सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” - आठवीं क़िस्त - अशोक आज़मी’







इस संस्मरण के बहाने अशोक आज़मी अपने अतीत के दिनों को याद कर रहे हैं । उन दिनों को, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली क़िस्त में उन्होंने एक किशोर बालक और एक अनुशासन प्रिय पिता के बीच के उस द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश की थी, जो शायद इस समाज के साथ ही शुरू हुयी थी, और इस समाज के रहने तक बनी भी रहेगी । इस क़िस्त में वे अपने ननिहाल और ददिहाल के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमे एक बालक के पास आजादी भी होती है, और समाज से सीधे जुड़ने का अवसर भी ।

      
                  

             तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मी के
                                संस्मरण                    
          
                        

                                  ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैरकी आठवीं क़िस्त
                                   
                                    

                  ऊ गरीब ह त ओके अइसे बोलइबs?


परीक्षा जितनी दारुण होती है, गर्मी की छुट्टियाँ उतनी ही शानदार. अब तो गर्मियों की छुट्टियों में भी माँ बाप दुनिया भर का कोर्स कराते हैं और स्कूल उसे कम से कम करने की कोशिश में लगे रहते हैं. इन दोनों का चले तो बच्चों को पंद्रह साल का होते होते एम बी ए करा दें. अगल बगल की कान्वेंट शिक्षित माताओं को बच्चों के होमवर्क और प्रोजेक्ट में इस क़दर उलझे देखता हूँ तो डर जाता हूँ. डागी देखो बेटा, मिल्क पी लो प्लीज़, चलो चलो बाथ करेंगे...के ज़रिये जो प्रशिक्षण शुरू होता है वह मैथ्स, सोशल स्टडीज, साइंस के होमवर्क से होता हुआ जाने कहाँ तक जाता है. हमारे ज़माने में तो माँ की चिंता बस यही थी कि भूख न लगने पाए. घंटा बीता नहीं कि, क्या खाओगे बाबू?. गर्मी की छुट्टियाँ तो मौज मस्ती के लिए ही बनी थीं. हाँ अगले साल की किताबें ज़रूर ले ली जातीं और पापा शाम को घंटे दो घंटे पढ़ाते कि प्रेक्टिस न छूट जाए. इंटर के बाद वाली छुट्टी पहली ऐसी छुट्टी थी जिसमें सब इतना शानदार नहीं था. आगे की चिंता थी. इस चिंता में यह भी शामिल था कि बड़ी मुश्किल से हाथ में आया लड़का कहीं फिर हाथ से न चला जाए. तो न बनारस का फ़ार्म भरने दिया गया न इलाहाबाद का. दिल्ली तो खैर बहुत दूर थी. ले दे के एक एम एन आर का फ़ार्म भरा गया और दूसरा गोरखपुर विश्वविद्यालय का. बी एस सी पापा ने भरवाया, बी ए हमने भर दिया और ननिहाल चला गया.


असल में मेरी कोई स्मृति ननिहाल और ददिहाल के बिना पूरी हो ही नहीं सकती. माँ-पिता आ घर मुझे सफल नागरिक बनाने का प्रयोग स्थल था तो ये दोनों जगहें मुझे पूरी आज़ादी से बिगड़ने की सुविधा देने वाली. ननिहाल था भी मेरे घर से कोई दो किलोमीटर भर. साइकल से दस मिनट में पहुँच जाओ पीपरपांती. देवरिया के भूगोल से परिचित लोग भीखमपुर रोड पर बसे इस गाँव के बारे में जानते होंगे. एक नहर इसे शहर से अलग करती है. बहुतायत ब्राह्मणों और दलितों की है, लेकिन यादव सहित अन्य जातियों की संख्या भी पर्याप्त है. मेरे नाना का घर शिक्षित घरों में से गिना जाता था. शायद शिक्षा के अलावा थोड़ी ज़मीन जायदाद वालों के पास कोई चारा भी नहीं था उस बदलते दौर में. नाना ने इंटर पास किया था और पढाई के दौरान आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए थे. गांधी और जयप्रकाश से बेहद प्रभावित नाना 1942 के आन्दोलन में गोरखपुर जेल में बंद हुए थे. देश आज़ाद हुआ तो घर के हालात पर नज़र गयी. सबसे बड़े थे तीन सगे और एक चचेरे भाइयों तथा चार बहनों में. किसी रिश्तेदार ने गोरखपुर रेलवे का पता दिया. पहुँचे तो वहां क्लर्क की नौकरी मिल गयी. घर चलने लगा. खद्दर जो तब अपनाई थी जीवन भर साथ रही. धोती, कुर्ता, गमछा, रुमाल ही नहीं घर की चद्दरें और दीगर कपड़े भी खद्दर के ही होते. रोज़ सुबह 7.30 की ट्रेन से गोरखपुर जाते और रात 8.30 पर लौटते. सुबह चार बजे उठकर तीन चार किलोमीटर घूम कर खेत-बारी का मुआयना कर लेते. बारी में कुछ आम और जामुन के पेड़ उनके भी थे लेकिन हमारे लिए पूरी बारी अपनी थी. पूरा गाँव नाना-नानी-मौसी-मामा था. इस अतिशय प्रेम की एक और वजह थी. कुछ ऐसा संयोग था कि नाना के तीनों भाइयों में से किसी को पुत्र नहीं हुए. घर में माँ सहित 9 बेटियां थीं. माँ सबसे बड़ी थीं तो मैं पहला नाती. ज़ाहिर है एक नहीं तीन नाना-नानियों और तमाम मौसियों के प्यार-दुलार पर इकलौता अधिकार कम से कम चार बरस तो रहा ही मेरा. हालांकि एक मौसी लगभग मेरी उम्र की थीं और तीन छोटी थीं. पुत्र की लालसा में अंतिम दम तक कोशिशें ज़ारी थीं. माँ की सगी दो बहने थीं जिनमें बड़ी मौसी की शादी मेरे होश संभालने से पहले हो गयी थी और छोटी मौसी जहाँ तक मुझे याद है उस समय नाना की सारी कोशिशों के बाद किसी तरह बारहवीं का सर्टिफिकेट हासिल कर दो तीन सालों से शादी की प्रतीक्षा कर रही थीं. माँ का भी वहां विशेष सम्मान था, न केवल सबसे बड़ी दिदिया होने के कारण बल्कि घर ही नहीं गाँव की पहली ग्रेजुएट होने के कारण. जिन्होंने मेरी माँ की डिग्रियाँ कविता पढ़ी है वे जानते हैं कि किस तरह अनपढ़ नानी ने अपने पिता से किया वादा निभाने के लिए सारे गाँव से बैर मोल लेके माँ को पढ़ाया था. एक बार रास्ता खुल गया तो सबने पढ़ाई की.


तो ननिहाल हमारा आज़ाद देश था. वहां बारी के पीछे धूस के मैदान की क्रिकेट टीम के स्टार थे हम. वहाँ रिश्ते में मामा और दरहकीक़त दोस्तों की एक टोली थी जिसके रहते हमें शहर में किसी से डरने की ज़रुरत नहीं थी. वहां आम और जामुन के पेड़ थे जिनसे फल तोड़ते हुए हमें किसी के आदेश की परवाह नहीं करनी थी. वहां बिना मांगे पकौड़ी-फुलौरी खिलाने वाली नानियाँ थीं. वहाँ गुल्ली डंडा खेलने में साथ देने वाली मौसियाँ थीं. वहाँ गोली (कंचे) के दांव सिखाने वाले लोग थे. और वहाँ नाना के सिवा कोई नहीं था जो हमें डांटे. नाना तो रात को लौटते थे. तो दिन भर की धमाचौकड़ी में नानी की चिंता बस यह रहती थी कि सोनुआ अबहिन ले खइले नइखे. अरे! इतना किस्सा सुना गया और बचपन का वह नाम बताना भूल गया जिसके बिना देवरिया में ननिहाल और अपने मोहल्ले में तो कोई नहीं ही पहचानेगा – सोनू!  तो सोनू बाबू का साम्राज्य था वह गाँव!


शाम को नाना लौटते तो लकठा लेकर आते थे और साथ में अक्सर गीताप्रेस की किताबें. पर मैं तो लाइब्रेरी से लाई वे किताबें पढता जो वह अपने लिए लाते थे. संस्कृत का बड़ा स्वाध्याय था उनका तो सिखाने की कोशिश करते..काश सीख लिया होता! ऐसे ही नानी इलहाबाद की थीं और उनके पास कहावतों का अथाह भण्डार था. बिना कहावत उनकी बात पूरी ही नहीं होती. घर में दही ख़त्म होने को है और कोई मांगने आ गया तो उसे देने के बाद तोर नौज बिकाए मोके घलुआ दे. किसी ने बात न सुनी तो कहले धोबिया गदहा पर नाही चढ़ी, मौसी ने ज्यादा नखरे तो कईलीं न धइलीं, धिया ओठ बिदोरलीं’ और ऐसे ही न जाने कितनी कहावतें. अब लगता है काश उन्हें एक जगह नोट कर लिया होता! माँ से पूछ पूछ के काफी इकठ्ठा की हैं, लेकिन फिर भी उनके साथ ही चला गया इस धरोहर की एक बड़ा हिस्सा. कभी एक कविता में लिखा था, हर औरत के साथ चली जाती हैं कुछ कहावतें.  रात में नाना खाना खाने के बाद बैठते समझाने सिखाने. संस्कृत के श्लोक. फिर उनका अर्थ. गीता के श्लोक. राम चरित मानस का पाठ. ऊंघती आँखों से सुनने के बाद हम सुबह की डांट के लिए तैयार होते. सुबह चार बजे उनकी उठाने की कोशिश और हमारी आठ से पहले न हिलने की जिद बहुत बाद तक चली. अगर दिन में नाना की छुट्टी हुई तो दिनचर्या बदल जाती. वह अपने साथ कहीं न कहीं घुमाने ले जाते. कभी पास के किसी गाँव के रिश्तेदार के यहाँ, कभी गाँव में ही किसी के यहाँ. रास्ते में किस्से सुनाते. धार्मिक भी और राजनीतिक भी. एक आप भी सुनिए, एक जनी रहलं राजनरायन. सोसलिस्ट नेता. एक बार देवुरिया अइलं त फलाने के यहाँ डेरा पडल. फलाने कहलन अपनी मेहरारू से कि नेताजी तानि ढेर खालें, त रोटी ढेर बनइह. बइठलं राजनरायन खाए. रोटी आवत जाए. राजनरायन खात जाएँ. आटा ओराइल त अउर सनाइल. फिर सुख्ख्ल आटा ओरा गइल त बाज़ार से आइल. जब पचास गो हो गइल त कहलन बस अब रहे द. फलाना कहलं मन से नाही खईलिं हं का नेताजी. त भीत्तर से उनकर मेहरारू कहलीं, नाहीं अबहिन त खाली किलो से खईलीं ह नेताजी. उसी दौरान की एक घटना है- नानी के गाँव के फेकू रेलवे क्रासिंग के पास जूते बनाते थे. एक बार मैंने नानी के यहाँ जाने से ठीक पहले फट गयी चप्पल सिलवाई और पैसे नहीं थे तो कहा बाद में दे देंगे. वह कभी मांगते ही नहीं थे. मैं नानी के यहाँ पहुँचा तो नानी से बोला, ए नानी, फेकुआ के दू गो रुपिया दे दीह. नाना वहीँ आँगन में थे, बुलाया. बोले – केहू हमरा के सरदवा कही त कइसन लागी तोहके? मैं सन्न. ऊ गरीब ह त ओके अइसे बोलइबs? तोहरी अम्मा के दीदी कहेला न? त मामा कहत जीभ काहें अईन्ठात बा? फिर रात को उस दिन उन्होंने देर तक लोहिया के बारे में बताया. जाने उस उम्र में कितना समझ में आया लेकिन वर्षों बाद जब वेरा को घर में सहायिकाओं को आंटी बोलते सुनता हूँ, तो लगता है उनका कहा कुछ तो समझ में आया होगा. एक आदत ग़ज़ब थी उनकी. घर में कुछ बनता रहे राह चलते किसी को बुला के खिला देंगे. नानी कुडमुडाती थीं. पर उन्हें कहाँ चैन, कहेंगे- अरे ओ कुलीन के कहाँ मिली पकौड़ी. खिया दs. अक्सर फिर नानी के लिए नहीं बचता था. उसकी फ़िक्र किसे थी? बहुत बाद में समझ में आया. जाति और धर्म भेद मिटाना फिर भी आसान है, जेंडर के बारे में बराबरी की सोच बेहद मुश्किल है. लोहिया के वह शिष्य तो कभी न सीख पाए. नानी की मौत के बाद कलपते थे. पूरी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो गयी. खैर...


इसके उलट बाबा अलमस्त आदमी थे. बीड़ी पीने-सुरती खाने वाले, मांसाहार के ऐसे शौकीन कि डाक्टर ने फालिज के अटैक के बाद जब नमक बंद करवा दिया तो बिना नमक के मीट खाते. उर्दू सीखी थी. शेरो-शायरी के शौकीन. नौकरी बिजली विभाग में छोटी सी थी. बड़ा परिवार था. तंगी ऐसी कि कंजूसी मज़बूरी थी, पर तबियत अलमस्त. आजमगढ़ (अब मऊ) के मधुबन थाने से कोई पांच किलोमीटर दूर सुग्गीचौरी गाँव. नदी किनारे के उस गाँव में मछुआरों का बाहुल्य स्वाभाविक था. बाबा ने गाँव से बाहर मकान बनवाया था. सामने बड़ा सा मैदान जिसमें नीम का एक छाँहदार पेड़ था. बगल में धोबी लोग थे और एक बँसवारी जिसकी कइन तोड़कर हम धनुष बाण खेलते थे. सामने यादव लोगों का घर जिसके दुआर पर जामुन और नीम के पेड़ थे. हम गर्मी की छुट्टियों में घर जाते. मधुबन तक बस से. फिर वहां से इक्के से. बाबा साइकल से साथ साथ चलते. रास्ते भर लोग मिलते जुलते. गाँव पर हमारे आने से पहले मछलियाँ पहुँच जाती थीं. रसे वाली अलग बनती और भूनने वाली बाहर भूनी जातीं. आम और जामुन से घर मह मह महकता. दादी महिया और राब बचा के रखतीं. गन्ने की तो खैर कोई कमी थी ही नहीं. यहाँ जैसे विशिष्ट मेहमान वाला भाव आता. माँ-पापा तो पारिवारिक मसलों में उलझ जाते. पर मैं चाचाओं के साथ पूरा लुत्फ़ लेता. हमारी जामुन बटोरने का आनन्द खरीद के खाने वाले कभी नहीं जान सकते. गन्ने चूसते हुए गलफड़ फाड़ लेने का आनंद दस रूपये में एक गिलास जूस पीने वाले क्या समझेंगे? धान की रोपिया होती तो हम आगे आगे रहते. खेत पटाया जाता तो हेंगा पर चढ़ जाते. ट्यूबवेल चलता तो सब शहरातीपना छोड़कर नहाने लगते. बुआ गोइंठे पर गर्म गर्म रोटियां सेकतीं तो उन मोटी रोटियों पर घर के सरसों के तेल और सिल पर पिसे नमक पोत कर खाने में जो आनंद मिलता वह वर्णन नहीं किया जा सकता. पढाई वगैरह का तो खैर सवाल ही नहीं उठता लेकिन एक मजेदार चीज़ थी. एक चाचा को गुलशन नंदा, कुशवाहा कान्त वगैरह पढने का बड़ा शौक था. बाहर बनी दो कोठरियों में से एक में वे सब रखी थीं. उन्हें पढने (जाहिर है चुराकर) का चस्का वहीँ से लगा जो काफी दिनों तक रहा. साथ में बाबा के लिए बीड़ी सुलगाते हुए एक कश मार लेने का चस्का भी. यही शायद आगे चलकर सिगरेट की पूर्वपीठिका बना. नाना के गाँव से उलट यहाँ ब्राह्मणों का बस एक घर था. इस अलग माहौल में अलग तरह के दोस्त बने. अलग चीज़ें सीखीं. शहर से दूर यह एकदम असली वाला गाँव था जहां लाईट शायद नब्बे के दशक में पहुँची और पहला टायलेट हमारे घर में बना शायद 95 के आसपास. गाँव में प्राइमरी स्कूल भी नहीं था. बस थे तो डीह बाबा जो सभी जातियों के देवता थे और बंगाली डाक्टर जिनके पास हर रोग का एक इलाज था. 


बाबा पढाई को लेकर बहुत कड़े थे. बीच में ज्यादा कुछ नहीं कहते लेकिन रिजल्ट को लेकर एकदम सख्त रहते थे. एक किस्सा सुनाये बिना बात पूरी नहीं होगी. उस साल हाईस्कूल की परीक्षा देकर हम गाँव चले आये थे. रिजल्ट की व्यवस्था यह हुई थी कि रिश्ते के एक मामा जिन्हें किसी काम से आना था उसे लेकर आयेंगे. वह आये. बाबा ने पूछा तो बोले, रोल नंबर भुला गइलीं त जी आई सी के जेतना लइका फर्स्ट डिविजन आइल बान स कुलहीन क रोलनंबर लिख ले आइल बानी. बाबा बोले, ठीक कइलs हs. सेकण्ड आयें चाहें फेल होखें एम्मे कौन अंतर बा? सुनकर हाथ पाँव फूल गए. जाके छत पर छुप गया और सुनने लगा. जब पापा की आवाज़ आई, हाँ, यही है सोनू का रोल नंबर. तब शान से विजेता भाव लिए नीचे उतरा. बाबा किसी को जलेबी लाने भेज चुके थे.



तो ये थीं दो ऐसी दुनियाएं जो पापा के अनुशासन के बीच गढ़ रही थीं मुझे...गोरखपुर पहुँचा तो वह था जो इन सबसे बना था.       
     
                                                             ....................जारी है .....
                                      

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कविआलोचकब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी      

     

4 टिप्‍पणियां:

  1. घोसी , मधुबन , कोपागंज , इंदारा ....सब याद आया । घोसी से तेरह किलो मीटर पर अपना भी गाँव है ।अपने बनने-बिगड़ने के दिनों के स्मरण में जून की दोपहरी में बाग़ में खेली गयी चिकई भी शामिल है ।
    संस्मरण बढ़िया जा रहा है ।बधाई ।

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  2. ई तो हमरहू पचा के कहानी हा हो. उहे बगिया, उहे टुब्बेल, उहे हुडदंग

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  3. बहुत मज़ा आया पढ़ने का। यही है ज़िन्दगी ।

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