हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कवि-कथाकार विमलेश त्रिपाठी का आज
जन्मदिन है | इस अवसर पर सिताब दियारा ब्लॉग उनकी कविता श्रृंखला ‘कालेज की डायरी
से’ को प्रस्तुत करते हुए उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएं प्रेषित करता
है | इस उम्मीद और विश्वास के साथ, कि रचनात्मकता का यह सफ़र और आगे बढेगा, और
ऊंचाई प्राप्त करेगा |
प्रस्तुत है युवा कवि विमलेश
त्रिपाठी की कविता श्रृंखला ‘कालेज की डायरी से’
कॉलेज
की डायरी से
एक
अनकहा कहा आज
देर तक बजते रहे शब्द
समय की एक सपाट सड़क पर
दौड़े बहुत तेज
पता नहीं था तुम सदियों से वहीं खड़े हो
जहां छोड़कर खो गया था बादलों की ओट में
एक साबुत और जिंदा समय
जिसकी पीठ पर एक लड़की का नाम लिखा था
सांसे छोटी हो रही हैं
बहुत वक्त गुजरे
सदियों पीछे
सिगरेट के धुएं-सा कुछ फैला है
उस धुंध में
वो हक जो दिया
तुमने लिया नहीं -
स्टूपिड प्यार करते हो
कहा क्यों नहीं ?
और एक झेंप है
जिसे हवा समझती है
बादल समझते हैं
धरती के एक-एक रग समझते हैं
मैंने नहीं कहा किसी से
सिर्फ तुमसे अभी अभी कहा है तुमने जगह दी है समझा उसे
चलो सदियों बाद
एक सिगरेट सुलगाते हैं
और समय की नब्ज को
रोक देते हैं
हंसते और जीते हैं कुछ देर
बेखौफ
और खौफ के बीच हम और तुम
एक तान
जो सदियों पार से आ रही है छोटी-छोटी सांसों के बीच
उसे एक बहुत लंबी सांस से भरते हैं
लगा आते हैं गस्त
समंदर की आखिरी गहराइयों तक
नापते हैं आज
जिसे नापा नहीं कभी
नापेंगे नहीं कभी।
अनकहा कहा आज
देर तक बजते रहे शब्द
समय की एक सपाट सड़क पर
दौड़े बहुत तेज
पता नहीं था तुम सदियों से वहीं खड़े हो
जहां छोड़कर खो गया था बादलों की ओट में
एक साबुत और जिंदा समय
जिसकी पीठ पर एक लड़की का नाम लिखा था
सांसे छोटी हो रही हैं
बहुत वक्त गुजरे
सदियों पीछे
सिगरेट के धुएं-सा कुछ फैला है
उस धुंध में
वो हक जो दिया
तुमने लिया नहीं -
स्टूपिड प्यार करते हो
कहा क्यों नहीं ?
और एक झेंप है
जिसे हवा समझती है
बादल समझते हैं
धरती के एक-एक रग समझते हैं
मैंने नहीं कहा किसी से
सिर्फ तुमसे अभी अभी कहा है तुमने जगह दी है समझा उसे
चलो सदियों बाद
एक सिगरेट सुलगाते हैं
और समय की नब्ज को
रोक देते हैं
हंसते और जीते हैं कुछ देर
बेखौफ
और खौफ के बीच हम और तुम
एक तान
जो सदियों पार से आ रही है छोटी-छोटी सांसों के बीच
उसे एक बहुत लंबी सांस से भरते हैं
लगा आते हैं गस्त
समंदर की आखिरी गहराइयों तक
नापते हैं आज
जिसे नापा नहीं कभी
नापेंगे नहीं कभी।
दो
एक सिगरेट के धुएं दो सीने में
पहुंचते थे
बाहर आकर साथ मिलते
एक होते और हवा में गुम हो जाते
दुनिया में वह एक ही जगह थी
दुनिया में वह एक ही आखिरी सिगरेट थी
वह समय था हमारे बीच एक आखिरी
जहां हम मिल रहे थे आखिरी बार
तब हमें पता नहीं था
कि कोई भी समय आखिरी नहीं होता
न धुंआ
न कोई एक सिगरेट ही आखिरी
और
न लौटे कुछ और
लेकिन समय लौटता है हर बार
और साथ उसके एक उम्र लौटती है
बार-बार हर बार
शुरूबार
और आखिरी बार।
बाहर आकर साथ मिलते
एक होते और हवा में गुम हो जाते
दुनिया में वह एक ही जगह थी
दुनिया में वह एक ही आखिरी सिगरेट थी
वह समय था हमारे बीच एक आखिरी
जहां हम मिल रहे थे आखिरी बार
तब हमें पता नहीं था
कि कोई भी समय आखिरी नहीं होता
न धुंआ
न कोई एक सिगरेट ही आखिरी
और
न लौटे कुछ और
लेकिन समय लौटता है हर बार
और साथ उसके एक उम्र लौटती है
बार-बार हर बार
शुरूबार
और आखिरी बार।
तीन
सिगरेट की सांस से निकलता धुंआ
हमारी सांसो से टकराकर
एक धुंधलाये शब्दों में ढल जाता
शब्द गुम जाते
हमारी उजली मुस्कुराहटों के बीच
हमारे दिलों में
एक आकाश बनता
धरती खिसकती पैरों तले की
वह एक ऐसा समय था
जब हम उड़ सकते थे अबाध
पूरे समय को धुंआं-धुआं करते
हम जी सकते थे
जैसा कि हम सचमुच चाहते थे
साथ-साथ
सदियों
अतीत और वर्तमान के पतले धागों से दूर
अपने अपने चुने हुए
द्वीप में
निर्भय ..निःशेष...।
हमारी सांसो से टकराकर
एक धुंधलाये शब्दों में ढल जाता
शब्द गुम जाते
हमारी उजली मुस्कुराहटों के बीच
हमारे दिलों में
एक आकाश बनता
धरती खिसकती पैरों तले की
वह एक ऐसा समय था
जब हम उड़ सकते थे अबाध
पूरे समय को धुंआं-धुआं करते
हम जी सकते थे
जैसा कि हम सचमुच चाहते थे
साथ-साथ
सदियों
अतीत और वर्तमान के पतले धागों से दूर
अपने अपने चुने हुए
द्वीप में
निर्भय ..निःशेष...।
चार
इतिहास
की दहलीज पर हमें भी दर्ज करने थे
अपने कोमल पैरों के निशान
हमें भी लिखनी थी मिलकर कोई एक कविता
एक दूसरे के निर्दोष आसमान-सी
अपनी रफ़ कॉपियों में
हमारे सामने जिंदगी-सा फैला था एक समय
जिसे मुट्ठी में हमें भी बांधना था
अपनी पूरी ताकत से कहना था वह
जिसे इस देश में कहने से तब भी डरते थे करोड़ों लोग
हमें भी साथ मिलकर ध्वस्त करनी थी
सदियों की दीवारें
भीतर जिनके हमारा दम घुटता था
लेकिन हमारी पीठ पर लदी थी गरीबी की एक बहुत भारी
और बदबूदार गठरी
जिसे छुपाने में ही गई हमारी सारी ऊर्जाएं
बहुत कठिन समय था वह
जहां बचाए हमने मिलकर साथ-साथ सिगरेट के कश-से
उजले और अर्थवान शब्द
उसके सहारे ही काटे हमने
एक युग के भयावह अंधकार
खुद का होना बचाया
उसके सहारे ही हम लड़े
हारे
और जीतते रहे एक निर्मम रण
शेष
अशेष...।
अपने कोमल पैरों के निशान
हमें भी लिखनी थी मिलकर कोई एक कविता
एक दूसरे के निर्दोष आसमान-सी
अपनी रफ़ कॉपियों में
हमारे सामने जिंदगी-सा फैला था एक समय
जिसे मुट्ठी में हमें भी बांधना था
अपनी पूरी ताकत से कहना था वह
जिसे इस देश में कहने से तब भी डरते थे करोड़ों लोग
हमें भी साथ मिलकर ध्वस्त करनी थी
सदियों की दीवारें
भीतर जिनके हमारा दम घुटता था
लेकिन हमारी पीठ पर लदी थी गरीबी की एक बहुत भारी
और बदबूदार गठरी
जिसे छुपाने में ही गई हमारी सारी ऊर्जाएं
बहुत कठिन समय था वह
जहां बचाए हमने मिलकर साथ-साथ सिगरेट के कश-से
उजले और अर्थवान शब्द
उसके सहारे ही काटे हमने
एक युग के भयावह अंधकार
खुद का होना बचाया
उसके सहारे ही हम लड़े
हारे
और जीतते रहे एक निर्मम रण
शेष
अशेष...।
पाँच
समय की कई नदियां लांघकर
एक समंदर के किनारे हम मिले
एक बूढ़े पेड़ के नीचे
दूब के नरम गलीचों पर हम चले
एक हाथ में हमने खिलाया
फूल एक
स्पर्श किया उसे ऊर्जा दी हृदय का प्रकाश दिया
बूंद-बूंद बारिश में बूंद-बूद जिया
एक दूसरे की आंखों में
देखते रहे इंन्द्रधनु
एक छूट गए समय में
इसी तरह मुक्त किया हमने
खुद से खुद को
और एक - दूसरे को।
एक समंदर के किनारे हम मिले
एक बूढ़े पेड़ के नीचे
दूब के नरम गलीचों पर हम चले
एक हाथ में हमने खिलाया
फूल एक
स्पर्श किया उसे ऊर्जा दी हृदय का प्रकाश दिया
बूंद-बूंद बारिश में बूंद-बूद जिया
एक दूसरे की आंखों में
देखते रहे इंन्द्रधनु
एक छूट गए समय में
इसी तरह मुक्त किया हमने
खुद से खुद को
और एक - दूसरे को।
छः
इस भरी-पूरी और खाली दुनिया में
हमारे पास थे सिर्फ कुछ शब्द
आसरे की तरह
उन पेड़ों की स्मृतियां थीं जिन्हें हम छोड़ आए थे
बहुत दूर समय की कोख में
उजले सपने थे खूब-खूब चमकते
एक समय था हमारी सांसों में गरम होता
पिघलता कभी
कभी सख्त होकर छाती में जम जाता
एक अंतहीन रास्ता था
जिसपर चलने की कसमें खाई थीं
पहली बार गले लगकर रोया था
पिघलाया था सदियों के लोहे को
जिनसे जकड़ा हुआ था हमारा होना
पहली बार हमने चूमा था
पागलों की तरह एक दूसरे को
फिर सिगरेट के कश लिए थे
धुएं की गुबार थी हमारी जिंदगी
जिसके बीच हमने एक दूसरे को
सुनाया वह गीत
जिसे सुनना-सुनाना गुनाह था इस देश की महान पोथियों के लिए
खूब-खूब हंसे
खूब-खूब प्यार किया था
इस तरह साथ मिलकर उड़ाया था हमने इतिहास का मजाक
वर्तमान को गालियां दी थीं
भविष्य के रास्ते पर लगाया था झाड़ू
हमारी हंसी उस समय तीहूं लोक में
अबाध गूंज रही थी
हमारे पास थे सिर्फ कुछ शब्द
आसरे की तरह
उन पेड़ों की स्मृतियां थीं जिन्हें हम छोड़ आए थे
बहुत दूर समय की कोख में
उजले सपने थे खूब-खूब चमकते
एक समय था हमारी सांसों में गरम होता
पिघलता कभी
कभी सख्त होकर छाती में जम जाता
एक अंतहीन रास्ता था
जिसपर चलने की कसमें खाई थीं
पहली बार गले लगकर रोया था
पिघलाया था सदियों के लोहे को
जिनसे जकड़ा हुआ था हमारा होना
पहली बार हमने चूमा था
पागलों की तरह एक दूसरे को
फिर सिगरेट के कश लिए थे
धुएं की गुबार थी हमारी जिंदगी
जिसके बीच हमने एक दूसरे को
सुनाया वह गीत
जिसे सुनना-सुनाना गुनाह था इस देश की महान पोथियों के लिए
खूब-खूब हंसे
खूब-खूब प्यार किया था
इस तरह साथ मिलकर उड़ाया था हमने इतिहास का मजाक
वर्तमान को गालियां दी थीं
भविष्य के रास्ते पर लगाया था झाड़ू
हमारी हंसी उस समय तीहूं लोक में
अबाध गूंज रही थी
और
स्याह हो रहे थे कई-कई चमकीले चेहरे..।
सात
मरूथल
के गरम रेत-सा प्यार
पहाड़ी झील के ठिठुरते पानी-सा
दूध और पानी-से हम
दिया और बाती-से हम
बीच खिले नागफनी के फूल
कटे खेत के बाद की तनी तीखी खूंटियां
हमने सहा सदियों
जैसे खुद को समझा पृथ्वी
दुनिया में आदमी बिलुप्त होने के कगार पर जब
बचे रहना कठिन
और कठिनतर
और कठिनतम
ऐन उसी कठिन समय में हमने
जिंदा रखा अपने-अपने हिस्से की पृथ्वी
मिल कर बने दूध और पानी
हवा और खुशबू
रंग और मेंहदी
और इस तरह
एक और एक
साबुत पृथ्वी।
पहाड़ी झील के ठिठुरते पानी-सा
दूध और पानी-से हम
दिया और बाती-से हम
बीच खिले नागफनी के फूल
कटे खेत के बाद की तनी तीखी खूंटियां
हमने सहा सदियों
जैसे खुद को समझा पृथ्वी
दुनिया में आदमी बिलुप्त होने के कगार पर जब
बचे रहना कठिन
और कठिनतर
और कठिनतम
ऐन उसी कठिन समय में हमने
जिंदा रखा अपने-अपने हिस्से की पृथ्वी
मिल कर बने दूध और पानी
हवा और खुशबू
रंग और मेंहदी
और इस तरह
एक और एक
साबुत पृथ्वी।
आठ
पेड़-पेड़ खेत-खेत नदियां-नदियां समंदर- समंदर
स्कूल-स्कूल कॉलेज-कॉलेज सड़क-सड़क स्टेशन-स्टेशन
हर जगह लिखे हमने अपने नाम
दर्ज किए अपने कदम
एक की सांस दूसरे में भरी हवा की देह पर हुए लोट-पोट
रंग दिया दुनिया को
एक रंग जो सबसे उजला सबसे दुधिया
बूंद-बूंद संचा सच का पानी
आदमी होने के बतौर सबूत
रहे जिंदा
सीप में मोती
हर रोज हमने प्यार- से उजले
और दुधिया कबूतर उड़ाए
अपने-अपने आसमानों में।
स्कूल-स्कूल कॉलेज-कॉलेज सड़क-सड़क स्टेशन-स्टेशन
हर जगह लिखे हमने अपने नाम
दर्ज किए अपने कदम
एक की सांस दूसरे में भरी हवा की देह पर हुए लोट-पोट
रंग दिया दुनिया को
एक रंग जो सबसे उजला सबसे दुधिया
बूंद-बूंद संचा सच का पानी
आदमी होने के बतौर सबूत
रहे जिंदा
सीप में मोती
हर रोज हमने प्यार- से उजले
और दुधिया कबूतर उड़ाए
अपने-अपने आसमानों में।
नौ
जिस शहर में हम थे उन दिनों
उसका नाम कलकत्ता हुआ करता था
कलकत्ता एक गांव था
या फिर गांवों का समुच्चय
गांव की गलियां बहुत संकरी थी
बहुत भीड़ भरी
गलियों के कोने में छुपकर छुआ एक दूसरे को
चलते-चलते में प्यार किया
गुबारे खरीदे हमने छोले खाए
विक्टोरिया गए गए नंदन
मेट्रो की साढ़ियों पर बैठकर प्यार किया
झालमुढ़ी का एक ठोंगा धीरे-धीरे खाया
बस में धीरे-धीरे की यात्राएं
घर पहुंचे धीरे-धीरे दबे कदम
खूब सपने थे हमारे बस्ते में
कलकत्ता सपनों के समुच्चय का शहर था
जो कभी पूरे नहीं होने थे
उन नादान दिनों में
हम रहे एक सदियों पुराने गांव सुतानुती में
कलिकाता में नंगे पांव चले
हुगली के किनारे बैठकर कसमें खायीं
इतिहास में सेंघ लगाकर प्यार किया
वर्तमान की छाती पर सवार गीत गाए
भविष्य के द्वार पर खड़ा
इंतजार किया अच्छे दिनों की
स्तुती की उजले दिनों की
टूट कर बार-बार
जुड़कर बार-बार
छूट गए समय में मरे
उसका नाम कलकत्ता हुआ करता था
कलकत्ता एक गांव था
या फिर गांवों का समुच्चय
गांव की गलियां बहुत संकरी थी
बहुत भीड़ भरी
गलियों के कोने में छुपकर छुआ एक दूसरे को
चलते-चलते में प्यार किया
गुबारे खरीदे हमने छोले खाए
विक्टोरिया गए गए नंदन
मेट्रो की साढ़ियों पर बैठकर प्यार किया
झालमुढ़ी का एक ठोंगा धीरे-धीरे खाया
बस में धीरे-धीरे की यात्राएं
घर पहुंचे धीरे-धीरे दबे कदम
खूब सपने थे हमारे बस्ते में
कलकत्ता सपनों के समुच्चय का शहर था
जो कभी पूरे नहीं होने थे
उन नादान दिनों में
हम रहे एक सदियों पुराने गांव सुतानुती में
कलिकाता में नंगे पांव चले
हुगली के किनारे बैठकर कसमें खायीं
इतिहास में सेंघ लगाकर प्यार किया
वर्तमान की छाती पर सवार गीत गाए
भविष्य के द्वार पर खड़ा
इंतजार किया अच्छे दिनों की
स्तुती की उजले दिनों की
टूट कर बार-बार
जुड़कर बार-बार
छूट गए समय में मरे
और
जिंदा हुए हम आंख की पुतलियों में बार-बार ।
जिंदा हुए हम आंख की पुतलियों में बार-बार ।
परिचय और
संपर्क
विमलेश
त्रिपाठी
बक्सर, बिहार के एक
गांव हरनाथपुर में जन्म ( 7 अप्रैल 1979 मूल तिथि)। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
·
प्रेसिडेंसी
कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
·
देश की
लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
·
कविता
और कहानी का अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।
सम्मान
·
सांस्कृतिक
पुनर्निर्माण मिशन की ओर से युवा शिखर सम्मान।
·
भारतीय
ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार
·
ठाकुर
पूरण सिंह स्मृति सूत्र सम्मान
·
भारतीय
भाषा परिषद युवा पुरस्कार
·
राजीव
गांधी एक्सिलेंट अवार्ड
पुस्तकें
·
हम बचे
रहेंगे कविता संग्रह, नयी
किताब, दिल्ली
·
एक देश
और मरे हुए लोग, कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन
·
अधूरे
अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह,
भारतीय ज्ञानपीठ
·
कैनवास
पर प्रेम, उपन्यास, भारतीय
ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य
·
2004-5
के वागर्थ के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
·
देश के
विभिन्न शहरों में कहानी एवं कविता पाठ
·
कोलकाता
में रहनवारी।
·
परमाणु
ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।
·
संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ.,
विधान नगर, कोलकाता-64.
·
Mobile:
09748800649
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