शनिवार, 17 जनवरी 2015

प्रदीप अवस्थी की कवितायें





प्रदीप अवस्थी की इन कविताओं से गुजरना इस जीवन के भीतर से गुजरने जैसा है | इसमें वह प्रेम है, जो उलाहना नहीं देता, वरन एक-दूसरे को समझता है | और दुःख ऐसा, जिसे हम अपने दुश्मन के लिए भी न चाहें | इतने चुटीले और लाजबाब बिम्बों वाली कवितायें मैंने अरसे बाद पढ़ी है | सिताब दियारा ब्लॉग इस युवा स्वर का अदब और एहतराम के साथ स्वागत करता है, और साथ ही साथ यह उम्मीद भी, कि उनका यह तेवर और अधिक जवान होगा, और अधिक परिपक्व होगा |
    


     
   प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर युवा कवि प्रदीप अवस्थी की कवितायें



1) 
       एक दूसरे को पाल-पोस कर बड़ा करने वाले प्रेमी 
       छूट जाया करते हैं |
       जहाँ हो
       मुझसे ही हो कर तो गुज़री हो वहाँ तक
       जहाँ हूँ
       तुमने ही तो अंगुली पकड़ कर पहुँचाया है
       अब जी लेते हैं
       उन बच्चों की तरह
       जो सयाने हो कर निकल पड़ते हैं घरों से
       या घरों से निकल कर हो जाते हैं सयाने
       फिर सीखते हैं जीना
       नए साथियों के साथ
       हम कितने घर जैसे थे ना।


2)

     कितना कुछ ढूँढा जा रहा है

     इधर से उधर भागते फिरते हैं लोग
     पहुँचते हैं,
     ऊबते हैं,
     लौट आते हैं ।
     नहीं पहुँचता कहीं तो बस मन !
     इसने सिर्फ़ लौटना सीखा है ।

     हर कोई ऐसे जूझता है अकेलेपन से जैसे
     खुद को ही शत्रु बना कर सामने खड़ा कर लिया हो
     और लड़ता रहे दिमाग़ के फट जाने तक
     खुद में कुछ नहीं मिलता तो बाहर जाना पड़ता है
     बाहर कुछ नहीं मिलता तो लौटना पड़ता है
     खुद से लेकिन कैसे लौटा जाए !  
   
     चुप्पी में छुपे होते हैं सबसे असरदार शब्द
     उन्हें समझ लेने वाले ही हैं सबसे निर्दयी लोग ।
     वे जान चुके हैं हमें पूरा और फिर भूल भी चुके हैं
     वे कर सकते हैं लेकिन कुछ नहीं करते बचाने के लिए ।
     वे भी शायद इसी खेल में फँसे हैं
     वे भी सीखना चाहते होंगे खुद से लौटना ।

     हम ढूँढ लाते हैं मायूसी
     उन्हीं के प्रति पालते हैं कटुता जो पूछते हैं हमें
     खुद से करते हैं नफ़रत ऐसा करने के लिए
     चुप रहते हैं घंटो
     सीख लेते हैं अभिनय
     चढ़ा लेते हैं ऐसी हँसी जो सबसे मुश्किल से हँसी जाती है
     फिर सब कुछ भूल कर घुल जाते हैं उन्ही में एक बच्चे की तरह
     कोसते हैं खुद को कि क्यों है हम ऐसे ।

     जहाँ से मिल सकता था सबसे ज्यादा प्यार,वहाँ थोड़ा भी दे ना पाए ।

     इधर से उधर भागते फिर रहे हैं लोग
     थोड़े से सुकून के लिए।
     कोलाहल है
     यह शहर फूटेगा एक दिन ।  


3)
    उनको थोड़ी सी देर तक 
    थोड़ा सा और
    हंस लेने दो ना,
    थोड़ा सा तो उड़ लेने दो साथ
    कि फिर तो गिरना ही है !
    यह बहुत दुखदायी होगा
    कि बच्चों से छीनी जाएगी माँ
    बच्चियों से छीने जाएँगे पिता ।
    मैंने ऐसे ही देखा है,
    देख पाया हूँ
    प्रेमियों को ।


4) 

    तुम दरअसल जहाँ-जहाँ 
    अपनी ख़ुशी ढूंढने निकलते हो
    वहाँ से हो कर लौटा हूँ कई दफ़े
    चुन लाया हूँ दुःख के कोहिनूर
    माँ ने हाथ में थमाई थी एक गुल्लक बचपन में
    खनखनाते सिक्कों की आवाज़
    तब्दील होती गई ख़ालीपन के शोर में ।
   गुल्लक बचपन
   जवानी अलमारी
   नींद एक लड़की ।
  सारा दुःख समेट लेती है और रोती भी नहीं
  गुल्लक,खनखनाती भी नहीं |
  तुम कभी आओ और देखो
  छुओ नहीं
  मैं दर्द का पुलिंदा हूँ
  छुओगे तो पछताओगे ।

5) 

   एक कमी है 
    बहुत चुभती है
    नहीं ! तुम्हारी नहीं ।
    तुम तो हो और रहोगी ।
    जो जब होता है
    जितना होता है,तब ही
    उसे उतना महसूस लेते
    बाद में इतना क्यों रब्बा !
    इतने ज़रा से समय में जो दे गयी हो
    वो रोज़ थोड़ा-थोड़ा कर के और बढ़ता जाता है ।
    तुम्हें बता पाता
    कितना भिगो दिया है तुमने अपने स्त्रित्व से ।
    कहीं किसी टूटी या उलझी डोर का कोई सिरा फिर मिलेगा
    और गुंध जाऊँगा उसमें
    तुम्हें साथ ले कर ।
    और ऐसा सब कहते हुए आँख से एक भी आँसू नहीं गिरता पगली
    सच
    कसम से,
    तेरी याद भी नहीं आती
    हँसते हुए कहता हूँ ।


6) 

   मैं उड़ना सीखूंगा जब 
    तुम मेरे पंखों को बाँध देना ।

   जैसे लड़खड़ाता था तुम्हारे पास आते-आते
   तुमसे दूर जाते हुए भी वैसे ही लड़खड़ाता हूँ
   और मेरी चलने की चाह ख़त्म होती जाती है ।

   किसी युद्ध में जैसे एक छोटा-सा बच्चा
   अपनी जान बचाने को बदहवास दौड़ता रहे
   और छुपने की जगह मिलने पर
   बैठकर रो पाए चैन से
   ऐसे
   गोद नसीब हो तुम्हारी
   बच्चे को मार जाए गोली कोई ।

   और जब मैं मासूम कबूतर हो जाऊँ
   तुम्हारे घर की खिड़की के एक कोने में
   बनाऊँ एक घर ।

  मेरी उड़ने की मंशा और बंधे पंखों के बीच
  देर तक मेरा फड़फड़ाना ज़िंदा रहे




7) 

      हाफलौंग की पहाड़ियाँ हमेशा याद रहेंगी मुझे ।

       वॉलन्टरी रिटायरमेंट ले कर कोई लौटता है घर 
       बीच में रास्ता खा जाता है उसे ।
       दुःख ख़बर बन कर आता है
       एक पूरी रात बीतती है छटपटाते
       सुध-बुध बटोरते ।
       अनगिनत रास्ते लील गए हैं सैकड़ों जानें ।
       एक-दूसरे से अपना दुःख कभी न कह सकने वाले अपने
       कैसे रो पाते होंगे फूट-फूट कर ।
       असम में लोग खुश नहीं है,
       बहुत सारी प्रजातियाँ अपनी आज़ादी के लिए लड़ रही हैं,
       उनके लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ा गया है शायद ।
       हथियार उठाना मजबूरी ही होती है यक़ीन मानिए
       कोई मौत लपेट कर चलने को यूँ ही तैयार नहीं हो जाता ।
       आप देश की बात करते हैं,
       युद्ध की बात करते हैं,
       देश तो लोग ही हैं ना !
       उनके मरने से कैसे बचता है देश ?
       बॉर्डर पर,कश्मीर में,बंगाल में,छत्तीसगढ़ में,उड़ीसा में,असम में
       मरते है पिता,
       उजड़ते हैं घर,
       बचते हैं देश ।
       अखबारों में कितनी ग़लत खबरें छपती हैं,यह तभी समझ आया ।
       सामान लौटता है !
       गोलियों से छिदा हुआ खाने का टिफ़िन,
       रुका हुआ समय दिखाती एक दीवार घड़ी,
       बचपन से ख़बरें सुनाता रेडियो,
       खरोंचों वाली कलाई-घड़ी,
       खून में भीगी मिठाइयाँ,
       लाल हो चुके नोट,
       वीरता के तमगे,
       और धोखा देती स्मृति ।
       कितनी बार आप लौट आए
       वो मेरी नींद होती थी या सपना या कुछ और
       जब चौखट बजती थी और आप टूटी-फूटी हालत में आते थे
       फिर कुछ दिनों में चंगे हो जाते थे
       ऐसा मैंने कुछ सालों तक देखा
       अब वो साल तक नहीं लौटते ।
      हर बार सोचा कि
      इस बार जब आप आएंगे सपने में
      तो दबोच लूँगा आपको
      सुबह उठकर सबको बोलूंगा कि देखो
      लौट आए पापा
      मैं ले आया हूँ इन्हें उस दुनिया से
      जहाँ का सब दावा करते हैं कि नहीं लौटता कोई वहाँ से,
      ऐसी सोची गई हर सुबह मिथ्या साबित हुई ।
      काश फिर आए ऐसा कोई सपना
      फिर मिल पाए वही ऊर्जा
      एक घर को
      जो पिता के होने से होती है ।
      हे ईश्वर !
      कोई कैसे यह समझ पैदा करे कि बिना झिझके सीख पाए कहना
      “ पिता नहीं हैं
      और कितनी भी क़समें खाते जाएँ हम
      कि नहीं आने देंगे किसी भी और का ज़िक्र यहाँ
      पर एक समय था,एक शहर था बुद्ध का,एक साथ था,
      फल्गु नदी बहती थी ,
      विष्णुपद मंदिर में पूर्वजों को दिलाई जाती थी मुक्ति ।
      हम यहाँ दोबारा आएंगे और करेंगे पिण्ड-दान
      ऐसा कहती,भविष्य की योजनाएँ बनाती एक लड़की
      जा बैठी है अतीत में कहीं ।
      आख़िरी स्मृतियों में बचती है रेल,
      प्लेटफार्म पर हाथ हिलाते हुए पीछे छूट जाना।
      उस आख़िरी साथ में पहली बार उन्होंने बताए थे अपने सपने ।
      सात साल पहले इसी दिन वो लौटे
      हमने उन्हेँ जला दिया ।
      फिर कभी नहीं लौटे
      पिता ।



   परिचय और संपर्क

   प्रदीप अवस्थी

    इंजीनियरिंग की पढाई-लिखाई
    रंगकर्म में विशेष रूचि
    मुंबई में रहनवारी






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