शनिवार, 5 अप्रैल 2014

'कदमों ने ही बनाए हैं रास्ते' - आत्मा रंजन





प्रस्तुत है कवि ‘आत्मा रंजन’ के कविता संग्रह ‘पगडंडियाँ गवाह हैं’ की समीक्षा |         
              समीक्षक हैं, युवा साहित्यकार रमाकांत राय |                 



यह हिंदी कविता का दुर्भाग्य है कि युवा कवि आत्मा रंजन के प्रथम काव्य संग्रह “पगडण्डियां गवाह हैं” के विषय में बात करने से पहले नकारात्मक वाक्य से शुरुवात करनी पड़ रही है। यह कहना ही होगा कि हिंदी कविता में इस समय एक फैशन के तहत कवितायेँ लिखने वालों की बाढ़ आ गयी है। अंतिम जन, सबाल्टर्न और आधुनिकता का इस तरह कविता पर असर है कि सच्ची और अच्छी कविता खो सी गयी है या अगर है तो उपेक्षा का शिकार होकर रह गयी है। उसके मुकाबिले आत्मा रंजन की कविता एक नए राह पर चलने का अहसास ही नहीं कराती है, उस राह पर चलने के खतरों और दिक्कतों के बावजूद उस आत्मीयता की पहचान कराती है जो वास्तव में एक कविता की पहचान कही जाती है।

आत्मा रंजन की बहुत छोटी सी कविता है- रास्ते। इससे पहले की कोई बात की जाये, वह कविता यहाँ अविकल प्रस्तुत है।-
      
डिगे भी हैं/ लड़खड़ाए भी / चोटें भी खाई कितनी ही।
      
पगडण्डियां गवाह हैं/ कुदालियों, गैतियों/ खुदाई मशीनों ने नहीं/  क़दमों ने ही बनाए हैं/ रास्ते।

आत्मा रंजन की कविता की राह ठीक इसी तरह की है। वे डिगे भी हैं, लड़खड़ाए भी और चोट कितनी खाई हैं, यह वे ही जानते होंगे। लेकिन इस डिगने और लड़खड़ाने के क्रम में एक बात बनी रही है वह है, उनकी कवितायेँ। आत्मा रंजन ऐसी ही एक राह के पथिक हैं। उन्होंने कोई प्रशस्त मार्ग नहीं चुना। वे चाहते तो कुदाल, गैती और मशीनों से रातों-रात बना दिए गए राह को भी चुन सकते थे। उन्होंने पगडण्डियां चुनी हैं। ऐसी जो राह चलते बनती हैं और टेढ़ी-मेढ़ी तथा उबड़-खाबड़ होती हैं। कवि के चयन में ऐसी कोई मजबूरी नहीं है बल्कि सहजता बनाए रखने की ईमानदारी है। वे कविता में कोई फर्जी पक्षधरता का घटाटोप नहीं रचते और न ही यह दिखाने की कोशिश करते हैं। वे इस तरह का कोई आग्रह भी नहीं पालते हैं। आत्मा रंजन एक रास्ते की तलाश में हैं। बल्कि कहा जाए तो यह कि पगडण्डी पर चल रहे हैं। इसके खतरे क्या हैं, वे जानते हैं, लेकिन यह जानते हुए भी अगर उन्होंने यह चुना है तो इसे उनकी ईमानदारी और निष्ठा का परिचायक मानना चाहिए। चोट खाने का शौक तो नहीं ही होगा लेकिन अगर राह के निर्माण में चोट भी खाना पड़े तो इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। बहरहाल।
       
आत्मा रंजन मूलतः प्रेम के कवि हैं। महज प्रेमी-प्रेमिका वाले प्रेम के नहीं। उनका प्रेम व्यापक रूप लिए हुआ है। उनकी कई कविताओं में प्रेम का विविध रूप देखने को मिल सकता है। ‘हाँडी’ ऐसी ही एक कविता है। कहने को तो यह काठ के हाँडी के रूपक से शुरू होती है लेकिन अंततः एक प्रेम कविता में तब्दील हो जाती है। कवि की जिज्ञासा अर्थवान है- मैं जानना चाहता हूँ/ हाँडी होने का अर्थ/ तान देती है जो खुद लपटों पर/ और जलने को/ बदल देती है पकने में। “तुम” का धातु की हाँडी में तब्दील हो जाना काठ की हाँडी के मुकाबले थोड़ा हेय लग सकता है। लेकिन वृहत्तर अर्थ में वही प्रेम की वास्तविकता तक ले जाकर प्रतिष्ठित करता है। काठ की हाँडी बनकर एक ही बार में जल जाने यानी प्रेम में फ़ना जाने का जीवन से क्या लेना-देना? जीवन नष्ट हो जाने का नाम नहीं है। जीवन तो जलने को पकने में बदल देने का नाम है। उसका लक्ष्य रचनात्मकता है। इसीलिए “तुम” का रिश्ता हाँडी से बड़े अपनेपन का है। कवि के शब्द हैं-
      
कोई औपचारिक सा खून का रिश्ता मात्र/ तो नहीं जान पड़ता/ गुनगुनाते लगती है यह भी/ तुम्हारे संग एक लय में/ खुद्बुदाने लगती है/ तुम्हारी कड़छी और छुवन मात्र से/ बिखेरने लगती है महक/ उगलने लगती है स्वाद के रहस्य
      
हाँडी कविता को रसोईघर की तफसीलों के बावजूद प्रेम कविता के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।

‘औरत की आंच’ कविता परिवार के कई एक रिश्तों को एक सूत्र में पिरोकर महसूस कराती है। “औरत की आंच/ पत्थर, मिट्टी, सीमेन्ट, को सेंकती है/ बनाती है उन्हें एक घर/ उसकी आंच से प्रेरित होकर ही/ चल रहा है यह अनात्म संसार।”
      
‘पृथ्वी पर लेटना’ कविता प्रेम के और भी व्यापक रूप की कविता है “पृथ्वी पर लेटना/ पृथ्वी को भेंटना भी है।/ खासकर इस तरह/ जिन्दा देह के साथ / जिन्दा पृथ्वी पर लेटना।“ इस कविता में जीवन के विविध रूप हैं। मजदूर का धरती पर लेटना महज मजबूरी नहीं है। यह अपनी जमीन के साथ सीधा संवाद है। कवि धरती को माँ का दर्जा देता है। एक रूपक इसी तरह गढ़े जाने चाहिए। अर्थ की संभावना को और भी उत्कर्ष प्रदान कर दें। ऐसे रूपक। कविता के पहले बंध की ही पंक्तियाँ है- “मत छेड़ो उसे ऐसे में/ धरती के लाड़ले बेटे का / माँ से सीधा संवाद है यह/ माँ पृथ्वी दुलरा-बतिया रही है/ सेंकती सहलाती उसकी/ पीराती पीठ/ बिछावन दुभासिया है यहाँ।“ मैं जब आत्मा की कविताओं में प्रेम तत्त्व की बात करता हूँ तो यह अपने व्यापक रूप में अभिव्यक्त होने की तरफ संकेतित करता हूँ। प्रेम महज कुछ सांसारिक जीवों का मिलना-बिछड़ना नहीं है और ना ही देह की कथा कहना। प्रेम यूं भी व्यक्त होता है। एक मजदूर का पृथ्वी पर लेटना मजबूरी भले समझी जाती हो, प्रेम का एक अव्यक्त रूप है। कवि इसे पहचान ले और अपनी कविता में उसे इस तरह व्यक्त करे, तो मानना चाहिए कि यह कवितायेँ मात्र बौद्धिक विलास नहीं हैं, यह कवितायेँ गहरे लगाव और संवेदना की कवितायेँ हैं। इस अंश में बिछावन को दुभासिया कहना व्यंजना का बेहतरीन उदाहरण है। आत्मा की इस कविता के आखिर में यह निष्कर्ष की तरह ही आता है और ऊपर के तीन हिस्सों को नए अर्थ से भर जाता है- “कौन समझाए विजेताओं/ बुद्धिमानों को/ कि लेटना न सही/ वे सीख लें कम से कम/ पृथ्वी पर लौटना।“ वे आखिर में इस अनुभूति को कठिन बताते हैं- “वह तो दूर की बात है/ जानता है जो एक मनमौजी बच्चा/ असीम सुख का असीम स्वाद।/ कि क्या है-/ पृथ्वी पर लेटना।“

आत्मा रंजन की कविताओं में स्त्री के विविध रूप हैं। पृथ्वी पर लेटना से लेकर हाँडी, हंसी वह, सींचते हुए आदि में इसे देखा जा सकता है। पहली ही कविता कंकड़ छाँटती स्त्री की एक विशेष छवि आंकती है। इस कविता में स्त्री के जीवन का रागात्मक लगाव महसूस किया जा सकता है- “एक स्त्री का हाथ है यह/ जीवन के समस्त स्वाद से/ कंकड़ बीनता हुआ।“ मैं यहाँ थोड़ी देर ठहरना चाहूँगा। स्वाद से कंकड़ बीनना कैसा जबरदस्त मुहावरा है। बल्कि कहें कि लाक्षणिकता है जो मुहावरे में बदल सकने की कूबत रखती है। स्वाद से कंकड़ बीनना एक अनचाहे रुकावट को दूर करना है। ऐसा विघ्न जो व्यंजन का मजा किरकिरा कर दे। स्त्री का हाथ न सिर्फ व्यंजन बनाता है, उसके आस्वाद को भी बचाए रखता है। हांडी को प्रेम कविता के रूप में देखने की वकालत कर ही चुका हूँ। औरत की आंच’ में स्त्री के कई रूप हैं. माँ, बहन, बेटी प्रेमिका आदि-आदि गोया उन्होंने समूचे परिवार को एक जगह समेटने की कोशिश की है। हँसी वह’ एक विशेष मनःस्थिति की कविता है। हँसने पर लड़की के बेढब दांत दिखने लगते हैं। वह सहम जाती है। हँसना बंद कर देती है. “फिर अचानक सहमी/ ठिठकी वह/ आया ख़याल/ ऐसे हँसना नहीं चाहिए था उसे/ वह एक लड़की है/ उसके ऊपर के दांत/ बेढब हैं/ कुछ बहार को निकले हुए.  मैं अभी ऊपर के दांत की व्यंजना में उलझा हुआ हूँ।  कितनी दूर तक ले जा रही है मुझे यह पंक्ति। सामाजिक वर्जनाओं और उस पर आयद तमाम रोकटोक तक। ऊपर के दांत का मतलब क्या मात्र सीधा सा है? क्या उसके शरीर की बनावट मात्र? नहीं। ऊपर के दांत और भी हैं, जिससे वह भयाक्रांत होती है, सहम जाती है और अपनी धूप सी निश्छल हँसी के बाद सहम कर चुप रह जाती है। छोटी सी कविता ढेर सारी व्यंजनाएँ करती हुई हमें आत्मा रंजन के विषय में सोचने को मजबूर करती है जिस कवि के पास अनुभव और अभिव्यक्ति का अनूठा संयोग है, सामंजस्य है। ‘सींचते हुए’ में एक औरत है जो वास्तव में फूल-पत्तियां ही नहीं सींच रही है, घर की सिंचाई कर रही है। घर की सिंचाई करने में भी घर को सजाने-सँवारने की व्यंजना छिपी है. घर को बनाए रखने की जद्दो-जहद के साथ. कविता में जमीन को एक माँ की तरह, एक प्रेमिका की तरह परिभाषित किया गया है। इस रूप में भी कवि ने स्त्री रूप ही आँके हैं।

उनकी कविता में मजदूरों के भी कई रंग हैं। ‘रंग पुताई करने वाले’ और ‘पत्थर चिनाई करने वाले’ कविता को इस नजर से देखा जाना चाहिए। वे अपनी पूरी मानवीयता के साथ इस श्रम करने वाले वर्ग के साथ खड़े हैं। उनका पूरा सम्मान करते हुए। यह आत्मा की कविता में ही आता है कि पत्थर की चिनाई करने वाला- “खूब समझता है वह/ पत्थर की जुबान/ पत्थर की भाषा में बतिया रहा है/ सुन रहा गुन रहा बन रहा/ एक एक पत्थर।“ वे मजदूर भर नहीं हैं वे कलाकार हैं। आत्मा रंजन इस कला की कद्र करते हुए कविता में आंकते हैं कि – “पृथ्वी को चिनने की कला है यह/ टूटी-बिखरी पृथ्वी को/ जोड़ने-सहेजने की कला/ रचने, जोड़ने, जिलाने का/ सौन्दर्य और सुख।“ उनके यहाँ पुताई करने वालों के हाथ में सजाने-सँवारने का हुनर है- “इन हाथों के पास है/ तमाम सीलन को पोंछने हरने का हुनर/ खराब मौसम और खराब स्थितियों की/ खामोश साजिश है सीलन।” कहने की आवश्यकता नहीं कि कवि के यहाँ आया यह सीलन किसकी अभिव्यंजना करता है। वे आखिर में यह कह ही देते है- “दरअसल यह दीवार की नहीं/ पृथ्वी की सीलन है/ इन हुनरमंद हाथों से पुंछती/ मरहम लगवाती हुई।“

आत्मा की कविता में मध्यम वर्ग के लोगों का जीवन है। हमारे यहाँ कविता में आमतौर पर जनवादी प्रभाव में सबाल्टर्न और निम्न कहे जाने वाले, उपेक्षित लोगों पर कवितायेँ लिखने का फैशन है। आत्मा रंजन की कविताएँ उस फैशन से दिखावे से बहुत दूर स्वतः आभास करा देती हैं। उनकी कविताओं में मध्य वर्ग की तमाम तफसीलें हैं। वह तथाकथित मध्यवर्ग नहीं जो बुर्जुवा कहा जाता है और हिकारत की नजर से देखा जाता है। बल्कि कविताओं में मध्य वर्ग परिवार की पूरी गरिमा के साथ उपस्थित है। यहाँ यह बता देना बहुत आवश्यक जान पड़ता है कि भारतीय सन्दर्भ में मध्य वर्ग का विस्तार बहुत व्यापक है. यहाँ मालिक और नौकर दोनों ही मध्यवर्ग में गिन लिए जाते हैं और अपनी सुविधानुसार प्रयोग में लाये जाते हैं. आत्मा रंजन के यहाँ निम्न मध्यवर्ग की उपस्थिति ज्यादा है. इसीलिए मजदूरों, पत्थर चिनाई करने वाले या रंग पुताई करने वालों पर उनका मानवीय दृष्टिकोण देखने लायक होगा. माल रोड पर बच्चों के खेलने से चिढ़ने वाले लोग भी मध्यवर्ग के ही हैं, लेकिन उनका चिढ़ना कवि के पक्ष को बखूबी द्योतित करता है. बच्चों पर केन्द्रित उनकी कविताओं में इसे देखा जा सकता है कि आत्मा रंजन के यहाँ मध्यवर्ग की उपस्थिति कैसी है। आत्मा रंजन ने राजेश जोशी की काम पर जाते हुए बच्चे की कविताओं से इतर ‘माल पर बच्चे’ जैसी कविताओं में बालकों का पक्ष लिया है। उनके यहाँ माल पर उधम मचाते बच्चे माल की मर्यादा खंडित नहीं कर रहे हैं, जैसा कि वहां के सैलानियों या अपनी दूकान चलाने वालों को लगता है। कवि का प्रश्न बेहद अहम् है- “क्या सचमुच/ माल की मर्यादा/ खंडित कर रहे हैं बच्चे/ या माल ही कर रहा/ ख़ुद इनकी।” ‘खेलते हैं बच्चे’, ‘नहाते बच्चे’, ‘जैसे होते हैं बच्चे’ जैसी कविताओं में इस मध्य वर्ग के परिवार और बच्चों के असमय बड़े होते जाने, तथाकथित समझदार होते जाने की पीड़ा है। उनके यहाँ यह बताना एक दूसरे पक्ष को मजबूती से रखना है कि– “खेलते हैं बच्चे/ वे भी/ जिनके पापा नहीं जाते विदेश/नहीं लाते बल्ला गेंद।” लेकिन इस बेफिक्री और मनमौजीपने के बीच वे बच्चों के असमय बड़े होते जाने से चिंतित हैं। उनका यह सपाटबयानी करना कविता में बदल जाता है- “यह ख़ुशी की नहीं, चिंता की बात है दोस्त! / कि उम्र के पहले बड़े हो रहे हैं बच्चे।” आत्मा रंजन की बच्चों पर लिखी गयी कवितायें ध्यान खींचती हैं। यह काम पर जा रहे हैं बच्चों से इतर कवितायें हैं। इनमें मध्यवर्ग का जीवन सूक्ष्मता से व्यक्त हुआ है। उनके यहाँ कविता में आया एक बच्चा जब यह सोच रहा है कि– “ पापा के साथ टहलने से तो अच्छा था/ घर पर वीडियो गेम खेलता” कवि के लिए एक भयास्पद तथ्य है। उसके शब्दों में- “उसका इस तरह सोचना/ इस सदी का एक खतरनाक हादसा है।” ‘इस बाजार समय में’, ‘स्मार्ट लोग’, दुकानदारों पर लिखी कविताओं में यही मध्यवर्ग है।

आत्मा की कवितायें अपनी सहजता और समग्रता में ध्यानाकृष्ट करती हैं। उन्हें ठीक से समझे जाने की जरूरत है। वे सादगी और व्यंजना की अभिव्यक्ति करने वाले कवि हैं। उनकी कवितायेँ आज की कविताओं की तरह सपाट गद्य नहीं है। उनमें एक आतंरिक लय है। यह लय कविता के पूरी हो जाने के बाद एक विशिष्ट अनुभूति का अहसास कराती है। उनके यहाँ कविता अपने रचाव में पूरी है तो दिखती भी है। आजकल की कविताओं के साथ यह संकट है कि उनका उठान तो चौंकाने वाला रहता है लेकिन अपने पर्यवसान तक आते-आते वे ढीली और कमजोर पड़ जात्ती हैं। आत्मा रंजन इसे साधने में सफल हो गए हैं। यह उनकी विशिष्टता है कि अपने पहले ही संग्रह में उन्होंने यह धैर्य हासिल कर लिया है और इसे सहेजे हुए हैं।

इधर बीच जब से यह संग्रह मुझे मिला, हमेशा साथ रहा है। यदा-कदा इस संग्रह की कवितायेँ निकालकर पढ़ लेने और देख लेने का मन करता रहा है। मुझे कई कवितायेँ बहुत जरूरी महसूस होती रही हैं। मैंने जैसा कि कहा आत्मा की कविताओं में मध्यवर्ग का अंकन है, आत्मा रंजन ऐसा करते हुए, लोक के प्रति गहरा जुड़ाव भी महसूस कराते चलते हैं। मोहक छलिया अय्यार और बोलो जुल्फिया रे, एक लोक वृक्ष के बारे में जैसी कवितायेँ अपनी स्थानीयता को सुरक्षित रखे हुए और लोक के प्रति सम्पृक्ति के भाव की कवितायेँ हैं।

आखिर में, ‘पगडण्डियां गवाह हैं’ के कवि के लिए इतना ही कहना है कि कवि ने यह राह स्वयं चुना है। उनपर यह जिम्मेदारी आयद है कि वे इन पगडंडियों की खूबसूरती बनाए रखें और एक ऐसी स्थाई लकीर/ राह बनाएं जो सबके लिए आनंद दायक और आदिम अनुभूतियों तक पहुंचाए। उनकी एक छोटी कविता के साथ अपनी बात ख़तम की जाए- बनना नहीं होना

“हर किसी से मुखातिब है/ हर कोई/ शालीन और मोहक/ मुस्कान बिखेरता/ पूरी दक्षता/ पूरे कौशल के साथ/ कुछ ऐसे कि स्वतः ही/ उभर रहे शब्द-/ अभिनय, रणनीति, हथियार/ और उससे भी आगे- शिकार...!

जाने कब समझेंगे लोग/ कि वास्तव में- / फूल को देखने के लिए/ पहले होना पड़ता है फूल।“


कृति का नाम- पगडण्डियां गवाह हैं
कवि- आत्मा रंजन
अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, २०१००५
मूल्य- २०० रूपये   
समीक्षक 

डा.रमाकान्त राय.
३६५ए-१, कंधईपुर, प्रीतमनगर,
धूमनगंज, इलाहाबाद. २११०११   
९८३८९५२४२६ 
                                    














     

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सजीव और सार्थक समीक्षा की है ………आभार

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  2. आत्मरंजन जी की कवितायेँ टुकड़ों में पढी थीं ...उनकी कुछ और कविताओं के अंश और संतुलित व् सटीक समीक्षा के लिए रमाकांत रॉय जी को बधाई

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  3. संग्रह पढ़ने के बाद समीक्षा पढ़ना अच्छा लगा ,शुक्रिया .

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