गुरुवार, 24 जनवरी 2013

शंभू यादव की कवितायें


                                   शंभू यादव 

दिल्ली की वीभत्स और शर्मनाक घटना ने सभ्य समाज के सामने कई सवाल छोड़े हैं | परिवार की संरचना से लेकर समाज और व्यवस्था के निर्माण तक फैले इन सवालों को हल करते समय इनमें कई और आयाम खुलने लगते हैं | पुरुष समाज , जिसके ऊपर ये सवाल आयत होते हैं , अपने आपको कटघरे में रखकर कैसे जांचता है , कैसे परखता है , कवि-मित्र शंभू यादव ने अपनी इन कविताओं के माध्यम से यही बताने का प्रयास किया है |
        

              प्रस्तुत हैं , सिताब दियारा ब्लाग पर शंभू यादव की कवितायेँ






पूर्व कथन

मैं अपने पुरुष रूप से शर्मसार हूँ
'
वीर भोग्य वसुंधरा ' की विकृत मनोवृति से शर्मसार हूँ
मैं शर्मसार हूँ उस बूढ़े साहित्यकार के लिए ,
जो स्त्री स्वतन्त्रता के नाम पर देहवाद के चटकारे भरता है
और किसी बलात्कार पर अपनी अनगर्ल टिप्पणी देता है 

परेशान हूँ मैं उस मूंछड़ पुलिसवाले में बैठे सामन्ती सर्प से ,
जिसके शब्दकोश में स्त्रियों के लिए 'छिनाल' शब्द अब भी स्थान पाता है

इधर लगातार घिनौनापन जारी है 
सारे देश में स्त्रियों पर बलात का, 
मेरे एक पुरुष दोस्त ने इस बात को लिखना क्यों पसंद किया कि
किसी रेप का वीडियो बने तो, न जाने कितने ही पुरुष उसे देखना पसंद करेंगे!? 
मैं शर्मसार हूँ।


अब मैं क्या करूँ,
क्या करूं मैं !
मेरे अब तक के जीवन- निर्माण में 
मेरी दादी , माँ, बुआ, चाचियों, भाभियों , बहनों और पत्नी की सबसे अहम भूमिका 
कहाँ जाऊं उनकी आँखों से बचकर ,
निहत्था हूँ ...
कैसे करूँ उन पर लगातार होने वाले बलात का प्रतिकार .....

एक कवि के रूप मैं इतना ही तो कर पाता हूँ कि 
बस क्षमा के साथ प्रस्तुत हो जाऊं
प्रकृति के सबसे कर्मठ रूप के सम्मान में .........
                        



    
           मनुष्य समाज के प्रयोग में आने वाली अधिकतर चीजें
             स्त्री  के लगातार कुछ न कुछ गूंथने से बनी हैं




    

 बीरबानी
 (माँ को समर्पित) 

वह मुँह अंधेरे उठ गई है
तूड़े में बिनौले मिलाती
भैंसों को डाल रही है सानी
थाण से उठाती गोबर
दिन में उपले थापेगी

पौ फटे चक्की पीसती

वह बुहार रही है घर का कूड़ा
जमा करती है कूडी में खाद

धूप फैलने को है आंगन में
वह गोद वाले को चूच्ची पिलाती
खेल में मस्त छोरी पर झीकती है-
नासपीटीकुछ पढ़ ले !

वह फूंकती है चूल्हा
उपले-सरकंडों की चरड़-चरड़
रोटी की महक फैली है
वह नहा रही है
पीटने को पड़े हैं मैले लत्ते
वह घाघरा पहन रही
ऊपर कुर्ती
सिर पर गोटेवाली लुगड़ी
बस-बस ! हो गया सिंगार
वह घूंघट निकाल रही

अपने धणी की रोटी लेकर आ गई है खेत में
छायगंठी के साथ मिस्सी रोटी खाता वह
वह देखती उसको
चरते बैलों को पपोलती

तेज धूप में लावणी करती

खाते में निकालती अनाज़
बांकली फांकती
वह गुड़-धाणी बांट रही

उसके सिर पर भारी भरौटा

चुपड़ दिया है सास का सिर
पड़ोस से आयी दादी के पांव भीचें
दूधो नहाओ पूतो फलो

चाक की चकली घूम रही है लगातार
साठ हाथ उंडे कुएं से पानी खींचती वह
अभी तो डांगरों को भी जोहड़ ले जाना

अंधेरा घेरने लगा
उसने चिमनी जला दी
समेट लिया शाम का चौका
हारे में कड़ा-उपला डालना न भूलियो
बचा रखनी है आग हरदम

टाबरों को थपेड़
वह काजल लगाती
भीतर वाले कोठे में लेटी है
मौटयार के बगल
चूड़ियों की खन-खन 
 बस-बस 
अब वह सो जाना चाहती है 
दो घड़ी के लिए
    
      


दादी

खाली थाली से क्या बीन रही हो
क्या पूरा नहीं हुआ है अभी बीनना
या बरसों से चली आ रही
अपनी आदत से बेबस .......
कि जारी रखना है बीनना

पहले बीनती थी
पहले बीनती थी जब भरी थाली से
दानों में से कंकड़ियाँ या
कंकड़ियों में से दाने
जीवन के हिस्से ज्यादा आए दाने या
कंकड़ियाँ

बता दोगी! बता दोगी ना
आँख के बंद हो जाने से पहले।






ठंडक

(बुआ की याद में , जिन्हें वर्षो से नहीं देखा है)

उसने मुझे खाने को मिस्सी रोटी दी
अपनी हथेलियों से प्याज का जहर निकाला
मैंने प्याज का मीठापन चबाया
वह मुझे देख रही थी राबड़ी पीते ।

दिन निकलेगा तो घाम बढ़ेगा
रेत उड़ेगी लू चलेगी
सवेरे ही सवेरे सीधो दिल्ली चलो जाइयो।

यह उस जून की उजली सुबह की ठंडक है, जो
इधरवाले जून की दोपहर मेरी नींद में आ गई है
एसी की ठंडक में तल्लीन सोया हूँ यहाँ मैं ।


     


पंख   

एक

                


कठिनाइयों का बीहड़ अंधेरा और
चार बहनों में सबसे बड़ी वह
घर की चार दीवारी में टेढ़ी कमान

सालों से जीवन को काटती-छाँटती
दुखों को सिलती पैबंदों में
हासिल हो जाए कुछ रेशे सुख

बीमार माँ में कड़वी दवा की मिठास

कटी कतरनों के साथ कट गए हैं
बिखर गए हैं उसके पंख भी ............
                   

दो


ऐसा नहीं कि उसने स्याह रात में चाहा न होगा
बालों को चंपा के फूलों से गूँथना
सपनों में जाना
बची कतरनों से बनाएं होंगे अनेकों गुड्डे
अपनी पसंद के

किंतु दिन की रोशनी के खुलने से पहले ही
पंछियों का कलरव शुरू हो
माँ की छाती में उठने लगे सवेरे वाली खाँसी
वह रख देती है गुड्डा छोटी के सिरहाने ........


गृहस्थ - मैं और तुम

एक


मैं उठा
मैं उठा तुम्हारे बालों को खिड़की के बाहर करता
जो कंघा करते वक्त तुम्हारे केशों से झड़ गए थे

देखो, दूध के उफान को साधना सीख लिया है मैंने

तुम काम पर मुझसे दो घंटे पहले चली जाती हो
इस दिनचर्या के चलते
दोपहर में वापस आओगी थकी-हारी
सबसे पहले बेतरतीब चीजों को
ठिकानों पर लगा दोगी

किताबों को झाड़पुछ सहजोगी
इधर-उधर छितराए पन्नों को उठाते बड़बड़ाओगी कुछ, मसलन-
हाय राम, पैन भी खुला‐‐‐‐‐‐
नबाब साहब ने मुझे ज़र-गुलाम समझा है

गुस्सा न होओ, देखो
मैं कोशिश कर रहा हूँ
बहुत मुश्किल काम है झूठे बर्तनों को मांजना
जिसे तुम करती आई हो वर्षो से
सहज़ ही।


 दो ...

मैं  तुम्हारे बगैर
रूप का गढ़ा अनगढ़ा
किसी लम्बी यात्रा से लौटे
पैरों के तलवे पर पड़ती अंगुलियों से
क्षण-क्षण झरता मिट्टी का कण
मैं तुम्हारे बगैर



गए साल
              
एक


गए पूरे साल
अपने पुरुष के अंहकारी विस्तार को
काटता रहा झाँटता रहा मैं

सीख लेता रहा 
क्या होता है
तरह तरह से 
स्त्री होना।
              
दो

वर्षो से ठिठुरती आह
पा जाए अच्छा सा-
मन का कोना गरमाहट भरा
आदर का अच्छा  
पौष्टिक भोजन बराबर।


    

स्त्री-गाथा काल


अन्दर तल्खी भरी चक्कर काट  है
बाहर से सांकल चढ़ी है
दीवार पर लगे जीवन के टटके रंगों के फोटो फ्रेम
समय की धूल में सने हैं
एक रोशनी भरी खिड़की में
एक स्त्री की स्वेत.श्याम छवि 
कुछ गूंथने में लगी है लगातार
मनुष्य समाज के प्रयोग में आने वाली अधिकतर चीजें
स्त्री के लगातार कुछ न कुछ गूंथने से बनी हैं
यह बात मैंने कही थी दस साल पहले भी
जब मेरी माँ जिन्दा थी
कह रहा हूँ आज भी
जबकि मेरी पत्नी अपने स्वभाव में बहुत गर्म मिजाज है
इस बात को कहते वक्त दस दिन का ग्रेस ले रहा हूँ
ताकि आप कोई प्रतिक्रिया दें सके
और फिर दस साल बाद भी यही बात कहूंगा
और तब तक तो पुरुष
स्त्री की आवाज को दबाने के अपने गुर से तखलिया हो चुका होगा
और तब तक कश्मीर घाटी टुलिप के फूलों से भरी  होगी
कई निर्मला पुतुल हिदी साहित्य में मैदान मार रही होंगी

और शर्मिल्ला एरोम मस्त नाच रही होंगी
अपने भरे-पूरे  जीवन में |





परिचय और संपर्क

शंभू यादव
मो.न. 09968074515





25 टिप्‍पणियां:

  1. अभी सूचना यह कि पूरी उम्मीद है कि शंभू भाई का पहला संकलन दखल प्रकाशन से पुस्तक मेले में आप सब के हाथों में होगा

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  2. यादव शम्भु मेरे सिद्धहस्त रचनाकर्मी मित्र हैं. उनके कलम के कमाल अक्सर विस्मयकारी होते हैं. ये कविताएँ भी उसी ज़ंजीर की कुछ ज़बरदस्त कड़ियाँ हैं. बधाई.

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  3. शम्भू भाई की कवितायेँ युवा कवियों में अलग तरह की हैं.....प्रतिरोध इनकी कविता का मूल स्वर है .

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. बेहतरीन कविताएं , जीवन से जुडी हुई ,अपने आस-पास ही पाया . शंभू भाई संकलन के लिए अग्रिम बधाई

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  6. Achi kavitayiem hain . PUrvakatha jabardasth kavitha hain. Shambu ji ko aur prastutkartha ko badhayi.

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  7. क्या बात है अशोक भाई.. संग्रह के प्रकाशन की सूचना देकर आपने मित्र शंभू यादव के साथ हम सबका भी उत्साह बढ़ा दिया है | दखल प्रकाशन की इस कोशिश को हमारा सलाम | हमें इसका इन्तजार रहेगा |

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  8. बेहतरीन कवितायें | शंभू कविता में अविधा की ताकत का अंदाजा बता देते हैं |बहुत सचेत और रंगी-चुनी कविता के बीच ये स्वर एक रास्ता तोड़ता है | दादी कविता ख़ासतौर पर अच्छी लगी | ....केशव तिवारी

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  9. भाई !कवितायेँ बहुत अच्छी हैं ,एकदम फुर्सत से पढने लायक लेकिन टिप्पणी करना कठिन कार्य है ।फिर भी कभी प्रयास करूँगा।

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  10. वाकई शंभू जी की कवितायें अपने शिल्प से अपनी तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं. स्त्री गाथा काल बेहतर कविता लगी. रामजी भाई का आभार बढ़िया कवितायें पढ़वाने के लिए.

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  11. शम्भु जी आपकी कविताए अपने आप मे अनुठी है स्त्री को समझने और उन्हे आदर की अपेक्षा रखने वाली है बहुत सुन्दर प्रस्तुति बहुत अच्छा लगा ।शुक्रिया आभार ।

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  12. Behtareen kavitayen! Shambhu lagaataar chakit kar dene waali srijansheeltaa ka parichay de rahe hain. Jahaan hariyaanvi mein utarte hain guru, wahaan to koi jawaab nahin!

    Sangrah kaa besabri se intezaar hai.

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  13. सामजिक सरोकारों से जुड़ी सभी कवितायेँ बहुत अच्छी हैं ....संकलन के लिए बधाई स्वीकारें !

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  14. संवेदनाओं को छूती हर एक रचना ...

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  15. संवेदनाओं को छूती हर एक रचना ...

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  16. शंभू भाई की कविता में स्त्री अपनी पूरी आभा और ताकत के साथ आती है.उनकी कविताओं में स्त्री-संवेदना का प्रसार आप कवि के जीवन तक में व्यहारिक रूप में घटित होते साक्षात् देखते है.जीवन के जिन कामों से जोड़ कर स्त्री जीवन को बाधने की साजिश होती है उसी कामों को करते हुए ही अपने पुरुषत्व से मुक्ति के प्रस्थान प्रक्रिया को स्थापित भी करते है.इन कविताओ की यही बात उन्हें हमारे समय के लिए जरूरी बना रही है.

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  17. पिछले दिनों शम्भू यादव की कविताओं ने कई बार आकर्षित किया, एक बार पढ़ने लगो तो जीवन आपके सामने नृत्य करता प्रतीत होता है,सुख में सुख दुःख में दुःख महसूस कराने वाली कलम सलामत रहे और मानवीय गरिमा को बचाने में लगी रहे ..धन्यवाद.

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  18. ईमान की जुबां बोलती ये कवियायें बेहद अपनी सी लगती हैं . इस कवी के पास अपने समय के साथ अपना भी सामना करने का साहस है .
    दादी अविस्मरणीय कविता है .

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  19. शम्भू भाई की सभी कवितायेँ हमेशा की तरह स्त्रियों के प्रति उनकी संवेदनशीलता दर्शित करती हैं .....'.पंख' ...'गृहस्थ हम-तुम 'विशेष पसंद आयीं ....सुन्दर आत्मीय भावपूर्ण कविताओं के संकलन के लिए बधाई

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  20. शम्भू भाई, फिलहाल पहली कविता को लेकर सोच रहा हूं जो हमारे समाज के झूठ को भी बताती है और बहुत जेनुइन ढंग से असर करती है, बिना किसी बड़बोलेपन के।

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  21. हर रचना बेहतरीन ,शब्दों से कितने सुन्दर चित्र उकेरे ,शानदार

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  22. बहुत ही उम्दा कवितायेँ हैं ...बहुत ही उम्दा ....कुछ तो था जो छूटा जा रहा था ...आपके आने से जो पूर्ण हुआ है ...ये दखल बेहद ज़रूरी दखल है !

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  23. आज 28/01/2013 को आपकी यह पोस्ट (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!

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  24. बेहतरीन कवितायें
    सभी लाजवाब.
    कविवर को बधाई..

    सादर
    अनु

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