इस संस्मरण के बहाने ‘अशोक कुमार पाण्डेय’ अपने अतीत के दिनों को
याद कर रहे हैं । उन दिनों को, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली क़िस्त में उन्होंने
अपने ननिहाल और ददिहाल के उन दिनों को याद किया था, जिसमे एक बालक के पास आजादी भी
होती है, और समाज से सीधे जुड़ने का अवसर भी । इस क़िस्त में वे
अपने कालेज के दिनों और दोस्तों के सहारे नयी आकर ले रही जिंदगी को याद कर रहे हैं
....|
तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक कुमार पाण्डेय के
संस्मरण
“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की नवीं क़िस्त
जब तक हम हैं...
बारहवीं के बाद अब शहर छूटना था. छोटे क़स्बे के बाशिंदे अभिशप्त होते
ही हैं घर छोड़ने को. बड़े शहरों के दड़बे उनके इंतज़ार में होते हैं. हम खुशकिस्मत थे
कि घर छोड़ कर पढ़ने जाना था. हमारे साथ के ही कितने लड़कों की पढ़ाई दसवीं-बारहवीं के
बाद ही छूट गयी. एक परीक्षा में फेल होना उनकी ज़िंदगियाँ तय कर गया. वे कारखानों
में मज़दूर हो गए, वे अपने पिताओं की दुकानों में अनपेड लेबर हो गये...फिर उन्हें
मालिक बनना था, वे खेतों में जल-भुन गए. वे दिल्ली-बम्बई चले गए कमाने. खैर यह सब
अब समझ आता है तब तो लगता था कि बस बंधन से मुक्ति मिले. ड्रेस पहनने के बंधन से
और पापा के छोटे छोटे आदेशों से मुक्ति. तो गोरखपुर पहली बार अकेले गया इंट्रेंस
देने के लिए. मेरे छोटे चाचा वहाँ एयर फ़ोर्स में थे और उसी की कालनी में रहते थे
तो रुकना वहीँ हुआ. पहली बार गया एम एन आर की परीक्षा देने. सुबह चाचा ने उठाया,
चाची ने नाश्ता वाश्ता कराया और हम वहां से निकले तो सीधे विजय सिनेमा रोड. जानते
वानते तो थे नहीं किसी को. तो मार्निंग शो देखा और लौट आये. कोई एडल्ट फिल्म थी.
उस दौर में एडल्ट फिल्म का मतलब होता था अंग्रेज़ी या किसी भी पश्चिमी भाषा की कोई
फिल्म. माया और तरंग टाकीज में ऐसी फ़िल्में लगतीं और देखने वालों में हम जैसे
सद्ययुवाओं के अलावा सबसे बड़ी संख्या बूढ़े और अधेड़ लोगों की होती थी. ऐसी फिल्मों
में अक्सर एकाध न्यूड सीन हुआ करते थे, कभी कभी अभिसार के भी. नहीं होते तो बीच
बीच में ब्लू फिल्मों की रील चला दी जाती. फिल्म शुरू होने से पहले कानाफूसियाँ
सुनी जा सकतीं थीं, “कुछ बा की नाहीं?” “बा मर्दे, फलनवा देख के गईल रहे, बतावत
रहे”..इंटरवल आते आते तक शब्द होते, “ बै मर्दे. अबहिन ले त कुछ अईबे ना कईल” “आई
आई..देखिह बा”...तो भाषा के बंधन कट जाते. लोग टकटकी लगाए पूरी फिल्म देख जाते. और
अंत होने के बाद बेआवाज़ एक दूसरे से छिपते छिपाते निकल जाते. खैर, लौट के आया तो
चाची ने पूछा, “कैसा हुआ पेपर”. हमने “अच्छा नहीं हुआ चाची” कहकर इंजीनियर बनाने
के पापा के सपने को अंतिम सलाम ठोंका और घर लौट आये. वैसे मजेदार यह कि हमारे साथ
के वे विद्यार्थी जिन्होंने दो साल इंटर बोर्ड से ज़्यादा इंजीनियरिंग की तैयारी की
थी और हज़ारों रुपये स्वाहा किये थे उनमें से भी किसी का सेलेक्शन उस साल नहीं हुआ.
विश्वविद्यालय की परीक्षा हमने मन से दी. बी ए और बी एस सी दोनों में
दाखिला मिला. पापा ने इस बार कोई ज़िद नहीं की और मैंने बी ए में दाख़िले का फ़ैसला
लिया. ज़ाहिर है ताने मिले. पढने की इच्छा नहीं है, आवारागर्दी करना है तो बाबू बी
ए करेंगे. यह एक अज़ीब मानसिकता है हमारे
समाज में. जैसे कला संकाय के विषय पढ़ना और न पढ़ना एक जैसा हो. मान के चला जाता है
कि इन विषयों को वे लड़के/लडकियाँ पढ़ते हैं जिनमें विज्ञान के विषय पढने के लिए
अपेक्षित योग्यता नहीं होती. एक तरह का काम्प्लेक्स पैदा कर दिया जाता है और असर
यह अक्सर वे छात्र जिन्हें किसी तरह विज्ञान में दाखिला मिल जाता है, कला के विषय
नहीं पढ़ते. लेकिन मैंने गर्मी की छुट्टियों में ही तय कर लिया था कि करना तो बी ए
ही है. कारण दो थे. पहला यह कि अगर बी एस सी करता तो पापा अपनी शिक्षक वाली भूमिका
में ही रहते. फिर गोरखपुर का भौतिक विभाग तो अंकलों से भरा था. जिस पहरे से निकल के
आया था वह यहाँ और गाढ़ा हो जाता. दूसरा यह कि गर्मी की छुट्टियों में मुझे कहीं से
अर्थशास्त्र की एक किताब मिल गयी थी. उसे पढके बड़ा आनंद आया था तो तय किया था कि
अर्थशास्त्र पढना है. यह पापा के लिए संतोष की बात थी. जब मैंने उनसे अपने पसंदीदा
विषय अर्थशास्त्र, इतिहास और हिंदी बताये तो उन्होंने बस इतना कहा, “अच्छा है एक
विषय में मेहनत करके डिग्री तीन विषय की मिल जायेगी.” बात चुभ गयी. जब चुनना हुआ
तो चुना, अर्थशास्त्र, गणित और सांख्यिकी. कहीं मन में चुनौती वाला भाव था. पापा
खुश ही हुए और इस तरह हमारा नाता विज्ञान और कला दोनों संकायों से बना रहा.
लेकिन आज़ादी भी इतनी आसानी से कहाँ मिलनी थी? हमने सोचा था हास्टल में
रहेंगे, पता चला हास्टल एलाट होने में कई महीने लगेंगे. हास्टल के बारे में आगे
विस्तार से लिखूँगा. हमने दोस्तों के साथ प्लान बना लिया कि दाउदपुर में किराये का
मकान लेंगे. घर पहुंचे तो पापा का प्लान ए तैयार था. हमें चाचा के पास रहना था.
दूरी का लाजिक पहले ही हल किया जा चुका था. हमें बी एस ए एस एल आर की साइकिल मिलनी
थी. मालूम था झींकने रोने का कोई अर्थ
नहीं तो किताबें समेटे, कपड़े एक बैग में ठूंसे रोडवेज की बस से गोरखपुर चला आया. उस
वक़्त का माँ पहली बार छोड़ने घर से बाहर आई थीं. पैर छू के पापा के स्कूटर पर बैठा
तो भी उनकी भरी आँखें लगातार जमी हुई थीं. उनमें मेरे बिछड़ जाने का एहसास था. वह
जानती थीं कि अब मैं लौट के नहीं आने वाला था. उस घर का होते हुए अब मुझे मेहमानों
सा आना था. और यह दूरी बढती जानी थी...बढती ही गयी.
एयरफ़ोर्स कालोनी एकदम अलग तरह की जगह थी. मतलब उन मोहल्लों से अलग
जहां अब तक मैं रहा था. चाचा छोटी पोस्ट पर थे. दो कमरों और वरामदे वाला छोटा सा
फ़्लैट था जिसमें तीन मंजिलें थीं और हर मंज़िल पर तीन-तीन फ़्लैट. देश के अलग अलग
हिस्सों से लोग थे. अलग अलग संस्कृतियाँ और सबसे मिलाकर बनी एक साझी हिंदी जिसका
टोन हरयाणवी के आसपास था. मजेदार बात यह थी कि हमारे चाचा के घर भी वही भाषा बोलने
की कोशिश होती थी. जहाँ अन्य भाषाई क्षेत्रों के लोग आपस में अपनी भाषाएँ उपयोग
करते थे, वहीँ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग अपने ही इलाक़े में रहते हुए तू
तडाम वाली अजीब सी हिंदी बोलने की हास्यास्पद कोशिश करते थे. एक जैसी कमाई वाले
लोगों के बीच दूसरी होड़ थी अधिक संपन्न दिखने की. तो बच्चों से लेकर बड़ों में
कम्पटीशन चलता रहता था. एक मजेदार क़िस्सा हुआ. चाचा का लड़का अंशु तब कोई चारेक साल
का रहा होगा. बगल में शायद कोई पंजाबी परिवार था जिसमें उसकी हमउम्र लड़की थी
गुड़िया. दोनों में बहस शुरू हुई. इसने कहा, मेरे घर कलर टीवी है. उसने कहा मेरे घर
भी है. इसने कहा मेरे घर फ्रिज है. उसने कहा मेरे घर भी है. इसने कहा मेरे घर कूलर
है. उसने कहा मेरे घर भी है. इसने कहा मेरे इत्ते बड़े भैया हैं. वह रोते रोते माँ
के पास पहुँची और बोली मुझे आज के आज इत्ता बड़ा भैया चाहिए.
खैर, इस तरह एक नई ज़िन्दगी की शुरुआत हुई और रोज़ कोई आठ किलोमीटर
साइकल चला के गोरखपुर विश्वविद्यालय जाते हुए हम इस आधी आज़ादी का आनंद ले रहे थे.
यह एक नई दुनिया थी. नए दोस्त बने. जींस पहनने का सुख मिला और अपनी मर्ज़ी से शहर
में पहचाने जाने के भय से आज़ाद होकर घूमने और क्लास बंक करने का सुख मिला. हालांकि
विश्वविद्यालय में भी कला संकाय में लड़कियों और लड़कों की कक्षाएं अलग अलग चलती थीं
लेकिन हमारी क्लास में तीन या चार लड़कियां विशेष परमिशन लेकर पढ़ने आती थीं. किरण
भी उनमें से एक थीं. बाक़ी दोनों विषयों की कक्षाएं विज्ञान संकाय में चलती थीं तो
वहां तो सह शिक्षा थी ही. लेकिन एक तो कला संकाय का होने के चलते बनी इमेज और
दूसरा छोटे क़स्बे से आने का एक हीनताबोध कि हम बहुत ज़रूरी होने पर हूँ-हाँ के
अलावा कुछ बोलने में सकुचाते थे. एक मज़ेदार चीज़ होती है गोरखपुर जैसे मझोले शहरों
के कालेज़ों/विश्वविद्यालयों की. यहाँ के तेज़ तर्रार लड़के अक्सर बड़े शहरों में पढने
चले जाते हैं और आसपास के छोटे क़स्बों-गावों के निम्नमध्यवर्ग के या फिर इंटर में
कम नंबर लाने वाले और बड़े विश्वविद्यालयों में दाखिला पाने में असफल रहे लड़के ही
स्थानीय कालेजों में आते है, जबकि लड़कियों को बाहर भेजने में संकोच के कारण अच्छे
घरों की और तेज़ तर्रार लडकियाँ भी यहीं पढ़ती हैं. तो दोनों के बीच एक अजीब सा
रिश्ता बनता है. इस पार आगे कई कहानी किस्से आयेंगे. अभी एक किस्सा सुनाता हूँ.
मैं देवरिया से गोरखपुर बस से जा रहा था. भीड़ काफी थी और मैं सीट पर था. बगल में
एक लड़की खड़ी थी जो शायद सीनियर रही होगी. अचानक उसने पूछा, “तुम अशोक हो न.” मैंने
कहा “जी.” फिर लहा ज़रूर कोई परिचित होंगी और सीट छोड़कर खड़ा हो गया. पूरे रास्ते
फिर उसने कुछ न कहा. ज़ाहिर है हम तो क्या ही बोलते. गोरखपुर आया और हम अपने अपने
रास्ते. दो तीन दिन बाद वह विश्वविद्यालय में मिलीं तो मैंने पहचान वाली मुद्रा
में स्माइल देते हुए हेलो किया. वह एक व्यंग्य वाली मुस्कराहट के साथ आगे निकल
गयीं. थोड़ी देर सोचने पर समझ में आया कि उस रोज़ मेरी गोद में कुमार-सुन्दरम की
किताब थी जिस पर मेरी शानदार लिखावट में मेरा नाम दर्ज़ था.
इन सब के बीच नयी मित्र मंडली बन चुकी थी. अरविंद श्रीवास्तव जो हमारे
लाला थे, मोहम्मद मतीनुद्दीन और अजय श्रीवास्तव की यह चौकड़ी थी. हम शाहपुर में
गणित का ट्यूशन पढने जाते थे. हम पन्त पार्क में घंटों गप्पे मारते थे. फ़िल्में
देखते थे. फिल्मों का यह कि क्लास करते करते फिल्म का प्लान बन जाता. अजय टिकट
लेने में उस्ताद था. तो जेबें खाली करके उसे दे दी जातीं और वह अपनी खटारा साइकल
से निकल जाता. विजय चौराहे पर मिलने की जगह तय थी. वहां हमें पता चलता कि कौन सी
फिल्म का टिकट मिला है. यह तो बहुत दिनों बाद पता चला कि हुज़ूर उसी फिल्म का टिकट
लिया करते थे जिसे देखने सबसे ज़्यादा लड़कियां आया करतीं. खैर फिल्म उस समय फिल्म के लिए देखी जाती थी.
कोई हीरो हो, कोई हिरोइन हो, कहानी हो न हो पर हफ्ते में कम से कम एक फिल्म तो
देखनी ही थी. यह भी एक विद्रोह था. बारहवीं तक बस एक फिल्म अकेले देखने देने की
पारिवारिक तानाशाही के खिलाफ़. दूसरा विद्रोह था सिगरेट. उसी दौर में सिगरेट पीनी
शुरू की. अरविन्द पीता था. अजय की थियरी थी कि हेल्थ लास और मनी लास एक साथ नहीं.
तो खरीदता नहीं था पर पीता था. हम चारों एकदम अलग अलग दुनिया के जीव थे. अजय ओके
ग्रूव स्कूल, मसूरी से पढ़ कर आया था. वहीँ किसी एक्सीडेंट में शायद छत से गिर पड़ा
था और दिमाग पर असर हुआ था. अचानक मिर्गी जैसे दौरे आते थे. किसी चीज़ पर ध्यान
केन्द्रित नहीं कर पाता था. ज़ाहिर है पढ़ाई पर असर हुआ था. लेकिन सर से पाँव तक
इश्क़मिजाज़. पापा उसके रेलवे में थे और गोरखपुर में ही घर था. अरविन्द के पापा
इंजीनियर थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बचपन बीता था. उसके लिए गोरखपुर में उन
दिनों प्रचलित शब्द भौकाली एकदम सही था. खुद को एक ट्रेजेडी किंग की तरह पेश करता.
उसके हिसाब से किसी मुस्लिम लड़की से प्रेम हुआ और उस चक्कर में शहर छोड़ना पड़ा.
पन्त पार्क में तिरछे लेटा हुआ सिगरेट के छल्ले बनाता जब वे कहानियाँ सुनाता तो हम
सच में भरोसा करते थे. एकदम कसे शरीर का पहलवान जैसा व्यक्तित्व था और बातों का
उस्ताद. मतीन हम सबमें सबसे सीधा था. पिता पुलिस में थे और उनकी मृत्यु के बाद घर
का सबसे बड़ा होने के चलते घर चलाने की ज़िम्मेदारी सर पर थी. पिता की छोटी सी पेंशन
मिलती और नौकरी का भरोसा. बहुत कम बोलता, हाँ अरविन्द की बातों पर सबसे कम भरोसा
वही करता था. बड़ी प्यारी सी थी उसकी मुस्कराहट. इधर बहुत दिनों बाद उससे बात हुई
तो जाने क्या क्या याद आ गया.
इस तरह बड़े मजे में कट रही थी ज़िन्दगी. नया शहर. नयी बातें. थोड़ी सी
आज़ादी. मस्तियाँ. और इन सबके बीच विश्वविद्यालय की राजनीति को देखने और उसमें
शामिल होने की कोशिशें. लेकिन यही दौर था जब रामजन्मभूमि आन्दोलन तेज़ी से बढ़ रहा
था. उसकी छायाएं हमारे क़रीब पहुँच रही थी. हम घंटों उस पार बातें करते. मतीन साथ
होता तो आदर्शवादी बातें होतीं. एक दोपहर हम पन्त पार्क में इन्हीं बातों में लगे
थे. मतीन आदतन खामोश सुन रहा था. फिर अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ा और बोला, “जब तक हम
हैं न...इस मुल्क के टुकड़े नहीं होंगे.” सब ख़ामोश थे..फिर हम उठे और एक दूसरे के
गले लग गए.
जारी है ................
परिचय और संपर्क
अशोक कुमार पाण्डेय
वाम जन आंदोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी
जब्बर है ये तो एक दम। राब और महिया पहली बार इस जेनरेशन में किसी के मुह से सुना।
जवाब देंहटाएंहमें लगता था की वो वस्तुपरक भाषाई सम्पन्नता भी खो रही है । पर अभी है। जिन्दा है।
अच्छा लगा पढ़ के।
कभी कभी ये लगता है जैसे मेरी कहानी है । उधर पिपर्पाती गाँव तो इधर सरयू किनारे बढ़हलगंज का मेरा ब्राह्मण संपन्न मेरा गाँव। वही से होते हुवे एमजी कालेज होते नाथ चंद्रावत बरास्ता। मेरी अम्मा वाली सारी कहवातें।
जवाब देंहटाएंखोइया से लेकर सरपत और ओल्हपाति से लेकर मगोइचा तक।
अविश्मर्निया लेखन।
हिंदी साहित्य को अत्याधिक पढने को एक्नालेज करते हुवे मैं ये कह सकता हूँ की अज्ञेय के बाद ये कोई पहला वर्णन है शेखर एक जीवनी जैसा लगता है। अब तक वैसा कोई नहीं मिला। ये उस जैसा लगता है।
उसके द्वितीय अंक में विविधता नहीं है वो शारदा तक सिमट गया है पर यहाँ तो विविधता भी बहुत है।
बहुत सुन्दर।
अनुभव को स्मृति में बयां करने का बहुत खूबसूरत अंदाज़ । बहुत अर्थपूर्ण पर सहजता से व्यक्त किया है। सार्थक और सशक्त लेखन।
जवाब देंहटाएंदत्त एवं सुन्दरम की लिखी 'भारतीय अर्थव्यवस्था' , खूब याद दिलाई आपने । इन संस्मरणों की शैली ज़बरदस्त है ।
जवाब देंहटाएंबचपन में मुझे धारावाहिक देखने में यही आनंद आता था।
जवाब देंहटाएंBahut achha laga padhkar .jaahir hai agli kisht ka intjaar hai ab.
जवाब देंहटाएंaglee kisht ke lie bekrari bada di pyare
जवाब देंहटाएंसुनो भाई, दो बातें. बहुत दिनों बाद लिखते हो और कम लिखते हो. में बता दूँ की मेरी उम्र ७० बरस की है. अगर पूरी कहानी पढ़े बिना मर गया और भूत बन कर चिपक गया तो मेरी जुम्मेवारी नहीं होगी. फिर ना कहना बताया नहीं था.
जवाब देंहटाएंके डी शर्मा