इस संस्मरण के बहाने ‘अशोक आज़मी’ अपने बचपन के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें किसी
भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली किश्त में उन्होंने किशोरावस्था
के उन वर्जित प्रदेशों की यात्रा की थी, जिसके बारे में हमारा समाज न तो कुछ कहना
चाहता है और न ही सुनना | इस पांचवी क़िस्त में वे मंडल आन्दोलन के बहाने उस पूरे
दौर की मानसिकता को समझने की कोशिश कर रहे हैं |
तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मी के संस्मरण
“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की पांचवी
क़िस्त
“जब नौकरी मिलनी ही नहीं है तो पढ़ के क्या फ़ायदा”
शिशु मंदिर में एक
दैनन्दिनी दी जाती थी. इस डायरी के पहले पन्ने पर नाम वगैरह के साथ एक सवाल था
“बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं’ मैंने लिखा था “एम एल ए, एम पी फिर
प्रधानमन्त्री!” यह पांचवी क्लास का हाल था!
राजनीति में मेरी
रूचि जाने क्यों आम लड़कों की तुलना में शुरू से कहीं अधिक थी. राजीव गांधी जब
देवरिया आये थे तो पापा बीमार थे. माँ ने दवाई लाने भेजा था और हम साइकिल लिए लिए
उनका भाषण सुनने चले गए. उनका वह कांख के नीचे से निकाल कर शाल ओढ़ने वाला स्टाइल
इतना भाया कि मम्मी की एक क्रीम शाल उसी स्टाइल में ओढ़ कर कहीं निकल जाता था. एक
बार अटल बिहारी बाजपेयी रामलीला मैदान में आये तो वहाँ पहुँच गया और उनकी पाज देकर
बोलने वाली स्टाइल अपनाने की कई असफल कोशिशें कीं. हमारे मकान मालिक रिटायरमेंट के
बाद नगरपालिका सदस्य का चुनाव लडे तो रिक्शे पर बैठकर माइक लेकर प्रचार करने निकल
जाता “आदरणीय भाइयों और बहनों, नगरपालिका परिषद् देवरिया के वार्ड 17 के सदस्य पद
प्रत्याशी श्री पारस नाथ श्रीवास्तव को मछली पर मुहर लगा के विजयी बनाएं. याद रहे
भाइयों और बहनों..मछली. मछली.मछली. आप सबका चुनाव निशान मछली.
अख़बारों में
राजनीतिक ख़बरें भी बहुत गौर से पढता था. तब हमारे यहाँ जनसत्ता और आज आते थे. इसके
कारण शायद उस दौर के राजनीतिक हालात में रहे होंगे. राजीव गांधी का इंदिरा जी की
मृत्यु के बाद एक स्वप्नदर्शी युवा के रूप में उभरना, संचार क्रान्ति का आरम्भ
वगैरह जो एक उत्साह लेकर आया था उसके तुरंत बाद बोफर्स का मामला क्या उठा, एक
तूफ़ान खड़ा हो गया. वी पी सिंह अचानक देश में
मसीहा की तरह स्थापित हो गए. हम पगला गए थे उस दौर में. अभी पहले रोएँ चेहरे पर
आना शुरू हुए थे लेकिन जहाँ कहीं सभा होती पहुँच जाते. उनका आफसेट पर छपा एक
पोस्टर अपने घर के बाहर वाले खम्भे पर चिपका दिया. पापा वी पी सिंह को पसंद करते
थे लेकिन मेरी इस दीवानगी से चिंतित भी रहते थे. तो पढ़ाई पर जोर बढ़ा दिया गया.
सुबह पांच बजे उठा के कुर्सी पर बैठा देते थे, एक कप चाय खुद बना के देते थे और
फिर स्कूल से आने के बाद चार से पांच घंटे रोज़. घर से निकलना मुश्किल हो गया था.
लेकिन उस दिन तो हमारा मसीहा शहर में आने वाला था.
उनकी मीटिंग शाम छः
बजे से थी. मैं कालेज से घर गया ही नहीं. प्रशासन ने सख्ती बढ़ा दी थी. रामलीला
मैदान में होने वाली सभा कैंसिल कर दी गयी और
आखिरी समय पर हमारे राजकीय इंटर कालेज का मैदान दिया गया. नारा लगा “
बोफर्स के दलाल मुर्दाबाद”, “तानाशाही नहीं चलेगी”, “राजा नहीं फ़क़ीर है, भारत की
तक़दीर है” और इन नारों के साथ हम राजकीय इंटर कालेज के मैदान में पहुँचे. कोई पांच
सौ लोगों की भीड़ थी तब तक. कुछ लोगों को रिक्शे पर लगे माइकों के साथ जगह बदलने की
सूचना के साथ शहर की गलियों और मुहल्लों में भेजा गया. बाक़ी लोग व्यवस्था में लगे.
सबसे बड़ी समस्या थी मंच की. कालेज का मैदान खेल का मैदान था. वहाँ कोई राजनीतिक
सभा होती ही नहीं थी तो कोई स्थाई मंच था नहीं. जितनी भीड़ की उम्मीद थी उनके बीच
जीप वगैरह पर खड़े होकर बोलने से काम चलने वाला नहीं था. इसी बीच सलाह आई कि ट्राली
जोड़ के मंच बन सकता है. आनन फानन में दो ट्रैक्टर ट्राली मंगवाए गए. लेकिन पुलिस
ने कालेज गेट पर उन्हें रुकवा दिया. बड़ी हुज्जत की नेता लोगों ने. लेकिन पुलिस
वाले टस से मस न हुए. बोले “ट्राली ले जाओ लेकिन ट्रैक्टर नहीं ले जाने देंगे.” अब
बिना ट्रैक्टर ट्राली कैसे टस से मस हो. किसी ने उत्साह में नारा लगाया, खींच के
ले चलो. नेताजी लोग सहम गए. सफ़ेद झकाझक कुर्ता पैजामा में ट्राली कैसे खिंचाती.
चार पांच युवा आगे बढ़े..पीछे से मैं और मेरे जैसे कुछ और विद्यार्थी और देखते
देखते दो ट्रालियां जोड़ के मंच बना. गद्दे बिछा दिए गए. शाम के छः बजे...फिर
सात...आठ...वी पी सिंह नौ बजे आये महिन्द्रा जीप से. कालेज का छोटा सा मैदान
पेट्रोमेक्स की रौशनी में लोगों से ठसाठस भरा था. वी पी सिंह की एक झलक पाने के
लिए लोग बेक़रार थे. हम मंच सजाने के बाद वहीँ रह गए थे...कब धक्के लगे और कब मंच
नेताओं से भर गया पता ही नहीं चला. हम नीचे खड़े थे. वी पी सिंह बगल से गुज़रे.
मैंने नमस्कार किया तो लगा उन्होंने जो हाथ जोड़ा था वह मेरे ही जवाब में था. नारे
और बुलंद हो गए. जहाँ वह खड़े थे वहां से उनकी छाया मुझ पर पड रही थी. दुबला पतला
शरीर और मुचमुचाया कुर्ता पैजामा. गले में गमछा. पूरबिहा लोच वाली सधी आवाज़. लगा
जैसे अपने ही कोई चाचा-मामा बोल रहे हैं. मंत्रमुग्ध सुनता रहा. बीच बीच में नारे.
ग्यारह बजे घर लौटा तो पता ही नहीं चला पापा ने कितना डांटा...उनके थप्पड़ों में
जैसे उस दिन कोई जान ही नहीं थी.
उस बार जनमोर्चा या
(जनता दल ?) से चुनाव एक ठाकुर साहब लड़ रहे थे. नाम अब याद नहीं. भीखमपुर रोड पर
उनका दो मंज़िला मकान था साधारण सा. मैं वहां नियमित जाने लगा. शाम को मीटिंग होती
थी और उसमें गाँव गाँव के वोट का हिसाब लगाया जाता था. एक दिन मैं बैठा था और मेरे
ननिहाल पीपरपांती की चर्चा चल निकली. वे मेरे उस गाँव से रिश्ते को नहीं जानते थे.
किसी ने कहा “ऊ त बभनन क गाँव ह. अहिरन क वोट मिल जाई. चमटोली त कांग्रेस के देई
और पंडिज्जी लोग भी कांग्रेसे के वोट दिहें.” ठाकुर साहब बोले “देख शारदा मिसिर क
वोट त समाजवादे के जाई. अ ऊ चमटोलियों से दिअइहें.” मेरा सीना गर्व से फूल गया.
शारदा मिश्र मेरे नाना थे!
उस चुनाव में सुबह
से हम सब सक्रिय थे. घर घर जाके पर्ची बाँट रहे थे. सुभाष विद्यालय में बूथ था.
वहीँ चौकी पर जमे हुए थे. कोई तीन बजे एक जीप आई. हम चार पांच लोगों की ओर इशारा
कर किसी ने कहा, “चल लोगिन” मैंने पूछा, “कंहवा.” “चल पहिले. “रस्ता में बतावल
जाई.” हम लद गए. जीप देवरिया से दो एक किलोमीटर दूर किसी गाँव में रुकी. हमें सीधे
बूथ के भीतर ले जाया गया. उंगली में स्याही लगी और वी पी सिंह की पार्टी को पांच
वोट मिल चुके थे!
वी पी सिंह आये और उनके
पीछे पीछे आया मंडल कमीशन. हम सब जो उनके भक्त थे रातोंरात उनके विरोधी बन गए. घर
में, मोहल्ले में, कालेज में हर जगह उन्हें गालियाँ दी जाती थीं. स्थानीय अखबार
मंडल कमीशन के खिलाफ उठ रहे आन्दोलनों के विस्तृत समाचारों से भर गए. एक गुस्सा हम
सब के भीतर कसमसा रहा था. एक शाम यों ही बैठा था तो मम्मी बोलीं, “पढ़ क्यों नहीं
रहे?” मैंने कहा “जब नौकरी मिलनी ही नहीं है तो पढ़ के क्या फ़ायदा!” पापा हमसे तो
नहीं लेकिन घर आने जाने वाले चाचा लोगों से ऊंची आवाज़ में मंडल कमीशन की लानत
मलामत करते. दलितों का आरक्षण पचा पाना पहले ही सवर्ण कही जाने वाली जातियों के
लिए मुश्किल था. अब पिछड़े भी! कालेज के इंटरवल में अब क्रिकेट की जगह मंडल की
बातें होने लगीं. एक दिन यह तय किया गया कि कल से आन्दोलन शुरू करना है.
अगले दिन भी रोज़ की
तरह सुबह प्रार्थना के लिए सभा लगी. प्रार्थना अभी ख़त्म भी न हुई थी कि मैं भाग के
स्टेज पर पहुँचा. आवाज़ तब भी इतनी भारी थी कि माइक की ज़रुरत नहीं थी. भाषण देना
शुरू किया. प्रिंसिपल साहब सहित सारे शिक्षक भौंचक्के! उन दिनों इलीट माने जाने
वाले जी आई सी के इतिहास में ऐसी पहली घटना थी यह. होरा सर तो सीधे अंकल ही थे. पर
उस दिन न किसी का डर लगा न कोई हिचक. भाषण ख़त्म होते होते अपील की गयी स्कूल के
बहिष्कार की और किसी ने छुट्टी की घंटी बजा दी. सारे छात्र सड़क पर निकल आये. नारे
गढ़ लिए गए. “मंडल आयोग मुर्दाबाद”, “बर्बादी का दूसरा नाम – राम विलास पासवान”,
“राजा नहीं रंक है, देश का कलंक है”...जुलूस महाराजा अग्रसेन इंटर कालेज पहुँचा.
छुट्टी की घंटी बजा दी गयी. सारा कालेज मैदान में और एक ऊंची जगह खड़े होकर मेरा
भाषण. फिर यही कहानी बी आर डी इंटर कालेज में. फिर एस एस बी एल इंटर कालेज. रास्ते
में कस्तूरबा गर्ल्स इंटर कालेज था पर उसके पास जाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई.
कोई ढाई हज़ार छात्र! सड़क पर चक्का जाम का वह किस्सा होरा अंकल आज भी सुनाते हैं.
सड़क पर लेटे हुए हम लोग. चीखते हुए “हमारी लाश से लेकर जाओ गाड़ी”...सारा जुलूस
पहुँचा जिलाधीश कार्यालय और सभा में तब्दील हो गया. तभी अचानक शहर के डिग्री कालेज
के नेता लोग आ गए. मंच पर चढ़ गए. मुझे मदन शाही और शिवानन्द शाही के नाम याद हैं.
और लोग भी थे. ये सब वी पी सिंह के समर्थक रहे थे कभी. लड़कों ने नारा लगाया, “नेता
नूती नीचे उतरो”, “हमारा नेता अशोक पांडे” वे बडबडाते हुए नीचे उतर आये. मैंने कोई
आधे घंटे भाषण दिया. नीचे उतरा तो कुछ दोस्त चाय और समोसे लेकर खड़े थे...कई
अखबारों के फोटोग्राफर और पत्रकार बात करने के लिए इतेज़ार कर रहे थे. अगली सुबह
मैं छात्रनेता अशोक कुमार पाण्डेय में तब्दील हो चुका था...आश्चर्य इन सबके बीच न
पापा की कोई डांट थी न मार.
आन्दोलन एक बार शुरू
हुआ तो बढ़ता गया. मंडल आयोग विरोधी छात्र
मोर्चा बना. मुझे उसका संयोजक बनाया गया. कोई विनीत त्रिपाठी बनारस से संयोजित
करने आये थे. राघवनगर के एक घर में मीटिंग होती थी. रोज़ बयान ज़ारी होते. तय किया गया
कि डी एम के बंगले के सामने क्रमिक अनशन हो. पंडाल बन गया. माइक वगैरह की सारी
व्यवस्था हो गयी. रोज़ दो लोग सुबह से शाम तक अनशन करते फिर शहर का कोई गणमान्य
व्यक्ति जूस पिलाकर अनशन तुड़वाता. पहले दिन मैं बैठा. मेरी ज़िद आमरण अनशन की थी
लेकिन सबने मना कर दिया. इस बीच एक दिन तय हुआ कि सांसद मोहन सिंह को घेरा जाय.
चार मोटरसाइकिलों से हमलोग उनके घर पहुँचे. मैं मदन शाही के पीछे बैठा था. ज्योंही
हम उनसे बात करना शुरू किये उन्हें किसी बात पर गुस्सा आ गया. किसी ने शायद उनके
ठाकुर होके नानजात के लोगों की तरफदारी पर छींटाकशी की थी. वे चिल्लाए, “छात्र बनते
हैं ससुरे. अंग्रेजी आती है?” मुझे जाने क्या सूझा, बोला “कौन सी सुनेंगे? लालू
वाली कि मुलायम वाली.” मेरा यह कहना था कि उनका पारा सातवे आसमान पर, “मारो सालों
को” की आवाज़ गूंजी और वर्दीधारी लाठियाँ हमारे पीछे. मदन शाही ने तेज़ी से गाड़ी
भगाई तो एक सिपाही ने डंडा चला के मारा. पीठ का वह हिस्सा अब भी कभी कभी दुखता है.
अभी हाल में जब मोहन सिंह जी की मृत्यु हुई तो मुझे वह घटना याद आई.
क्रमिक अनशन का कोई
असर नहीं हो रहा था. हम कुछ ऐसा करना चाहते थे कि हंगामा हो. आत्मदाहों का दौर
शुरू हो चुका था. लेकिन हम इसके एकदम खिलाफ थे. आखिर खुद मरने से क्या होगा मारना
है तो उन सबों को मारो जो हमारी ज़िन्दगी चौपट कर रहे हैं. एक दिन मैं, आशुतोष,
मनीष पाण्डेय और शायद रीतेश सिंह साथ बैठे थे. योजना बनी कि मनीष के घर के सामने
जो गोदाम है उसमें आग लगा दी जाय. वह ऍफ़ सी आई का गोदाम था. रात का कोई समय तय
किया गया. हम एक लीटर के करीब डीजल लेकर पहुंचे. वहां समझ आया कि इतने तेल से तो
एक बोरी अनाज फूंकना मुश्किल था. फिर भी तर्क आया कि ज़रा सी आग लग गयी और अनाज तक
पहुँच गयी तो बाक़ी अपने आप हो जाएगा. तो दीवार के एक कमज़ोर लग रहे हिस्से पर डीजल
डाला गया. माचिस रगड़ी गयी. पर माचिस जले ही नहीं. एक एक करके तमाम तीलियाँ ख़त्म हो
गयीं. धमाके की हमारी योजना धरी की धरी रह गयी. रीतेश इन दिनों लन्दन में डाक्टर
है. आशुतोष शायद कृषि वैज्ञानिक. मनीष इंजीनियर बनने दक्षिण के किसी कालेज में गया
था. वहीँ उसे नशे की लत लग गयी. मैं तो बीच के दिनों में शहर से एकदम ग़ायब ही रहा
लेकिन उसके घर के पास रहने वाले एक दोस्त ने पिछले दिनों लखनऊ में बताया कि उसके
नशे की लत इतनी भयानक हो गयी थी कि लाखों का क़र्ज़ हो गया था. एक दिन उसकी लाश उसके
घर में ही पंखे से लटकती मिली. उसकी मम्मी मारवाड़ी इंटर कालेज में हिंदी की शिक्षक
के रूप में बहुत प्रसिद्द थीं. पापा प्रदेश के जाने माने शिक्षक नेता थे. भैया
देवरिया से रुड़की इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश पाने वाले पहले छात्र. मनीष शुरू
से अलमस्त तबियत का था. नशे ने ख़त्म न किया होता तो आज वह हमारे बीच होता.
खैर, इस योजना की
समाप्ति के बाद बनी गिरफ्तारी देने की योजना. रोज़ कुछ लोग गिरफ्तारी दे रहे थे.
जिस दिन मेरा नंबर था मेरे साथ कालेज के कुछ और मित्रों को गिरफ्तारी देना था. उस
दिन ननिहाल में कोई फंक्शन या पूजा थी. रात भर वहीँ रहा था. नानी को छेड़ता रहा, “ए
नानी हम जेल चलि जाईं त तू रोअबू?” नानी कहतीं, “अब बुढौती में इहे कुल दिन देखाव
तू. ” सुबह सीधे वहां से तय जगह पहुँचा. जुलूस निकला. गिरफ्तारी की जगह तक पहुँचते
पहुँचते दसेक लोग रह गए. गिरफ्तारी के पहले दरोगा ने कहा कि “अच्छे खासे पढ़े लिखे
शरीफ घर के लड़के लग रहे हो तुम लोग. क्यों जेल जाना चाह रहे हो. घर जाओ.” “संख्या
तीन रह गयी” जेल के दरवाजे पर फिर उसने जब यही दोहराया तो एक और मित्र शहीद हुए.
अंत में मैं और एस एस बी एल का एक छात्र जेल के भीतर पहुँचे.
भीतर पार्टी का
माहौल था. जलेबी, समोसे, कचौरी चल रहे थे...पर मेरा मन तो अटका था कि पापा को पता
चलेगा तो क्या होगा?
....................जारी
है .....
परिचय और संपर्क
अशोक आज़मी ....
(अशोक कुमार पाण्डेय)
वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी
Bahuuuteeee netagiri kaiiiile baaaniii rauuuuooooo ashok babu. Iiii neta se kalam ghisssu kaise ban gaiiili
जवाब देंहटाएंआपने वो दौर ताज़ा कर दिया । शैली मँज रही है ।
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक है अशोक जी शब्द चित्र ऐसे खींचे जाते हैं .
जवाब देंहटाएंअब लय बंधी, प्रवाह मे बात आनी शुरू हुई। अब लग रहा है की आप पूरे मन से लिख रहे हैं।
जवाब देंहटाएंयही वक़्त था जब तुम हमसे थोड़ा दूर चले गए थे. "मंडल" के समय लगभग सभी अभिभावकों ने पहरे लगा रखे थे. तुम्हारी गिरफ़्तारी की खबर मुझे आज भी याद है. मनीष की टीस फिर से ताज़ा हो गयी. अगली किश्त का इंतज़ार रहेगा।
जवाब देंहटाएंlajwab, laga NC holtel me baithkar tumse bate kar rha hoon
जवाब देंहटाएंसही जा रहे हो,लेकिन ज़रा आसपास का हाल भी लिखते चलो
जवाब देंहटाएंपढा और बस पढ़ता ही चला गया। गज़ब क्रांतिकारी निकले आप तो!!
जवाब देंहटाएंAgli kisht ka besabri se intjaar !!
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