बिजली और नेट की गंभीर
समस्या के कारण 'सिताब दियारा ब्लॉग' लगभग एक महीने बाद ‘अपडेट’ कर पा रहा हूँ | आप
सभी पाठकों और रचनाकारों को दिए गए इस भरोसे के साथ, कि आगे हमारी यह कोशिश रहेगी
कि यह ब्लॉग कम से कम प्रत्येक रविवार को अवश्य ‘अपडेट’ होता रहे |
आज पढ़िए सत्यनारायण पटेल की
कहानी 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' पर
प्रख्यात आलोचक रोहिणी अग्रवाल का यह विस्तृत लेख ........
`
सपने में बसी कस्तूरी-गंध
''डूंगा का गांव ए
बी रोड के किनारे बसे अनेक गांवों में से एक था। गांव की एक बाजू में प्रदेश की
व्यावसायिक राजधानी के नाम से विख्यात शहर और दूसरी बाजू में एक औद्योगिक शहर।
दोनों शहर गांव के विकास औ उद्धार का डंका बजाते. . . अपनी मस्ती में मस्त सांड की
तरह डुकराते . . .गांव की ओर बढ़ते . . . शहर के हस्तक्षेप से गांवों के हुलिए जिस
गति से बदल रहे थे, उस तेजी से डूंगा सरीखे देख-समझ भी नहीं
पा रहे थे।'' (पृ0 115)
''सभी के हुलिए बदल रहे थे, और न केवल हुलिए,
बल्कि लोगों के रहन-सहन का ढंग, बातचीत के
तौर-तरीके, त्योहार मनाने के तौर जैसा बहुत कुछ बदल रहा था।
शादी-ब्याह में दिखावटीपन बढ़ गया था। बाल-विवाह, घ्ूंाघट,
पवणई, मामेरा, त्यारी
जैसी कई बुराइयां बरकरार थीं और उन्हें करते वक्त आधुनिकता हावी रहती थी। बाजार
हावी रहता था। महंगी और अनावश्यक चीजों की भरमार और दबदबा रहता। रिश्ते तेजी से
अविश्वसनीय होने लगे और अपने अर्थ भी बदलने लगे।'' (पृ0
120)
''डूंगा ऐसे समय और महान देश का किसान था, जिसमें डूंगा तो क्या उसके जैसे गांव के किसी भी रामा बा या सामान्य किसान का पेट भरने के अलावा कोई सपना देखना और मेहनत की फसल बेच कर जीते-जी सपना पूरा करने का सोचना गुनाह से कम न था। ऐसा करने का मतलब सरकार और उसकी नीतियों की खुल्लम खुल्ला तौहीन करना था। . . . सरकार ने बहुत ही विकसित और ताकतवर देशों की सरकारों की मंशानुसार जो नीतियां बनाई थीं, उन्हें समझना डूंगा जैसे धोती छाप गावदियों के बस का तो था ही नहीं।'' (पृ0 126)
मैं अब और ज्यादा देर लेखक की
उंगली पकड़ कर नहीं चल सकती। जानती हूं विषाक्त वातावरण उतनी तेजी से दम नहीं
घोंटता, जितनी तेजी से विषाक्त वातावरण में जीने की
बाध्यता मनोवैज्ञानिक बेचैनी बन कर दम घोंटने चली आती है। अपनी फूली सांस पर काबू
पाने की कोशिश में मैं डूंगा के सपने को आंख में भर लेना चाहती हूं। एक ऐसा सपना
जो अपनी टूटी किरचों के बीच भी आशा की झीनी डोरी में बंधा सांस ले रहा है।
'होरी! सपने की उस नस्ल को पहचान कर मैंने उसे पुकार लिया - ''गाय सरीखा सपना!''
होरी नहीं, होरी का पोता मंगल सामने चला आया। अपना नाम-धाम न बताता तो कहां पहचान पाती उसे। 1936 में जब होरी का मृत्यु हुई, पांच-छः बरस का बालक ही तो था वह। अब . . . .होरी से ज्यादा बूढ़ा और जर्जर!
'होरी! सपने की उस नस्ल को पहचान कर मैंने उसे पुकार लिया - ''गाय सरीखा सपना!''
होरी नहीं, होरी का पोता मंगल सामने चला आया। अपना नाम-धाम न बताता तो कहां पहचान पाती उसे। 1936 में जब होरी का मृत्यु हुई, पांच-छः बरस का बालक ही तो था वह। अब . . . .होरी से ज्यादा बूढ़ा और जर्जर!
''विरासत में कंगाली के अलावा सपने ही तो मिलते हैं हमें।'' वह मुस्करा दिया, ''पर देखो न, कंगाली की इतनी आदत पड़ गई कि सपनों की ऐयाशी लूटने में भी कंगाली करने लगे हम।''
''हम . . माने?'' अबूझ सी मैं उसके उलझे चेहरे की सलवटों में जवाब तलाशने लगी।
''माने . . . डूंगा . . . गाय की बजाय लूगड़ी का सपना पूरा करने के पीछे ही हलकान हो गया छोरा!''
''छोरा . . . माने डूंगा तुम्हारा . . . ?''''हां जी, हां जी, डूंगा पोता है
हमारा। और हम उसके दादा . . . ''मंगल के चेहरे की कठिन
सलवटों में जैसे स्नेह की लुनाई दौड़ गई एकाएक।
मैं भौंचक। होरी के वंशवृक्ष में डूंगा . . . मैंने सोचा भी न था।
सत्यनारायण पटेल जानते थे यह सब?
तो क्या इसीलिए वे यहां डूंगा की नहीं, डूंगा के बहाने पीढ़ी दर पीढ़ी पराजय की यंत्रणा भोगते होरी की कहानी कह रहे हैं? सपने के टूटने की कहानी? उस दौर में जब सपनों के सौदागर आंखों पर तिलिस्म की पट्टी चढ़ा कर नकली को असली, सपने को हकीकत बताने-बनाने की कला में पारंगत हो चुके हैं?
मैं भौंचक। होरी के वंशवृक्ष में डूंगा . . . मैंने सोचा भी न था।
सत्यनारायण पटेल जानते थे यह सब?
तो क्या इसीलिए वे यहां डूंगा की नहीं, डूंगा के बहाने पीढ़ी दर पीढ़ी पराजय की यंत्रणा भोगते होरी की कहानी कह रहे हैं? सपने के टूटने की कहानी? उस दौर में जब सपनों के सौदागर आंखों पर तिलिस्म की पट्टी चढ़ा कर नकली को असली, सपने को हकीकत बताने-बनाने की कला में पारंगत हो चुके हैं?
बेशक!!!
शहर और शिक्षा की हवा पाकर जागरूक होती नई पीढ़ी को लेकर होरी की तरह
डूंगा ने भी तो उन्नत भविष्य की तस्वीरें गढ़ ली थीं।
लेकिन अब जब वही पीढ़ी पूंजीवादी
ताकतों की एजेंट बन कर अलग राह पर निकल गई है तो क्या करे वह? हत्प्रभ है डूंगा। बुढ़ापे की लाठी हाथ में न हो तो कांपती हड़ियल काया और
दीठहीन आंखों के साथ कौन सी राह निकले वह? डूंगा की ही तरह
कहानी भी तो मोहभंग, हताशा और दायित्वबोध के तिराहे पर ठिठकी
खड़ी है ... स्तंभ और किंकर्त्तव्यविमूढ़ता के साथ।
. . . और संशय से घिरी मैं भी जहां
की तहां खड़ी हूं कि जहां हर दूसरी-तीसरी कहानी किसी न किसी डूंगा की पीड़ा को लेकर
लिखी जाती हो; जयशंकर प्रसाद की कहानी 'पुरस्कार' से लेकर प्रियंवद की कहानी 'दास्तानगो' तक कितनी ही सशक्त कहानियां भूमि
अधिग्रहण समस्या को कई-कई आयामों में विश्लेषित कर चुकी हों, वहां 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' में मौलिकता और ताजगी की तलाश भी कर पाऊँगी मैं? सवाल
अंधेरे का आवरण बन कर पूरी कहानी को ढांप लेता है। जानती हूं स्थिति से बाहर रह कर
फतवे दिए जा सकते हैं, स्थिति की विकरालता को अनुभव बना कर
जिया नहीं जा सकता। इसलिए घुप्प अंधेरे से घबरा कर बैठ भी नहीं सकती। भीतर उतरने
के लिए मद्धिम ही सही, रोशनी का एक बिंदु तो चाहिए ही। यह भी
जानती हूं कि भीतर के सर्जनात्मक लोक को अपने संवेदन और विवेक से आलोकित किए बिना
मैं किसी और के सर्जनात्मक लोक में उतर नहीं सकती क्योंकि कहानी अपनी मूल संकल्पना
में दो सर्जनात्मक व्याकुलताओं के बीच संवाद की प्रक्रिया ही तो है जो क्रमशः आलाप
की ऐसी तान बन जाती है कि मनुष्य होने के अतिरिक्त इंसान की तमाम लौकिक पहचानों को
छिन्न-भिन्न कर डालती है।
वक्त की तरह लेखक भी सदैव गतिशील रहने के लिए नियतिबद्ध है। ठहरने का 'सुख' तो वह जानता ही नहीं। अपनी सीमाओं और पाठक की बढ़ी हुई अपेक्षाओं के बीच दोलायमान वह जानता है कि कहानी भाषा, पात्रों, घटनाओं से बुने पाठ के भीतर नहीं होती, पाठ से तरंगायित होने वाले प्रभाव में होती है जो पाठक के बोध और चेतना के स्तर से आकार ग्रहण करती है और पाठक की सुस्पष्ट रुचि, दृष्टि एवं कोण के अनुरूप कहानी का पुनः सृजन करती है। या यूं कहें कि कहानी वह नहीं जो लेखक द्वारा पन्नों पर उतारी जाती है, बल्कि वह है जो पाठक द्वारा ग्रहीत की जाती है। इसलिए प्रत्येक कहानी के साथ उसके मूल्यांकन के निकष भी अनायास अलग हो जाते हैं और कहानी में निहित अनेकविध व्यंजनाओं को पकड़ पाना भी आसान हो जाता है। सार्थक कहानी अक्सर एक बिंब, भाव या सवाल बन कर चेतना को आप्लावित कर लेती है। और ठीक यहां मानो लेखक को मनचीता करने का रास्ता मिल गया है। श्म्हारे नी बेचनो है म्हारे खेतश् . खंजड़ी को कस कर पकड़ते रक्तरंजित डूंगा का आर्त्तनाद भावापूरित बिंब बन कर पाठक के भीतर तक उतरता चलता हैण्
डूंगी की जिद से ज्यादा डूंगा की बोली-बानी मन को बेचैन करती है। न बोली का प्रयोग अनायास भाव से नहीं हुआ है। यह बोली
डूंगा की पहचान को उसकी मिट्टी के साथ जोड़ती है, और फिर उसके
खून-पसीने के साथ घुल-मिल कर उसे एक भास्वर अस्मिता प्रदान करती है। तभी तो कहानी
भूमि अधिग्रहण के खिलाफ खेत को बचाने की कवायद न रह कर अपनी मानवीय अस्मिता को
बचाने की गरिमामयी लड़ाई बन जाती है जो वर्तमान विडंबनाओं से दिशा, परिप्रेक्ष्य और चुनौती लेने के बावजूद तात्कालिकता का अतिक्रमण करते हुए
हर देश-काल को रचने वाले मनुष्य के संघर्ष की दास्तान बन जाती है।
सत्यनारायण पटेल काल की चौखटों में बंधे रहना भी जानते हैं और पंख
फैला कर व्योम को नाप आने का हुनर भी। अद्भुत किस्सागो हैं वे - चित-पट के खेल में
माहिर। 'मैं' बन कर कथानायक के अंतस की
बारीकियों की जांच भी कर डालते हैं (वर्टीकल एप्रोच) और निःसंग भाव से युगीन
दबावों के बीच उसे टूटते-बनते देखते भी रहते हैं (हॉरीजोंटल एप्रोच); और इस प्रकार दोनों को ताने-बाने के रूप में पिरोने के कारण कहानी
संश्लिष्ट डिजाइन के रूप में में उभरती है। सत्य पटेल के पास एक और खूबी है
-निःसंग आसक्ति (डिटैच्ड इन्वॉल्वमेंट)। यह ऐसी विशिष्टता है जो कहानी के साथ लेखक
के संतुलित सम्बन्ध को ही नहीं दर्शाती, पात्रों की बुनावट
को हर तरह के लेखकीय हस्तक्षेप से मुक्त कर अपना वजूद आप अख्तियार करने का स्पेस
भी प्रदान करती है। फिर भी सूत्राधार तो वे हैं ही। कहानी के शुरुआती पन्नों में
ही वे ऐसे तीन स्थलों की नियोजना करते है जहां निःसंग आसक्ति के साथ डूंगा को एक
निश्चित व्यक्तित्व देने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा सकें। पहला स्थल है भदेस,
विकृत, बीभत्स, अमानवीय
स्थितियों में जीते डूंगा की लघुमानव सरीखी उपस्थिति। स्वयं लेखक देर तक बिंबों का
खेल रचाते हुए उसे डूंड के रूप में प्रस्तुत करते हैं - लेटा हुआ डूंड, गेहूं के रंग का डूंड, हिलता हुआ डूंड, एक अदद पेट से लैस डूंड . . . नहीं, इतने भर से
संतुष्ट नहीं है लेखक। अब वे 'तकिया' को
डूंगा का रूपक बना कर उसका ब्यौरेवार विस्तार देने लगते हैं। तकिया यानी 'फटे चेथरों को खोल में भर कर बना माकणों (खटमलों) का घर'। ''जब किसी भी घर में सफाई अभियान के कारण माकणों
पर घासलेट या फसलों पर छिड़कने वाली दवा से हमला किया जाता, तब
माकणें गारे की भीतों की दरारों से, ईंस और पाए की दरारों से
यानी जो जहां होता, वहां से जान हथेली पर लेकर भागता और
डूंगा के तकिए में आकर राहत की सांस लेता।'' (पृ0
102) डूंगा की अनुपस्थिति में तकिए का अभिन्न हमदम है उसका पालतू
कुत्ता ट गड़ा - नींद और 'सू सू' दोनों
के लिए पाएदार दोस्त। टुल्लर को लगता रहे कि यह तकिया नहीं, 'ईंट के टुकड़ों से भरी छोटी बोरी' है, लेकिन डूंगा के लिए नींद (विश्रांति) और सपनों (संघर्ष) का आधार है। चूंकि
इस पूरे प्रकरण में भावनाओं के अतिरेकी ज्वार से बचा गया है, इसलिए 'पीड़ा' और 'दया' की चिरपरिचित निष्कर्षात्मक अभिव्यक्तियों में
दम तोड़ने की बाध्यता से मुक्त भी हो सका है। अपनी अंतिम परिणति में यह प्रकरण
अनायास वॉन गॉग की विख्यात कलाकृति 'पोटेटो ईटर्स' का स्मरण करा देता है। तब पीड़ा, करुणा, सहानुभूति के साथ आक्रोश और घुटन के गोले पेट में उठने लगें और पूरी ताकत
के साथ दिलोदिमाग को बेचैन कर दें तो यह रचनाकार की सफलता ही कही जाएगी न!
डूंड यानी डूंगा यानी भदेस बीभत्स लघुमानव . . . मैं सोचती हूं यह
वर्ग हमारी दृष्टि, सोच और भावनाओं के दायरे से हर बार बाहर
कैसे छूट जाता है? या कि हमारे भीतर का शुतुरमुर्ग ऐन वक्त
पर रेत में गर्दन गड़ा कर सामने के दृश्य को मुल्तवी कर देता है? सत्य पटेल कहानी में कहीं संकेत तक नहीं देते, लेकिन
जाने क्यों मुझे लगता है कि डूंगा का 'लहू पीने को आमादा 'टुल्लर' की आंतरिक बुनावट में वह हर शख्स मौजूद है
जो जमीन और फसल के साथ इंसानी वजूद के घनिष्ठ सम्बन्ध को भूल कर त्रिशंकुनुमा
चकाचौंध के पीछे लहालोट है। यकीनन इस टुल्लर का दायरा बहुत बड़ा है - हम सब के
शतुरमुर्गी 'मैं' से बना हुआ। तो क्या
इसीलिए यह कहानी डूंगा को सहानुभूति और दया देने की मांग नहीं करती? एक सवाल! लेकिन माकूल जवाब क्या गहरे उतरे बिना पाए जा सकते हैं?
दूसरे स्थल का चुनाव करते हुए लेखक ने अभाव की संतान डूंगा को श्रम
के पर्याय के रूप में सर्जित किया है। यह स्थल लेखकीय स्टेटमेंट के रूप में आया है
- ''डूंगा की धोती मानो धोती नहीं थी। उसकी कमर के आसपास
लिपटा पूरा समुद्र थी।'' इस समंदर में श्रम का पसीना है और
हिम्मत-हौसले की गहराई जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होकर डूंगा के पास एक अदम्य
विश्वास के रूप में आई है कि ''फसल के गोड़ में मेहनत,
भावना और नींद के मिश्रण से बनी खाद'' डालो,
''एक-एक पौधे को खून के पसीने'' से सींचो तो ''फसल को अच्छा होना ही पड़ेगा।'' इतना अच्छा कि तबाह
करने को आमादा बैरी भी रश्क करने लगें और वैकल्पिक कूटनीति अपनाने को बाध्य हो
जाएं कि ''यह ऐसी मेहनत करता रहा, ऐसी
फसल काटता रहा . . . कर्जा तो यूं ही पटा देगा। पर रुपए के बदले रुपए लेने को थोड़े
ही दिया था कर्जा। कर्जा दिया था ताकि उसके बदले खेत आ सकें।'' मैं सोचती हूं ऐसे श्रमजीवी और मजबूत इरादे के धनी व्यक्ति को आखिर लेखक
वक्त के हाथों पटकनी खाते क्यों दिखाना चाहता है? खासतौर पर
सुविधाभोगी मानसिकता के उस युग में जब 'टके सेर भाजी टके सेर
खाजा' सरीखी अंधेरनगरी 'मूल्य' बन गई हो और मिल्टन का कॉमिक हीरॉइक एपिक 'रेप ऑव द
लॉक' वक्त का हसीन तब्सरा? या फिर
इसलिए कि इसी लीक पर टकराहट, विडंबना और त्रासदी को घनीभूत
करना जरूरी है ताकि निष्क्रियता के नीचे धड़कती सक्रियता वैचारिक प्रखरता और
कर्मठता का बाना पहन कर हम अपने-अपने डूंगा की रक्षा में बाहर आ सकें? डूंगा और टुल्लर फिलवक्त पाले में आमने-सामने खड़े दो प्रतिद्वंद्वी भले ही
हों, अंतस्संम्बन्ध के उस बिंदु को रेखांकित करने की मांग
अवश्य करते हैं जहां कभी एकमेक होते हुए भी वे दो विरोधी रेखाओं की तरह एक-दूसरे
को काटते हुए विपरीत दिशाओं की ओर तेजी से बढ़ते गए।
डूंगा का अनथक श्रम सपने को साकार करने की हुलस के साथ बंधा है और
सपना सांस की डोरी बन कर डूंगा के मन-पा्रणों से लिपट गया है। माने अपनी निःसंग
आसक्ति को लेखक ने डूंगा में पिरो दिया हो, और डूंगा के भीतर
प्रतिष्ठित होते ही वह गीता के कर्मयोग सिद्धkaत में समा गया
हो। सत्यनारायण पटेल कर्मयोगी डूंगा की इसी चारित्रिक दृढ़ता के साथ कहानी का पट
खोलते हैं। शंख की फूंक से निष्प्राण डूंगा में गति, ऊर्जा,
उत्तेजना, दृढ़ता और आत्मबल का संचार होना
डूंगा की कन्विक्शंस को एक भक्त की अनासक्त दृढ़ता और ऊँचाई का रूप देते हैं। भक्ति
कर्मकांडी भक्त की तरह डूंगा को पाखंडी नहीं बनाती, आत्मस्थ
होने की उस कगार तक ले आती है, जहां विवेक के उजले आलोक में
उसे अपना हौसला दी,खता है और लक्ष्य तक ले जाने वाल पथरीली
डगर भी। मंदिर की आरती में रोज-रोज आत्मलीन होकर खंजड़ी बजाने वाला यह नास्तिक-भक्त
हिंदी कहानी के विरल महानायकों में एक बन जाता है जो कर्म सौन्दर्य का नया शास्त्र
रचने लगता है। डूंगा को कोई लघुमानव कैसे कहे? माना कि 'डूंगा का घर यानी मुसीबतों का पीहर', लेकिन इससे
क्या वह हेमिंग्वे के उपन्यास 'ओल्ड मैन एंड द सी' के बूढ़े महानायक सा विराट नहीं हो जाता? सत्यनारायण
पटेल की खासियत है कि वे अपनी ही स्थापनाओं को काट कर पात्र के साथ-साथ आगे बढ़ते
हैं। शायद इसलिए कि अपने ही भंवर से मुक्त हुए बिना वक्त की लहर के साथ चला नही जा
सकता।
'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' कहानी डूंगा की
पागल जिद का ऐलान है - अपनी बोली-बानी, परिवार-संस्कृति के
साथ जड़ों और जमीन को बचाने की पागल जिद! फिर भी कैसी विडंबना कि खेत में फसल के
रूप में नकदी उगाने वाला डूंगा स्वयं फटेहाल है और फसल दर फसल सृष्टि की विकास
परंपरा को अविच्छिन्न आगे बढ़ाने वाला घटक वक्त के किसी शुरुआती मोड़ पर ठिठक कर
आदिम सभ्यता का प्रतिनिधि ही बन कर रह गया है। राजाज्ञा (अनुकंपा?) की अवहेलना से खेत के बदले मिली थाल भर स्वर्ण मुद्राओं को राजा के ऊपर
न्यौछावर करती मधूलिका (प्रसाद की कहानी 'पुरस्कार') की ठंडी निश्शब्द विद्रोह ज्वाला में डूंगा का पागल प्रतिरोध बौखला रहा है
कि 'म्हारो नी बेचनो है म्हारो खेत'।
लेकिन डूंगा में मधूलिका की तरह आड़ी-तिरछी चालें चल कर बिसात को पलट देने की चाह
भी नहीं। दरअसल इस भूमिपुत्र को किसी भी तरह के शतरंजी खेल का कोई इल्म ही नहीं।
उसकी हसरतें जितनी छोटी हैं, उतनी ही छोटी है दुनिया - घर,
मंदिर और खेत के बीच फैली दुनिया में सपना एक है और चिंताएं अनेक जो
डंकल औैर अंकल के डसने-हंसने के बीच अपने वजूद को बनाती-फैलाती चलती हैं। 'दास्तानगो' में प्रियंवद पुल पर पलटी घोड़ागाड़ी को
लूटते भिखमंगों की फौज के अंतस्तल में नहीं उतरते, लेकिनं न
जाने क्यों मुझे उस भीड़ में सम्पत माय के बेटे किशोर समेत रामा बा और डूंगा की आने
वाली पीढ़ियां दिखाई देने लगी हैं। आखिर कब तक मंदी का आलम विश्व-बाजार के सैलाब को
रोके रहेगा? फैटेंसी के तौर पर अच्छा लग सकता है कि मॉल और
मल्टीप्लेक्सों की गोद से निकल कर विकास वापस खेत की ओर मुड़ जाएगा; कि ऊर्जाकेन्द्रित हवाई जहाज-एयरकंडीशर और रेफ्रीजिरेशन जैसी सुविधाओं की
जगह दीए की टिमटिमाती लौ जल-जंगल-जमीन से हमारा रिश्ता पुख्ता कर देगी, लेकिन इतना तय है कि उठी हुई लहर कभी पीछे नहीं लौटती। डूंगा के सपने को
बचाने के लिए लेखक मंदी जैसी किसी तात्कालिकता को समाधन के रूप में प्रयुक्त कर
फौरी तौर पर भले ही समस्या की विकरालता से मुक्त हो जाए, लेकिन
'सोने की जमीन' को लीलने के लिए उठी
ताकतों से निपटना इतना इकहरा और सरल तो नहीं। आश्चर्य नहीं कि ये तीनों कहानियां -
पुरस्कार, दास्तानगो और 'लाल छींट वाली
लूगड़ी का सपना' जमीन और जमीर की रक्षा में सन्नद्ध सेनानियों
को औदात्य के शिखर पर ले जाती हैं। प्रसाद ने द्वंद्वग्रस्त मधूलिका के जरिए
प्रतिशोध को राष्टद्रोही हरकत बेशक बताया हो, प्रतिरोध की
ताकत को 'मृत्युदंड' के पुरस्कार के
रूप में सम्मानित अवश्य किया है। भूख और बेहाली के कारण लूट-खसोट की दिशाहीन
कारगुजारियों में विघटित होती भूमिहीनों की भीड़ को प्रियंवद ने उम्र और अनुभव से
पके-तपे सेनापति का फौलादी नेतृत्व देकर वक्त को संजोने का प्रयास किया है।
सत्यनारायण पटेल इन दोनों से अलग सपने की अहमियत और स्निग्धता के बरकस विकास,
पूंजी, धर्म और राजनीति के चरित्र की परतें
खोलने लगते हैं। अब ज्यादा देर अनासक्त बने रहना उनके लिए संभव नहीं रह गया है।
कोई न कोई लेखकीय युक्ति ढूंढ उन्हें बाजार की सर्वग्रासी भूख से सपने और संघर्ष
के प्रति व्यक्ति की आस्था को बचाए रखना है। वे जानते हैं कि जिंदगी अपनी रवानगी
में इंसान को जय-पराजय का आकलन करने को वक्त नहीं देती। बल्कि सच तो यह है कि एक
अकेले व्यक्ति की हार-जीत व्यवस्था या समाज पर कोई बड़ा प्रभाव भी नहीं डालती।
लेकिन जीवन की अनुकृति होने के बावजूद कहानी जीवन जैसी जटिल अबूझ और अथाह नहीं। वह
निश्चित कूल-किनारों में बंधी है और उतार-चढ़ाव के निश्चित ग्राफ के साथ जीवन की
किसी एक विडंबना को अपनी नजर से तोड़ती-बुनती है। जाहिर है यहां जय-पराजय (दृष्टि)
का मसला जीवन के साथ लेखक के सम्बन्ध का उद्घाटन करने लगता है और कहानी जीवन की
कोख से निकलने के बावजूद जीवन का सृजन करने का जरिया बन जाती है। पाश्चात्य
नाट्यशास्त्र में जिसे देनूमा (denoument) कहा गया है,
वह उतार की क्लांत यात्रा नहीं, न ही सkaझ ढलने पर जाल समेटते मछुआरों की यांत्रिक गतिविधि है, बल्कि सरोकार और संवेदना की धुरी पर टिक कर त्रिलोक की यात्रा कर आने के
बाद अपनी कन्विक्शंस को मूर्त रूप देने की ललक है। बेशक नाट्य अवस्थाओं को कहानी
में ठीक उसी रूप में मूर्त करने की मांग बेमानी है, लेकिन
देनूमा ही वह स्थल है जहां जीवन-समय-समाज के साथ अपने अतःसम्बन्धों को गुनते-रचते
लेखक -पाठक को भी संवेदना और विचार के उसी धरातल पर ले आकर एक साझी दायित्वशीलता
के साथ सृजन का नयौता देता है। काव्यशास्त्रीय प्रतिमान इसे उदात्तीकरण की भावभूमि
का नाम देना चाहें तो देते रहें, मैं इसे लेखक की निजता और
विशिष्टता का आधार-बिंदु मानूंगी जो किस्से में पहली बार प्राण-प्रतिष्ठा कर इसे 'कहानी' का रूप देता है, वरना
इससे पूर्व तो वह चतुर किस्सागो द्वारा सुनाई जाने वाली रोचक दास्तान ही थी। यह वह
स्थल है जहां लेखक के लिए किसी भी किस्म का मुखौटा पहनना संभव नहीं। मंदी यानी
बाजार के पराभव की परिकल्पना कर लेखक कहानी के उद्देश्य को साफ-साफ शब्दों में
बयान कर देते हैं कि ''जब तक खेत बचा है, खेती करने की इच्छा बची है, अपनी मेहनत की फसल के दम
पर लाल छींटदार लूगड़ी लाने का सपना बचा है . . . बहुत कुछ बचा है'' (पृ0 135) डूंगा का सपना उनका अपना सपना है और आम
आदमी के जीने का आधार भी। आधार बना रहेगा तो आस्था और संघर्ष की लौ भी जगमगाती
रहेगी। इसलिए लेखक की गिरफ्त से छूट कर कहानी स्वयं डूंगा के सपने को टूटने-छीजने
से बचाने की कवायद मे जुट जाती है। कहानी जो डूंगा के सपनों की नहीं, 'मेरे' सपनों की राजदार बन जाती है और जानती है सपना
टूट गया तोे सम्बन्धों की मिठास और आपसी विश्वास का सूत्र भी टूट जाएगा। लूगड़ी
पोशाक होती तो डूंगा कब का खरीद कर मां-पत्नी को पहना-औढ़ा चुका होता। लूगड़ी बतर्ज
कबीर 'संतोषधन' है जहां अपनी न्यूनतम
मानवीय गरिमा को बचाने के लिए इंसान को अभाव, आतंक, उत्पीड़न और कदाचार के दलदल में न उतरना पड़े। इसलिए कहानी डूंगा के पराभव
की कहानी बन ही नहीं सकती थी। अपनी मूल संकल्पना में यह विकास की गति और नीति पर
व्यंग्य की कहानी है। सपने के टूटने की नहीं, सपने को बचाने
की जद्दोजहद की कहानी है। डूंगा सपने देखने में मग्न रहता तो शेखचिल्ली की तरह कब
का भुला दिया गया होता। वह सपनों को साकार करने का हौसला बन कर सामने आता है। सपने
को बचाने की खातिर परिवार और समाज से टकराता डूंगा अकेला खड़ा है - अडिग, अविचल, स्थिर। मानो परिवर्तन का चक्र सबको लाद कर
चलता बना हो और डूंगा उसे समझाता ही रह गया हो कि ''किसान का
बेटा खेत में खटता नी, अपने मन से जुटता है - अपनी धरती मां
की गोदी में खेलता है।'
मैं सोचती हूं क्यों न रुक कर 'किसान का बेटा'
कही जाने वाली शख्सियतों के साथ मुलाकात ही कर लूं। डूंगा, रामा बा, किशोर तो हैं ही, डूंगा
का साला मदन और टुल्लर के छोरे भी तो हैं किसान के बेटे। लेकिन किशोर ने तीस लाख
रुपए में दो बीघा खेत बेच कर घर के सामने कार खड़ी कर ली है; और
मदन खेतीबाड़ी करने जैसी 'फिजूल' की
दिनचर्या से मुक्ति पाकर दिनदहाड़े गांव के बीचोबीच जुआ खेल कर पैसा बनाने का चरखा
चलाने लगा है। बेशक उसके साथियों में कुछ निठल्ले कामचोर बदमाश हैं तो कुछ उस जैसे
'समझदार' किसानपुत्र भी जांे हवा का
रुख भांपते ही अपनी कार्यशैली बदल लेते हैं। आखिर मदन और किशोर करें
भी तो क्या करें? जब खेतों में फसल की जगह कारें, बंगले और मल्टियां लहलहाने लगें, खेत बेच कर इतने
पैसे मिलें कि सम्हाले न सम्हलें तो फिर वे फकीरी और फटेहाली में क्यों रहें?
उनके रोके विकास की आंधी रुकेगी तो नहीं। और फिर वे रोकें भी क्यों?
जिन सपनों को देखने के लिए छुटपन से आंखे तरसतीं थीं, वही मानो अब सभी सीमाएं तोड़ कर उनके पास आने को बेचैन हैं। विकास की हवा
ने खेत लील लिए है तो क्या, बेहद उर्वर 'रोजगार' भी तो मुहैया कराया है - जमीन की दलाली।
गांव के भीतर तक घुस आए महानगरों को अपनी साख बनानs के लिए
आनन-फानन में बहुत कुछ करना है - चौड़ी-चिकनी सड़कें, मल्टीप्लैक्स,
पैट्रोल पंप, इंडस्ट्रियल टाउनशिप, पार्क। जमीन के बिना कुछ भी संभव नहीं। सो जमीन दिलाने का जिम्मा दलाली के
नाम पर जमीन से बेदखल कर दी गई इसी आत्मरतिग्रस्त पीढ़ी के पास।
अपने भविष्य से बेपरवाह यह पीढ़ी न श्रम के महत्व को जानती है,
न जीवन-मूल्यों की उपयोगिता और न आत्मसम्मान की दमक। भोग, अनास्था, अराजकता और 'स्व'
का संकरा कीचड़ भरा दायरा - इससे बाहर यदि कोई दुनिया है और उसमें
डूंगा जैसे लोग अपनी प्रतिरोधी ताकत के साथ लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना जुटाने का
संकल्प लिए बैठे हैं तो यह एजेंट पीढ़ी छल से, बल से उन्हें
धूल चटाने को तैयार है। निष्ठा और आतंक को एक-दूसरे का पर्याय मान कर इन्होने
वफादारी और अपराध में पाए जाने वाले फर्क को मिटा दिया है। नहीं तो वे सिर्फ इस
बात के लिए रामा बा की बेटी का अपहरण और सामूहिक बलात्कार न करते कि उसने खरे-खरे
शब्दों में जमीन का सौदा करने से इंकार कर दिया है। दरअसल जब मिट्टी सोना बन जाए
और जीवन देने की बजाय तृष्णाओं की तिजारत करने लगे, तब न
विवेक शेष रहता है, न सम्बन्ध। महत्वपूर्ण हो जाता है अपना
अहं और मूल्यवान हो जाती है अपनी हर इच्छा। जाहिर है बाधा पहुंचाने वाला हर
व्यक्ति 'शत्रु' बन जाता है और
युद्धनीति यही बताती है कि शत्रु का सिर कुचले बिना 'शांति'
की स्थापना संभव नहीं। अलबत्ता सिर कुवलने की प्रक्रिया शत्रु को
नष्ट करने भर के लिए नहीं होती, संभावित शत्रुओं के हौसले
पस्त करने की टंकार भी होती है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि डूंगा जैसे दिलेर को सपने
में लूगड़ी की बजाय कभी रामा बा की बेटी की तरह अपनी बेटी पवित्रा नंगी-निचुड़ी
दिखाई देने लगती है और कभी लहलहाती फसल राख का ढेर बन जाती है। यह अनिष्ट की आशंका
से होने वाली सिहरन नहीं, अवश्यंभावी अनिष्ट के सामने छीजते
चले जाने की स्वीकृति है।
माथे पर हाथ धर कर न बैठे तो डूंगा क्या करे? खेत
बचाने के अलावा बेटी ब्याहने की चिंता भी है उसे। पढ़ी-लिखी संस्कारशील बेटी को
ब्याहने के लिए उसके जोड़ का दूल्हा ही चाहिए, लेकिन पढ़-लिख
कर 'भणे-गुणे' लड़के या तो पुलिस-फौज
में जा रहे हैं या प्राइवेट नौकरियों में । खेती (गांव और मां-बाप में भी) में
किसी की रुचि नहीं। नौकरीपेशा लड़कों को चाहिए ऊँचा दहेज। जो एक छींटदार लूगड़ी न
खरीद पाया हो, वह दहेज का ढेर कैसे लगाए? और नौकरीपेशा लड़के भी क्यों न चाहें दहेज? जब खरबूजे
को देख कर खरबूजा रंग बदल लेता हो और खातियों की शादियों में दहेज-दिखावा-औरतबाजी
का चलन बढ़ गया हो तो ऊँची कही जाने वाली जातियां क्योंकर पीछे रहेंगी? आखिर होरी भी तो 'महतो' (जमीन
से डेढ़ अंगुल ऊपर) होने के नशे में कहां-कहां समझौते नहीं करता फिरा? लेकिन डूंगा होरी नहीं। समझौताविहीन जिंदगी जीने की जिद ने उसे तोड़ दिया
है। दमड़ी बंसोर के साथ मिल कर भाइयों से थोड़ा छल-फरेब करने की होरी-सरीखी कुशलता
डूंगा में बिल्कुल नहीं। न ही अरमान (मर्यादा) और अवसर की लहर पर सवार होकर
लड़कियों के ब्याह के लिए दो अलग-अलग तरह के निर्णय लेने की व्यवहारकुशलता। स्मरण
रहे कि बड़ी बेटी सोना के ब्याह के समय समधियों द्वारा दान-दहेज न दिए जाने के
निर्देश के बावजूद होरी कर्ज लेकर धूमधाम से ब्याह करता है क्योंकि परंपरागत
भारतीय परिवार में शादी (और खासकर पहली शादी) के समय ही अपने रुतबे और ताकत को
दिखाने की प्रथा है। लेकिन वही होरी अंतिम संतान रूपा के ब्याह के समय न केवल
कुशकन्या देने का निर्णय लेता है, बल्कि वर से कन्या-शुल्क
के रूप में दो सौ रुपए भी वसूलता है। बेशक कर्ज के तौर पर ही, लेकिन वह चोर-मन को समझाने की एक अदा भर है। डूंुगा के पास एक ही इल्म है
- मेहनत करते हुए सूखी छड़ी-सा तन कर खड़ा रहना। इसलिए वह झुक/मुड़ कर प्रतिकूलताओं
की विकरालता से स्वयं को बचा नहीं पाता, टूट जाता है। होरी
के व्यक्तित्व में गुंथी लोचशीलता (व्यवहारकुशलता) धनाभाव एवं समयाभाव के बावजूद
उसे 'पंच पोसाक' पहन कर जमींदार के
दरबार में 'नजराना' और 'बेगार' पेश करने के लिए प्रेरित करती है, डूंगा का अड़ियल स्वभाव और कर्मठ वृत्ति कभी रुक कर अपने को भीतर-बाहर से
निरख-परख कर 'चीन्हने' का अवकाश नहीं
देती। अपने ही प्रति अनुदार डूंगा मानो अपने और अपने परिवार-परिवेश से अपरिचित होता
जा रहा है। इतना अधिक कि आईने में खुद को न पहचान पाए। पलट कर पीछे देखे कि कौन
बूढ़ा बैठा है। भीतर यौवन की उमंग और बाहर बुढ़ापे की ढलान - रियलाइजेशन (यथार्थ की
प्रतीति) की इस प्रक्रिया में ठगा सा रह गया है डूंगा कि 'पुपलाता
मुंह, धंसी आंखें, पुतलियों के आसपास
फफूंद जैसा कुछ जमा हुआ, भाल-नाक और गाल पर मकड़जाल, और जाल के नीचे आटा छननी के माफिक छोटे-छोटे छेद -इस डूंगा को वह बिल्कुल
नहीं पहचानता, ठीक वैसे जैसे दुर्गंधयुक्त खटमल भरे चीकट
तकिए की असलियत से वह खुली आंखों दूर रहता है। तो क्या यह 'सिधाई'
(जिसे मूर्ख कड़ियल जिद का नाम भी दे बैठते हैं लोग) ही डूंगा के
व्यक्तित्व की बड़ी दरार है जो उसे धीरे-धीरे क्षरित कर रही है? ''कसो घनचक्क्र है हूं भी'' - खोपड़ी में एक टप्पू मार
कर बुदबुदाता-हंसता डूंगा पाठकीय सहानुभूति बटोरने में जरा भी देरी नहीं लगाता,
लेकिन सहानुभूति का उफान उतरते ही उसकी अति विनम्रता अहं की बू से
गंधाती दीखने लगती है। बेशक 'सीधा' दीखता
डूंगा इतना सीधा भी नहीं है। जमाने के हिसाब से अपना बदलना भले ही उसने मुल्तवी
रखा हो, बदलते जमाने की चाल को पहचानता है वह, और उस चाल में कदम मिला कर चलने को बेताब पत्नी-बेटी की व्यकुलता को भी।
जानता है कि टी वी धारावाहिकों को देखते-देखते पवित्रा ठीक वैसे ही जेवरों,
सितारे जड़ी लाल चूनड़ी और राजकुमार सरीखे दूल्हे के सपने लेने लगी
है। अनुमान भी है कि अपने को 'भणी-गुणी' लड़कियों की श्रेणी में रख कर वह ब्याह के बाद 'किसी
के यहां गोबर सोरने और कंडे थेपने' का काम बिल्कुल नहीं
करेगी। टी वी धारावाहिकों के डिजाइनर घर, डिजाइनर सम्बन्ध और
डिजाइनर सपने एक पूरी पीढ़ी को भरमा रहे हैं, मेहनत की जगह
तिकड़म को मूल्य बना कर पोस रहे हैं। जमीन मेहनत का पर्याय है, इसलिए वह आंख में खटकती है। कारखाना कारुं के खजाने का पर्याय है, जिसे लगाना बहुत आसान है। बस, जमीन बेच कर पैसे खरे
करने हैं, और फिर उन्हें कारखाने की शक्ल में ढाल देना है।
चाहो तो अपने सपने को पूरा करने के लिए लूगड़ी बनाने का कारखाना ही क्यों न खोल ले
इंसान/डूंगा . . . . और कारखाना संभालने के लिए टी वी धारावाहिकों में आने वाले
किसी हीरो को घरजंवाई बना ले। सब कुछ कितना आसान . . . और सपने की तरह भारहीन . .
. सुहाना। जमीन की 'मुसीबत' बीच में से
निकल जाए बस। ममत्व की डोर से बंधा डूंगा पवित्रा की तर्कहीन सोच पर सौ जान से
फिदा है, लेकिन पारबती को प्रताड़ित करने से नहीं चूकता।
अलबत्ता सीधे-सीधे पारबती से अपनी नाखुशी बयान करने का हौसला (स्पष्टता) उसमें
नहीं, पारबती के भाई मदन के बहाने पारबती के कानों में सीसा
सा घोल देता है कि ''. . . जिको मन जी (मां) का दूध से नी
भरियो, जी का खून पीना से, गोश्त खाना से
कैसे भरोगे?'' (पृ0 124)
शायद यह प्रताड़ना पारबती के साथ-साथ अपने लिए भी है क्योंकि मन ही
मन वह जानता है, भीतर बैठा 'चोर डूंगा'
जमीन बिकने से मिले पैसों का पहाड़ देख-देख कर मुदित हो रहा है और
कुलाबे बांध रहा है कि ''किशोर के दो बीघा के तीस लाख तो
मेरे दस बीघा के कितने होंगे। अयं अयं! डेढ़ सौ लाख! बहुत ऊँची और चौड़ी खंडार होगी।
पूरी बैलगाड़ी भर जाएगी। लेकिन एक बैलगाड़ी भर नोट में कितनी बैलगाड़ी भर लूगड़ी आएगी।
फिर मैं, मेरी पडत्रोसन सम्पत काकी को ही नहीं, परगांव की भी कई सम्पत काकियों, पारबयिों और
पवित्राओं को लूगड़ी दे सकूंगा। धरती मां की हरेक बेटी को लाल छींटदार लूगड़ी ओढ़ा
दूंगा।'' (पृ0 118) इस चोर डूंगा का
मुंह छेंकने के लिए डूंगा को सजग और लाउड होकर जगह-जगह सवालों के पहरेदार तैनात
करने पड़ते हैं कि ''डूंगा, खेत बेच
देगा तो काम क्या करेगा? रोटी कहां से कमाएगा? क्या तू धरती का बेटा धरती को बेचे पैसों से रोटी खरीद कर खाएगा? .
. . खेत में मेहनत करे बगैर तुझे रोटी हजम हो जाएगी? नींद आ जाएगी? कोई बेटा अपनी मां का सौदा करके चैन
से सो सकता है?'' (पृ0 118)
माया और मृगतृष्णाओं के आसमान से आच्छादित यह ठीक वही स्थल है जहां
डूंगा और टुल्ल्र अपनी-अपनी किंकर्त्तव्यविमूढ़ता और अस्पष्टता के साथ विचलित से
एक-दूसरे के सामने ठिठक कर खड़े हैं। दोनों के सामने एक ही सवाल है - बुनियादी भी
और चुनौतीपूर्ण भी कि खेत बेच दिए तो खाओगे क्या? जवाब के
तौर पर कोई ठोस जमीनी समाधान नहीं, देखी-सुनी बातों की नजीर
कि अपनी 'सोने की जमीन' बेच कर दूर
कहीं 'गारे की जमीन' खरीदो, हाली के ईमान के भरोसे जमीन और फसल छोड़ कर गांव लौट आओ; खाली वक्त में ताश-पत्ते खेलो; दूसरों की
बहू-बेटियों को ताको; लोगों की जमीन बिकवाने का फायदेमंद
धंधा अपनाओ। ऐसी नजीरें तृष्णाओं को हवा देने के लिए होती हैं, भविष्य का दीदार करने के लिए नहीं। इसलिए नोटों की गड्डियां और उनसे खरीदी
ऐयाशियां दीखती हैं, धीरे-धीेरे चुक कर शून्य होता आर्थिक
आधार नहीं दीखता। चंचला लक्ष्मी जिस गति से आती है, उससे
दूनी तेजी से लौट भी जाती है, यह बात किसी से क्या छिपी है?
लेकिन कड़वी सच्चाइयों का स्मरण स्वप्नाविष्ट अवस्था में कोई नहीं
करना चाहता। इसलिए कार-बंगले-बंदूक और रुपयों की गर्मी में इतराती 'त्रिशंकु मानसिकताएं' नहीं देख पातीं कि अकर्मण्यता
और अपराध की जुगलबंदी दो-तीन पीढ़ियों बाद उन्हें ठीक वैसे ही नेस्तनाबूद कर देगी
जैसे भाखड़ा-नंगल बांध के लिए अधिग्रहीत जमीनों का मुआवजा पाने और हरित क्रांति के
बाद पंजाब का मेहनतकश किसान अपना आपा खोकर धीरे-धीरे नशे, आतंक
और अपराध का गुलाम बन बैठा। डूंगा इन सवालों और दूरगामी परिणामों पर विचार करना भी
जरूरी समझता है। इसलिए नौ नकद न तेरह उधार वाली नीति को अपना मूलमंत्र मान कर चलता
है। वह बखूबी जानता है कि सपने देखना और सपना पालना दो अलग-अलग चीजें हैं। पारबती
की तरह सपने देखने का मोहाविष्ट क्षण उसे गुदगुदाता भी है (''जल्दी ही उसके घर के सामने भी कार खड़ी होगी और पवित्रा का लाड़ा कार को
कपड़ा पहनाएगा। डूंगा और वह खाट पर बैठे-बैठे देखेंगे।'') और
हूक बन कर किशोर के प्रति ईर्ष्याविदग्ध भी कर डालता है कि वह ''रोज एक-दो लूगड़ी का तेल तो फूंक ही देता होगा'' लेकिन
टुल्लर या किशोर की तरह अपने हाथ-पैर काट कर दूसरों को नहीं थमाता। डूंगा की जिद
में उसका होश कायम है जो उसकी मानसिक शक्ति को और मजबूत करता है। रामा बा और किशोर
ठोस उदाहरणों के रूप में उसे अपना कर्त्तव्य-पथ चुनने का विश्वास देते हैं। रामा
बा हार कर भी विजेताओं के सामने चुनौती की तरह डटे हुए हैं जिन्हें नेस्तनाबूद
करने में स्वयं पूंजीवादी ताकतों के छक्के छूट रहे हैं। किशोर अधकचरे प्रतिरोध की
मिसाल है जो हारी हुई लड़ाई लड़ने का हुनर नहीं जानता; जरा सा
दबाव आते ही घुटनों के बल बैठ जाता है और फिर रिरियाता हुआ पूंजीवादी ताकतों से
पनाह मांगने चला जाती है। टुल्लर के लिए वह आसानी से हस्तगत किया जा सकने वाला
मुहरा है और पूंजीवादी ताकतों के लिए अपनी जीत का ऐलान। सुविधाभोगी रीढ़विहीन लोगों
के लिए किशोर प्रतिरोध और संघर्ष की मिसाल हो तो हो, डूंगा
किशोर की तरह बाजार के बहकावे में आकर अपने पैरों तले की पुख्ता जमीन नहीं छोड़
सकता। वह पढ़ा-लिखा ज्ञानी न सही, अनुभव का ताप सह कर 'त्रिशंकु' होने की त्रासदी जान गया है। इसलिए मानता
है कि नोटों की गड्डियों से खरीदे जा सकने वाले सपने आत्मसार्थकता का संतोष नहीं
देते, मरीचिका की अंधी बदहवास दौड़ में धकेल देते हैं।
पवित्रा और पारबती के सपने में शामिल होने की हर कोशिश उसे और भयभीत, अकेला और असुरक्षित कर देती है। वह जानता है कि मनचली पतंग की तरह सातवें
आसमान की बुलंदी तक ले जाकर जब सपना इंसान को नीचे धकेलता है तो उसके बाद साबुत
बचने की जरा सी भी गुंजाइश नहीं छोड़ता। गजाधर बाबू सरीखा (उषा प्रियंवदा की कहानी 'वापसी') होता डूंगा तो पत्नी को बेटीं, बाजार और मायावी सपनों के पाले में जाते देख अपना बोरिया-बिस्तर समेट
अकेले आत्मसम्मान की दमकती जिंदगी जी लेता, लेकिन तभी जब
परिवार सुरक्षित हो। वह तो नियति के उस दांव पर अवसन्न है कि अभावों के बीच भी
दाम्पत्य के माधुर्य से पगा खेल खेलती सहचरी उम्र की ढलान पर आकर इतनी अपरिचित और
तीखी क्यों हो गई कि डूंगा की आंख में तैरते सपने के परिपार्श्व में उगे असुरक्षा,
भय और बेबसी को देख ही नहीं पा रही। रुपए क्या सम्बन्ध और संवाद
दोनों से भारी पड़ने लगे हैं? क्यों नहीं समझती पारबती कि
परिवार का सहारा मिले तो पूरे संसार से टक्कर ले सकता है आदमी? तो क्या जुझारु रामा बा की लड़ाई में उनका परिवार साथ है? डूंगा अनिश्चित सा मानो सिर खुजलाता जवाब की टोह में रामा बा के भीतर तक
उतर जाना चाहता है। इतने बड़े हादसे के बाद दो-दो जवान बेटियों के बाप को क्या
बेटियों और उनकी महतारी से किसी किस्म के सहयोग की अपेक्षा करनी चाहिए? डूंगा गुणा-भाग नहीं जानता, लेकिन रामा बा के
मुकाबले अपने को बौना होते जरूर महसूस करता है। रामा बा उसकी प्रेरणा हैं और ताकत
का सतत स्रोत भी। बाजार और व्यवस्था को चाहे वह पलट न सके, लेकिन
अपने प्रतिरोध को दर्ज कराने का रचनात्मक दायित्व क्योंकर न सम्पन्न करे?
जाहिर है युग नाम बदल कर किसी भी रूप में क्यों न आए -सतयुग,
त्रेतायुग, कलियुग - सत्-असत् का द्वंद्व कभी
समाप्त नहीं होता। न ही मूल्यों के विघटन या अंत की हाय-हाय के बावजूद
जीवन-मूल्यों के बुनियादी ढांचे में कोई हेर-फेर होता है। अपनी आदिम मनोवृत्तियों
और महत्वाकांक्षाओं के साथ मनुष्य पतन, निष्कृति और उन्नयन
के उन्हीं-उन्हीं द्वारों पर दस्तक देता चलता है जहां से गुजर कर उसके पूर्वज अपने
वक्त में एक सकारात्मक हस्तक्षेप करने की आकांक्षा में कालजयी लड़ाइयां लड़ते चले
गए। 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' कहानी
अपनी मूल संकल्पना में वक्त को आज के फ्रेम में पिरोकर भी चीन्हती है और तमाम
हदबंदियों से मुक्त कर अखंड समय के भीतर स्थित हो कर मनुष्य की जिजीविषा और
संघर्षाकुलता के बरक्स आत्मपरक आततायी ताकतों की नृशंसता और स्वार्थपरता को संदर्भ
भी देती है। तब डूंगा को सत् यानी संकल्पदृढ़ता, तेज और
कर्म-सौन्दर्य का रूपक बना कर कहानी आम आदमी के लिए परिवार, सम्बन्ध
और विश्वासपगी आत्मीयता को जीवन की हर सांस में पिरोने का आख्यान बन जाती है तो
सपनों की सौदागर लम्पट पीढ़ी के लिए डूंगा को जमीन हथियाने के कारोबार का सबसे बड़ा
रोड़ा बना देती है क्योंकि एकमात्र वह ही जानता है, जब तक
सपने हैं, तब तक श्रम और संवेदन से उर्वर जमीन पैरों के साथ
वजूद को भी टिकाए-बनाए रखने की ताकत देती रहेगी।
समीक्षक
....
डॉ0
रोहिणी अग्रवाल
09416053847
गंभीर व सुगठित समीक्षा! बधाई!!!
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