इस संस्मरण के बहाने ‘अशोक आज़मी’ अपने बचपन के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें किसी
भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली किश्त में उन्होंने 1984 के सिख-विरोधी दंगों के पागलपन को
याद किया था, जिसमें बहुसंख्यक समाज ‘विवेक-च्युत’ होता हुआ दिखाई देता है | इस
चौथी क़िस्त में वे किशोरावस्था के उन वर्जित प्रदेशों की यात्रा कर रहे हैं, जिसके
बारे हमारे समाज में कहने और सुनने की एक अघोषित सी मनाही रखी गयी है |
तो
आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग अशोक आज़मी के संस्मरण
“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की चौथी
क़िस्त
“मुंहासों ने बचाया मुझे”
तेरह चौदह की उम्र
बड़ी ग़ज़ब होती है. अब जो रासायनिक बदलाव आते हैं वो तो आते ही हैं लेकिन सबसे
जबरदस्त होता है बड़े हो जाने का एहसास. मेरे साथ यह अलग से रहा है कि मेरी हमेशा
अपनी उम्र से अधिक उम्र के लड़कों से दोस्तियाँ हुई हैं और खुद को अपनी उम्र से
अधिक महसूस करने की एक ख़ब्त रही है. तो तेरह चौदह का होते होते मेरी मोहल्ले के
तमाम दादा टाइप लोगों से दोस्ती हो चुकी थी. उस मोहल्ले का समाजशास्त्र भी थोड़ा
अलहदा था. कसया ढाला के उस पार की बसाहट को देवरिया में आधुनिक माना जाता था. और
हमारी ओर वाले को बैकवर्ड. पुराना मोहल्ला था गलियों और गंदगी से भरा पूरा. सबसे
बड़ी आबादी श्रीवास्तव लोगों की थी. इसके अलावा कथित छोटी जाति के लोग भी प्रचुर
मात्रा में थे. मोहल्ले के पीछे खाली मैदान थे जहाँ अब तमाम नए बने घरों में से एक
मेरा भी है. तब हम उसमें क्रिकेट खेला करते थे. श्रीवास्तव लोगों के साथ ख़ास बात
यह थी कि लगभग सब एक दूसरे के रिश्तेदार थे. जनसंख्या के मामले में भी तब ये
परिवार बड़े उत्पादक थे. हमारे मकान मालिक की चार लडकियाँ और दो लड़के थे. बाक़ी घरों
में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति थी. आम तौर पर लोग सरकारी नौकरियों में बाबूगिरी करते
थे. भ्रष्टाचार रोज़ सुनाये जाने वाली गर्वोक्ति थी. पापा इन सब को लेकर थोड़ा
सुप्रियारिटी काम्प्लेक्स में रहते थे. स्केल की भी और ईमानदारी की भी. उन्हें हम
भाइयों का मोहल्ले के आम लड़कों से मिलना जुलना पसंद नहीं था. भाई तो खैर कम से कम
छात्र जीवन तक उनका श्रवण कुमार ही रहा, लेकिन मैं हमेशा से सरदर्द रहा. क्रिकेट
का नशा बढ़ता जा रहा था और क्रिकेट के लिए संगत तो उन्हीं की मिलनी थी. सख्ती खूब
होती थी, पिटाई हफ्ते में एकाध बार तो हो ही जाती थी, कई बार तो फील्ड से ही पिटते
हुए आये लेकिन सुधरने वाले हम तब भी नहीं थे.
एक तरफ पापा के
कालेज के शिक्षकों की सोसायटी थी, जिसे आप शहर का अपक्लास कह सकते हैं. उन दिनों
एक दूसरे के घर जाना, मिलना जुलना लगभग नियमित सी चीज़ थी तो पापा के ग्रुप के तमाम
लोगों के बच्चे हमारे अच्छे दोस्त थे. मजेदार बात यह कि इनमें लडकियाँ ज्यादा थीं.
कई कान्वेंट में पढ़ती थीं. अंग्रेजी बोलती थीं, तो पापा की जो रोज़ की इंग्लिश
स्पीकिंग क्लास थी उसके भरोसे मुझे वहां भी बहुत बेईज्जत नहीं होना पड़ता था. दूसरी
तरफ मोहल्ले का गैंग था. शुद्ध भोजपुरी बोलने वाला. वहाँ मैं सहज भी था और उसके
लिए पापा की किसी ट्रेनिंग की ज़रुरत भी नहीं थी. इस तरह कुल मिला जुला के दिन
अच्छे गुज़र रहे थे.
इस बीच वह हुआ जिसने
मेरे पूरे किशोर जीवन पर एक काली छाया सी डाल दी. इस उम्र तक फ़िल्मी जानकारी के
अलावा सेक्स के किसी ज्ञान से मैं अनभिज्ञ था. उम्र के साथ जो एक अतिरिक्त आकर्षण
होता है, उसके अलावा कल्पनाओं में भी अभी किसी दैहिक फंतासी का कोई प्रवेश नहीं
हुआ था. वह जाड़े का कोई दिन था, छुट्टी का दिन. हम हमेशा की तरह पीछे स्कूल के
मैदान में क्रिकेट खेल कर वापस लौटने से पहले बैठ कर गप्पें मार रहे थे. आमोद और
दीपू भैया अचानक उठ के दूसरी तरफ चले गए. एक दो और लड़के थे जो देख देख के मुस्कुरा
रहे थे. मेरी समझ में कुछ नहीं आया तो मैंने पूछा. उन्होंने आपस में कुछ इशारा
किया और मुझे साथ आने को कहा. हम पीछे प्रमोद चाचा की फैक्ट्री की तरफ गए तो
उन्होंने मुंह पर उंगली रख के चुप होने का इशारा किया. एक कोने में कटरेन का पर्दा
डाल कर पेशाब वगैरह के लिए आड़ कर दी गयी थी. उसी की एक दरार से उन्होंने भीतर
देखने का इशारा किया. मैंने देखा कि दीवार पर दोनों हाथ रखके आमोद टिका हुआ है और
उसके पीछे दीपू भैया ने उसे कंधे से पकड़ा हुआ है और धीमे धीमे हिल रहे हैं. दोनों
की पैंट्स घुटने के नीचे सरकी हुईं थीं. एक पल मेरी समझ में कुछ नहीं आया. मैं
वहां से निकला और तेज़ी से घर की तरफ भागा. पहले छत पर एक कोने में बने स्टोर में
दीपू भैया को अलग अलग लड़कों के साथ जाते, और हमारी नज़र पड़ने पर हमें डांट के भगाते
कई बार देखा था. तब कुछ समझ में नहीं आया था. इस घटना के बाद न जाने क्या हुआ कि
दीपू भैया से डर और बढ़ गया. मैं उनसे भागा भागा रहने लगा. वह होते तो मैदान तक
जाके भी क्रिकेट नहीं खेलता. छत पर वह पतंग उड़ा रहे होते तो मैं नीचे उतर आता.
दीपू भैया का घर
हमारे ठीक नीचे था. आँगन के बाद लोहे का एक जाल लगा था जिसके नीचे उनका आँगन था.
मकान मालिक के रिश्तेदार थे वे लोग तो किराया नहीं लगता था. उनके पापा शायद सिंचाई
विभाग में बाबू थे. दो बहने और तीन भाई. सबसे बड़े दीपू तब बारहवीं में थे और सबसे
छोटा शोभित जो तब अभी जन्मा भी नहीं था. उनके पापा रोज़ शराब पी के आते और अक्सर
दीपू भैया पिटते थे. नशे में अगर पापा से टकरा गए तो एक ही लाइन दुहराते, “प्रणाम
गुरु जी. आपके त बतिये निराला बा. देखेलीं आपके लइकन के त जिऊ जुरा जाला. हमरो
दुइये ठो होतं स त देखा देतीं दुनिया के” और पापा किसी तरह पिंड छुडा के निकल पड़ते.
बड़ी दीदी दीपू भैया से एक साल छोटी थीं और उसके बाद बुच्चन दीदी मुझसे एक साल बड़ी.
दोनों बहनें मुझे राखी बाँधती थीं. जब तक देवरिया आना जाना रहा यह रिश्ता बना रहा.
मैं गोरखपुर से लौटता और मिलने जाता तो अन्दर बच्चन दीदी के कमरे में हम घंटों
गप्पें मारते. वह पूछतीं, “कोई गर्लफ्रेंड बनी कि वहां भी दीदी ही बना रहे हो
सबको” और ठहाका लगा कर हंस पड़तीं. मैं पूछता, “आपको मिला कोई?” तो कहतीं, “अपनी
किस्मत में को लाला ही आयेगा. किसी सरकारी विभाग का बाबू.” दीपू भैया पढाई वगैरह
में तो फिसड्डी थे लेकिन बाक़ी सर्वगुण संपन्न. मकान में किसी की लाईट खराब हो जाए,
किसी का नल खराब हो जाए, किसी के यहाँ कोई फंक्शन हो, दुर्गापूजा हो, जन्माष्टमी
हो, दीपू हैं तो कोई टेंशन नहीं. बाद में उन लोगों ने मकान बनवा लिया मोहल्ले के
पीछे के मैदान के ही एक टुकड़े में. अंकल का पीना बदस्तूर ज़ारी रहा. जाड़े की एक रात
देर से पीकर लौटे तो किसी ने दरवाज़ा ही नहीं खोला. वह गालियाँ देते, दरवाज़ा पीटते
थक गए तो बरामदे में ही सो गए. घरवाले सबक सिखाना चाहते थे. शायद वह सीख भी गए.
लेकिन उस सबक का कोई असर लेने की हालत में नहीं रहे. सुबह चाची ने दरवाज़ा खोला तो
वह वैसे ही पड़े थे...बस अब साँस भी नहीं चल रही थी. दीपू भैया इन दिनों अनुकम्पा
नियुक्ति में मिली उसी नौकरी में हैं और खूब पैसा पीट रहे हैं.
खैर, सेक्स से वह
मेरा परिचय जिस तरह हुआ था वैसे ही और घनिष्ठ होता गया. पूरा मोहल्ला जैसे सेक्स
से बजबजा रहा था. समलैंगिक सम्बन्ध तो इतने कामन थे कि एक बार समझ के आने के बाद
वह चारों तरफ नंगे दिखाई देते थे. हालत यह कि खुद दीपू भैया नहीं जानते थे कि उनके
शिकारों का सबसे बड़ा शिकार उनका अपना छोटा भाई है. एक बार खुल जाने के बाद उन
लड़कों ने मुझसे ये बातें करनी शुरू कर दीं. किसका किससे क्या चल रहा है, यह जानने
की रूचि उस उम्र में सारे आदर्शों पर भारी पड़ती थी. फिर प्लास्टिक की पन्नी में
पैक वे रद्दी काग़ज़ पर छपीं किताबें. एक तरफ पापा और नाना के आदर्श थे, गीता प्रेस
की किताबें थीं तो दूसरी तरफ मस्तराम की किताबें और मोहल्ले के कोनों अतरों में
फैले ये किस्से. पापा का डर और माँ की सख्त निगरानी थी कि लम्बे समय तक इनका
हिस्सा बनने से बचा रहा. लेकिन वर्जित फल खाने की वह इच्छा कब तक रोकता? समलैंगिक
संबंधों से मुझे घिन आती थी, तो दोस्तों ने दूसरा इंतजाम किया. वह लड़की हमारी गली
के अंतिम छोर पर रहती थी. वैसे तो हिंदी का लेखक होने से यह सुविधा है कि लगभग तय
है कि यह संस्मरण उसके पास तक नहीं पहुंचेगा, फिर भी उसका नाम नहीं ले रहा. स्कूल
में ही उसे बुलाया गया था. एक ठेले के अन्दर वह इंतज़ार कर रही थी. मैं कांपते
पैरों से पहुँचा. बाक़ी दोनों दोस्त वहीँ खड़े हो गए और मुझे अन्दर जाने के लिए कहा.
जब मैं अन्दर गया तो उसने मुझे एक निगाह देखा और फिर बाहर निकल आई. उन लड़कों से
कुछ कहा और चली गयी. मैं हतप्रभ. निकल कर उनके पास गया तो उनमें से एक ने कहा, “
अबे तोरी चेहरा पे ई मुंहासा बा न. कहतिया छुअले से ओहू के हो जाई. एहिसे भाग गईल
ह.”
मैं घर लौट आया.
सीधे शीशे के सामने जाकर खड़ा हुआ. दोनों गालों पर उगे मुंहासों को गौर से देखा.
काले चेहरे पर गंदे मुंहासे. मैं फोड़ दिया करता था तो तमाम निशानात बन गए थे. अपना
चेहरा इतना बदसूरत कभी नहीं लगा था. एक आलमारी में माँ का फेस पाउडर रखा था. उसे
अब रोज़ चोरी चोरी लगाने लगा. पापा जो साफी लाये थे उसे बिला नागा दिन में दो बार
दो चम्मच पीने लगा. जो आता चार सलाहें दे जाता. मेरा चेहरा देशी दवाइयों की
प्रयोगशाला बन गया. लेकिन मुंहासे न खत्म होने थे, न हुए.
एक अजीब सी हीन
भावना भरती चली गयी. जिन लड़कियों से साथ बचपन से खेला था उनके सामने पड़ने से
कतराने लगा. मिलना ही पड़े तो नज़रें चुराता. वे किसी बात पर हंस पड़तीं तो लगता मुझ
पर ही हंस रही हैं. पढ़ाई का बहाना करके शादियों, पार्टियों में जाने से बचता. अजीब
अजीब से सपने आते. एक सपना तो बरसों आता रहा. मेरी शादी हो रही है. पंडित जी
मंत्रोच्चार करा रहे हैं, अचानक लड़की उठ कर खड़ी हो जाती है और कहती है “इसके चेहरे
पर मुँहासे हैं, मैं नहीं करुँगी इससे शादी.
इंटर में पढता था तो
हिंदी पढ़ने मिसेज शुक्ला आंटी के यहाँ जाता. उनके पति पापा के दोस्त रहे थे और
उनकी अकाल मृत्यु के बाद आंटी की उन्हीं की जगह नियुक्ति हुई थी. मिसेज शुक्ला
आंटी जैसी जीवट वाली और मृदुभाषी महिला मैंने आज तक के जीवन में नहीं देखी. मेरी
पहली कविता पापा ने आंटी को ही दिखाई थी और उन्होंने कहा था, “इसे रोकियेगा मत.
इसमें कवि होने की क्षमता है.” अभी हाल में कहीं मेरी कविता पढ़ के उन्होंने फोन
किया और खूब आशीर्वाद दिया. वैधव्य के पहाड़ से दुःख और उस छोटे से क़स्बे के तमाम
अनर्गल लांछनों के बीच उन्होंने पम्मी दीदी और मिनी को जिस तरह की परवरिश दी वह
अद्भुत थी. मिनी एकदम मेरी उम्र की थी. पहले किसी संदर्भ में जिस दिवा का नाम लिया
है वह यही मिनी थी. पहले आंटी हनुमान मंदिर के बगल वाली गली में एक मकान के पहले
तल्ले पर रहतीं थीं. बाद में देवरिया ख़ास में उन्होंने मकान बनवा लिया. हम अक्सर उनके घर जाते और हम तीनों लूडो,
व्यापार वगैरह खेलते थे. लेकिन अब हालत यह थी कि मिनी मुझसे सहजता से हाल चाल
पूछती, पढ़ाई की बात करती और मेरे मुंह से हाँ-ना कुछ नहीं निकलता. वह झुंझला जाती
या कभी कभी हंस पड़ती और मैं पढ़ाई ख़त्म करते ही इतनी तेज़ भागता कि एक बार आंटी ने
पापा से कहा कि “बहुत तेज़ साइकल चलाता है सोनू.”
यह हीनभावना वर्षों मेरे भीतर भरी रही. कालेज आने के बाद भी और एक हद
तक अब भी. लेकिन उस रोज़ तो मुंहासों ने ही मुझे बचाया. उस घटना के बाद मैंने उन
दोस्तों और उन बातों से खुद को पूरी तरह काट लिया. इसकी एक दूसरी वजह थी नाना के
यहाँ आने वाली पत्रिकाएँ. धर्मयुग और सारिका से वह मेरा पहला परिचय था. समझ में
कितना आता था यह पता नहीं लेकिन हर रविवार को वहाँ जाने पर इन पत्रिकाओं में डूब
जाता. राजनीतिक पत्रिकाएं भी उनके पास खूब होती थीं. रेलवे लाइब्रेरी से वह
साहित्यिक किताबें भी ले आते. मैं उन्हें चाट जाता. उन दिनों पढ़ी एक किताब अब तक
याद है, मास्ति वेंकटेश आयंगर का उपन्यास चिक्क्ववीर राजेन्द्र. सच कहूं तो नाना
की किताबों की वह छोटी सी आलमारी और शुक्ला आंटी का पढ़ाना ही मुझे साहित्य और
राजनीति की दुनिया में ले आया. कवितायें पहले भी लिखता था अब खूब लिखने लगा. कई कई
डायरियां भर गयीं. पापा कभी रोकते नहीं थे. यह सब बारहवीं के उस रोज़ तक चला जिस
रोज़ कालेज की प्रार्थना के बीच जाकर मैंने और मेरे कुछ दोस्तों ने स्कूल बंद करवा
दिया. वह किस्सा आगे. अभी उसी दौर के एक गीत से बात ख़त्म करता हूँ, बहुत सारी
दूसरी चीजों की तरह इस गीत का भी एक बंद भूल गया है.
वेदना की आरती से
प्रिय तुम्हारी वंदना है
टूटी बिखरी ज़िन्दगी की
अश्रु ही अभिव्यंजना हैं
नेह का पावस नहीं है
शत शरद के गीत झूठे
देख ना प्रिय वेश बदले
ग्रीष्म ही सावन बना है
वेदना की आरती से...
चाहता था पुष्प के
कुछ माल गूथूं पर प्रिये
कंटकों के इस नगर में
पुष्प तो बस कल्पना हैं
वेदना की आरती से ...
....................जारी है .....
परिचय और संपर्क
अशोक आज़मी ....
(अशोक कुमार पाण्डेय)
वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी
sahi jaa raha hai guru
जवाब देंहटाएंधमाकेदार । दूर तक आवाज़ जाएगी ।
जवाब देंहटाएंमेरा शुक्रिया रामजी तिवारी जी को। पहले विमल और अब अशोक जी को पढ़वाने के लिए। अशोक जी पूरा करिएगा बीच मझदार मत छोड़िएगा।
जवाब देंहटाएंसाधारणीकरण की गजब क्षमता है इसमें।
जवाब देंहटाएंअपने भी दिन याद आ गए पुराने।
सादर,
प्रांजल धर
किस सच को कितना कहना चाहिए , ये सीखा जा सकता है आपका लिखा पढकर ! सच्ची लेकिन संतुलित ! वर्ना संस्मरण के नाम पर होने वाले विस्फोट चौकाते तो हैं ही , कान में दर्द भी पैदा कर देते हैं !
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा.आप गद्य भी बहुत अच्छा िलखतें हैं.
जवाब देंहटाएंआपको पढ़ कर बहुत कुछ सीख रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया जा रहे हो अशोक
जवाब देंहटाएंभूलें अपनी या औरो की प्रवंचंनाए दिखलाऊँ तुम्हें .
जवाब देंहटाएं