आज सिताब दियारा ब्लॉग पर अविनाश कुमार सिंह की
कवितायें
रविशंकर उपाध्याय की कविताओं के माध्यम से सिताब दियारा को और सिताब
दियारा के माध्यम से रविशंकर उपाध्याय के कवि रूप को जाना | वैसे मेरा व्यक्तिगत
परिचय तो उनसे था ही | खैर अब वे नहीं हैं
| मैं उस होनहार कवि के आखिरी दिन रात भर सो न सका | इस कविता के सहारे उन्हें
श्रद्धांजलि दे रहा हूँ | इसे आपको भेज रहा हूँ. शायद इसमें भी रवि का ही कोई
निर्देश मिला हो .....| साथ ही एक पहले से लिखी कविता भी प्रेषित कर रहा हूँ |
.............अविनाश कुमार सिंह
एक ....
आत्मीय
रविशंकर उपाध्याय के लिए
तुम्हें
जानने की वजह खूबसूरत थी
जैसे
कविता
जैसे
रास्तों को जानते हैं
इमली
या गुलमोहर की लगातार किनारे पर मौजूदगी से
जैसे
नदियों में एक खास किस्म की झाग रहती है
या कि
मंदिर का सबसे सुंदर लैंडमार्क
सैय्यद
दर्जी की नुक्कड़ वाली दुकान हुआ करती है
भरोसा
होता है इन स्थायी लोगों पर
कि ये
धोखा नहीं देंगे
गर जो
नन्हीं वनपाखी कभी अचकचा जाती
और
मंदिर का कोटर ढूंढें नहीं मिलता
लथर
कर ढल जाती वनपाखी नुक्कड़ पर
सैय्यद
मियां हरे धागे की लकीर खींच देते
कोटर
तक और
वनपाखी
की आँखे चहकने लगती
मेरी
भी आँखे चमका करती थी रवि
तुम्हारी
कविता का पता जब
सिताब
दियारे से मिलता था
भरोसा
था कि तुम तक जाने का रास्ता
स्थिर
है और वहीँ है
पहुँचने
से पहले ही तुम्हारी कविता तक
ढेर
सा जीवन रास्ते में मिलता था
इमली
और गुलमोहर के फर
पहले
से ही तान दे रहे होते थे
नदियों
का झाग कुछ खुद्बुदाता मिलता था
सैय्यद
दर्जी की मशीनों से गजब का संगीत निसरता था
रवि !
तुम्हारी
कविता में तुमसे मिलते थे
मेरे
जैसे बहुत से लोग
वहाँ
तुमसे कहते-सुनते
वनपाखी
को देख मुस्कुरा लेते थे
वनपाखी
कविता में थी
कविता
में तुम थे और
सिताब
दियारे से उझककर
जीवन
कहीं रास्ते में
अभी-अभी
अचकचा
गया था.
दो ....
यह मेरा बनारस नहीं था
इसने
आँखे खोली थीं
बच्चे
की तरह
पहली
अंगड़ाई की पुलक थामे
नन्हीं
आहटों के साथ.
यह
शहर जगा था
कहतें
हैं कबीर रात को जगते-रोते
इस के
माथे पर अपनी रतजगों का
डिठौना
करते थे
बुरी
नजर से बचाने के लिए, और
बचाने
के लिए कमाल की
बेचैन
कराहों को
अल्हड़
चंपा के हेरा जाने पर
अस्सी
के मटियाले देवता ने सुनी थी वो कराह
सुनी
थी वो आखिरी पुकार
तब से
रात रहती हैं वहाँ
उतनी
ही आशिक, मुदा
भोर कभी
नहीं होती
फिर
उसी रात
दालमंडी
की मल्लिका के पाजेब भी टूटे थे
संधू
महराज के दिलफरेब तबले की ताल अटक गयी थी
सुना
है
शहर
के सबसे पुराने शिवाले में
उसी
का घूँघरू पहला श्लोक गाता था
कहते
हैं बनारस के पानदरीबे में
जो
गिलौरियाँ पहली बार दाबी थीं
किसी
बिल्किस बानों ने
अवध
के नवाब के हरम में
उसकी
लाली सुर्खुरू ही रही सारी उमर
जब
ठुमरी अलापती थी बिल्किस अवध में
ज्ञानवापी
की दीवारों पर उर्दू उतर आती थी
आह!
हमरी
अटरिया पे...
कहते
हैं बात देखा-देखी से तनिक आगे ही थी
और
पंतग की डोर उलझ गयी थी, जब
अटरिया
के बूढ़े पीपल में
अचकचा
गए थे केदार बाबू और लगा कि
सारा
बनारस तभी से
डोर
सुलझाने के फेर में
एक
टांग पर खड़ा है
हाँ, उसे अब यह लंगड़ा भाता है
गोया
सारा रस यही बना हो
सारी
नदियाँ
गंगा
को अपनी बी जी मान बैठी हों
और
हरजाई
संवरिया
से मिलन की आस में
सारी
गलियाँ
मणिकर्णिका
को पीछे
ठेल
रही हों.
कहते
हैं शहर के सिरहाने बुद्ध मुस्कुराये थे
बनारस
में मोक्ष नहीं वि-राग मिलता है
वि-राग
वीत-राग नहीं होता
गया
से सारनाथ के धूमिल रस्ते में
यही
बोध मिला था उन्हें
प्रवर्तन
से ठीक पहले
कि
बनारस में सिर्फ राग बहता है
पैताने
से निकलती है रसधार और
पूरे
शहर को लोहटिया से पहले ही
पनियल
कर जाती है
जो
किरकरी दांतों में थामे
मडुवाडीह
की हवा आती है
मोतीगंज
की झील में
अल्हड़
बच्चे सी छलांग मार जाती है
और
कबीर
के रतजगों का डिठौना
उसे
फिर-फिर सवाँर लेता है
कहते
हैं इतिहास ने डिठौनों से छल किया है अभी
पक्कामहाल
और लंके में
दादी
के चबूतरे को तोड़कर
मल्टीप्लेक्स
का टेंडर हुआ था जिस पहर
अटरिया
के बूढ़े पीपल का भी सौदा हुआ था
शहर
की दूसरी टांग में
जोर
का दर्द उठा था
दांत
किरकिरा गए थे अवध के और
यह
बनारस नहीं था
गंगा
बी जी पहली बार सहमी थीं
यह
पान के ताम्बूल में तब्दील होने का
और
पीकों के सियाह होते जाने का
खौफ़नाक
दृश्य था
कुछ
कटी-अधकटी पतंगों के पीछे
बेतहाशा
भागते नन्हें शहर पर
यह
बन्दर-गाहों की निगाहों का प्रक्षिप्त समय था
यह
मेरा बनारस नहीं था.
परिचय और
संपर्क
अविनाश
कुमार सिंह
Ø १० अक्टूबर १९८४ में चन्दौली (यू.पी.) में जन्म
Ø परिकथा, संवदिया, पक्षधर, आरोह, प्रभात खबर (दैनिक) में कविताएँ व आलेख
प्रकाशित
Ø इस्पातिका नामक छमाही शोध पत्रिका का संपादन व प्रकाशन
पता : ३, न्यू स्टाफ
क्वार्टर्स,
को-ऑपरेटिव कॉलेज कैम्पस,
सी.एच.एरिया, बिष्टुपुर,
जमशेदपुर, झारखण्ड
८३१००१
मो. ०९४७१५७६४०४
bahut hi umda..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया कल्याणी जी!
हटाएंअविनाश कुमार जी जी उम्दा रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआभार कविता जी!
हटाएंबनारस बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वर्षा जी!
जवाब देंहटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आशु भाई!
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