रविवार, 20 जनवरी 2013

रविभूषण पाठक की कवितायेँ


                                  रविभूषण पाठक 


रविभूषण पाठक की सूरज श्रृंखला वाली ये कवितायें जितनी प्रकृति के बारे में हैं , उतनी ही इस समाज के बारे में भी | वे अपने साथ हमें कई स्तरों पर दुनिया की सैर कराती हैं | उस दुनिया की, जिसमें सहजता भी है और पाखण्ड भी , जिसमें अदम्य जिजीविषा भी है और घोर निराशा भी | अपने समाज के बनते – बिगड़ते चेहरे को इन कविताओं में पढ़ा-समझा जा सकता है |


      प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर युवा कवि रविभूषण पाठक की कवितायें
              


एक

छोटे शहर में सूरज बड़ा दिखता है
चमकता है पूरी दम से
नाचता पूरी लय से
हरेक के घर जाता
सुस्‍ताता और समय से वापस जाता है
अगले दिन घूमता है हरेक आंगन में
कभी लुहार की धौंकनी ,कभी गृहिणी के चूल्‍हे
और कभी पुजारी के हवन की ओर देखता
और अपनी धौंकनी से तौलता
सारे दिशाओं से प्रणाम पाकर
बैठ जाता अपने सिंहासन पर
कभी-कभी बनियों के तराजू
में पासंग बन
दलालों के कमीशन में कुछ बढ़कर
दरोगा की वाणी में लालित्‍य बनकर
सेंधमारों के औजार की धार बढ़ाकर
साप्‍ताहिक कीर्तनों में शामिल होकर
प्राथमिक विद्यालयों में गुरूजी से बर्तनी सीख
उनकी तंबाकू-चूने की मर्दनी से छींककर
डंडा खाकर घर लौटता है देर से



दो....  

बड़े शहर में सूरज के लिए जगह कम थी
लोग बिना सूरज के भी ऊजाले में गरमागरम होते
यहां अंधेरा समय से नहीं स्विच से होता था
बिना सूरज के ही गरम पसीना-पसीना
पसीना भी जिम में ,कविताओं में सिनेमा में थी
कुल मिलाकर यह अच्‍छी चीज मानी जाती थी
ए0सी0 ,फ्रिज और कई मशीन
जो सूरज की फिक्र और चिंता नहीं करने देते
सूरज यह देख देख और भी लाल होता
और भी भयानक और भी उग्र
बड़े शहर के बड़े लोग
कूलिंग बढ़ा देते
दुनिया ठंढ़ी गरम होती और ओजोन ओजोन भी चिल्‍लाती
सेमिनारों व्‍याख्‍यानों समझौतों पर सूरज जोर से छींकता
और हो जाता ओजोन मंडल में अमेरिका के बराबर छेद
महाशक्तियों के छिनरपन पर ओठ बचा के भी थूकता सूरज
तो महासागरों में अठारह मीटर ऊंचा तूफान उठता
गगनचुम्‍बी इमारतों से सूरज का ब्‍लडप्रेशर बढ़ता
सूरज और ऊपर चढ़ने का प्रयास करता
कारखानों की चिमनी से उठता धुंआ
सूरज बार-बार अपना चेहरा धोता
महानगरों के माननीयों की साजिशों में
शामिल नहीं होता सूरज
विज्ञान ,कला ,साहित्‍य के पाखंड को पढ़ने की बजाय
सूरज जोर-जोर से सांस लेता
बस शुरू हो जाती पर्यावरणचर्या
हाय धरती हाय सूरज हाय गगन
कुछ दिनों बाद फिर से_____
फिर फिर से
धरती के गर्भ में मशीन घुसा
सब कुछ बाहर निकालने का प्रक्रम
कुछेक परमाणुओं को जोड़तोड़
सूरज पर हँसने की कोशिश
और गगन को बांधने का विश्‍वास
इस विश्‍वास पर सूरज बाईं करवट ले
जोर जोर से हँसता
हलचल सुनामी भूकंप


तीन


गांव के हर घर ,आंगन ,खेत
खलिहान में सूरज होता
सब काम सूरज से पूछ कर किया जाता
वह देवता ,मित्र,पिता,बंधु था
यात्री ,सारथि, पथप्रदर्शक था
वह फसल की कटाई ,बुआई से लेकर
सगुन-श्राद्ध सब में शामिल था
कुछ भय से कुछ प्रेम से
कुल मिलाकर बड़े मजे थे सूरज के
पहला दाना पहला फल पहला नमस्‍कार पा
इतराता इतराता
दिसंबर में भी आग बरसाने लगता
कभी कभी दयार्द्र हो
करता जून में बर्फबारी


चार ....

जंगल में सूरज कभी कभी
चढ़ जाता शीशम,सागौन की सबसे उंची टहनी पर
और फिसलता यूक्लिप्‍टस की चिकनी देह पर
कभी छिपता गोरैया के घोंसले के पीछे
थककर धोता तालाब में मूंह,देह
कभी ओढ़कर अंधेरा
देखा करता प्राणि-जगत की प्रणय लीला
उतनी ऊंचाई काफी नहीं थे भूलने को
आखिर उसके भी नाम कुछ कुंतियां थी
यद्यपि वह हँस सकता था पांडु की क्लिवता पर
पर इस सोच से भी वह खीझा
तभी  हँस पड़ा उस बूढ़े बंदर पर
जिसके हाथ में कई केले थे
अपने कांख,पेट में भी दबाए कुछ और
गुर्रा रहा था शिशु बंदरों पर
जंगल की खाद्यश्रृंखला बड़ी ही पारदर्शी थी
सूरज भी मानता था कि यहां के क्रम में
कम संभावना थी पाखंड की


पांच ....


पहाड़ों पर सूरज की अटखेली
बरसों देखते रहे सुमित्रानंदन पंत
पहाड़ों के तीखे मोड़ पर सर रखके सोता सूरज
कभी दो मोड़ के पीछे ऐसे छिप जाता
जैसे दुल्‍हन की लाल-लाल बिंदी
और कभी पंचपहाड़ों के पीछे
ऊचक्‍कों की तरह टार्च से फेंकता प्रकाश
कभी दिन के दस बजे ही गुम हो जाता
मानो क्‍या मतलब है उसे पहाड़ से
और कभी-कभी पहाड़ों के पार
धीरे-धीरे गुम होता
जब तक कि लौट न आया हो घर
वह आखिरी लड़कहारा

छः ....

सूरज बस सूरज होता
या तो समुद्र में
या फिर रेगिस्‍तान में
कोई नहीं था सूरज और समुद्र के बीच
और सूरज जब मन हो जगता समुन्‍दर के पीछे
और फिर थककर सो जाता वहीं
सूरज खींचना चाहता समुन्‍दर को अपनी ओर
और समुन्‍दर को धरती से प्‍यार था
परंतु सूरज भी कोई दूसरा नहीं था
और इस अकुंठ प्रेम को प्राय: देखते तटवासी
धरती समुद्र और सूरज के त्रिकोणीय प्रेम
का निष्‍कर्ष सरल नहीं है मित्र
अब भी समुन्‍दर धरती के रोंये रोंये को दुलराता है
और अपने पूरब की जमीन पर रहने देता है सूरज को


सात


एक ही जगह पर चलते-चलते
बड़ा ही मोनोटोनस हो गया था सूरज
निकलना चाहता था कहीं और
पर रास्‍ते के ग्रह ,उपग्रह ,क्षुद्रग्रह चिल्‍लाने लगते
कभी-कभी सूरज भी बादलों में छिपता रूकता
पीछा करता तैरने लगता कोहरों में
नियम,कानून,संस्‍कार का वास्‍ता दे रोक लेते
परेशान सूरज के देह में टूटने लगते असंख्‍य नाभिक
व्‍यवस्‍था की गरमी से लाल हो जाता वह
सूरज भी अपनी उम्र को याद करता
पर सबकी दुनिया सूरज से ही जुड़ी थी
इसी मोह को दुनिया मान सूरज चक्‍कर काटता बरसो
कुंती को याद कर कर होता रहता लाल
उसकी भट्ठी में कितने चिंगारी प्रेम के कितने ग्‍लानि के
और कितनी व्‍यवस्‍था के थे  ?
घटती आग और बढ़ती उमर
सिकुड़ती परिधि और बढ़ती भूख
आकाशगंगाऍ अपनी जगह थी
और सूरज जुगनू बन
सूंघ रहा था फूलों को ।





परिचय और संपर्क


रवि भूषण पाठक
मो .न. – 09208490261




1 टिप्पणी: