आम चुनाव के कुछ कम चर्चित और अज्ञात पक्षों को कविताओं
के माध्यम से देखने का प्रयास ‘राजीव रंजन’ ने किया है | आईये इन्हें पढ़ते हैं |
प्रस्तुत है सिताब
दियारा ब्लॉग पर आज राजीव रंजन प्रसाद की कुछ कवितायें
1.
चुनाव
...........
हमारे आदत-व्यवहार की
एक सामान्य क्रिया है ‘चुनना’
आचरण-स्वभाव में घुला-मिला
एकदम साधारण शब्द है यह
यह एक कामकाजी शब्द है
जिसका रिश्ता हमारे होने से है
वह भी इतना गाढ़ा कि
हम सिर्फ चुनने का बहाना लिए
बचपन से बुढ़ापे में दाखिले हो जाते हैं
बाल सफेद, बात भुलक्कड़, कमर टेढ़ी
और आँख में अनुभव का
आदी-अंत और अनन्त विस्तार
चुनना आमआदमी के करीब का
सबसे सलोना शब्द है
अपने चुने हर चीज पर अधिकार जताते हैं हम
अपने चुनाव पर सीना चौड़ा करते हैं
मूँछों में तेल चुभोड़ते हैं
गर्वीली मुसकान संग
बार-बार उन पर हाथ फेरते हैं
हम जानते हैं
यह चुनना किसिम-किसिम का है
जैसे हम चुनते हैं
अपने बच्चों के लिए स्कूल
सब्जियों की ढेरी से आलू और टमाटर
अपने लड़के-लड़कियों के लिए
चुन लेते हैं कोई सुघड़-सा रिश्ता
ज़िन्दगी के आखिरी मोड़ आते ही
हम अपनी सुविधानुसार चुन लेते हैं
एक ठिकाना, ठौर या थाह
जहाँ बैठकर तका जा सके
आसमान को हीक भर या भर नज़र
इसी तरह ज़िन्दगी का राहगीर बने हम
चुनते हैं कोई एक रास्ता
और चल पड़ते हैं उस पर
इस विश्वास से कि हमारा यह चुनाव
कुछ और दे या न दे
इतना मौका मयस्सर तो कराएगा ही कि
हम और हमारा परिवार
हमारे आस-पड़ोस, इतर-पितर, देवता-देवी,
जवार-समाज, देश-दुनिया सब के सब
खुश हों, संतुष्ट और आह्लादित हों
इंडिया गेट और स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी
हम नहीं जानते हैं तब भी
दुआ में ऊपर उठे हमारे हाथ
उनकी सलामती के लिए चुनते हैं
मानवता के कल्याणकारी शब्द
दरअसल, इस इक छोटे-से शब्द पर
टिका है-हमारा अपना होना
अपनों के साथ होना
अपनों के बीच होना
यानी हमारा चुनाव सही हो या ग़लत
उस पर अधिकार अंततः
हमारा ही है
यह अटल विश्वास होता है
चुनाव करते हम जैसे लोगों का
लेकिन, आम-चुनाव की राजनीति में
हमारा चुनना हमारे होने को नहीं करता सार्थक
हमारे ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ को नहीं बनाता है
शुद्ध, निर्मल और पवित्र
हम राजनीतिक मतदान में जब भी चुनते हैं आदमी
वह चुनते ही बन जाता है जानवर
या फिर हिंस्र पशु
जंगली दानव, राक्षस अथवा घोर आताताई
और बनाने एवं पैदा करने लगता है
अपने ही जैसे लोग
हिंसक,खंुखार और अमानवीय जन
क्या लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे आलू-टमाटर बराने/बिनने की तरह नहीं है
एक लड़का और लड़की के लिए ताउम्र
ससुराल और मायके का रस्म निबाहने की तरह नहीं है
हमारे बच्चे की स्मुति में टंके
उसके शिशु विद्यालय की तरह नहीं है
आखिर लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे और हमारे समाज की तरह
पूर्णतया अर्थपूर्ण, आश्वस्तीपूर्ण और अवश्यंभावी क्यों नहीं है...!!
चुनाव
...........
हमारे आदत-व्यवहार की
एक सामान्य क्रिया है ‘चुनना’
आचरण-स्वभाव में घुला-मिला
एकदम साधारण शब्द है यह
यह एक कामकाजी शब्द है
जिसका रिश्ता हमारे होने से है
वह भी इतना गाढ़ा कि
हम सिर्फ चुनने का बहाना लिए
बचपन से बुढ़ापे में दाखिले हो जाते हैं
बाल सफेद, बात भुलक्कड़, कमर टेढ़ी
और आँख में अनुभव का
आदी-अंत और अनन्त विस्तार
चुनना आमआदमी के करीब का
सबसे सलोना शब्द है
अपने चुने हर चीज पर अधिकार जताते हैं हम
अपने चुनाव पर सीना चौड़ा करते हैं
मूँछों में तेल चुभोड़ते हैं
गर्वीली मुसकान संग
बार-बार उन पर हाथ फेरते हैं
हम जानते हैं
यह चुनना किसिम-किसिम का है
जैसे हम चुनते हैं
अपने बच्चों के लिए स्कूल
सब्जियों की ढेरी से आलू और टमाटर
अपने लड़के-लड़कियों के लिए
चुन लेते हैं कोई सुघड़-सा रिश्ता
ज़िन्दगी के आखिरी मोड़ आते ही
हम अपनी सुविधानुसार चुन लेते हैं
एक ठिकाना, ठौर या थाह
जहाँ बैठकर तका जा सके
आसमान को हीक भर या भर नज़र
इसी तरह ज़िन्दगी का राहगीर बने हम
चुनते हैं कोई एक रास्ता
और चल पड़ते हैं उस पर
इस विश्वास से कि हमारा यह चुनाव
कुछ और दे या न दे
इतना मौका मयस्सर तो कराएगा ही कि
हम और हमारा परिवार
हमारे आस-पड़ोस, इतर-पितर, देवता-देवी,
जवार-समाज, देश-दुनिया सब के सब
खुश हों, संतुष्ट और आह्लादित हों
इंडिया गेट और स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी
हम नहीं जानते हैं तब भी
दुआ में ऊपर उठे हमारे हाथ
उनकी सलामती के लिए चुनते हैं
मानवता के कल्याणकारी शब्द
दरअसल, इस इक छोटे-से शब्द पर
टिका है-हमारा अपना होना
अपनों के साथ होना
अपनों के बीच होना
यानी हमारा चुनाव सही हो या ग़लत
उस पर अधिकार अंततः
हमारा ही है
यह अटल विश्वास होता है
चुनाव करते हम जैसे लोगों का
लेकिन, आम-चुनाव की राजनीति में
हमारा चुनना हमारे होने को नहीं करता सार्थक
हमारे ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ को नहीं बनाता है
शुद्ध, निर्मल और पवित्र
हम राजनीतिक मतदान में जब भी चुनते हैं आदमी
वह चुनते ही बन जाता है जानवर
या फिर हिंस्र पशु
जंगली दानव, राक्षस अथवा घोर आताताई
और बनाने एवं पैदा करने लगता है
अपने ही जैसे लोग
हिंसक,खंुखार और अमानवीय जन
क्या लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे आलू-टमाटर बराने/बिनने की तरह नहीं है
एक लड़का और लड़की के लिए ताउम्र
ससुराल और मायके का रस्म निबाहने की तरह नहीं है
हमारे बच्चे की स्मुति में टंके
उसके शिशु विद्यालय की तरह नहीं है
आखिर लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे और हमारे समाज की तरह
पूर्णतया अर्थपूर्ण, आश्वस्तीपूर्ण और अवश्यंभावी क्यों नहीं है...!!
2.
पार्टी कार्यकर्ता
.................
पार्टी का राजतंत्र
जिस किसी को चुन लेता है
वास्तविक चुनाव वही है
पार्टी का आलाकमान
जिस किसी को कर देता है नामित
असली चुनाव वही है
उम्मीदवार चुनने में
जनता का मत स्वीकृत नहीं है
अधिकार तो उन टोपीदारों को भी नहीं है
जो सालो भर पार्टी का झण्डा-बैनर ढोते हैं
किसी आयोजन में
कुर्सीया बिछाते, पोंछते और बटोरते हैं
पार्टी-आवाज़ पर बिन खाए-पीए रेंकते हैं
दौड़ते, भागते और धुँआधार खटते हैं
जबकि उनका अपना घर टूटा है
छत लम्बा-लम्बा चूता है
सीढ़ियाँ जर्जर है
खेत बंजर है
बिटिया सयानी है
बिटवा जवान है
तब भी ज़बान पर
‘पार्टी नेता’ का ही नाम है
इस बार फिर
चुनावी रस्म निभाना है
गीतगउनी बन ‘पार्टी गीत’ गाना है
‘फँलाने’ को जिताना है
‘चिलाने’ को हराना है
अपनी टूटही साईकिल छोड़
चरचकिया पर आँख नचाना है
इस बार फिर
हूमचना है, गरियाना है
‘सरउ तेरी त...’ कहते हुए
विपक्षी से लपटना है
बतचप्पों में निपटना है
वे पार्टी कार्यकर्ता हैं
उन्हें ताज़िदगी यही सब करना है!!
पार्टी कार्यकर्ता
.................
पार्टी का राजतंत्र
जिस किसी को चुन लेता है
वास्तविक चुनाव वही है
पार्टी का आलाकमान
जिस किसी को कर देता है नामित
असली चुनाव वही है
उम्मीदवार चुनने में
जनता का मत स्वीकृत नहीं है
अधिकार तो उन टोपीदारों को भी नहीं है
जो सालो भर पार्टी का झण्डा-बैनर ढोते हैं
किसी आयोजन में
कुर्सीया बिछाते, पोंछते और बटोरते हैं
पार्टी-आवाज़ पर बिन खाए-पीए रेंकते हैं
दौड़ते, भागते और धुँआधार खटते हैं
जबकि उनका अपना घर टूटा है
छत लम्बा-लम्बा चूता है
सीढ़ियाँ जर्जर है
खेत बंजर है
बिटिया सयानी है
बिटवा जवान है
तब भी ज़बान पर
‘पार्टी नेता’ का ही नाम है
इस बार फिर
चुनावी रस्म निभाना है
गीतगउनी बन ‘पार्टी गीत’ गाना है
‘फँलाने’ को जिताना है
‘चिलाने’ को हराना है
अपनी टूटही साईकिल छोड़
चरचकिया पर आँख नचाना है
इस बार फिर
हूमचना है, गरियाना है
‘सरउ तेरी त...’ कहते हुए
विपक्षी से लपटना है
बतचप्पों में निपटना है
वे पार्टी कार्यकर्ता हैं
उन्हें ताज़िदगी यही सब करना है!!
3.
आपदा
........
आपदा पर गीत लिखा
गाने लगी मुर्गियाँ
आपदा पर लोरी लिखा
सुनाने लगी गाय अपने बच्चे को
आपदा पर कविता लिखी
कुतों ने ठोंक दिया ताल
आपदा पर कहानी लिखी
बकरियाँ भरने लगी हुंकारी
आपदा पर लिखता रहा कुछ न कुछ
सभी जानवर मनाते रहे उत्सव रोज-रोज
लोग कह रहे हैं
ये सभी आपदा में मृत उन जानवरों की आत्माएँ हैं....
जिन्होंने आपदा-प्रबंधन का चुनाव करना नहीं सीखा था।
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आपदा
........
आपदा पर गीत लिखा
गाने लगी मुर्गियाँ
आपदा पर लोरी लिखा
सुनाने लगी गाय अपने बच्चे को
आपदा पर कविता लिखी
कुतों ने ठोंक दिया ताल
आपदा पर कहानी लिखी
बकरियाँ भरने लगी हुंकारी
आपदा पर लिखता रहा कुछ न कुछ
सभी जानवर मनाते रहे उत्सव रोज-रोज
लोग कह रहे हैं
ये सभी आपदा में मृत उन जानवरों की आत्माएँ हैं....
जिन्होंने आपदा-प्रबंधन का चुनाव करना नहीं सीखा था।
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परिचय और संपर्क
राजीव रंजन प्रसाद
मीडिया शोधार्थी, हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221 005
मो0- 07376491068
ई-मेल: rajeev5march@gmail.com
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221 005
मो0- 07376491068
ई-मेल: rajeev5march@gmail.com
बेहतरीन, अपने समय और समाज के नब्ज़ को टटोलने की एक सार्थक बेचैनी इन कविताओं में परिलक्षित होती दिख रही है...
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