सिताब दियारा ब्लॉग हर युवा रचनाकर का स्वागत
करता है | इस ब्लॉग का प्रयास है कि उस प्रत्येक संभावनाशील स्वर को एक मंच दिया
जाए, जिसमें भविष्य की कोंपले फूट सकने की संभावना दिखाई देती है | इसी क्रम में आज
प्रस्तुत है .....
सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रशांत विप्लवी की
कवितायें
एक
चंपा के मन में कई प्रश्न हैं
अपनी पहली माहवारी पर
वो मिटाना चाहती है अपने मन का घिन्न
देह के अंदर का ये मैल
उसके मन में आ बैठा है
माँ , खटिया पर पड़ी-पड़ी कुहरते हुए पूछती है
उसके चेहरे पर सरकते पसीनों के बारे में
उसके अस्वाभाविक चाल के बारे में
मगर सोचती है चंपा
और सिहर उठती है
एक बार फिर चुप रह जाना होगा उसे
कौंधते प्रश्नों को सुलाकर
ये लिजलिजा-सा जहर
उसने देखे हैं कई बार -फटती आँखों से
बिलबिलाई थी
जब चाचा ने मुँह पर हाथ रख दिया
माँ पूछती रही थी तब भी
टॉफी और गुड़ियों के बारे में
तपते बुखार में कब सो गई थी
बड़बड़ाते हुए …
आज उसे घिन्न आ रही है अपने पर
चाचा पर
माँ पर
टॉफी पर
गुड़िया पर
हर रिश्तों पर
उसे सबकुछ लिजलिजे जहर जैसा लग रहा है
दो ....
बैंक की पुरानी पास-बुक
वो बैंक की कोई पुरानी पास-बुक थी
आवरण पर पिता का नाम
गाँव का पता
और पिता को चिन्हित करने के लिए अंकित कोई विषम संख्या
लम्बे अरसे से माँ की पोटली में बंधी
कुछ मुड़ा-तुड़ा-सा पास-बुक
इनदिनों मेरे बेटे के हाथ लग गया है
नगण्य राशि लिए ये खाता
जिनमें उपार्जन की असमर्थता साफ़ झलक रही
जमा से ज्यादा टुकड़ो में निकासी हुई
बेटे का कौतुहल
अंकित नीले और लाल रंगों में है
मेरी नज़र बची राशि पर टिकी है
और अंतिम तारीख पर भी
उनकी बेचैनी इन्ही दिनों बढ़ गई थी शायद
एक द्वंद्व – निकासी और खाते के खात्मे के बीच का था
जो अनिर्णीत रहा होगा मंहगाई के कारण
कोरे पन्नों पर
बेटे ने आंक दिए हैं कुछ बेचैन मानवीय आकृति
रंगों की ढेर से चुना है उसने
सिर्फ और सिर्फ नीला रंग
आसमान की असीमित गहराई से
उभर आती है पिता की कोई तस्वीर
पेन्सिल की तीक्ष्ण रेखाओं का सहारा लिए
हमारी इच्छाओं से बढ़कर
उनका भविष्य नहीं रहा होगा
निकासी किसी पर्व का उल्लास रहा होगा
निकासी बहन की कोई मंहगी सौगात रही होगी
निकासी माँ की दवाई रही होगी
निकासी भैया के कॉलेज की फ़ीस रही होगी
निकासी मेले से ली हुई मेरे जिद्द का कोई खिलौना रहा होगा
निकासी पिता की मज़बूरी रही होगी
निकासी हमारी ख़ुशी रही होगी
पास-बुक का लेन-देन
मेरे पिता का जीवन रहा होगा
जहाँ दर्ज था हमसे जुडी उनका अंकित संघर्ष
तीन ....
अनपढ़ आँखें
जंगलों के बीच
सूखे पत्तों की बँधी बोरियाँ
और कुछ थके पाँव
कुछ उंघते सिर
इनकी उंगलियाँ देखी है मैने
आँखें अनपढ़ हैं अभी भी
दूसरे विश्वयुद्ध की कहानी
इनको बताई नहीं गई- अब तक
सलवा-जुड़ूम और माओवाद का फ़र्क
इन तक कई बार पहुँचा था
हर बार कई –कई बच्चों की जान देकर
जाना है इन्होनें ...हक़ की बात
एक जैसी वर्दी वाले लोग
बस्तियों में घुस आते हैं –हक़ दिलाने -या- हक़जताने
और मासूमों के गाल पे हल्की चपत से
हांक ले जाते हैं
इनकी सूरतें मिलती हैं
माओवादियों और सलवा जुड़ूम के लोगों से
हर वार पर इनका जिस्म- सामने किया जाता है
चाहे गोली उनकी हो या सरकार की
नींद टूटती है इनकी...
मैं शहर का रास्ता पूछता हूँ..
उन्हें शहर के रास्ते का पता है
शहर के लोग कभी जंगल का रास्ता नहीं पूछते
परिचय और संपर्क
प्रशांत विप्लवी
404, अम्बालिका
काम्प्लेक्स
मेन रोड , ए जी कॉलोनी , पटना
मोबाइल : 09801086112
शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंआभार मित्र
हटाएंबेहद खूबसूरत रचना, प्रशान्त जी
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंbehud sarthak or khubsurat rachna...
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंप्रशांत जी की कवितायें फेसबुक पर पढ़ती रहती हूँ...खूब बढ़िया लिख रहे हैं...शुभकामनायें....
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंप्रशांत अच्छा लिखते हो, और भी अच्छा लिखो ,मेरी शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ अंकल, स्नेह बनी रहे
हटाएंसभी कवितायें अच्छी हैं , प्रशांत जी बधाई के पात्र हैं
जवाब देंहटाएंआभार आनंद सर
हटाएंबहुत दूर तक ऊँगली पकड़कर चलता रहा इन कविताओं की...उम्दा
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएँ आप को ढेर सारी शुभकामनाएँ और पढ़ना चाहेंगे
जवाब देंहटाएंजेनुइन कविताएँ। प्रशांत जी को बधाई
जवाब देंहटाएं