शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

जीवन का डायलसिस - 'जीने के लिए' --- फ़क़ीर जय





फेसबुक’ पर मिले मित्रों में ‘फ़क़ीर जय’ एक विशिष्ट उपलब्द्धि की तरह हैं | सिर्फ इसलिए नहीं कि उनका अध्ययन व्यापक है, या कि वे ज्ञान, तर्क और विवेक के चलते-फिरते ‘इनसाइक्लोपीडिया’ हैं | वरन इसलिए कि ऐसा होते हुए भी उनके पास अथाह सहजता है, और मनुष्य बने रहने की अप्रतिम चाहत भी | जिस दौर में एक लिखकर दस पढने का चलन अश्लीलता की हद तक आम हो गया हो, उस दौर वे दस लिखकर भी अलक्षित रह जाने की औदार्य रखते हैं |
सिताब दियारा ब्लॉग’ इस मामले में खुशकिस्मत है कि उसे उनके जीवन के कुछ पन्ने प्रकाशित करने का अवसर मिला था | एक बार पुनः उनके प्रति आभार को दिखाते हुए हम ‘सरिता शर्मा’ के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ पर लिखी उनकी यह समीक्षा प्रकाशित कर रहे हैं | इस समीक्षा में आप देखेंगे कि वे इस उपन्यास को परखते समय, हमारा परिचय दुनिया के कालजयी लेखन से भी कराते चलते हैं |   

 
  प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर सरिता शर्मा के आत्मकथात्मक उपन्यास    
           जीने के लिए पर ‘फ़क़ीर जय’ की यह समीक्षा  



जीवन का डायलिसिस : ‘’जीने के लिए ‘’



शिल्प के स्तर पर सरल होते हुए भी ‘जीने के लिए ‘ एक जटिल संरचना वाला उपन्यास है .संरचना से यहाँ मेरा मतलब deep structure से है जिसे ल्योतार्ड आदि उत्तराधुनिक चिंतको ने सत्ता और उसकी संरचना के पुनरुत्पादन से जोड़ के देखा है .सरिता जी का निजी यहाँ साधारणीकरण की प्रक्रिया द्वारा हर उसकी पीड़ा बन जाता है जिसने रूमानी और यथार्थ का द्वंद्व अपने बाहर ही नहीं भीतर भी झेला है .उपन्यास जटिल हालातो के बारीक़ विवरण से भरा हुआ है जो इन्सान को एक नियति के रूप में reduce कर देते हैं .इस नियति के विरुद्ध संघर्ष भी मानो एक दूसरी नियति हैं .किडनी के लिए पाकिस्तान का दौरा कहानी में एक नया आयाम जोड़ता है .यहाँ mundane और विचारधारा की दुनिया का फर्क स्पष्ट होकर उभरता है .भारत पाकिस्तान के बीच का वैमनस्य और तद्जनित संघर्ष एक ठोस राजनीतिक सत्य है मगर दैनंदिन जीवन किस तरह इसके बावजूद हस्ब मामूल अपनी ही गतिकी से चलता रहता है, उपन्यासकार ने इसे बखूबी उभारा है .बिना किसी सद्भावी लाग- लपेट और आंसू बहाऊ भावुकता के वह पारदर्शी ढंग से इसको कथा में पिरोता है .


उपन्यास की प्रोटागनिष्ट नमिता को जो आत्मीय व्यवहार पाकिस्तानी डॉक्टर और अवाम से मिलता है ,वह इस राजनितिक सत्य को अप्रासंगिक बना देता है .इस निजी संघर्ष के गाथा के भीतर भी सत्ता संघर्ष के कई सन्दर्भ उपन्यास में दिखलाये गए हैं .उपन्यास प्रेम संबंधो के स्वार्थ संबंधो में बदलते जाने को भी शिद्दत से दर्ज करता है .एक पैसे वाली लड़की को अपने स्वार्थी मंसूबे के लिए शिकार बनाने वाली लघु आत्मा के द्वारा प्रेम के तहस नहस किये जाने को भी नोट करता है .जिंदगी को जब शुरू हुआ माना जाता है –यानी शादी के बाद –तभी जिंदगी खत्म हो जाती है .जिंदगी को जहाँ खतम मान लिया जाता है –यानी शादी टूटने के बाद –वहीँ जिंदगी शुरू होती है .जिंदगी के सही मायने तभी नमिता पर खुलते हैं .स्त्री विमर्श किताबो से निकलकर जिंदगी की सच्चाई बन जाता है .अकेली तलाकशुदा औरत को जिन विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है ,उसका इतना यथार्थपरक वर्णन है कि सहसा यशपाल की याद आ जाती है .उनका उपन्यास ‘’झूठा सच ‘’ स्मृति में कही कौंधता है. कुंवर नारायण जैसो ने इसमें काव्यत्मकता की कमी की शिकायत की थी .अव्वल तो यह उपन्यास में काव्य खोजना गैर जरुरी सामन्ती दृष्टि है .फिर मेरे अनुसार काव्यात्मकता का यह अभाव उपन्यास का बहुत बड़ा गुण है न की कमी .यह उपन्यास को यथार्थवादी ऊचाई देता है जो इसे मैक्सिम गोर्की की परम्परा में खड़ा कर देती है .


मृत्यु ,किडनी फेलियर जैसी आत्यंतिक स्थितियों में मनुष्य के जिन्दा होने और जूझने का जिक्र उपन्यास में है , वह  मिशेल फूको वर्णित limit experience की कोटि का है ,यहाँ जीवन के चरम सत्य इन्सान साफ़ साफ़ देख सकता है .सरिता जी ने भी देखा है जिसका जिक्र उन्होंने उपन्यास की भूमिका में किया भी है .यहाँ आकर limit अनुभव के वे मरहले दीखते हैं जहाँ आम नैतिक मर्यादाएं दम तोड़ देती हैं और जीवन-समाज के  छुपे हुए संरचना तंतु नंगे हो जाते हैं , उनकी कार्य-प्रणालियाँ स्पष्ट हो जाती हैं .रिश्तो की बुनावट बिखर जाती है और जिन रेशो से वे रिश्ते बने हैं उनका स्वरुप प्रकट हो जाता है .जीवन की ऐसी ही आत्यंतिक घटना ने दोस्तोवोस्की के लेखक को लेखक बनाया. असफलताएं और उनके बीच मनुष्य का जूझना कथा को तात्कालिकता के साथ शाश्वतता का  आयाम देते हैं जो पृथ्वी पर मनुष्य के होने और बचे रहने मात्र से जुडा  हुआ है. पुरुष ने भी इस लड़ाई को अपनी कथा में दर्ज किया है .जैसे –एर्न्स्ट हेमिंग्वे का उपन्यास –ओल्ड मैन एंड सी तथा जैक लंडन की तमाम कहानियां !मगर वहां लड़ाई प्रकृति के विरुद्ध है .वहां युद्ध जीवन के लिए नहीं है ,प्रकृति को जीतने के लिए है .यह जिजीविषा नहीं है ,प्रकृति के विरुद्ध युयुत्सा है .या कह सकते हैं जिजीविषा है भी तो प्रकट युयुत्सा के रूप में ही हुई है और उसके प्रभाव युयुत्सा वाले ही हैं .पुरुष की कथा अहंकार की तुष्टि ,जिसे वह प्रकृति पर विजय कहता है , में तुष्टि पाती है .इसके बरक्स ‘’जीवन के लिए ‘’ में जो स्त्री-कथा दर्ज है ,उसमे स्त्री की लड़ाई ( हालाँकि इसे लड़ाई कहना उचित नहीं .क्यूंकि यहाँ चीजों को युद्ध के रूप में देखा ही नहीं गया है .मगर किसी ऐसे  उपयुक्त शब्द के अभाव में इसे लड़ाई कहना पड़ रहा है .पुरुषो की भाषा में स्त्री के व्यवहार के लिए शब्दों का अभाव है ) उस रूप में नहीं है ,यहाँ लड़ाई ‘जीने के लिए ‘ है और कई बार जीने देने के लिए भी .


नमिता में  धीरे धीरे अपने पति के प्रति वैमनस्य का लोप हो जाना इसी ‘जीने देने के लिए ‘ का स्वीकार है .सिन्धु ताई ने भी अपने पति को माफ़ कर दिया था .यह स्त्री की भाषा है .यह सहकार की भाषा है ,संहार की नहीं .यहाँ दूसरो को मार देने की अपेक्षा खुद को बचाए रखना वरेण्य है. जीवन के प्रति आकर्षण उपन्यास को जीवन से भर देता है .मृत्यु की अनुगूंजो के बीच जीवन का यह राग मालकौंस बहुत मधुर है .इसलिए यहाँ जीवन के संकट के साथ उससे लड़ने और उत्तीर्ण होने प्रसंग भी है. अन्ततः पति से अलग होने का फैसला ऐसा ही एक इन्तेहाँ था जिसमे नमिता पूरे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होती है .जीवन में आस्था बचाए रखना और इसके सहारे उसे एक सर्जनात्मक मोड़ देना इसे समकालीन लेखन से अलग करता है .समकालीन लेखन का अधिकांश शिल्प के नाम पर कृत्रिम मूल्यों और हालातो को बाजारू रोचकता के साथ प्रस्तुत करता है .गीताश्री और जयश्री  इसके ज्वलंत उद्धाहरण हैं .’जीने के लिए ‘ में मसीहाई सादगी है .औदात्य –ऊचाई भी है .देह का जो अकुंठ उल्लेख उपन्यास में है वह इसे देह को स्तानादि से पहचानने वाले समकालीन विमर्श से स्वतःसिद्ध रूप से श्रेष्ठ ठहराता है .किडनी भी देह का अंग है .बल्कि यहाँ किडनी ही देह बन गयी है, जिसके लिए देह  के तमाम अंग -उपांग, यहाँ तक दिल ओ दिमाग भी बस प्रयोजन मात्र  हैं .बाकी अंगो का काम है किडनी को बचाना .उपन्यास ने इस बात को बखूबी उकेरा है .देह विमर्श को इस तरह यह उपन्यास एक मौलिक विस्तार देता है . किडनी-विमर्श. यहाँ उपन्यासकार ने स्वयं को अभिव्यक्त होने दिया है और बाहरी यथार्थ पर भी पकड़ बनाये रखी है .इस तरह यह अनावश्यक रूप से रूमानी नहीं होता तो दूसरी तरफ इतिहास की किताब या अख़बार की रिपोर्ट होने से भी बच जाता है .
           

अगर उपन्यास में सुधार की गुंजायश है तो मेरे हिसाब से (मै गलत भी हो सकता हूँ ) वह है ,उपन्यासकार की उपस्थिति .कथा के बीच में यह प्रेमचंद की तरह intervene करना कथा प्रवाह को बाधित करता है .नाटक में यही चीज़ अच्छी है वहां यह ब्रेख्त वाला  प्रभाव उत्पन्न करती  है .मगर उपन्यास में इससे बचने से स्वाभाविकता आती है .उपन्यास को जो भी कहना है कथा के माध्यम से कहना चाहिए .हद से हद संवाद के रूप में विचार रखे जा सकते हैं .उपन्यास अंततः विचार नहीं ,कहानी है .
           

उपन्यास में ससुर द्वारा हनीमून में भी साथ साथ जाना, एक असफल जीवन को ससुर द्वारा पुत्र और पुत्रवधू के माध्यम से सफल बनाने या कुंठा की तुष्टि करना बहुत सशक्त प्रसंग है .ससुर के चरित्र से तो प्रसिद्ध फिल्म ‘एक दिन अचानक ‘ के प्रोफेसर की याद आ जाती है .सरिता जी ने चरित्र को उकेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी है .दृश्यों का भी खुबसूरत चित्रण करती है .लगता है इन्हें तो स्क्रप्ट-राइटर होना था .गजब की मंजर निगारी है .मोहल्ले वालो से लड़ाई का चित्र हो या कोर्ट में पति का लुकाछिपी ,बहुत संयत बारीक़ जुबान में अयाँ हुआ है .कहा जा सकता है जहाँ दूसरे उपन्यासकार जीवन का एनालिसिस करने में लगे है इसलिए विचार और शिल्प का भारी बोझ वहां है ,वही सरिता जी ने यहाँ जीवन की एनालिसिस के बरक्स डायलिसिस की है .कथा-रक्त को छान कर एक शुद्ध कहानी हमे दी है जो  कविता नहीं है ,शिल्प नहीं है ,कथ्य नहीं है ,कहानी है –उपन्यास की शुद्ध कहानी !



परिचय और संपर्क

फ़क़ीर जय

कोलकाता में रहनवारी


2 टिप्‍पणियां:

  1. फ़क़ीर जय ने उपन्यास की मन को छूने वाली समीक्षा की है. कथा को सिर्फ समझा ही नहीं है बल्कि उसे महसूस किया है. समीक्षक और लेखक के रूप में उनमें असीम संभावनाएं हैं. खूब लिखें और पाठकों को आपने ज्ञान और अनुभवों से लाभान्वित करें.

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  2. समीक्षा अच्छी लगी और वह भी जो ब्लॉगर महोदय ने फकीरजी के परिचय में लिखा है | फ़िलहाल उपन्यास नहीं पढ़ा पर समीक्षा के आधार पर सरिताजी को एक अच्छे उपन्यास के लिए बधाई |

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