अपने श्रमिक संगठन की पत्रिका ‘श्रमिक आवाज’ के
लिए मई-दिवस पर एक लेख मैंने भी लिखा है | आप सबके लिए सिताब दियारा ब्लॉग पर भी
दे रहा हूँ |
‘मई दिवस’ – चुनौतियाँ और भविष्य
मई दिवस को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप
में मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में ‘शिकागों’
के श्रमिक शहीदों का संघर्ष रंग लाया था | उनका यह विश्वास पुख्ता हुआ था, कि बिना
संघर्ष के कुछ भी हासिल नहीं हो सकता है, और प्रत्येक हासिल को बरकरार रखने के लिए
लगातार संघर्ष भी करना पड़ता है | आज हम उन अमर शहीदों की स्मृति को नमन करते हुए
इस बात पर विचार करने का प्रयास करते हैं कि इस संघर्ष और हासिल के लगभग एक सदी
बीत जाने के बाद इस ‘मई-दिवस’ की क्या प्रासंगिकता है, और वे कौन सी चुनौतियाँ
हैं, जिनसे आज का श्रमिक वर्ग जूझ रहा है |
1990 के आसपास के
भारत को देखकर इन परिस्थितियों का अंदाजा लगाया जा सकता है , जब सरकारों की भूमिका
कम होने लगी थी, और बहुराष्ट्रीय तथा कारपोरेट घरानों की भूमिका का विस्तार होने
लगा था | यह एक ऐसी स्थिति थी, जिसमें दुनिया भर की सरकारों की कमान ‘तथाकथित’
अर्थशात्रियों के हाथों में सौंपी जा रही थी और यह प्रचारित किया जा रहा था, कि
इसका कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है | कुछ साल बीतते–बीतते यह साफ होने लगा, कि यह
परिवर्तन कुल मिलाकर न सिर्फ श्रमिक विरोधी है, वरन इसका उद्देश्य समाज में चन्द
मुट्ठी भर लोगों को लाभ पहुँचाना भी है | दुनिया भर में श्रम कानूनों को शिथिल
किया जाने लगा, और श्रम नीतियों को निर्धारित करने की जिम्मेदारी श्रम-मंत्रालय से
छीनकर वित्त और वाणिज्य मंत्रालय को सौंपी जाने लगी थी | बचे-खुचे श्रम कानूनों को
अप्रासंगिक बनाने के लिए (‘सेज’ ‘SEZ’ ) विशेष आर्थिक क्षेत्र बना दिए गए, जिसमें
ये क़ानून लागू ही नहीं होते थे | यह एक तरह से सत्रहवी और अठारहवीं सदी की अमानवीय
परिस्थितियों की वापसी जैसी थी, जो आज बद से बदतर होती चली गयी है |
लेकिन इस पूरे परिदृश्य का एक दूसरा पहलू भी है
और इसका जुड़ाव हम सबसे भी है | जब उदारीकरण और वैश्वीकरण होने लगा था, तब संगठित
क्षेत्र के श्रमिकों के मन में इस धारणा को भी बैठाया जा रहा था, कि इससे आप सबका
भी भला होगा | वह एक ऐसा सब्जबाग था , जिसके आकर्षण से शायद ही कोई बच पाया था |
चूकि संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के पास एक निश्चित आय थी, और जीवन जीने लायक
आवश्यकताओं की उपलब्द्धता भी, इसलिए उन्हें ऐसा लगने लगा, कि इस परिवर्तन में उनके
लिए भी एक बेहतर छिपी हुयी है | नीति-निर्धारकों द्वारा उन्हें निराश भी नहीं किया
गया | दो अंको वाली विकास दर के माध्यम से एक ऐसे समाज का निर्माण हुआ, जिसमें ऊपर
तो चंद मुट्ठी भर लोग ही थे, लेकिन बीच में एक बड़ा मध्य वर्ग भी पनप गया, जो इस
विकास-दर से काफी हद तक लाभान्वित हुआ | उसके लिए रोटी-कपडा-और मकान का संघर्ष
लगभग समाप्त हो गया था और वह इस शातिराना चाल में फंस गया था, कि इस बदलाव के
सहारे उसका अपना भविष्य भी सुधर रहा है | भारत जैसे देश में यह संख्या कम नहीं थी, जिसके ऊपर विकास रिसकर गिर रहा था
| लेकिन उससे कहीं अधिक उन लोगों की संख्या
थी, जिनके ऊपर यह कथित विकास कहर बनकर टूट रहा था | जिनके लिए जीने लायक आवश्यक
परिस्थितियां भी समाप्त होती जा रही थीं, और इस पूरी कवायद में जिनका अपना
‘प्राप्त’ हिस्सा भी छीना जा रहा था |
यह आश्चर्य-जनक ही तो है, कि जब देश में सारे
श्रम कानूनों को एक-एक करके बदला जा रहा था, तब संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के
द्वारा कोई निर्णायक प्रतिरोध क्यों नहीं हुआ, या हो रहा है ? दरअसल ऐसा प्रतिरोध
इसलिए संभव नहीं हुआ, क्योंकि इस संगठित क्षेत्र में एक नया सुविधा-भोगी वर्ग पैदा
हो गया था, जिसकी मध्यमवर्गीय मानसिकता यह मानने लगी थी, कि एक तो इन सुधारों से
उसके ऊपर कोई खतरा नहीं है, और दूसरे इनसे उसको लाभ ही मिलने वाला है | फिर एक
धारणा यह भी फैलायी गयी कि सरकार तो श्रमिकों के वेतन-भत्तों के प्रति स्वयं ही
चैतन्य है, इसलिए किसी भी तरह का आन्दोलन और प्रदर्शन निरर्थक और अवांछनीय है |
सफ़ेद कालर की शर्ट वाले वर्ग के भीतर से संघर्षों का गायब हो जाना और सुविधा के इन
टुकड़ों पर मोहित हो जाना, श्रमिक आन्दोलन के इतिहास में एक बड़ी परिघटना थी |
नीति-निर्धारको की चाले यहीं ख़त्म नहीं हुयी, वरन उन्होंने इसी श्रमिक वर्ग के
भीतर अपनी लूट और भ्रष्टाचार वाली मानसिकता को भी धीरे-धीरे संक्रमित करना आरम्भ
कर दिया | संघर्षो से अलग हट जाना और भ्रष्टाचार में भागीदारी निभाने से परिणाम यह
हुआ, कि संगठित क्षेत्र का यह श्रमिक न सिर्फ आम जनता से कटता चला गया, वरन वह
उसकी आँखों में गिरता भी चला गया |
आन्दोलन से विरत रहने ने उसके भीतर अकर्मण्यता ला
दिया, और भ्रष्टाचार में उसकी भागीदारी ने उसे जनता का दुश्मन बना दिया | जाहिर है
कि ऊपर बैठे कुछ आकाओं ने अपनी लूट को छिपाने के लिए यह फलसफा रचा था, जिसमें
संगठित क्षेत्र का श्रमिक भी फंस गया | एक सामान्य उदाहरण से इस बात को समझा जा
सकता है, कि आज जब बिजली क्षेत्र का निजीकरण किया जा रहा है, या दूर-संचार और
शिक्षा क्षेत्र में विदेशी पूजीपतियों को लाया जा रहा है, तो आम सामान्य जनता में
इसका स्वागत किया जा रहा है | कारण साफ़ है, कि जिसने भी बिजली विभाग, राजस्व
विभाग, कचहरी, न्यायपालिका, पुलिस प्रशासन या शिक्षा विभाग के दफ्तरों में एक
चक्कर लगा लिया है, उसके मन में ही यह धारणा बैठ गयी है कि सरकारी विभागों में न
सिर्फ निकम्मे लोग रहते हैं, वरन वे भ्रष्टाचारी भी हैं | अब ऐसे में यदि इन लोगों
द्वारा सरकार की गलत नीतियों का विरोध भी किया जाता है, तो उसे जनता में
स्वीकारोक्ति नहीं मिल पाती | और फिर इसकी मार उन विभागों और संगठनों पर भी पड़ती
है, जहाँ इस दौर में भी इमानदारी और पारदर्शिता के साथ काम किया जाता है | जैसे कि
बीमा और बैंकिंग जैसे अन्य कई संस्थान |
इस शातिराना चाल में आज पूरा ही श्रमिक वर्ग और
उसका आन्दोलन फंस गया है | उसके सामने एक तो व्यवस्था द्वारा फेंकी गयी कुछ
सुविधाए और लालच हैं, जिसमें भ्रष्टाचार में छोटी-मोटी भागीदारी भी शामिल है, और
दूसरी तरफ उनसे विरत रहते हुए संगठित होकर प्रतिरोध का रास्ता | जाहिर है कि उसने
भी आसान और मलाईदार रास्ते को ही अपनाया है | हालाकि जब आप लूट और भ्रष्टाचार का
हिसाब लगाते हैं, तो पाते हैं कि इस वर्ग की यह भागीदारी लूट के इस पूरे खेल में
अत्यंत कमजोर और नगण्य है | जहाँ कारपोरेट घराने, सरकारों से मिलकर हजारों और
लाखों करोड़ का वारा-न्यारा कर रहे हों, वहां पर पटवारी का दस-बीस या सौ-दो सौ
रुपये का भ्रष्टाचार कितना मायने रखता है | लेकिन चूकि जनता का सामना इस पटवारी से
ही सीधे पड़ता है, इसलिए उसे ऐसा लगता है, कि हमारी सारी परेशानियों की जड़ यही है |
ऐसे में जब वह सरकारी कर्मचारी किसी उचित मांग के लिए आन्दोलन में भी जाता है, तो
उसे जनता द्वारा कोई ख़ास समर्थन नहीं मिल पाता | और जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है,
कि इसकी मार सम्पूर्ण श्रमिक आन्दोलन पर भी पड़ती है |
इस पूरी कवायद में यह तंत्र इस व्यवस्थित तरीके
से काम करता है, कि वह जिसके खिलाफ काम करता है, वह उसे अपने समर्थन और हित में
मानने लगता है | यह एक तरह से श्रमिक आन्दोलन के हाथों में अपनी ही डाल को काटने
के लिए कुल्हाड़ी पकड़ाने जैसा काम है, जिसे वह अनजाने ही पकड़कर अपनी डाल को काटता
जा रहा है | जहाँ वैश्विक स्तर पर सारी नीतियाँ श्रमिकों के खिलाफ बनायी और संचालित
की जा रही हों, वहां इस तरह की अकर्मण्यता और बेगानापन बेहद सालने वाली बाते हैं |
भले ही ये बाते कड़वी और तीखी लग रही हों, और इसे अपने ऊपर लागू करने में हम
हिचकिचा रहे हों, लेकिन यह एक नंगी सच्चाई है, जिसकी गिरफ्त में श्रमिक आंदोलन का
एक बड़ा हिस्सा आ चुका है | यह ठीक है, कि यहाँ पर भी अपवाद और बेहतर संभावनाएं
दिखाई देती हैं, लेकिन वे अपवाद की तरह ही दिखाई देती है, सामान्य परिघटना की तरह
नहीं |
तो जब संगठित क्षेत्र का यह हाल है, तब निजी और
असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का क्या हाल होगा, समझना कोई मुश्किल काम नहीं होना
चाहिए | निजी क्षेत्र की खराब स्थिति को समझने के लिए एक उदाहरण देना काफी होगा |
‘सहारा’ नाम की एक बड़ी कारपोरेट कंपनी अपने विज्ञापन में यह दावा करती है, कि उसके
भीतर कोई भी श्रमिक संगठन विद्यमान नहीं है, और वह इसे अपनी एक ताकत के रूप में
दिखाती है | इन हालातों में आप समझ सकते हैं, कि देश-सेवा करने वाली वह कम्पनी
अपने श्रमिकों की किस तरह से सेवा करती होगी | अभी हाल में ही अपने निवेशकों के
पैसों को लेकर उसका जिस तरह से सेबी और सर्वोच्च अदालत के साथ विवाद चल रहा है, वह
उसकी नैतिकता और ईमानदारी को परखने के लिए काफी है | जाहिर है, कि निजी क्षेत्र
में कमोवेश यही हालात है | और असंगठित क्षेत्र में उससे भी ख़राब और अमानवीय |
ऐसे में आखिर समाधान क्या है ? इतिहास तो हमें
यही बताता है, कि इनसे भी कठिन हालातों में लोगों ने समस्याओं के समाधान खोजे हैं
और हल निकाले हैं | जाहिर है, कि वे समाधान किसी जादुई फार्मूले से नही खोजे गए,
और न ही वे रातो-रात अवतरित हुए थे | वरन उन्हें संघर्ष और प्रतिरोध के लम्बे और
संगठित प्रयासों द्वारा ही प्राप्त किया गया था | इसलिए आज भी इसमें संगठित
क्षेत्र की जिम्मेदारी ही सबसे अधिक है | उसे चंद सुविधाओं से आगे बढ़कर समाज के
बृहत्तर हितों में सोचना होगा, और निजी तथा असंगठित क्षेत्र की लड़ाई को भी अपने
नेतृत्व से आगे ले जाना होगा | जब इतना तय है, कि हम अपने दूसरे साथियों को बचाकर
ही अपनी रक्षा कर सकते हैं, तब इसमें इतनी झिझक और देरी क्यों | तय तो यह भी है,
कि जब तक ऐसी सरकारे नहीं चुनी जाती, जो अपनी जनता के प्रति वास्तव में जिम्मेदार
हों, तब तक कानूनों और नियमों को श्रमिकों के हितों में नहीं मोड़ा जा सकता है | तब
ऐसा करने के लिए इस सम्पूर्ण व्यवस्था में बदलाव करना भी अपेक्षित होगा | हमारा
आरंभिक लक्ष्य यह तो हो सकता है, कि हम इस व्यवस्था में ही अपने साथियों को लेकर
संघर्षों में उतरते रहें , लेकिन हमारा दीर्घकालिक लक्ष्य यह होना चाहिए कि इस
व्यवस्था को आमूल-चूल तरीके से बदला जाए, और समाजवादी सपने को साकार किया जाए | यह
कठिन जरूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं | हम इससे भी कठिन दिनों में विजयी हुए हैं,
इसलिए हम इन कठिन दिनों में भी विजयी हो सकते हैं | ‘मई-दिवस’ हमारे भीतर इसी आशा
का संचार करता है |
प्रस्तुतकर्ता
रामजी
तिवारी
बलिया , उ
प्र.
मो.न ....
9450546312.
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