डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘नियमगिरि
वर्डिक्ट’ पर प्रमोद कुमार बर्णवाल का यह लेख समयांतर पत्रिका में छपा है | आप
सबके लिए इसे हम सिताब दियारा ब्लॉग पर भी प्रस्तुत कर रहे हैं |
सिनेमा ----- “नियमगिरि वर्डिकट’’ - जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई
सरकार हमेशा से विकास के नए-नए दावें प्रस्तुत करती रही है, और अगर सरकारी आँकड़ों पर
नज़र डालें तो आपको ये लग सकता है कि वाकई में देश ने बहुत तरक्की कर ली है। बड़े
शहरों में बड़ी-बड़ी इमारतें, लम्बी-चैड़ी सड़कें, रेलवे स्टेशन, विशाल एयरपोर्ट, मेट्रो ट्रेन, मोबाइल, कम्पयूटर
और इन्टरनेट इत्यादि को आप देखेंगे तो आपको ये आँकड़ें सच भी जान पड़ेंगे; किन्तु देश के विकास की हकीकत जाननी हो, तो एक बार
नियमगिरि की पहाडि़यों और घाटियों में बसे गाँवों में आइए......। लेकिन इससे भी
अधिक सुविधाजनक होगा कि आप केबीके समाचार द्वारा प्रस्तुत ’’नियमगिरि
वर्डिकट’’ फि़ल्म देख लें......क्योंकि आज़ादी के बाद साठ
साल से भी अधिक समय बीत जाने पर भी नियमगिरि की पहाडि़यों और घाटियों में बसे
गाँवों में पहुँचना इतना आसान नहीं है.......।
मोहम्मद असलम, सिमान्चल पाण्डा, मौली बारिक, सत्या महार और कैलाश साहु का कैमरा आपको
नियमगिरि की पहाडि़यों और घाटियों में बसे उन गाँवों में पहुँचाने में मदद करता है,
जहाँ पहुँचने के लिए आज भी कोई पक्की सड़क नहीं है,.....हंै भी तो ऐसे ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते.....जिन्हें सड़क कहना, सड़क की भी तौहीन है। इस क्षेत्र की हकीकत ’नियमगिरि
वर्डिकट’ में मिड क्लोज शाट में दिखाए गए एक आदिवासी स्त्री
के बयान से दर्ज होती है, जब वह कहती है, ’’यहाँ कोई स्कूल नहीं है, कोई सड़क नहीं है। हमलोग
गाँव में रहकर जीतोड़ परिश्रम करते हैं और अपने लिए भोजन का इंतजाम करते हैं।’’
एक अन्य दृश्य में कुनाकाडु गाँव के रहने वाले टनकुरु मांझी के
संवाद हैं, ’’रेवेन्यू इंस्पेक्टर, पटवारी,
तहसीलदार कोई भी हमारे गाँव में नहीं आता। जंगल की भूमि को लेकर कभी
कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ.....।’’ कैमरा बार-बार आपको नियमगिरि
की पहाडियों और घाटियों में बसे विभिन्न गाँवों में ले जाता है........और इन
आदिवासियों के घर, वस्त्र और भोजन को देखकर आप आश्चर्यचकित
रह जाते हैं....... और अपने आप से सवाल पूछने को विवश, कि
क्या इन्हें घर कहा जा सकता है ? क्या ऐसे कपड़े होते हैं ?
क्या यही भोजन होता है ? एक जगह क्लोज शाट में
एक थाली में भात और प्याज का टुकड़ा दिखाया गया है। दृश्य में बार-बार उन्हें ऐसे
वस्त्रों में दिखाया गया है, कि वैसे कपड़े अगर हमारे पास
होते तो शायद हम उनसे घर में झाड़ने-पोंछने का काम ले रहे होते।
’नियमगिरि
वर्डिकट’ के विभिन्न दृश्यों में फि़ल्मकार का कैमरा आपको
सेरकापड़ी, केसरपड़ी, ताडिझोला,
कुनाकाडु, फुलडुमेर, इजुरुपा,
लाम्बा, लखपडार, खामबेसी
और जरपा गाँवों में ले जाता है। इन गाँवों को देखकर देश के विकास की हकीकत बयान हो
जाती है; किन्तु जब आप इस फि़ल्म के एक दृश्य में
डिस्क्लेम्र में अंकित शब्दों से गुजरते हैं, तब आपको झटका
लगता है; आप इस बात से रूबरू होते हैं कि भले ही इस फि़ल्म
में कुछ गाँवों को ही दिखलाया गया हो, किन्तु देश के विकास
की हकीकत बयान करने वाले नियमगिरि क्षेत्र में ऐसे दो चार नहीं, बल्कि 112 गाँव हैं, जिन्हें पिछड़ा कहना, पिछड़े शब्द की भी तौहीन करना है। और सारे गाँवों तक न पहुँचना फि़ल्कार
की कमजोरी नहीं, बल्कि इस बात का सुबूत है कि देश में अभी भी
बहुत सारे ऐसे अन्धेरे कोने हैं जहाँ विकास की कोई किरण आज तक नहीं पहुँची है;
और जो बार-बार हमसे सवाल करते हैं कि क्या आज हम इक्कीसवीं सदी में
जी रहे हैं ? क्या यही विकास है ?
लेकिन इनके घरों, वस्त्रों और भोजन को
देखकर अगर आप ये कल्पना कर रहे हैं कि ये बहुत दुखी होंगे, तो
एक बार फिर सावधान हो जाएं क्योंकि ये आपको एक बार फिर ग़लत करने वाले हैं। भले ही
आज़ादी के साठ दशक बीत जाने के बाद भी आज तक इनके पास कोई सरकारी अधिकारी या
कर्मचारी न आया हो, इन्हें आज तक किसी प्रकार की सरकारी
सहायता उपलब्ध न कराई गई हो; किन्तु तब भी इन्हें किसी
सरकारी मदद की दरकार नहीं है। ये किसी सरकारी सहायता की बाट नहीं जोहते हैं,
बल्कि जो भी चाहिए होता है नियमगिरि पहाडि़यों की गोद में बैठकर
हासिल कर लेते हैं। इनके पास प्रकृति के अनुपम उपहार हैं: बंशधारा और नागावली की
कल-कल करती जलधारा, नदियाँ, वृक्षों की
ऊँची डालियाँ, फलों से लदे पेड़, बांस
के झुरमुट, अनेक तरह की झाडि़याँ, पत्थरों
और चट्टानों के ढेर......। जब इन्हें भूख लगती है ये नियमगिरि की गोद में उपलब्ध
महुआ, कटहल, आम, जामुन,
बेर और अनेक तरह के कंदमूल से अपनी क्षुधा शान्त कर लेते हैं। खेतों
में अपनी ज़रूरत भर की सब्जियाँ, ज्वार-बाजरा और और चावल उगा
लेते हैं। प्यास लगने पर नदियों के जल से अपनी प्यास बुझा लेते हैं। बीमार पड़ने
पर यहाँ पाए जाने वाले अनगिनत प्राकृतिक औषधियों से अपना इलाज कर लेते हैं। ये
हजारों वर्षों से इन क्षेत्रों में रहते आए हैं। धूप लगने पर यहाँ के विशाल वृक्ष
इन्हें आसरा देते हैं, इनकी लकडि़यों से इन्हें ईंधन मिल
जाता है। और सबसे बड़ी बात जीवन की सारी सुविधाएं इन्हें प्रकृति की गोद में
निःशुल्क मिल जाती हैं। अभावों में रहकर खुशीपूर्वक जीवन जीना किसे कहते हैं,
अगर इस दर्शन को सीखना हो तो इनसे अच्छा शिक्षक कोई नहीं हो सकता।
इनके अपने गीत, संगीत, नृत्य हैं;
अभावों के बावजूद भी ये आदिवासी हमेशा नाचते-गाते, नृत्य करते सामूहिक उत्सव मनाते मिल जाएंगे। खुशी के समय और जब किसी का
विरोध करना हो, उस समय भी इनका गीत-संगीत ही इन्हें आगे
बढ़ने की प्रेरणा देता रहता है। और इनकी सांगठनिक एकता के तो क्या कहने; यहाँ पर विभिन्न गाँवों में बसने वाले आदिवासियों की अपनी धार्मिक
विशिष्टता रही है, किन्तु जब पर्यावरण के हित का सवाल उठता
है, तो ये सब अपना भेदभाव भूलकर एकसाथ खड़े हो जाते हैं।
ब्रिटेन की वेदान्त रिसोर्सेज नामक विदेशी कम्पनी ने भारत के भ्रष्ट नेताओं,
पुलिस-प्रशासन और अपने गुण्डों के साथ मिलकर बाक्साइट से भरेपूरे
नियमगिरि क्षेत्र को लूटने-खसोटने की नीति बना ली थी, किन्तु
इन आदिवासियों की सांगठनिक एकता का ही परिणाम है कि एक बड़ी पूँजी वाले विदेशी कम्पनी को अपने पांव पीछे खींचने पड़े।
नियमगिरि पहाडि़यों में बसने वाले आदिवासियों की अपने जल, जंगल,
ज़मीन की रक्षा के लिए ब्रिटेन की वेदान्त रिसोर्सेज कम्पनी से लड़ी
गई अहिंसात्मक लड़ाई की यही दास्तान ’नियमगिरि वर्डिकट’
फि़ल्म में प्रस्तुत की गई है।
उड़ीसा के रायगढ़ा और
कालाहांडी जिले के अन्तर्गत, हजारों वर्षों की सभ्यता संस्कृति वाले नियमगिरि के ये क्षेत्र, सरकारी उदासीनता के कारण वर्षों तक लोगों की नज़रों से ओझल ही रहें;
किन्तु पिछले कुछ वर्षों से ये उस समय लोगों की नज़रों में आएं,
जिस समय विदेशी पूँजी और बाज़ार ने यहाँ पर अपने पांव पसारने शुरू
किएं। ब्रिटेन की एक बड़ी कम्पनी वेदान्त रिसोर्सेज की भारतीय सहायक कम्पनी
वेदान्त एल्युमिनियम लिमिटेड ने लांजीगंज नामक गाँव में एक अरब डाॅलर की पूँजी
लगाकर एक बड़ा एल्युमिनियम शोधन संयंत्र लगा लिया।
नियमगिरि क्षेत्र
बाॅक्साइट से भरा हुआ है। उड़ीसा एक गरीब राज्य है, किन्तु खनिज सम्पदा के मामले में यह धनी है, यहाँ का बाॅक्साइट ऊँची गुणवत्ता वाला है, और इसके
शोधन में अपेक्षाकृत कम खर्च आता है। बाॅक्साइट से एल्युमिनियम तैयार होता है,
और इसका उपयोग चाॅकलेट और अन्य खाद्य पदार्थों को लपेटने में किया
जाता है। यह आॅटो उद्योग के लिए भी उपयोगी है। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते
हुए विदेशी कम्पनी ने अपना ध्यान इस क्षेत्र पर दिया और सबसे बड़ी बात भारत जैसा
बड़ा बाज़ार भी उपलब्ध है। यानी कम्पनी को हर तरह से फायदा ही फायदा।
संयंत्र बनाने के बाद
वेदान्त रिसोर्सेज़ की एक शाखा यहाँ पर खनन कर खनिज निकालना चाहती है, और इसके लिए इस कम्पनी को
उड़ीसा सरकार ने अनुमति भी दे दी। एक विदेशी कम्पनी को खनन की अनुमति देने के बाद,
जिस धरती पर आज तक कभी किसी सरकारी कर्मचारी और अधिकारी के पांव तक
न पड़े थे, वहाँ पर अचानक पुलिस-प्रशासन के कदमों की आहट बढ़
गई। वर्षों तक दृष्टिदोष की शिकार प्रशासन को अचानक ही यहाँ का पिछड़ापन नज़र आने
लगा। निजी कम्पनी के मुलाजिमों और सरकारी अधिकारियों कर्मचारियों ने यहाँ पर रहने
वाले आदिवासियों को विकास का सब्जबाग दिखाना शुरू कर दिया।
लेकिन नियमगिरि यहाँ
के आदिवासियों के लिए सिर्फ पहाड़ी भर नहीं है। यह उनके नियमराजा का मन्दिर है, उनके लिए एक पवित्र भूमि।
हजारों वर्षों से रहते आए उनके पूर्वजों की भूमि।
यहाँ की भूमि उनके लिए स्वर्ग के समान है। वे भला कैसे सरकार और कम्पनी के
झांसे में आते ? उन्होंने विदेशी कम्पनी और सरकार का लगातार
विरोध करना शुरू किया।
आदिवासियों के विरोध के
बाद पर्यावरण विशेषज्ञों और अन्य सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं का ध्यान इस
क्षेत्र पर गया। पर्यावरण के विशेषज्ञों के अनुसार नियमगिरि पर खनन का एक और मतलब
है, प्रकृति से छेड़छाड़। अगर
इन जगहों पर खुदाई की गई, तो इससे पर्यावरण को भारी नुकसान
होगा। इस क्षेत्र में उपलब्ध फल, फूल, विभिन्न
औषधियां और जल के स्त्रोत नष्ट हो जाएंगी। भारत के वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट की एक
रिपोर्ट के अनुसार अगर नियमगिरि में खुदाई की जाती है, तो
इससे प्राकृति को जो नुकसान होगा उसकी भरपाई कभी नहीं की जा सकेगी। नार्वे की
आधिकारिक नैतिकता काउंसिल ने इस क्षेत्र में जाँच किया और वेदान्त रिसोर्सेज़ के
कदम को मानव अधिकारों और पर्यावरण के लिए अहितकर करार दिया। नार्वे की सरकार ने
अपने यहाँ मौजूद वेदान्त रिसोर्सेज़़ के 140 लाख डाॅलर के सभी शेयर बेच डाले।
उच्चतम न्यायालय की एक समिति ने यहाँ पर जाँच करवाया, और इस
जाँच में यह बात खुलकर आई कि वेदान्त रिसोर्सेज़ ने शोधन संयंत्र लगाकर वन संरक्षण
कानून का उल्लंघन किया है। उच्चतम न्यायालय की समिति ने यह भी बताया कि जो लोग
अपनी ज़मीन छोड़ने को राजी नहीं हुए, उन्हें किराए के गुंडों
से डराया, धमकाया और पीटा गया था।
सर्वोच्च न्यायालय ने
एक दिशा-निर्देश जारी किया था, जिसके अनुसार कम्पनी को नियमगिरि के क्षेत्र में खनन कर बाॅक्साइट निकालने
की अनुमति तभी मिलेगी, जब यहाँ के 112 गाँवों के लोग तैयार
हो जाएं, इसके लिए उड़ीसा सरकार को निर्देश दिए गए कि वह सभी गाँवों में ग्राम सभा की बैठक आयोजित
करे और खनन के बारे में वहाँ के लोगों की राय मांगे। लेकिन उड़ीसा सरकार ने 112 की
जगह मात्र 12 गाँवों में ही ग्राम सभा आयोजित किया; और इन 12
गाँवों के लोगों में भेदभाव आयोजित करने की भी कोशिश की, किन्तु
सरकार को इन आदिवासियों की सांगठनिक एकता के सामने हार माननी पड़ी।
इन गाँवों में रहने वाले
आदिवासियों ने नियमगिरि के खनन का विरोध किया, वे भ्रष्ट सरकार और विदेशी कम्पनी के झांसे में नहीं
आएं। ’नियमगिरि वर्डिकट’ फि़ल्म में
विभिन्न ग्राम सभाओं में खनन के विरोध में दिए गए आदिवासियों के इन्हीं बयानों को
प्रदर्शित कर आदिवासियों द्वारा एक विदेशी कम्पनी से जल, जंगल,
ज़मीन के लिए लड़ी गई लड़ाई का दस्तावेजीकरण कर दिया गया है।
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परिचय और संपर्क ....
प्रमोद कुमार बर्णवाल
शैक्षणिक योग्यताः- बनारस हिन्दू
विश्वविद्यालय, वाराणसी
से एमए प्रयोजनमूलक हिन्दी (पत्रकारिता) में गोल्ड मेडल
प्रकाशनः-
1. कादम्बिनी, वागर्थ, परिकथा, युद्धरत आम आदमी, कथादेश
में कहानियां प्रकाशित।
2. कादम्बिनी, वागर्थ, परिकथा, प्रगतिशील वसुधा, शब्दयोग,
कथाक्रम में लेख प्रकाशित।
सम्प्रतिः- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पीएचडी।
सम्पर्कः- द्वारा- प्रो0 राजकुमार, न्यू एफ0-14, हैदराबाद कालोनी,
बीएचयू, वाराणसी, उत्तर
प्रदेश, पिन-221005, मो. -9451895477,
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