इस संस्मरण के बहाने ‘अशोक आज़मी’ अपने अतीत के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया
आरम्भ होती है | पिछली दो किस्तों में उन्होने मंडल आन्दोलन के
बहाने उस दौर की मानसिकता को समझने की कोशिश की थी | इस सातवी क़िस्त में वे एक किशोर बालक और एक
अनुशासन प्रिय पिता के बीच के द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं, जो शायद इस समाज के साथ ही शुरू हुयी थी, और इस समाज के रहने तक बनी भी रहेगी ।
तो आईये
पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मी के
संस्मरण
“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की
सातवीं क़िस्त
तब
उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् की बारहवीं की बोर्ड की परीक्षा आल्पस की
चढ़ाई से कम नहीं होती थी जिसमें बीच बीच में आपके शिक्षक आपके शब्दकोष में “असंभव”
नामक शब्द घुसाते रहते थे. चौधरी साहब पापा के कालेज में गणित पढ़ाते थे. घर पर
ग्यारहवीं-बारहवीं का ट्यूशन. सिद्ध वाक्य था उनका “गदहा
कहीं के, हो चुके पास बोर्ड में तुम.”
अब गणित के छह पेपर. छहों की अलग अलग किताबें. कैलकुलस संभालो तो स्टैटिक्स
डायनामिक हो जाता था, अलजेब्रा साधो तो ट्रिगनोमेट्री रूठ जाती थी. फिर इनार्गेनिक
केमिस्ट्री! उफ़! दसवीं में जीव विज्ञान का पर्चा दे कर आया तो पापा के पूछने पर
कहा, “अच्छा हुआ”
और माँ से कहा कि “मुक्ति
मिली.” तो डाक्टर बनने का
सपना तो टूट ही चुका था अब इंजीनियर बनने के पापा के सपने का बाद में जो करते सो
करते उस समय तो इंटर पास करना ही था. इन सबके बीच किन्हीं विषयों पर पूरा भरोसा था
तो वे थे हिंदी और अंग्रेज़ी. हिंदी प्रेमशीला शुक्ला आंटी से पढ़ता था, जिनका ज़िक्र
मैं पहले कर चुका हूँ. बोर्ड में दो तरह की हिंदी थी. एक साहित्यिक हिंदी और दूसरी
सामान्य हिंदी. किताब एक ही थी, लेकिन सामान्य वाले छात्रों को कुछ अध्याय नहीं
पढने होते थे. मैं सारे पढ़ता था. भूषण थे, शायद सेनापति भी. याद नहीं मुक्तिबोध
सामान्य में थे या साहित्यिक में, लेकिन पहला परिचय वहीँ हुआ. आंटी ने कभी नहीं
कहा कि यह कोर्स में नहीं है. उन्हें मेरी साहित्यिक अभिरुचि का पता था. जो पूछता
बड़े प्यार से समझातीं. महीने में दो तीन दिन जाया करता. उस दौर में आंटी ने उन
कविताओं में डूबना न सिखाया होता तो शायद मैं कवि तो नहीं ही हो पाता.
अंग्रेज़ी
का क़िस्सा मजेदार है. छोटे कस्बों में अंग्रेज़ी का अपना ही जलवा होता है. पापा को
अंग्रेज़ी ठीकठाक आती थी. बोलते पूरबिहा अंदाज़ में ही थे, यानी ओनली नहीं वनली. हम
दोनों भाइयों को बचपन से अंग्रेज़ी के अखबार और पत्रिकाएं पढने को दी जाती थीं.
मुझे हाईस्कूल की गर्मी की छुट्टियों में इंटर के किताब की कीट्स की “ला
बेल दां सां मसी”
पढ़ के अंग्रेज़ी कविता का जो चस्का लगा था वह बड़ी मुश्किल से पूरा हो पाता था.
कालेज में सुदामा सिंह जी पढ़ाते थे. शुरू के दो तीन क्लासेज में उन्होंने शुरुआत
की “आई लाइक टू टीच इन
इंग्लिश, बट यू विल नाट अंडरस्टैंड”
फिर हमने एक दिन कहा, सर आप अन्ग्रेजिये में पढ़ाइये, हम समझ लेंगे.”
तो डांट पड़ी जो हम जैसों के लिए मामूली चीज़ थी और हमने अंग्रेज़ी हिंदी मीडियम में
पढ़ी. बोर्ड का अंग्रेज़ी का कोर्स भी कोई कम नहीं था. गद्य पद्य के अलावा जूलियस
सीजर भी था. एक तरफ़ शेक्सपीरियन इंग्लिश में, दूसरी तरफ़ आज की अंग्रेज़ी में. इंटर
कालेज के भरोसे न इस तरफ़ का समझ आता था न उस तरफ़ का. इसी बीच किसी ने डी पी सिंह
सर का नाम सुझाया. हम झुण्ड बनाकर वहाँ पढ़ने पहुँच गए.
डी
पी सिंह सर बनारस के रहने वाले थे, देवरिया के बी आर डी इंटर कालेज में शिक्षक हो
कर आये और फिर प्रिसिंपल होकर रिटायर हुए तो यहीं बस गए. मेरे नाना उनके पहले बैच
के छात्र रह चुके थे. कलेक्ट्रेट के सामने उनका सरकारी घर था. एक बेटी साथ में
रहतीं थीं बाक़ी शायद बेटा विदेश में था और बाक़ी लोग बनारस में. गोरा रंग, दरमियाना
क़द और आँखों पर काला चश्मा. तब उम्र रही होगी कोई सत्तर साल से ऊपर ही, लेकी सधी
हुई आवाज़ थी और सधी हुई चाल. एक विदेशी साइकल थी उनके पास, उससे ही चलते थे.
पुराने ढब के सोफे और एक आराम कुर्सी के अलावा ड्राइंग रूम में यहाँ से वहाँ तक बस
किताबें ही किताबें. शेक्सपियर, बायरन,
शैली, कीट्स, यीट्स, इलियट..कौन कौन नहीं थे उन आलमारियों में. मेज के बीचोबीच एक
हाथीदांत का एश ट्रे. सर डिनर के बाद एक सिगरेट पीते थे.
उन्होंने
जूलियस सीज़र और पोएट्री पढ़ाना शुरू किया. सीजर शेक्सपीरियन अंग्रेज़ी में पढ़ाते.
आरामकुर्सी पर तिरछे लेटे हुए. किताब सीने पर रखी, आँखें हमारी आँखों पर जमी और “आइडेस
आफ मार्फ़ हैथ कम.”
“बट
येट नाट गान”
कहते नाटकीयता से भर जाने वाला उनका खूबसूरत चेहरा आज भी मेरी आँखों के सामने है.
एक Tampst (तूफ़ान) का दृश्य उन्होंने कोई हफ्ते भर में समझाया था. एक एक पात्र के
भीतर जाकर जैसे पूरा महाकाव्य सामने ला देते. मैं मंत्रमुग्ध हो सुनता रहता. बीच
बीच में सवाल करता, वह बच्चों सा चहक पड़ते. इस तरह देवरिया की उस धरती पर 1991 के
किसी महीने में जूलियस सीजर फिर से ज़िंदा हो गया था, ब्रूटस फिर से नैतिकता और
फ़र्ज़ की मंझधार में झूल रहा था, कैसियस फिर से षड्यंत्र रच रहा था...लेकिन बाक़ी
छात्रों को परीक्षा भी देनी थी. सीजर पढने का मतलब परीक्षा के लिहाज से कुछ महत्त्वपूर्ण
पात्रों का चरित्र चित्रण और कुछ एक महत्तवपूर्ण हिस्सों का “सन्दर्भ
सहित अर्थ”
भर होता था इंटर के साइंस साइड के विद्यार्थियों के लिए. तो महीना बीतते-बीतते
मेरे अलावा सभी लोग डा आलोक सत्यदेव के यहाँ चले गए. यही हाल शायद मेरे बाद वाले
लड़कियों के बैच का भी हुआ होगा. तो सर ने उस बैच की इकलौती बची लड़की और मुझे एक साथ
पढ़ाना शुरू किया. यह मेरी पहली को-एड थी. शाम चार बजे हम पहुँचते. डी पी सिंह सर
के चाय का वक़्त था वह तो हमें भी चाय मिलती. फिर वह पढ़ाना शुरू करते. अचानक रुकते
और कहते, “अशोक
वो उस रैक में तीसरे नंबर के खाने में फलां की एक किताब रखी है.”
किताब हाथ में आती तो बीच से कोई पन्ना खोलते और कहते, “लो
पढ़ो इसे.”
इस तरह कभी आधे घंटे तो कभी दो-दो घंटे हम उनके सान्निध्य में रहते और अंग्रेज़ी
साहित्य के उन गलियारों में घूमते जहाँ देवरिया जैसे क़सबे से यों जा पाना नामुमकिन
था.
वह
पक्के नेहरूवादी थे. उन्हीं की तरह लिबरल डेमोक्रेट. जब मैं आरक्षण विरोधी आन्दोलन
में सक्रिय हुआ तो अक्सर समझाते, “रुक
कर गौर से देखो. कौन से लोग हैं ये जो तुम्हारे आगे पीछे हैं. क्या तुम इनकी तरह
जातिवादी बनना चाहते हो? क्या तुम नहीं चाहते कि हजार बरसों से जो अन्याय हुआ है
जाति के नाम पर, उसके दाग़ से हमें मुक्ति मिले? अपनी जाति और अपने धर्म से ऊपर
उठकर जिस समाज में लोग नहीं सोचते वह समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता.”
तब न उनकी बातें समझ आती थीं न सहमति बनती थी. मुझे तो बस साहित्य का वह रस खींच
कर ले जाता था उनके पास जो कहीं और न था. दोस्त कहते, “अबे
स्साले. तीन महीना में सीजर पढोगे बीस नंबर के लिए तो हो चुके अंग्रेज़ी में पास.”
मैं कहता, “अबे
पास तो गधे भी हो जाते हैं. पर जो मजा मिलता है न उनके यहाँ वह कहीं नहीं मिलेगा.”
ज़ाहिर है मज़े का मतलब भाई लोग हमारी उस सहपाठी से लगाते जिससे उन सात-आठ महीनों
में नाम तक पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी थी मेरी.
खैर,
गाँव से लौटने के बाद पापा एकदम बदल गए थे. मेरा पूरा टाइम टेबल तैयार था.
अनसाल्वड पेपर्स के गहरे रिसर्च के बाद दसियों माडल पेपर्स बने रखे थे. सुबह चार
बजे उठते. चाय बनाकर मुझे जगाते. फिर नौ बजे तक लगातार पढ़ना. फिर नहा धो के ग्यारह
बजे नाश्ता करके बैठ जाता तो माँ को हिदायत दे के कालेज निकलते. दिन भर के सवाल और
अध्याय तैयार रहते. दिन में तीन बजे खा के दो घंटे का सोना. फिर छः बजे से रात नौ
बजे तक पढ़ाई, फिर खाना और अगले दिन के टार्गेट के बारे में बातचीत. दस बजे हर हाल
में सो जाना. घर पर न किसी के आने की इजाज़त थी न हमें गेट से बाहर निकलने की. हद
से हद बाहर पापा के लगाये कैक्ट्स और गुलाब के बीच टहल लो या पीछे अमरुद और आम के
पेड़ों के दर्शन कर लो या फिर छत पर टहल लो. अखबार सिर्फ पापा पढ़ते थे और फिर कहीं
छुपा कर रख दिया जाता. टीवी का तो खैर सवाल ही नहीं उठता था. और तो और ननिहाल जाना
भी बंद करा दिया गया. और इन सबके लिए न मार न डांट. बस एक धमकी, “निकले
तो फिर तुम जानो और तुम्हारा काम. बोर्ड के इक्जाम्स में मैं कोई मदद नहीं कर
पाऊंगा.”
मुझे पता था कि वे कितने जिद्दी थे और यह भी कि उनके बिना अपनी नैया पार नहीं
होनी. तो सब बर्दाश्त किया.
मुझे
सबसे ज़्यादा दिक्कत स्थैतिकी (statics) के पेपर में होती थी. दिन में तीन बजे से
पेपर होता था. सुबह उठा तो पापा तीन सवालों की एक लिस्ट लेकर आये. कहा, “जरा
इन्हें देखो. चार पांच साल से नहीं आये हैं.”
मैंने कहा, “जब
चार पांच साल से नहीं आये तो अब क्या आयेंगे.”
वह बोले, “करके
तो देखो साल्व.”
मैं भुनभुनाते हुए भिड़ा. तीनों में से एक भी साल्व नहीं हुआ. वह मुस्कुराए और एक
एक कर तीनों साल्व कराया. पेपर मिला तो वे तीनों सवाल आये थे. 33 में से 17 नंबर
के सवाल!
बहुत
बाद में माँ ने बताया कि उन दिनों सारी सारी रात जागते थे पापा. उद्विग्न होकर छत
पर टहलते थे. वह भौतिकी के शिक्षक थे, लेकिन हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित, रसायन सब पढ़
डाला था उन्होंने. डांट मार सब भूल गए थे. दो ढाई महीनों में खुद को घुला दिया था.
परीक्षाओं में भी छोड़ने जाते सेंटर तक. लौट के आने पर बस पेपर हाथ में लेकर देखते
और कहते अगले के लिए भिड़ जाओ.
आज
उनके न रहने पर जो कुछ संतोष हैं उनमें से एक यह कि कम से कम उस परीक्षा में उनकी
मेहनत बेकार नहीं गयी. भौतिक, गणित, रसायन..तीनों में 80 से अधिक नंबर आये.
अंग्रेज़ी और हिंदी में भी साठ से ऊपर. कुल प्रतिशत 74 बना, जो उन दिनों के हिसाब
से बहुत अच्छा था. वह रिजल्ट मेरा नहीं, पापा का था. तब समझ नहीं आता था. वह कहते,
“बाप
बनबs
तब बुझबs
बाबू.” वह ग़लत कहते थे,
मैं तब समझ पाया जब उन्हें खो दिया. विकट ग़रीबी और अभावों में पढ़कर वहां तक पहुंचे
पिता बस इतना चाहते थे कि हम दोनों भाई अपनी ज़िन्दगी में उन मुश्किलात से कभी रु ब
रु न हों. शिक्षा के अलावा क्या था जो हमें यह सब दे सकता था. तो जो उचित लगा
उन्हें वह किया. मेरी शरारतों से डरते थे कि कहीं मैं अपना जीवन नष्ट न कर लूं.
उसका इलाज पिटाई और डांट लगता था उन्हें. था नहीं पर उन्हें कुछ और कैसे लग सकता
था? जिस समय की पैदाइश थे वह उनसे इससे अधिक की उम्मीद कैसे की जा सकती थी?
उन
दिनों और आज भी छोटे कस्बों में डाक्टर और इंजीनियर बनना ही पढ़ाकू और सफल होने की
निशानी माना जाता है. इनसे चूक गए तो फिर पी सी एस या आई ए एस. पापा चाहते थे मैं
इंजीनियर बनूँ और फिर आई ए एस तथा भाई डाक्टर बने. भाई तो खैर बना भी. उन दिनों यह
इतना आसान भी नहीं था. इंजीनियर कालेज इस तरह गली गली नहीं खुले थे. सबसे आसान एम
एल एन आर, फिर रुड़की और आई आई टी. मेडिकल और मुश्किल था. अब तो यह हाल है कि कोई
छात्र बहुत दिनों बाद मिलता तो पापा कहते, “इंजीनियरिंग
कर रहे हो?”
पापा
का अपना भी एक दर्द था. उस ज़माने में वह खुद इंजीनियर बनना चाहते थे. लेकिन आर्थिक
स्थितियाँ ऐसी नहीं थीं कि बड़े सपने देख पाते. पाँच छोटे भाई बहन, बाबा की मामूली
नौकरी, रेहन पड़े खेत और गहने. उन्नीस साल की उम्र में एम एस सी पास की तो जो पहला
कालेज मिला, ज्वाइन कर लिया. पी एच डी भी बहुत बाद में कर पाए. बताते थे कि तब तीन
सौ कुछ रुपये मिलते थे और दो सौ घर भेज दिया करते थे. पापा गाँव के पहले ग्रेजुएट
थे तो गाँव वालों को भी बहुत उम्मीदें थीं. हमारे गाँव में एक बुजुर्ग थे चिरकुट
बाबा. पापा के बाबा के संगतिया थे. जब पापा नौकरी ज्वाइन करके लौटे तो उनसे मिलने
गए. सलाम दुआ के बाद वह पूछे, “सुनलीं
ह नोकरी लाग गइल तोहार?”
पापा बोले “हाँ
चाचा.” “का
बन गइलs”
पापा ने दो मिनट सोचा और कहा, “मास्टर
बन गइलीं चाचा.”
वह उदास हो गए, “का
ए बाबू, एतना पढलs लिखलs, नदी पार क के गइलs. अ बनलs मास्टर. सिपहिये बन गईल रहतs
कम से कम. नाहीं त देउरिया रहले क का फायदा? एसे नीक कि गंउए के स्कूलिया में
पढ़वतs.”
तो
हर युग के अपने सपने होते हैं. पापा के सपने उनके युग के ही हो सकते थे. यह अलग
बात कि मेरी आँखों के सपने बदल चुके थे. ज़ाहिर है इन सब को लेकर और बाद में मेरी
नौकरी को लेकर वह बहुत दुखी रहते. वे किस्से आगे. बहुत बाद में जब मैं नियमित
पत्रिकाओं में छपने लगा, किताब आई तो उन्हें लगा कि सब कुछ निरर्थक नहीं. अक्सर
पूछते थे, तुम्हें अवार्ड कब मिलेगा?”
मैं हंसकर उड़ा देता. जब भी फोन करते तो पूछते, “क्या
लिख रहे हो?”
आते तो कविताएँ सुनते, छपे हुए लेख पढ़ते. ग्वालियर में पवन करण, महेश कटारे, महेश
अनघ (अब स्वर्गीय) और ज़हीर कुरैशी जी से कई मुलाकातें थीं उनकी. एक बार अमर उजाला
में कविता छपी तो सुबह सुबह उनका फोन आया, बेहद खुश थे. मैंने कहा कि पापा यह तो
छोटी बात है. वह बोले, अरे देवरिया में हंस से ज्यादा बड़ी बात है. तब समझ आया कि
वह जो चाहते थे कोई पद या पैसा नहीं प्रतिष्ठा थी. खैर यह सब तो बाद की बातें हैं
उस वक़्त तो इंटर में अच्छे नंबर आते ही नई मुसीबतें शुरू हो गईं थीं मेरे लिए.
....................जारी है .....
परिचय और संपर्क
अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)
वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी
पिता, जितना मैं समझ पाया हूँ
जवाब देंहटाएंयह मौन सिर्फ मेरे- तुम्हारे बीच का नहीं
यह पीढ़ियों की थाती है
जिसे ढोना हमेशा सलीब का ढोना नहीं होता
हर बार अपने सामान के साथ अनायास
बांसुरी का रख उठना भी होता है ।
बहुत बढ़िया, वैसे इंटरमीडिएट में मेरे भी 74 प्रतिशत नंबर आये थे | :)
जवाब देंहटाएंस्पर्शी!
जवाब देंहटाएंआत्मीय! थोड़ा सा रश्क इसलिए हुआ कि आपको जुलिअस सीजर आदि नाटकों के लिए अध्यापक मिलें। हम तो वैसे ही पढ़ें।नोस्तेल्जिक।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी संसमरण।
जवाब देंहटाएंyah prasang kissaa nahin , ham sabke jeevan ka hissaa hai
जवाब देंहटाएंजूलियस सीजर वाली कहानी से याद आया की हमारे सर तो मर्चेन्ट आफ वेनिस पूरा पढ़ा दिये थे । और हम भक्ति भाव से सुनते रहते थे ..... पर कहानी पूरी नहीं मिली पढ़ने को .... संतोष नहीं हुआ पढ़ के ..... बहुत कम दिया था आपने पाठकों के लिए ...
जवाब देंहटाएंAb tak ki kishto me tumse bat kar rha tha aur isme uncle ko janne ka mauka mila. shandar
जवाब देंहटाएंAapki yaadon mein apne un dino ki jhalak milti hai. Bahut kuchh badal gaya tab se. .
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंमन वहीँ चला गया है ..हमारा समय सब आँखों के सामने नाचते लट्टू की तरह घूम रहा है...सीधा-सादा और छू लेने वाला संस्मरण ..
जवाब देंहटाएंसचमुच बहुत आत्मीय
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