दिखाता है । फ़िर इस निष्कर्ष पर कैसे
पहुँचता है? इस अंतर्विरोध की जड़ें हमें
रचनाकार-व्यक्तित्त्व में और उसके माध्यम से अपने समय-समाज में खोजना होगा ।
हिन्दी में ब्लर्ब लिखना स्तुति/संस्तुति हो
चुका है । लिखने वाला सारी आलोचकीय नैतिकता को ताक पर रख देता है। इस पुस्तक का
ब्लर्ब लिखते हुए सुशील सिद्धार्थ कैलाश वाजपेयी की भाषिक क्षमता की तारीफ़ करते
हैं । उन्होने कितना ध्यान इस रचना की भाषा पर दिया है इसे वही जानें ! पहले ही
पृष्ठ पर वाजपेयी जी का प्रयोग देखें-“मैं हूँ कोरा कायर”। कोरा कायर लिखना कोरा
वाग्विलास है ! उसी पृष्ठ पर दूसरी जगह ‘आदिवरी’ पद का प्रयोग
करते हैं। ‘आदीवारी’ शब्द फ़ारसी के ‘दीवार’ शब्द में संस्कृत का उपसर्ग जोड़ कर बनाया गया
है । सही शब्द होता है- बे-दीवार । ग़ालिब का शे’र याद करें ।
एक दफ़े इस कौतुक को स्वीकार भी कर लिया जाए तो भी ‘अदीवारी’ होगा न कि ‘आदिवारी’! एक अन्य
स्थान पर लिखते हैं-“विस्फोट जैसा-सा हुआ मन के/आकश पर घन”। यह जैसा-सा क्या होता
है ?या तो जैसा या फ़िर सा । अजब-अजब प्रयोग करते हैं-
“
पीपल के
पत्ते खड़-खड़ कर रहे
जैसे बता रहे
हों
जागो
जनार्दन”
बताई जाती है कोई बात, जगाने में
कुछ नहीं बताया जाता। पर, अगर भाषिक कौतुक ही ध्येय हो तो
कुछ भी करते रहिए । ऐसी भाषिक सर्जनात्मकता और ऐसी दृष्टि कविताओं को ‘हवा में हस्ताक्षर’ ही बनाएँगी।
पुस्तक का
नाम: ‘डूबा-सा अनडूबा तारा’
लेखक: कैलाश
वाजपेयी
प्रकाशक
: भारतीय ज्ञानपीठ
मूल्य : 170
समीक्षक
आशीष मिश्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें