युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी का पहला कविता संग्रह ‘पहली बार’ वर्ष 2010 में भारतीय ज्ञानपीठ से आया था और पर्याप्त रूप से चर्चित भी हुआ था | लगभग चार साल बीत जाने के बाद उनके इस महत्वपूर्ण संग्रह की पहली समीक्षा किसी भी ब्लॉग पर प्रकाशित हो रही है | ऐसे समय में, जहाँ किताब छपने से पहले ही समीक्षाएं छप जाती हों, जहाँ उन समीक्षाओं को सीने से चिपकाए घूमते देखा जा सकता हो और उसे एक उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा हो, ऎसी विनम्रता को एहतराम करने की ईच्छा होती है | दरअसल सच तो यह है कि अपनी ही रचनाओं के प्रति दिखाई जाने वाली यह तटस्थता साहित्य की गौरवशाली संस्कृति को बचाने का काम करती है |
तो आइये पढ़ते हैं संतोष कुमार चतुर्वेदी के काव्य-संग्रह ‘पहली बार’ पर युवा साहित्यकार
और अध्येता हितेश कुमार सिंह की
लिखी यह समीक्षा
अन्तिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति की कविता
समकालीन हिन्दी कविता के परिक्षेत्र में ऐसे बहुत थोड़े कवि हैं जो बहुत ही कम समय में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराते हैं और पाठकों को पढ़ने के लिए विवश करते हैं। संतोष चतुर्वेदी एक ऐसा ही नाम है जो बहुत कम समय में लेकिन अपनी बेहतर कविताओं के लिए चर्चित हुए। और कवियों की अपेक्षा संतोष की कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में कम ही दिखाई पड़ती हैं। यह सुखद है कि अब ज्ञानपीठ प्रकाशन ने उनका पहला कविता संकलन ‘पहली बार’ नाम से प्रकाशित किया है।
संतोष चतुर्वेदी की कवितायें
पढ़ते हुए मुझे बार-बार यह लगा कि ये समाज के अन्तिम पंक्ति में खड़े हुए व्यक्ति की
कवितायें है। वह उस व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान लाना चाहते हैं जो अभावग्रस्त
होते हुए भी अपनी सच्चरत्रिता, नैतिकता, ईमानदारी जैसी
दुर्लभ पूंजी को इस वैश्वीकरण व बाजारवाद के युग में भी सँभल कर रखे हुए हैं। उनकी
कविताओं में समकालीन दौर की बेचैनियाँ साफ झलकती हैं–
भागमभाग
का समय है यह
सब
सिमट रहे हैं अपनी-अपनी दूरियों में
कोई
भी नहीं हतप्रभ
फिर
भी कहीं किसी का इन्त़जार है
न
जाने किसकी प्रतीक्षा में अनवरत
उत्साहित
हैं बारामासा (तेवर, पृष्ठ 33)
जैसे-जैसे आर्थिक
उदारीकरण के छलावे में आमजन को छला जा रहा है या बाजारीकरण के दबाव में मनुष्यता
को बचाए रखने का खतरा निरन्तर बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे कविता का उत्तरदायित्व भी बढ़ता जा
रहा है। अर्थात् दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि आर्थिक उदारीकरण एवं
भूमण्डलीकरण समकालीन कविता के लिए एक कठिन चुनौती है। आर्थिक उदारीकरण और
भूमंडलीकरण को कुछ अमीर देश अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रयोग कर रहे हैं, जिसके मोह-जाल
में आज आमजन भी फँसता चला जा रहा है। आमजन
का इस मोहपाश में फँसना केवल उसको ही नहीं अपितु हमारी सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति,
परंपरा एवं इसकी पहचान को भी शनै: शनै: नष्ट कर रही है। इस अंधड़ में कविता ही एक
ऐसा अस्त्र है जिससे इसके क्षरण को रोका जा सकता है। कविता ही वह विश्वसनीय साथी
है जिस पर विश्वास किया जा सकता है। शुक्र है कि तमाम प्रलोभनों से दूर रहते हुए
आज भी कुछ कवि इस दिशा में प्रयास कर रहे
हैं। संतोष चतुर्वेदी का नाम कवियों की लम्बी फेहरिस्त में ऐसा ही नाम है जिनकी
कविताओं को पढते हुए मैंने ऐसा स्पष्ट तौर पर महसूस किया।
बाजारवाद रूपी घड़ियाल
धीरे-धीरे हमारी सहजता, सौम्यता एवं सम्बन्धों को
निगलता जा रहा है। इन मानवीय मूल्यों को बचाए रखने हेतु संतोष चतुर्वेदी की कवितायें
प्रतिबद्ध दिखाई पड़ती हैं। संतोष की कविता बाजारवाद के वीभत्स चेहरे को बेनकाब
करती है। बाजार किस तरह से हमारी समस्याओं को दूर करने का छलावा दिखा कर हमारा
उपयोग अपने मुनाफे में वृद्धि के लिए करता है और हमारी यथास्थिति बनी रहती है, उसका एक चित्र
उनकी कविता ‘चित्र में दुख’ में देखा जा सकता
है। यह कविता संग्रह की बेजोड़ कविताओं में से एक है–
प्रतियोगिता
में अव्वल चुना गया वह चित्र
जिसमें
एक बूढ़ा माथे पर हाथ टिकाये
भारी
हड्डियों के साथ बैठा था चुक्का-मुक्का
बहुत
खुश था चित्रकार अपनी उपलब्धि पर
*** ***
*** ***
आकर्षक
लग रहा था दुख चित्र में
बिक
रहा था घर को सजाने के लिए (चित्र में दुःख, पृष्ठ 9)
आज समाज में सच व झूठ का
मानक बदल गया है। सच बोलने वाले व्यक्ति को पागलों व बेवकूफों की श्रेणी में खड़ा
किया जाता है तो झूठ बोलने वाले को चालाक, बहादुर, धाकड़ इत्यादि
सम्बोधनों से सूचित किया जाता है। एक ईमानदार व्यक्ति की समाज एवं उसके विभाग में
क्या गति होती है इसका चित्रण संग्रह की एक कविता ‘सच्चाई’ सजीवता के साथ करती
है–
सच
बोलना अब बिल्कुल मना है
जो
बोलेगा वह ठिठुरेगा
सड़क
के किनारे पागलों की तरह
लोग
चिढ़ाएंगे उसे
फेंकेगे
पत्थर। (सच्चाई, पृष्ठ 17)
भारतीय राजनीति के आज के
पूरी तरह बदले हुए चेहरे को संतोष चतुर्वेदी ने अपनी कविता के माध्यम से प्रकट
किया है। हमारा लोकतंत्र आज कहाँ पहुँच गया है। हमारे समाजवादी किस परिणति को
प्राप्त हुए हैं, उनकी ‘अपील’ कविता राजनीतिक
पतनशीलता के अलग-अलग वीभत्स रूपों को बेबाकी से रेखांकित करती है। राजनीति में
भाई-भतीजावाद, वंशवाद अनैतिकता का जो विद्रूप चेहरा आज समाज
में दिखाई पड़ रहा हैं वह उनकी कविताओं का भी विशेष विषय बना है–
हमारे
गांव के प्रधान
निर्विरोध
चुने जाते रहे हैं एक अरसे से
नेता
जी के पिताजी
न
जाने कब से क्षेत्र की प्रमुख हैं
नेताजी
की माताजी
*** ***
***
इस
तरह घर-परिवार
रिश्तेदार-चाटुकार
सहित
नेताजी
कर रहे हैं सेवा जनता की। (अपील, पृष्ठ 31)
संतोष चतुर्वेदी जिस समय
यह कविताएं लिख रहे थे उनके सामने राजनीति का वह आदर्श चेहरा अवश्य रहा होगा जिसके
लिए हमारे पूर्वजों ने अपनी जान की बाजी तक लड़ा दी और आज जिस किस्म की स्वतंत्रता है
उसे किसी दूसरी उम्मीद में प्राप्त की थी। लेकिन अफ़सोस वह उम्मीद बस केवल उम्मीद
ही रह गयी, हकीकत में तब्दील नहीं हो पायी। राजनीतिक लोकतन्त्र का सबसे महत्वपूर्ण
कार्य यह है कि वह आम आदमी की स्थिति में सुधार लाए, जिनको भोजन नहीं
मिलता उनके भोजन की व्यवस्था करें, छात्रों के लिए शिक्षा मुहैया कराये, बेरोजगारों को
रोजगार दें, स्वच्छ प्रशासन प्रदान करें और साथ ही साथ सबको
समानता का दर्जा देते हुए उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करें। किन्तु क्या आज ऐसा हो रहा है? कदापि नहीं। आज तो ठीक इसका विपरीत हो रहा है।
समाज में कमजोर, असहाय लोगों का जीवन जीना लगातार दुर्लभ होता गया
है। ऐसा लगता है जैसे धनबल एवं बाहुबल से सुसज्जित लोगों के लिए ही आज के समाज की
संरचना की गयी है। धूर्तों एवं लम्पटों का जोर निरंतर बढ़ता जा रहा है। इसे
देख-महसूस कर ही महाकवि निराला ने कभी लिखा था- ‘अन्याय जिधर है उधर शक्ति।’ संतोष
भी अपने समय की इस अव्यवस्था से दुखी और व्यथित हैं और बेबाकी से इन बातों को अपनी
काव्य पंक्तियों में इस तरह रखते हैं
नहीं
हैं अगर आपके हाथ लम्बे
किसी
आका का नही है बरदहस्त
जोड़-तोड़
में है फिसड्डी
खाली
हैं आपकी जेबें
तो
सच मानिए
आप
भी इस लम्बी कतार में
शिद्दत
के इन्तजार के बाद
पहले
नम्बर पर पहुँचने के उपरान्त भी
बाहर
हो सकते हैं। (विडम्बना है यह, पृष्ठ 51)
किसी भी आन्दोलन में समाज
के मध्य वर्ग की महत्वपूर्ण भागीदारी होती है। इसको देखते हुए पूंजीवादी या
साम्राज्यवादी ताकतें इस वर्ग को भौतिक सुखों के दल-दल में फँसाकर भविष्य में होने
वाले किसी भी आन्दोलन की धार को कुन्द करने के लिए सदैव प्रयासरत रहती हैं। इस पूँजीवाद
का ही यह चमत्कार है कि व्यक्तिवाद एवं भौतिकवाद की लिप्सा में फँसा मनुष्य किसी
भी अन्याय एवं भ्रष्ट व्यवस्था का विरोध करने की जहमत नहीं उठाना चाहता। उसे लगता
है कि उसे क्या पड़ी है? क्या मैंने ही देश या समाज को सुधारने का ठेका
ले रखा है? आदि-आदि। यही डर कवि के दिल को बराबर कचोटता है
कि कहीं सम्पूर्ण मध्यवर्ग इसका शिकार न हो जाय–
अक्सर
डर जाता हूं अपने आप से आजकल मैं
कि
कहीं ऐसा न हो
कि
मैं भी उसी तंत्र का हिस्सा बन जाऊँ
जिससे
लड़ने का जज्बा जुटाता रहता हूं अभी
हर
पल हर छिन। (डर, पृष्ठ 99)
संतोष चतुर्वेदी की कविता
गाँव नगर से होते हुए राष्ट्र एवं वैश्विक धरातल पर हो रहे विभिन्न हलचलों को अपने
में समाहित कर उनका पोस्टमार्टम करती है। साथ ही उन हलचलों के माध्यम से अपने समय
के महत्वपूर्ण सवालों को व्यापक फलक पर भी उठाने का कार्य करती है और उनका हल बताते
हुए उन्हें एक आशा, उम्मीद और ऊर्जा प्रदान करती है–
झुकने
की पहली शर्त ही है
सीधे
खड़ा होना
देखना
चौकस निगाहों से
पड़ी
हुई चीजों से
भला
कौन कहता है झुकने को।
(झुको
पर उतना ही, पृष्ठ 111)
कवि अपने इस पहले संग्रह
से ही हिन्दी काव्याकाश में अपनी एक अलग पहचान बना चूका है। कवि की यह पहचान इसलिए
महत्वपूर्ण है क्योंकि उसकी कविता संस्कृति, सभ्यता, परम्परा के
साथ-साथ समाज के उन बिन्दुओं को शिद्दत से सहेजने का कार्य कर रही है जो जनवादी और
प्रगतिशील मूल्यों वाली है और आज भी मानवता के लिए आदर्श बनी हुई है। ‘इतिहास के
अंत’ की बात करने वाले शायद ही इसे समझ पायें क्योंकि पूंजीवादी यूटोपिया से कभी
भी मुक्त नहीं हो पाते हैं।
‘पहली बार’ संग्रह की
कविताओं को पढ़ कर हमेशा यह लगता है कि यह हमारे अतीत को हमसे रूबरू करा रही है। यह
अतीत मानवीय मूल्यों वाला अतीत है। गर्मजोशी से भरे संबंधों वाला अतीत है। यह अतीत
बार-बार आता है इस अहसास के साथ कि हम अपने अतीत को कतई न भूलें। सच भी है अपनी
जड़ों से कट कर कोई भी व्यक्ति कब तक अपने अस्तित्व को कायम रख सकता है। ‘बरगद’ एक ऐसी ही कविता
है जिसमें कवि संयुक्त परिवार के जीवन्त तमाम सम्बन्धों के लुप्त होने पर क्षुब्ध दिखाई
देता है–
बीत
गया एक जमाना
यह
उस सभ्यता का अवसान था
जिसे
कैद नहीं किया किसी फिल्मकार ने
अपने
कैमरे में
दर्ज
नहीं हुआ कोई मुकदमा
*** ***
*** ***
बहरहाल
अब वहां रघुवर प्रसाद की हवेली है
और
उनके ताम-झाम के सिवाय
कुछ
भी नहीं था
न
बरगद न बरगद की बोली बानी
न
बरगद की आवभगत। (बरगद, पृष्ठ 66)
हमारे समय के महत्वपूर्ण
कवि चन्द्रकान्त देवताले भी बरगद को लेकर एक कविता रच चुके हैं–
आज
याद करता हूं तो अचरज से भर जाता हूं
किसी
विराट बरगद से कम नहीं थी
वंशवृक्ष
की टहनियाँ..........
इस काव्य-संकलन की
कविताओं में महज विषयों की विविधता नहीं बल्कि करुणा, अवसाद, विडम्बना-बोध और
अपराध-बोध के अलग-अलग शेड्स और विस्तार है। उसमें कई बार सोच के ऐसे समुन्नत स्तर
का स्पर्श है, जो हमें दैनंदिन पीड़ाओं के जंजाल से ऊपर उठाता
है। इस संग्रह की कविताओं को जो चीज खास बनाती है वह है मनुष्यता को बचाए रखने का
निरन्तर प्रयास। रोटी की धरती’ एक ऐसी ही कविता है जो
हमें समन्वय सिखाती है। वह समन्वय जो इस धरती पर जीवन को बचाए रखने के लिए जरूरी
है लेकिन अंधाधुंध विकास की दौड़ में हम इस समन्वय को ही नुकसान पहुंचाते जा रहे
हैं। इससे आज एक असंतुलन सा पैदा हो गया है। लेकिन संतोष की कविता हमें बराबर सचेत
करती है कि हमको समाज में छोटे-बड़ों के साथ कैसा जीवन जीना चाहिए, मनुष्यता क्या है? इसे कभी भी नहीं भूलना है। समन्वय को सिखाती-बताती
हुई एक बेहतरीन कविता है रोटी की धरती। इसकी पंक्तियाँ हैं –
रोटी
की धरती
धरती
की रोटी
सधे
हाथों और कई सन्तुलनों के साम्य से ही
ले
पाती है आकार। (रोटी की धरती, पृष्ठ 44)
संतोष ने एक नाइजीरियाई
साहित्यकार केन सारोवीवा की याद में एक बेहतरीन कविता लिखी है जो इस संग्रह में ‘भोर का सपना’ शीर्षक से शामिल है। ध्यातव्य
है कि केन सारोवीवा को नाइजीरिया की सैनिक सरकार ने 10 नवम्बर 1995 को गलत आरोप
लगाकर फांसी की सजा दे दी थी। इस कविता में उनके संघर्ष व त्याग को उजागर करते हुए
कवी ने कहा है–
सैनिकों
की गोलियों
और
तलवारों से
कलम
की धार
नहीं
हुई है कभी भी कुन्द
अन्याय
के प्रतिकार में
बोल
रही है अभी भी
तुम्हारे
खून की हरेक बूँद (भोर का सपना, पृष्ठ 120)
इस तरह की कविताओं में
कवि की स्थानीयता का काफी योगदान रहा है। यही कारण है कि उनकी ‘माचिस’, ‘बरगद’, ‘रोशनी वाले मजदूर’, ‘गांव की औरतें’ कविताओं में
ग्रामीण संस्कृति का सौंधापन एवं स्थानीय संस्कृति का सफल हस्तक्षेप दिखाई देता
है। इस संग्रह की कुछ कविताएं तो बेहद मार्मिक बन पड़ी हैं उदाहरण के तौर पर ‘मां’
कविता। संग्रह की अधिकतर कविताएँ बड़ी हैं जिनमें कई कविताओं का अर्थ संदर्भ समापन
पंक्तियों में खुलता है। लम्बी होते हुए भी ये पाठक को उकताती नहीं बल्कि एक
रोचकता बराबर बनी रहती है कि इसके आगे अब क्या?
इस संग्रह का यदि बारीकी
से अध्ययन किया जाय तो लगता है कि कवि ने कई बार एक खास किस्म के अनुभवों की
पुनरावृत्ति की है। लेकिन कुल मिलाकर अपनी बनावट में कविताएं सहज संप्रेष्य है और
हमारे आस-पास की चीजों को ही विषय के रूप में ले कर चलती हैं। यह कवि अपनी इन
कविताओं में अपने समय के संकटों से रूबरू तो होता है, पर एक उम्मीद के
साथ। इसमें कोई संशय नहीं कि पहला संग्रह होते हुए भी यह परिपक्व, पढ़े जाने योग्य
एवं संग्रहणीय है।
पहली
बार (कविता संग्रह),
कवि-सन्तोष
कुमार चतुर्वेदी,
प्रकाशक-भारतीय
ज्ञानपीठ, नई
दिल्ली,
पृष्ठ 128, मूल्य
: रु़ 120.00
समीक्षक
....
हितेश
कुमार सिंह
मोबाईल-
09452790210
बढ़िया समीक्षा है . बधाई संतोष भैया को . सिताब दियारा पर इसे प्रस्तुत करने के लिए रामजी भैया का आभार .
जवाब देंहटाएं-नित्यानन्द
Kavya sangrah ke sarokaron se sakshatkar karvaane hetu haardik dhanyavaad!!!! Achchi sameeksha likhi hai bhai...badhai!! Abhaar Ramjee Tiwaree saahab .
जवाब देंहटाएंachi sameeksha hain . sameekshak aur kavi donon ko badhayiyam.
जवाब देंहटाएंबेबाक समीक्षा /संतोष चतुर्वेदी की कविता संग्रह पर लिखते हुए हितेश ने कविता के दायित्वों की और संकेत करके एक सार्थक पहल की है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए
जवाब देंहटाएंबेबाक समीक्षा /संतोष चतुर्वेदी की कविता संग्रह पर लिखते हुए हितेश ने कविता के दायित्वों की और संकेत करके एक सार्थक पहल की है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए
जवाब देंहटाएंsamiksha behtreen he. dono lekhon ko badhi. Manisha jai.
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा संग्रह पढ़ा नहीं लेकिन जो अंश समीक्षा में आये हैं इससे ही पता चलता है की सहज भाषा में कवि ने समय को लिखा है यह बहुत बड़ी उपलब्धि है
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