युवा कवि/समीक्षक महेशचन्द्र पुनेठा ने रोहित जोशी द्वारा सम्पादित
पुस्तक ‘उम्मीद की निर्भयाएं’ की समीक्षा लिखी है | आप सुधि पाठकों के लिए इसे हम
सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रहे हैं |
संघर्ष बलात्कार
की संस्कृति से है
16 दिसंबर 20012 की तिथि यौन हिंसा को लेकर एक विभाजक रेखा बन गई है।
इसके बाद बहुत कुछ माहौल बदला है। एक ऐसे विषय पर जो अघोषित रूप से वर्जित माना
जाता था अब खुलकर चर्चा हो रही है। पहले चर्चा-परिचर्चा तो छोडि़ए परिवार के बीच
बैठे होते औैर रेडियो या टेलीविजन में यौन हिंसा या उत्पीड़न से संबंधित कोई
समाचार सुनाई देता था तो एकदम असहज स्थिति हो जाती थी। सिर नीचा कर लेते थे।
बड़े-बुजुर्ग भी बच्चों के सामने इस विषय पर बात नहीं करते थे। लेकिन आज बाप-बेटे,भाई-बहन या गुरू-शिष्य के
बीच तक इस पर चर्चा होने लगी है।इसी का परिणाम है कि यौन हिंसा को लेकर दर्ज होने
वाली रिपोर्ट्स में अचानक तेजी आ गई है। यौन हिंसा के पुराने मामले भी उद्घाटित हो
रहे हैं।महिलाओं में विरोध का साहस पैदा हुआ है। यौन हिंसा को तत्कालिक उत्तेजना
या आक्रोश जनित अपराध न मानकर उसके सामजिक-सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक-आर्थिक पहलुओं
पर विमर्श प्रारम्भ हुआ है। 16 दिसंबर की अमानवीय घटना के बाद न केवल देशभर में
विरोध प्रदर्शन हुए बल्कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ,सोशल
नेटवक्र्र ,इलैक्ट्रोनिक
और प्रिंट मीडिया में यह गंभीर विमर्श दिखाई देने लगा। पिछले एक साल के
दौरान ‘पत्रकार प्रैक्सिस’’ ने अपनी
बेबसाइट में लगातार इस विषय पर महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की गई जिसे थोड़ा बहुत
संपादित कर अब एक पुस्तक के रूप में ‘उम्मीद की निर्भयाएं’
शीर्षक से सामने लाया गया है।
किताब की शुरूआत युवा कवि मृत्युंजय भाष्कर की लंबी कविता ‘और भी करीब आएंगे वे...’
से की गई है।यह कविता 16 दिसंबर की घटना के बाद दिल्ली की सड़कों
सहित देशभर में पैदा हुए जन आक्रोश की पृष्ठिभूमि पर लिखी गई है जिसमें इधर
स्त्रियों की मानसिकता में आ रहे सकारात्मक परिवर्तनों को रेखांकित करते हुए
उन्हें एक सशक्त प्रतिरोध की आवाज के रूप में दर्ज किया है-वे नहीं मांगेंगी अब
कभी पुलिस की मदद/अब ये वो नहीं रही जो सड़क पर छेड़े जाने से डरेंगी/उनके भीतर की
आग बहुत है अत्याचारियों को जला देने के
लिए/तुम अपने वजूद की सोचो/ओ राजाओ?/भागोगे कहाँ तक/जनता
उमड़ी आ रही है। वास्तव में निर्भया कांड के बाद हुए जनांदोलन ने समाज में
मानसिकता के स्तर पर एक गहरी हलचल पैदा की है। इस आंदोलन ने न केवल सरकार कोे
झुकने और त्वरित कार्यवाही करने के लिए मजबूर किया बल्कि पुरुषवादी मानसिकता से
ग्रस्त लोगों को बहुत कुछ सोचने के लिए प्रेरित किया।साथ ही औरतों की ‘बेखौफ आजादी’ की मांग को केंद्र में ला दिया।पुरुष
वर्चस्व को नई चुनौती मिलने लगी है। जैसा
कि ‘16दिसंबर आंदोलनःएक साल बाद’ आलेख
में एपवा की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन अपने विश्लेषण में कहती हैं,‘‘इस तरह आंदोलन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्से ने,पितृसत्तात्मक
संरक्षण और प्रतिशोध के विमर्श के साथ इससे जुड़ी हुई वर्ग,जाति
और सांप्रदायिक विकृतियों को चुनौती दी है।’’ मीडिया अध्यापन
से जुड़े आनंद प्रधान के शब्दों में ,‘‘लड़कियों और आम लोगों
में स्त्रियों के खिलाफ होने वाली बर्बर हिंसा और आपराधिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने
का जज्बा भर दिया है।’’ वह अपने आलेख ‘यह
अराजक भीड़ नहीं, लोकतंत्र की नई उम्मीद है!’ में इस आंदोलन की सबसे बड़ी कामयाबी यह मानते हैं कि इसने स्त्रियों के
खिलाफ बढ़ती हिंसा को लेकर उनकी आजादी ,सम्मान और सुरक्षा से
जुड़े मसलों को पहली बार राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर सबसे ऊपर पहुंचा
दिया।....इसने संकीर्ण जातिवादी,क्षेत्रीय और सांप्रदायिक
अस्मिताओं का निषेध करते हुए स्त्री अस्मिता की जोरदार दावेदारी की है।.....किसी
आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में मुखरता के साथ मध्यम और निम्न मध्यवर्गीय महिलाएं
खासकर युवा छात्राएं-लड़कियां विरोध प्रदर्शनों में सड़कों में नहीं
उतरी।.....इसने महिलाओं को भयमुक्त किया है। उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। उन्हें अब
घर की चहारदीवारी में बंद करना मुश्किल है।
प्रस्तुत किताब यौन हिंसा के सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक-मनोवैज्ञानिक-भाषिक-राजनैतिक
पक्ष को तो सामने रखती ही है साथ ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर गहरी चोट करती हुई
यौन हिंसा से मुक्ति का रास्ता बताती है। उन तमाम धारणाओं का खंडन करती है जो
महिलाओं के विरूद्ध पुरुषवादी मानसिकता के चलते पोषित-पल्लवित की गई हैं। उन
कारणों को खारिज करती है जिनमें कहा जाता है कि बलात्कार के लिए लड़कियां भी बराबर
की दोषी हैं , उनके
कपड़े ,उनका व्यवहार और असुरक्षित जगहों पर जाने की आदतें
बलात्कार की वजह है, बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए पाश्चात्य
संस्कृति जिम्मेदार है,आदि।
पुस्तक के विभिन्न लेखों से
यह बात उभर कर आती है कि यौन हिंसा के लिए वह पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता
जिम्मेदार है जिसके अंतर्गत स्त्री को संपत्ति की तरह स्वाभाविक रूप से पुरूष के
अधीन माना जाता हैं ।पुरुष उस पर नैतिक-अनैतिक तरीकों से अपना नियंत्रण स्थापित
करने की कोशिश करता है। युवा लेखक मोहन आर्या अपने आलेख ‘बलात्कार का व्यापक
परिप्रेक्ष्य’ में बिल्कुल सही कहते हैं,‘‘हमारी सभ्यता,मूल्य,संस्कृति
हर तरह से पुरुषों को छूट देते हैं कि वे महिलाओं की इच्छा और उनकी सहमति का
अतिक्रमण कर सकते हैं।’’ वह मानते हैं कि सभी धर्म व
संस्कृति स्त्री विरोधी हैं और इस वर्चस्व को मान्यता प्रदान करते हैं।इस बात को
मोहन विभिन्न धर्म और संस्कृतियों से संबंधित उदाहरणों से प्रमाणित करते हैं।अपने
आलेख में मोहन उस ऐतिहासिकता पर भी विस्तार से प्रकाश डालते हैं कि कैसे एक
स्वतंत्र स्त्री पुरुष की संपत्ति के वारिस को जन्म देने वाली हो गई?निजी संपत्ति की उत्पत्ति को वह इसका कारण मानते हैं। इसलिए वह इस
तर्कसंगत निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बलात्कार जैसे अपराधों का समाधान न धर्म में
है और न आधुनिकता में बल्कि निजी संपत्ति का उन्नमूलन करते हुए पितृसत्तात्मक
व्यवस्था के अंत में है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रतिगामी ताकतें इस व्यवस्था
के अंत के पक्ष में नहीं हैं बल्कि वे इसको समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए
जरूरी मानते हैं। महिलाओं की यौनिकता ,उनके श्रम और सार्वजनिक और निजी दायरों में उसकी भागीदारी पर पुरुषवादी
नियंत्रण स्थापित करने में दक्षिणपंथी
संगठनों ,धर्मगुरुओं,धार्मिक
धारावाहिकों,टी0वी0 चैनलों की खास भूमिका रही है। युवा
पत्रकार अभिनव श्रीवास्तव के आलेख ‘हिंदू सांस्कृतिक-राजनीति
के औजारःधार्मिक गुरु और उनका साम्राज्य’ में इस भूमिका को
विस्तार से समझाया गया है।
मीडिया को सामाजिक बदलाव का वाहक माना जाता है बहुत हद तक यह बात सही
भी है लेकिन आज बाजार के प्रभाव में मीडिया अपने असली लक्ष्य को भूलता चला गया है
युवा पत्रकार आदिल रज़ा ख़ान अपने आलेख ‘उपभोक्तावादी संस्कृति और नारी सौंदर्य के ग्राहक’
में इसी बात को उठाते हैं,‘‘महिला अपराध के
खिलाफ समाज मंे जागरूकता फैलाने के बजाए मीडिया मंे तेजी से नारी सौंदर्य को बेचने
का चलन बढ़ता जा रहा है।ये बात चैनलों पर आने वाले विज्ञापनोें तक ही सीमित नहीं
हैं बल्कि चैनलों को चलाने वाले काॅरपोरेट घराने,महिला एंकर
को भी कंटेंट बेचने के बेहतर हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।’’यह प्रवृत्ति महिला को एक वस्तु बनाकर रख देती है जो अतंतः महिला शोषण का
कारण बन रही है। मीडिया के इस रवैये को ‘मीडिया का फांसी-वाद’
शीर्षक आलेख में युवा पत्रकार दिलीप खान और अधिक उजागर करते हैं।
समाजशास्त्र और मिडिया स्डडीज में हुए अघ्ययनों को रेखांकित करते हुए बताते हैं कि
बलात्कार और महिला सुरक्षा के मसले पर मिडिया के तेवर काफी हद तक महिला आजादी के
पक्ष में नहीं रहे हैं। ये बात भी काफी प्रमुखता से स्पष्ट हुई है कि रिपोर्टिंग
में वीभत्सता,रोमांच और हिंसा के अलावा महिलाओं को लेकर
मौजूद सामाजिक धारणाओं को प्राथमिक तौर पर उभारा जाता रहा है। वह बताते हैं कि इस
दृष्टि से अमेरिका जैसे लोकतंत्र का दावा करने वाले देशों की स्थिति भी बहुत अधिक
भिन्न नहीं है। मीडिया के पुरुषवर्चस्ववादी चरित्र पर ही पत्रकार और एक्टिविस्ट
भाषा सिंह अपने आलेख ,‘बलात्कारी संस्कृति और बलात्कार के
व्याकरण से टकराती आधी दुनिया’ में उसकी भाषा पर प्रश्न खड़े
करती हैं। उनका यह विश्लेषण तर्कसंगत है कि हमारे दिमाग में पितृसत्तात्मक सोच या
छवियां छाई होती है और इसका असर हमारी भाषा हमारे द्वारा चुने गए शब्दों पर पड़ता
है।इस पितृसत्तात्मक सोच-शब्दावली-व्याकरण पर सीधी चोट नहीं होगी,तब तक नए ढंग से रिपोर्टिंग के तौर-तरीके भी नहीं खोजे जाएंगे। पुरुषवादी
चरित्र केवल मीडिया का ही नहीं है हमारी न्याय व्यवस्था भी इससे मुक्त नहीं है
जिसका प्रमाण यहाँ नेहा झा के आलेख ‘टू फिंगर टेस्ट जैसे
परीक्षणों के होने के मायने’ में मिलता है। नेहा मानती हैं
कि यह तरीका बलात्कार के मामले में महिलाओं को ही हमेशा कटघरे में रखने की कोशिश
का हिस्सा है। उनकी यह समझ गलत नहीं है।
कुछ लोगों की मानना है कि यौन हिंसा कानून व्यवस्था की समस्या है। यदि
कठोर कानून बनाया और उसे कड़ाई से लागू किया जाय तथा सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए
जाय तो बलात्कार जैसी घटनाओं को समाप्त किया जा सकता है। लेकिन वास्तव में देखा
जाय तो यह इतना सीधा सा मामला नहीं है। कानून के द्वारा इन अपराधों को कुछ हद तक रोका
जा सकता है लेकिन समाप्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि इस अपराध की शुरुआत घटना
घटित होने से बहुत पहले ही हो जाती है। इस पर युवा लेखिका प्रीति तिवारी की
समझदारी युक्तिसंगत प्रतीत होती है।वह अपने आलेख ‘महिला विमर्शों का भाषायी रुख’ में
एक स्थान पर लिखती हैं ,‘‘ बलात्कार उस यौन हिंसा की अंतिम
परिणति है जिसकी शुरूआत बहुत पहले ही हो जाती है। दरअसल इस तरह स्वीकार्यता बनाने
का काम बहुत धीमी गति से भाषाई स्तर पर घटित हो रहा होता है। एक पूरी प्रक्रिया के
तहत समाज में अपनी स्वीकार्यता बनाती है जिसे हल्की-फुलकी भाषा में मजाक या
दिल्लगी कह कर संबोधित कर दिया जाता है। यौन संबंधों में ‘सहमति-असहमति’
के प्रश्नों पर बात नहीं करने की संस्कृति ही इसकी पृष्ठभूमि तैयार
करती है।’’ बलात्कारी मानसिकता के निर्माण में फिल्मों की
भूमिका कम नहीं है। भारतीय फिल्मों में स्त्री पात्रों को जिस रूप में चित्रित
किया जाता है वह स्त्रियों के प्रति परम्परागत धारणाओं को अधिक मजबूत करती है और
उनसे जोर-जबरदस्ती के लिए उकसाती है। विशेषरूप से प्रेम का चित्रण। ‘एकतरफा प्यार की अहमन्यता’ आलेख में शिवानी नाग ने
भारतीय सिनेमा में प्रेम का कुरूप चित्रण विषय पर रोचक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
वह लिखती हैं कि प्रेम के चित्रण स्वरूप
आम तौर पर फिल्मों में किसी पुरुष का किसी महिला को चाहना और उसके समक्ष प्रणय
निवेदन करना दिखाया जाता है। अक्सर यह निवेदन सीधे तौर पर उत्पीड़न का रूप ले लेता
है तथा उसका पीछा करना और परेशान करना इसका अभिन्न अंग होते हैं। पेशे से अध्यापक
शिवानी अपने आलेख में प्रेम को लेकर बहुत सटीक प्रश्न करती हैं कि क्या किसी के
चुनाव तथा उसकी भावनाओं का सम्मान न करना किसी भी सूरत में प्रेम हो सकता है?एक महिला की स्वीकृति अथावा अस्वीकृति की परवाह किए बिना कोई पुरुष किसी
महिला को चाहे तो यह प्रेम कैसे हो सकता है? उनका यह
निष्कर्ष बिल्कुल सही है कि एकतरफा प्रेम को चाहे जितना महिमा मंडित करें,अगर सामने वाले की भावनाओं और चुनावों के लिए सम्मान नहीं है तो यह चाहे
जो भी हो ,प्रेम नहीं हो सकता है। वास्तव में ,प्रेम का यही विकृत रूप है जो प्रेम की आड़ में किसी महिला की आजादी का
हरण करता है और जब महिला अस्वीकार के द्वारा अपनी आजादी की रक्षा करती है तो यौन
हिंसा का शिकार होती है।
इस किताब का सबसे मार्मिक पक्ष शुरुआत में दिए गए दो पत्र हैं जो
बलात्कार की शिकार युवतियों की दर्द की दास्तान कहते हैं ।एक बलत्कृता किस गहरे भय
और पीड़ा में अपने दिन गुजारती हैं यह सोहेला अब्दुलाली के पत्र के इस अंश में
महसूस किया जा सकता है-‘‘उस बात को तीन साल हो गए हैं,मगर ऐसा एक दिन भी नहीं
बीता जब मुझे इस बात ने परेशान नहीं किया कि उस दिन मेरे साथ क्या हुआ। असुरक्षा ,भय,गुस्सा,निस्साहयपन... मैं
उन सब से लड़ती रही। कई दफा,जब मैं सड़क पर चलती थी और अपने
पीछे कोई पदचाप सुनाई पड़ती तो मैं पसीने-पसीने होकर पीछे को देखती और एक चीख मेरे
होंठों पर आकर ठहर जाती। मैं दोस्ताना स्पर्श से परेशान हो जाया करती, मैं कस कर बंधे स्कार्फ को बर्दास्त नहंी कर पाती ,ऐसा
लगता कि मेरे गले को हाथों ने दबा रखा है। मैं पुरुषों की आंखों में एक खास भाव से
परेशान हो जाती । और ऐसे भाव अक्सर नजर आ जाते।’’ पत्र में सोहेला की यह बात बहुत
सुकून देने वाली है , ‘‘इसे अपराध के एक रूप के तौर पर देखना
होगा-इसे हिंसात्मक अपराध मानना होगा और बलात्कारी को अपराधी के तौर पर देखना
होगा। मैं उत्साहपूर्वक जीवन जी रहीं हूँ। बलात्कार का शिकार होना बहुत खौफनाख है ,मगर जिंदा रहना अधिक महत्वपूर्ण है।’’ मुझे लगता है यदि हर बलत्कृता इस
तरह से सोचने लगे तो कहीं न कहीं उन सामंती लोगों और राजसत्ताओं की हिम्मतपस्त
होगी जो बलात्कार को स्त्री को सबक सिखाने
के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।समाज को अपना नजरिया बदलना होगा कि
बलात्कार मामले मंे ‘इज्जत’ बलत्कृता
की नहीं बल्कि बलात्कारी की जाती है।अगर हम ऐसे सोचने लगेंगे तो पीडि़ता को
बलात्कार के बाद की पीड़ा से बहुत हद तक बचाया जा सकता है। फिर बलत्कृता प्रस्तुत
पुस्तक में प्रकाशित दूसरे पत्र की लेखिका सूर्यानेल्ली की लड़की की तरह ऐसा नहीं
सोचेगी,‘‘ मेरे लिए यह राहत की बात है कि दिल्ली की उस लड़की
की मौत हो गई। वरना उसे सभी जगह ठीक वैसे ही अश्लील सवालों से रूबरू होना पड़ता जो
उसे उस खौफनाक रात को भुगतना पड़ा। इसकी वजह बताने के लिए उसे बार-बार मजबूर किया
जाता। और अकेले बिना किसी दोस्त के वह अपनी ही छाया से डरती हुई जिंदगी का बाकी
वक्त किसी तरह काटती।’’ इन दोनों पत्रों को पढ़ने से पता
चलता है कि बलात्कार शरीर की अपेक्षा मन को कितना अधिक आघात पहुँचाता है।वह ‘जिंदा लाश’ में बदल जाती है इसलिए संघर्ष बलात्कारी
से नहीं बल्कि बलात्कार की संस्कृति से करना जरूरी है। ‘संघर्ष
बलात्कार की संस्कृति से’ शीर्षक आलेख में वर्मा कमेटी की
सिफारिशों के बहाने वरिष्ठ पत्रकार सत्येन्द्र रंजन इसी बात पर जोर देते हैं। यौन
हिंसा को लेकर वर्मा समिति की सिफारिशें मील का पत्थर हैं। शायद ही इससे पहले इतनी
प्रगतिशील सोच वाली रिपोर्ट आई हो। इसमें सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विस्तार से
विचार किया गया है। प्रकारांतर से यह समिति स्त्री के अपने शरीर पर अधिकार का
समर्थन करती है। सत्येन्द्र रंजन की इस बात से मेरी भी पूरी सहमति है-‘‘ इस रिपोर्ट की विशेषता यह है कि इसमें यौन हिंसा या यौन उत्पीड़न को
व्यापक सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के ढाँचे में रख कर देखा गया ।
समिति ने प्रशासन,कानून,राजनीति और
सामाजिक नजरिए की समग्रता मंे इस प्रश्न पर विचार किया। उसने पितृसत्तात्मक
व्यवस्था में स्त्रियों की लाचारी को जड़ में रखते हुए इस समस्या को देखा और अपनी
सिफारिशों को संवैधानिक तथा कानून की मानवीय व्याख्या के दायरे में प्रस्तुत किया।
’’ यह रिपोर्ट महिला आजादी के सवाल को मुखरता से उठाती है
केवल बलात्कार तक सीमित नहीं करती। अच्छी बात है कि सत्येन्द्र ने इस रिपोर्ट का
सटीक विश्लेषण किया है और उसकी खासियतों के साथ-साथ सीमाओं की ओर भी हमारा ध्यान
खींचा है।अपने आलेख में इस बात को स्थापित किया है कि बलात्कार एक घृणित अपराध है।
इसके घटित होने पर किसी को शर्मिंदा होना चाहिए तो वह बलात्कारी है ,ना कि पीडि़ता।
समीक्ष्य किताब में उस अभिजात्यवादी-बहुसंख्यकवादी-ब्राह्मणवादी
मानसिकता पर भी सवाल खड़ा किया गया है जो बलात्कार औैर बलात्कार में अंतर करती है।
किसी खाते-पीते घर ,सवर्ण ,बहुसंख्यक समाज और महानगर की महिला के साथ
हुआ बलात्कार मीडिया की सुर्खी पा जाता है और उसके विरोध मंे तमाम सामाजिक
संस्थाएं,महिला संगठन और मानवाधिकार संगठन सड़कों में उतर आते
हैं लेकिन वहीं दूसरी ओर गरीब,दलित,आदिवासी,अल्पसंख्यक या दूरदराज गाँव में किसी महिला के साथ होने वाले दुष्र्कम की
ओर किसी का ध्यान तक नहीं जाता है। यदि चला भी गया तो उसको दबाने का प्रयास अधिक
किया जाता है। पत्रकार अरविंद शेष देश के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं के साथ हुए
बलात्कार के घृणित-बर्बर कांडों का हवाला देते हुए इसी सवाल को अपने आलेख ‘बलात्कार की ‘शाॅक वैल्यू’ का
अंतर’में उठाते हैं।यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनेक
घटनाओं में तोे यह भी देखने में आता है कि पुलिस व राज्य प्रशासन सर्वण जाति के
प्रभुत्वशाली और दबंगों के साथ खड़ा होकर गरीब-दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक महिलाओं का
शोषण-उत्पीड़न करती है। युवा लेखिका अनीता भारती का आलेख इस उत्पीड़न की भयावहता
को हमारे सामने रखता है। इस आलेख में उन तमाम घटनाओं का उल्लेख किया गया है जिसमें
दलित होने के कारण ही महिला उत्पीड़न का शिकार हुई और उस उत्पीड़न को
पुलिस-प्रशासन ने स्वीकार तक नहीं किया गया। यह तस्वीर दिल दहला देने वाली है।
इतना ही नहीं यह देखा गया है कि देश-दुनिया में बलात्कार और यौन हिंसा को युद्ध के
हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा
है। स्वतंत्र टिप्पणीकार अतुल आनंद अपने आलेख ‘बलात्कार
जहाँ राज्य का हथियार है.....!’ में इस अमानवीय प्रवृति पर
विस्तार से प्रकाश डालते हैं। अनुराधा गांधी अपने आलेख ‘बलात्कार
कानूनों में बदलावःकितने मददगार’ मंे जैसे इसी बात का समर्थन
करते हैं-‘‘पतित सामाजिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियां सामंती
संस्कृति के विस्तार लेने और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की बढ़ोत्तरी के चलते
महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को बढ़ा रही हैं। महिलाओं और लड़कियों का मीडिया मंे
सौंदर्य,फैशन,मनोरंजन और पर्यटन
उद्योगों में बढ़ रहा वस्तुकरण उन्हें अघिकाधिक यौन हिंसा की चपेट में आने लायक
बना रहा है। बलात्कार का इस्तेमाल वर्ग,जाति,नस्ल के अंतर और पदानुक्रम को कायम रखने वाले औजार की तरह होता
है।.....स्वयं राज्य जो महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा के सबसे बड़े अपराधियों
में से एक है और जिसका लक्ष्य पितृसत्ता की यथास्थिति को बनाए रखना है। ’’इसलिए उनका यह निष्कर्ष सही लगता है कि बलात्कार कानूनों में होने वाले
कुछ कृत्रिम बदलाव बलात्कार पीडि़ताओं की मदद नहीं कर सकते। इसके लिए पुलिस,न्यायालय और अन्य सत्ता संरचनाओं के पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह भी न्याय की
प्रक्रिया में बाधक हैं।
दिल्ली कांड के बाद समाधान के रूप में दो बातों विशेष रूप से सुनी
जाती रही हैं -पहली ,बलात्कारी को मृत्युदंड देने और दूसरी,बाल अपराधी तय
करने की उम्र कम करने।दरअसल ये दोनों ही उपाय समस्या की जड़ को नहीं समझने और
तात्कालिक आक्रोश के परिणाम हैं। यदि मृत्युदंड किसी भी अपराध का समाधान होता तो
उन देशों में अपराध नहीं होते जहाँ मृत्युदंड का प्रावधान है। जैसा कि वरिष्ठ लेखक
प्रभात उपे्रती अपने आलेख ‘मृत्युदंड का औचित्य का प्रश्न ’में कहते हैं ,‘‘ इसमें आदमी में जो सुधार की
संभावना थी उसे सिरे से इनकार कर दिया गया है और साथ ही इसमें अपराधी के अपराधी
बनने की प्रक्रिया में अपनी भूमिका और उत्तरदायित्वों से पल्ला झाड़,मृत्युदंड को जायज माना।’’ यहाँ ‘अपराधी बनने की प्रक्रिया’ पर विशेष ध्यान देने की
आवश्यकता हैं। यदि कोई किशोर अपराध करता है तो उसके कारण कहीं न कहीं हमारे समाज
में छुपे होते हैं। युवा लेखक कंचन जोशी की इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता है
कि-‘‘ इस अवस्था में किए जा रहे अपराध सबसे पहले उस समाज पर
प्रश्न खड़ा करते हैं जो अपने किशोरों को अपराधी बना रहा है। इन प्रश्नों के हल
खोजने के बजाय सिर्फ आयुसीमा में संशोधन का नीम-हकीमी नुस्खा देकर समाज और राज्य
अपनी जिम्मेदारी से फारिग नहीं हो सकते।’’ कंचन जोशी यदि उस
संस्कृति में इसकी जड़ें देखते हैं जिसमंे किशोरावस्था मंे कदम रखते ही लड़कांे को
‘मर्द बनने’ की शिक्षा और लड़कियों को ‘पत्नी’ बनने के लिए तैयार किया जाने लगता है,
तो उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। इस पर गंभीरता से विचार करना
होगा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अपराधी प्रवृत्तियों के बीज कहीं न
कहीं बचपन की परिवरिश में छुपे होते हैं। बाद मंे तो वह केवल पुष्पित-पल्लवित होते
हैं।
निश्चित रूप से प्रस्तुत पुस्तक यौन हिंसा के विविध पहलुओं को छूने की
सफल कोशिश करती है। इस मुद्दे पर पाठक का एक स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करती
है।किताब यौन हिंसा की स्थिति ,कारणों और उनसे निपटने के उपायों पर अपना पक्ष साफ-साफ रखती है। भले ही इस
किताब में बड़े-बड़े व चर्चित नाम न हों पर हस्तक्षेप बड़ा और दमदार है। लगभग सभी
लेखकों ने अपनी बात मजबूत तर्कों के साथ रखी हैं।सबसे अच्छी बात यह है कि दूरदराज
क्षेत्रों में लिख रहे लोगों को इसमें शामिल किया गया है। इससे पता चलता है कि
प्रगतिशील सोच चंद बड़े और आधुनिक शहरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि छोटी-छोटी
जगहों तक फैली है।एक अच्छी बात और है कि इस किताब मंे स्त्री-पुरुष लेखकों का
बराबर प्रतिनिधित्व है। सीमाओं से मुक्त कुछ भी नहीं है इस किताब की सीमाएं होना
भी स्वाभाविक है जैसा कि संपादक रोहित जोशी स्वयं स्वीकार करते है कि यूं तो इस
किताब की भी अपनी सीमाएं हैं और इस विषय का समूचा विमर्श यहाँ भी नहीं समा पाया
है। लेकिन रोहित ने उस दिशा में एक शुरुआत की यह प्रशंसनीय है। रोहित के भीतर
हमेशा से कुछ हटकर करने का जज्बा रहा है आज इस किताब ने एक बार और साबित कर दिया
है। प्रकाशन की दुनिया में इस किताब के माध्यम से प्रत्रकार प्रैक्सिस ने कदम रखा
है आशा है उनके इस पहले कदम का हिंदी जगत स्वागत करेगा और यह किताब महिला की बेखौफ
आजादी के विमर्श को आगे बढ़ाएगा।
समीक्षित किताब ....
उम्मीद की निर्भयाएं (आलेख
संग्रह)
संपादक.... रोहित जोशी
प्रकाशक - ‘पत्रकार प्रैक्सिस’
फ्लैट न0-25, तीसरी मंजिल
प्रोप0न0.29 इ/जी वार्ड न0-1
चंद्रो भवन डेसू रोड मेहरौली नई दिल्ली
110030
मूल्य-एक सौ रुपए
समीक्षक ...
महेश चन्द्र पुनेठा
संपर्क - शिव कालोनी
पियाना पोस्ट डिग्री कालेज
जिला .... पिथौरागढ़
पिन ... 262501
पुनेठा सर, न केवल लगातार अच्छी-अच्छी किताबें पढते रहे हैं, बल्कि उनकी अच्छाइयों को अपने लेखन से सामने भी लाते रहे हैं । देश-दुनिय-मानवता को सही दिशा देने में प्रतिबद्ध कोशिशों का हिस्सा वे लगातार खुद को बनाते रहे हैं। उनका यह लेखन भी उसी का परिणाम है। निश्चित तौर पर हम एक ऐसी संस्कृति में जी रहे हैं, जो बलात्कार को किसी न किसी रूप में शह देती है...अभी कुछ दिन पहले की एक घटना इसका ताजा उदाहरण है...इस संस्कृति(यदि से संस्कृति कह सकें तो) के खिलाफ आवाज उठनी ही चाहिए.. इस लेखन को और किताब से जुड़े अन्य रचनाकारों को सलाम...
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