वाल स्ट्रीट का नारा
अपने श्रमिक
संगठन के लिए , इस लेख के माध्यम से मैंने गत वर्ष की अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों
पर एक नजर डाली है | इसमें घटनाओं से अधिक , उनके निहितार्थों पर बल दिया गया है |
उम्मीद करता हूँ , कि आप सबकी टिप्पड़ियां इस लेख को और आगे बढ़ाएंगी |
प्रस्तुत है ‘सिताब दियारा’ ब्लॉग पर मेरा यह
लेख
रामजी तिवारी
गत वर्ष की अन्तर्राष्ट्रीय
परिस्थितियों का सिंहावलोकन
गत वर्ष की अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियां
समग्रता में देखने पर मिश्रित ही मानी जा सकती हैं | एक तरह तो जहाँ वैश्विक
व्यवस्था में कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिलता है , और दुनिया उसी तरह से
एक-ध्रुवीय बनी रहती है , वहीँ दूसरी तरफ प्रतिरोध और संघर्ष की आवाजें उस अकेले
ध्रुव के साथ-साथ पुरी दुनिया से उठती दिखाई देती हैं | इन आवाजो में कुल मिलाकर
वही तेवर और संघर्ष का माद्दा दिखाई देता है , जिसकी हम वर्षों से वकालत करते आ
रहे हैं | यह अलग बात है कि प्रतिरोध की इन आवाजों को अभी तक एक साथ संगठित नहीं
किया जा सका है ,और जिसके कारण उनसे निकलने
वाले निहितार्थों का वास्तविक अर्थ भी नही खुल पाया है | इस उम्मीद के साथ हम
पिछले साल की महत्वपूर्ण घटनाओं का अवलोकन आरम्भ कर रहे है कि ये संघर्ष आने वाले
सालों में और जवान होंगे और एक ऐसी भेदभाव-रहित दुनिया के निर्माण में सहायक होंगे
, जो सही मायनों में समान , स्वतंत्र , न्यायपूर्ण और जनतांत्रिक होगी |
नव-उदारवादी नीतियों से संचालित यह
वैश्विक अर्थव्यवस्था पिछले कुछ सालों से जिस तरह से अपने घुटनों पर घिसट रही है ,
वह अपने आप में इसके खोखलेपन की कहानी बयान करता है | पुरी दुनिया में अजीब किस्म
की मुर्दानगी छाई हुई है , जिसे आजकल मंदी करार दिया जा रहा है | आज से बीस वर्ष पूर्व तो इस बात की धूम मची थी
कि जब तक पुरी दुनिया एक साथ व्यापार में जुड नहीं जाएगी , तब तक उसका भला नहीं हो
सकता | हर देशों में इसके प्रवक्ता भी खड़े हो गए , जिन्हें बड़े और नामी अर्थशास्त्री
के रूप में प्रचारित किया गया | फिर ऐसा समय भी आया कि इन्ही कथित नामी
अर्थशास्त्रियों के हाथों में दुनिया भर के देशों की सत्ताए सौंप दी गयी | और इसके
शीर्ष पर बैठे लोगों ने लोभ, छल , कपट और लूट का खुला खेल खेलना आरम्भ कर दिया |
लेकिन इस तरह का खेल , इतिहास गवाह है , कि कभी भी लंबे समय तक नहीं खेला जा सकता
| और वही हुआ भी | विकास और प्रगति का गुब्बारा उनके लोभ और लालच के दबाव में आकर
अंततः फूट ही गया | पुरी दुनिया जो एक साथ जुडकर प्रगति और विकास के सपने देख रही
थी , एक साथ ही मंदी की चपेट में आ गयी |
तो ऐसा कैसे हो गया कि अमेरिका या यूरोप
के बाजारों के ढहने से पुरी दुनिया ही ढह जाए ..? हमें तो यह बताया गया था कि इससे
सबको लाभ होगा और जो इस वैश्विक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बनेगा वह दुनिया में
अलग-थलग पड़ जाएगा , लेकिन यहाँ तो सारे के
सारे लोग ही घाटे में हैं | सबके होठों पर फेफरी पड़ी हुई है कि अब क्या किया जाए |
दरअसल यह पूरा खेल उस पूंजी के महाजाल से शुरू हुआ था , जिसमे बड़े और विकसित देशों
ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं में पैदा हुए अवरोध को दूर करने के लिए दुनिया को जोड़ने का
फलसफा रचा था | आज जब भौतिक रूप से एक देश को गुलाम बनाना असंभव और अव्यावहारिक है
, यह नुस्खा तात्कालिक रूप से बड़े काम का साबित हुआ | लेकिन जहा सम्पूर्ण नीतिया
लूट और धोखे की बुनियाद पर टिकी हो ,वहा ऐसे कोई भी नुस्खे कितने समय तक कारगर
साबित हो सकते है | पुरी दुनिया तो जुड गयी लेकिन खेल कुछ बड़े और ताकतवर लोग ही
खेलते रहे | सट्टेबाजी और जुएबाजी के इस खेल का भांडा आज से पांच साल पहले जब फूटा
, तो इन बड़े और ताकतवर लोगों के साथ पुरी दुनिया ही घुटनों पर आ गयी | चुकि ये लोग
पुरी दुनिया को जोड़ चुके थे , इसलिए जिसने यह पाप किया , के साथ, जिसने इसमें कोई भूमिका नहीं निभायी , वे सभी
लोग भी इसके शिकार हो गए |
एक आम आदमी भारत जैसे देश में जब यह सवाल
करता है ,कि अमेरिका में आई इस मंदी को हम क्यों झेलें , या उसका हमारे ऊपर ऐसा
क्यों असर पड़ रहा है , तो इन बातो को समझे बिना आप कोई भी माकूल उत्तर कैसे दे पायेंगे
| आप यही कहेंगे कि पुरी दुनिया आजकल जुडी हुयी है , इसलिए ऐसा हो रहा है | तो यह
सवाल खड़ा हो जाएगा , कि पुरी दुनिया को इस तरह से जोड़ा ही क्यों गया | अब ऐसा कैसे
हो सकता है कि हमारे गांव के ऐय्याश और जुवारी अपने लोभ और लालच में सारा कुछ हार
जाए , और पूरा गांव उसकी सजा भुगते ..? यदि हमने गलती की है , तो हमें यह सजा भी
मिले , लेकिन उनके ऐय्याशियों की सजा हम क्यों भुगते ..? और ये सवाल किसी के भी मन में उठ सकते है , वरन
यह कहना उचित होगा कि उठ रहे हैं | हम तो आरम्भ से ही इन नीतियों के विरोधी थे ,
और यह मानते थे कि ऐसी नीतियों का अनुसरण करके हम अपनी संप्रभुता को एक तरह से
गिरवी रख रहे हैं | लेकिन दुर्भाग्यवश उस आंधी में हमारी यह महत्वपूर्ण बात उड़ गयी
| आज जब यह मंदी पूरी दुनिया को अपने चपेट में ले चुकी है और सब लोग त्राहि-त्राहि
कर रहे हैं तथा किसी को भी इससे निकलने का
रास्ता नहीं सूझ रहा है , तब शायद हमारी बाते अब दुनिया के लोगो को याद आ रही हैं
|
लेकिन यह समझना गलत होगा कि इन नीतियों से
उपजी इस मंदी से इस दुनिया के संचालकों ने कुछ सबक भी लिया है , वरन इसके उलट
उन्होंने इसके परिणामों को आम सामान्य जनता के सर मढ़ने का ही काम किया है |
अमेरिका का उदाहरण हमारे सामने है | बेल आउट और सहयोग के द्वारा अरबो और खरबों
डालर की सहायता उन संस्थाओ ,व्यक्तियों और बैंको को प्रदान की गयी है , जो इस मंदी
के लिए जिम्मेदार हैं | और ऐसा आम सामान्य जनता के लिए आवंटित किये जाने वाले बजट
में कटौती करके किया गया है | सामाजिक सुरक्षा के निमित्त रखे गए इस पैसे के इस
दुरुपयोग और चंद लोगों की गलतियों की सजा को पूरे समाज पर थोपने की कार्यवायी के
विरोध में उसी अमेरिका में पिछले कुछ समय से इसका सबसे शक्तिशाली प्रतिरोध भी
देखने को मिल रहा है |
“वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो” के नारे के
साथ “ 99 प्रतिशत बनाम 1 प्रतिशत ” का यह नारा जैसे इस दुनिया की आवाज ही बन गया |
और यह नारा अनायास नहीं उपजा था | भारत के इस आंकड़े को पढकर शायद आपको भी इसकी
प्रासंगिकता समझ में आ जायेगी | अभी हाल ही में वित्त मंत्री महोदय ने संसद में यह
आंकड़ा प्रस्तुत किया है कि भारत के शीर्ष 8200 के कब्जे में , देश की कुल
परिसंपत्ति का 70 प्रतिशत हिस्सा आता है | और यही आंकड़ा लगभग दुनिया के पैमाने पर
दिखाई देता है | इस साल यह नारा यूरोप के देशों में खूब सुनाई दिया | क्योंकि
अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लुढकने का असर भी अब यूरोप पर जबरदस्त तरीके से देखने में
आ रहा है | एक देश के रूप में महान सभ्यता की विरासत संभालने वाले देश ग्रीस का तो
जैसे दीवाला ही निकल गया है | वहाँ की सरकार ने जब इस्तीफा दिया और उसकी जगह पर
जिस दूसरी सरकार का गठन हुआ , उसने पहले से ही कराह रही जनता पर करों का और बोझ
लाद दिया है | मंत्रियो और सरकारी अधिकारियों पर लगातार हमले हो रहे है , लेकिन
उनके पास भी अपने देश को इस भंवर से निकालने का कोई नुस्खा मौजूद नहीं है | आज भी
वह देश कर्ज और दिवालिएपन के भंवर में हिचकोले खा रहा है |
ग्रीस का जनविरोध
इटली , स्पेन और पुर्तगाल सहित अन्य देशों
की अर्थव्यवस्थाएं कागज़ की नाव जैसी डोल रही हैं | सरकारों को सांप सूंघ हुआ है ,
कि वे ऐसे में क्या करें | लोगों की यह मांग है , कि आज हमारी दुनिया जिस महामंदी
में डूबी हुई है , उसके लिए दुनिया के सिर्फ 1 प्रतिशत लोग ही जिम्मेदार है ,
लेकिन उसकी सजा 99 प्रतिशत लोगो को दी जा रही है | उनकी माँग यह भी है कि इस
महामंदी के जिम्मेदार लोगों को दुनिया भर की सरकारे जिस तरह से मदद कर रही है ,
उसे तत्काल ही बंद किया जाए , और बजाय बेल-आउट या सहायता देने के , उन्हें सजा दी
जाए | यह समझना यहाँ बहुत महत्वपूर्ण होगा
कि जिस अमेरिका और यूरोप को हम लोग सारी दुनिया के लोगों के शोषण के लिए जिम्मेदार
समझते हैं , उस अमेरिका और यूरोप में भी नीतियां कुल मिलाकर एक प्रतिशत लोगों के
लिए ही बनाई और संचालित की जाती है | और जब उन नीतियों की वजह से देश और दुनिया
डूबने के कगार पर पहुँच गयी है , तब बजाय इन नीतियों से सबक लेने और इनके लिए
जिम्मेदार लोगों को दण्डित करने के , उन्हें ही सहायता और बेल-आउट के माध्यम से
लाभ पहुँचाया जा रहा है | दुखद यह है ,जब देश और दुनिया की नीतियां बाजार के उत्कर्ष
के समय फल-फूल रहीं थीं , तब भी उनका लाभ आम जनता और अवाम को नहीं मिलकर कुछ खास
लोगो की ऐय्याशी पर उड़ाया जा रहा था , और आज जब उन नीतियों के कारण दुनिया गर्त
में गोते लगा रही है , तब उसका उसका नुकसान आम सामान्य लोगो के सर ही डाला जा रहा
है |
अरब की जैस्मीन क्रांति
अरब देशो में पिछले कुछ समय से उस
परिवर्तन की बयार आरम्भ हुई है , जिसने बंद और सर्वसत्तावादी समाजों को खुलने और
लोकतंत्र की तरफ चलने के लिए मजबूर किया है | ट्यूनीशिया से आरम्भ होने वाली इस
जैसमिन क्रांति ने जल्दी ही मिश्र , यमन , क़तर , सीरिया , बहरीन , सउदी अरब, ईरान
और लीबिया जैसे देशों में हलचले पैदा कर दी | ट्यूनीशिया में बेन अली के तीस
वर्षीय शासन का अंत हुआ , और वे देश छोड़कर सउदी अरब भाग गए | मिश्र का तहरीर चौक
तो संगठित प्रतिरोध का सिम्बल ही बन गया | वहाँ के शासक हुस्नी मुबारक को भी गद्दी
छोडनी पड़ी और नयी सरकार को चुनावों की घोषणा करने के लिए बाध्य होना पड़ा | यमन में
भी यह सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन सबसे अधिक खूनी खेल लीबिया और सीरिया में खेला गया
| मुअम्मर गद्दाफी के चालीस सालों के शासन का जिस तरह से अंत हुआ , और जिसमे
अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों ने चढ़-बढ़कर भूमिका निभायी , उसने कई सवालों
को जन्म दिया है | वहीँ सीरिया से साल भर हत्याओं और मारकाट की सूचना आती रही |
हजारों लोग अब तक इस गृह युद्ध में स्वाहा हो चुके हैं , और उसका कोई अंत दिखाई भी
नहीं देता | बेशक अरब के अधिकतर देशो की सत्ताएं तानाशाही और अधिनायकवादी ही मानी
जायेंगी , लेकिन यह उस देश की जनता को तय करना होगा कि वह उनसे कैसे मुक्ति पाना
चाहती है | बाहर से थोपे गए किसी शासक को किसी भी देश की जनता ने आज तक स्वीकार
नहीं किया है | जब भी कहीं पर परिवर्तन स्थाई हुआ है , वहाँ की जनता की आशाओं और
आकांक्षाओं के अनुरूप ही हुआ है | इराक और अफगानिस्तान इसके बेहतर उदहारण है | आज
ईरान में जो कुछ हो रहा है , वह इन दोनों देशों से लिए जाने वाले सबक के बिलकुल
विपरीत है | पश्चिमी ताकते मानवाधिकार , जनतंत्र , और परमाणु अप्रसार को लेकर ईरान
की घेराबंदी कर रही है और कुल मिलाकर परिदृश्य सैन्य हस्तक्षेप की तरफ ही बढता हुआ
दिखाई दे रहा है |
इसी साल दुनिया के कई शक्तिशाली देशों में
नए शासनाध्यक्षो / राष्ट्राध्यक्षों ने सत्ता संभाली | फ़्रांस में जहाँ निकोलस
सार्कोजी को सत्ता से बेदखल होना पड़ा , और उनकी जगह होलोंदे की समाजवादी सरकार ने
शासन की बागडोर अपने हाथ में ली , वहीँ रूस में ब्लादिमीर पुतिन ने
येन-केन-प्रकारेन राष्ट्रपति पर काबिज होकर संविधान को धता बता दिया | अमेरिका में
फिर से बराक ओबामा को चुना , लेकिन इस बार दुनिया ने उनके चुने जाने पर वह उत्साह
नहीं दिखाया , जैसा कि पिछली बार दिखाया था | कारण साफ़ था | लोगों ने यह जान लिया
है , कि राष्ट्रपति ओबामा हों , या क्लिंटन , बुश हों या रीगन , जब तक आप व्यवस्था
में बदलाव नहीं करते , इन मोहरों के बदलने से कुछ भी सार्थक हासिल नहीं होगा |
ओबामा जिस अफ्रीकी मूल से आते हैं , उसी अफ्रीका को उन्होंने अपने चार साल के
कार्यकाल में बिलकुल ही भुला दिया | अपने चार साल के कार्यकाल में केवल एक देश
घाना की यात्रा से ओबामा ने यह साफ़ सन्देश दिया , कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं |
आगे आने वाले समय में भी वे उसी हथियार , आटोमोबाईल , साफ्टवेयर , तेल और मशीनरी
लाबी के लिए काम करते मिले , तो इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए |
अलबत्ता दक्षिणी अमेरिकी देशों में समाजवादी सरकारों का सत्ता में आना , और उस
महाद्वीप को एक सार्थक दिशा में ले जाना , हमारे दौर की एक नयी परिघटना मानी जा
सकती है |
बराक ओबामा
गत साल विकिलीक्स के
खुलासों ने हमारे सामने कई नए रहस्यों को रखा था | उनसे पता चलता था , कि
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में किस तरह से अमेरिकी धौंस-पट्टी काम करती है , और दुनिया
भर की सरकारे किस बेशर्मी से उसे बर्दाश्त करती हैं | उसी विकीलीक्स के मुखिया
जुलियन असान्जे को इस सच बोलने की सजा दिलाने के लिए अमेरिकी शासन ने आकाश-पाताल
एक किया हुआ है | उन पर झूठे मुकदमे चलाये जा रहे हैं , और कानून तथा न्याय के
सिद्धांतों का ढिढोरा पीटने वाले देश ब्रिटेन की सरकार तमाशा देख रही है |
‘असान्जे’ इस समय लंदन स्थित ‘इक्वेडोर’ के दूतावास में रह रहे हैं , जहाँ
इक्वेडोर की सरकार ने उन्हें राजनीतिक शरण दी हुयी है | सच बोलने की यह सजा हमारे
सभ्य समाज के उपर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है |
जूलियन असान्जे
दुनिया के कुछ हिस्सों
से दशकों से एक ही तरह की खबरे आती रही हैं | मसलन इस साल इजराईल का अपने पड़ोसियों
पर लगातार किया जाने वाला हमला और फिलिस्तीन के मसले पर दुनिया के बड़े और ताकतवर
देशों की चुप्पी को उसी कड़ी में देखा और समझा जा सकता है | उसमे न तो कल कोई
परिवर्तन हुआ था , और न ही इस साल कोई बदलाव आया | पाकिस्तान से आने वाले खबरों ने
भी इस साल हमें यही बताया , कि उसने विश्व बैंक और दाता देशों से मिलने वाली
सहायता को अपने देश के विकास में लगाने के बजाय उसका दुरुपयोग किया है | उसने उन
पैसों से सेना के लिए हथियार खरीदे हैं और उन जेहादी तंजीमो को मदद की है , जो
दुनिया के लिए सिरदर्द बनी हुयी हैं |
एक सुखद शोध की सूचना
इस साल विज्ञान के क्षेत्र से आयी , जिसमे कहा गया , कि वैज्ञानिकों ने सृष्टि के
उद्भव के उन मूल कणों की खोज में एक महत्वपूर्ण चरण पार कर लिया है , जिस पर आगे
चलकर हम अपने इस ब्रह्माण्ड के उद्भव और विकास को समझ सकते हैं | ‘हिग्स-बोसान’
नामक इन कणों की खोज को दुर्भाग्यवश भारतीय मीडिया में ‘ईश्वरीय कणों’ के रूप में प्रचारित
किया गया | टी.वी चैनलों , समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में जिस अज्ञानता के साथ
इन्हें दुस्प्रचारित किया गया , उसने भारतीय मीडिया में विज्ञान की नासमझी को
उजागर कर दिया | इसके बरक्स दुनिया के अन्य देशों में ऐसी कोई भी चर्चा नहीं हुयी
, और काफी सधे तरीके से इस शोध को जगह दी गयी | भारतीय मीडिया की यह अज्ञानता कुछ
साल पहले भी सामने आयी थी , जब जमीन के भीतर चल रहे ‘महाविस्फोट सिद्धांत की शोध ’
को दुनिया के अंत के रूप में प्रचारित किया गया था | ‘माया कैलेण्डर’ का जिन्न भी
उसी कड़ी के रूप में देखा जा सकता है | उम्मीद की जानी चाहिए , कि हम और आप तर्क और
बुद्धि के सहारे अपनी समझ को आगे विकसित करेंगे , न कि भौंडे दुष्प्रचारों में
फंसकर अपना समय जाया करेंगे |
आईये .... अपने पडोसी
देशों की तरफ नजर डालते हैं | हमारा पश्चिमी पडोसी देश पाकिस्तान , आज एक देश के रूप में लगभग असफल हो चुका है | चुनी
हुई सरकारे सेना की कठपुतली बनी हुई हैं | प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति में से किसी
के पास यह साहस नहीं बचा है , कि वे अपने रिटायर्ड सेनाध्यक्ष जनरल कियानी से सेना
प्रमुख का पड़ छोडने के लिए कह सकें | सरकार सेना की गोद में है और सेना अमेरिका के
| बची जनता , तो वह भारत विरोध और इस्लाम की रक्षा की नाम पर दशकों से घिसट रही है
| अपने पडोसी देश में चलने वाला यह नाटक निश्चित रूप से हमारे लिए चिंता का सबब है
| ईश निंदा कानूनों को लेकर जिस तरह का कट्टरपंथ पाकिस्तान में पनप रहा है , वह
परिदृश्य को और अधिक जटिल खतरनाक बनाता जा रहा है | ‘मलाला’ नाम की बहादुर लडकी को
जिस तरह से सरेआम गोली मारी गयी , वह घटना बताती है , कि पाकिस्तानी समाज आज
ज्वालामुखी के किस मुहाने पर खड़ा है | द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत तो बांग्लादेश के
निर्माण के समय ही धराशायी हो चुका था , अब एक ही सम्प्रदाय के भीतर का यह खूनी
खेल हमें यह बता रहा है , कि कट्टरता की लगातार घूंटी पीने वाला समाज किस तरह की
दुर्घटनाओं की चपेट में आ जाता है | एक अरसे से हमें इस बात का इन्तजार है , कि
हमारे इस पड़ोसी देश से कोई ऐसी सूचना आये , जिस पर पकिस्तान के साथ-साथ हम भी गर्व
कर सकें |
मलाला युसुफजई
हमारा बड़ा पडोसी चीन भी कुल मिलाकर उसी
लाईन पर चलता हुआ दिखाई दे रहा है , जिस पर पिछले कुछ सालों से वह चलता आया है |
नियोजन और नियंत्रण की चीनी नीति काफी हद तक इस महामंदी से अपने देश को बचाने में
सफल साबित हुई है | अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्था के पराभव के बाद आज चीन
आर्थिक महाशक्ति की तरफ बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है | आने वाले समय में यह उम्मीद की
जा सकती है , कि चीन और भारत जैसे देश एक मजबूत ताकत के रूप में उभरें | लेकिन
इसके लिए यह आवश्यक होगा कि दोनों देशों का नेतृत्व उन सट्टेबाजी और अंतहीन
मुनाफेखोरी वाली पश्चिमी नीतियों से सबक लें , अन्यथा यह विकास का यह माडल कही भी
और कभी भी चरमराकर ढह सकता है | सुखद यह भी है , कि चीन में इसी साल नेतृत्व
परिवर्तन भी हो रहा है , और एक नया नेतृत्व कार्यभार संभालने जा रहा है | हमारा एक
और उत्तरी पडोसी नेपाल अभी भी काफी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है | नए गणतंत्र
के लिए संविधान को बनाने और उसे लागू करने का मुख्य काम अभी भी दूर की कौड़ी बना
हुआ है , और राजनितिक दल आपस में सिर-फुटौवल में ही व्यस्त हैं | फिर भी उम्मीद की
जानी चाहिए , कि वर्षों से संचालित राजतन्त्र के खात्मे के बाद नेपाल के लोगो का,
सही मायनों में जनतंत्र और गणतंत्र वाले देश का सपना आने वाले दिनों में साकार हो
सकेगा |
आन सांग सू ची
हमारे दोनों पूर्वी पड़ोसियों से पिछले साल
आने वाली खबरे कुल मिलाकर मिश्रित ही कही जायेंगी | बंगलादेश में जब से शेख हसीना
की सरकार आयी है , भारत के साथ उसके रिश्तों में भी काफी सुदृढ़ता आयी है | दोनों
देशो के बीच ऐसे कई समझौते हुए है , जो वर्षों से संधि बनने की बात तलाश रहे थे |
सीमा विवाद हो या जल विवाद , आतंकवादियों को सौंपने का मसला हो या शरणार्थियों की बाढ़
का , दोनों देशों की सरकारों ने एक दूसरे के ऊपर पडोसी वाला विश्वास दिखाया है | हम
इन रिश्तों में और प्रगाढ़ता की उम्मीद करते हैं | वही दूसरे पडोसी म्यांमार के लिए
गुजरा पिछला साल मेल मिलाप और आशा का साल
माना जा सकता है | लोकतंत्र की बहाली के लिए वर्षों से संघर्ष कर रही नेशनल लीग
फार डेमोक्रेसी की नेत्री ‘आंग सान सु ची’ की पिछले साल हुई रिहाई को इस दिशा में
एक बड़े कदम के रूप में देखा जाना चाहिए | हालाकि उसके बाद संपन्न चुनावों में जिस
तरह से सरकार ने अपने मन माफिक क़ानून बनाकर ‘आंग सांग सू ची’ के दल को तोड़ने का
काम किया , उसने दुनिया भर की आशाओं और आकांक्षाओं पर एक तरह से तुषारापात ही किया
है | म्यांमार में लोकतंत्र का सवेरा वास्तव में कब उदित हो पाएगा , कहा नही जा
सकता है | म्यांमार में हुए पिछले साल के सांप्रदायिक दंगों ने भी हमारे इस पड़ोसी
देश पर कुल मिलाकर एक दाग ही छोड़ा है |
हमारे दोनों दक्षिणी पड़ोसियों श्रीलंका और
मालदीव से गत दिनों में आने वाली खबरे थोड़ी निराश करने वाली दिखाई जान पड़ती हैं |
श्रीलंका में जहाँ तमिल विद्रोहियों के खात्मे के बाद से शांति बनी हुई है , और
देश संभलकर विकास के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है , वहीँ उस निर्णायक युद्ध में तमिल
लोगो के साथ हुए मानवाधिकारों के हनन की घटनाओं के प्रकाश में आने से तमिलों के मन
में सरकार के प्रति अविश्वास की भावना भी पनपी है | अब यह श्रीलंका के सरकार की
जिम्मेदारी है , वह देश के प्रत्येक वर्गों और समूहों को साथ लेकर आगे बढे और
उन्हें विश्वास दिलाये कि भविष्य में सबके साथ न्यायपूर्ण और समतापूर्ण व्यवहार
किया जाएगा | मालदीव की घटनाएं निश्चित तौर पर भारत के लिए चिंताजनक रही है | वहाँ
पिछले दिनों एक सैन्य विद्रोह द्वारा चुनी हुई सरकार का तख्तापलट कर दिया गया था |
तीन दशकों की तानाशाही के बाद मालदीव में जिस लोकतंत्र की आशा बंधी थी , उसके लिए
यह एक गहरा आघात है | वहां भारत विरोध के स्वर जिस तरह से उठते दिखाई दे रहे हैं ,
वह भी हमारे लिए एक चिंताजनक बात है | बेशक यह एक छोटा देश है , लेकिन सामरिक
दृष्टि से इस पूरे क्षेत्र के लिए इसकी स्थिरता काफी मायने रखती है |
तो कुल मिलाकर हमें विश्व में आये गत
वर्षों के परिवर्तनों को आशाजनक तरीके से ही देखना – समझना चाहिये | दो दशक से
अधिक समय से चली आ रही नव-उदारवादी नीतियों का दुष्परिणाम आज दुनिया के सामने आ चुका है | अब इसका बड़ा से बड़ा प्रवक्ता भी बगलें
झांकने पर मजबूर है | पुरी दुनिया के तथाकथित ‘अव्वल दिमाग’ मुँह के बल गिरे पड़े
है | जाहिर है , भारत भी इससे भिन्न नहीं है | लेकिन देखने वाली बात यह होनी चाहिए
, कि दुनिया में कोई भी बदलाव अपने आप नहीं होता है | उसके लिए हमारा-आपका सक्रिय
हस्तक्षेप आवश्यक होता है | आईये ...! हम सब मिलकर एक बेहतर दुनिया को बनाने के
सपने को साकार करे , जो सही मायनों में समता , स्वतंत्रता , न्याय और बंधुत्व जैसे
लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित हो |
रामजी तिवारी
बलिया ,
उ.प्र.
मो.न. 09450546312
आप ने गत साल के इतने मुद्दे उठाकर हमें जरूरी सवालों से अवगत कराया. एक जरूरी आलेख जिसके बरक्स हम ग्लोबल गाँव की अस्मिता ,उसके उपहास को देख, परख सकते हैं और अपने संघर्ष में एक वैचारिक आयाम से जुड़ सकते है.
जवाब देंहटाएंलेख काफी मेहनत से लिखा हुआ लगता है. है ही. दुनिया को अपनी निगाह से देखने की कोशिश और वह भी स्पष्ट पक्षधरता के साथ. यह बहुत काम का सिंहावलोकन है. विस्तार की अनंत सम्भावनाएं तो खैर थीं ही लेकिन मुझे जैस्मिन रिवोल्यूशन के बाद की घटनाओं पर थोड़ी और विस्तृत टिप्पणी की कमी खली बस..बाकी सब बहुत सुगठित...
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपका विश्लेषण पढ़कर .आपने देश-दुनिया की महत्वपूर्ण घटनाओं को समेटने की सफल कोशिश की है .पूरे आलेख में आपकी दृष्टि एकदम साफ़ दिखाई देती है.
जवाब देंहटाएंरामजी तिवारी जी, बहुत ही अध्ययन और मेहनत से तैयार किया गया आलेख है आपका, इसमें कोई शक नहीं। मुझे सिर्फ दो बात खली हैं वे हैं, व्यर्थ ही अमरीका को कुछ ज़्यादा रगेदा गया है जबकि पर्यावरण को आपने बिल्कुल छोड़ दिया है। बात यह है कि दुनिया की शुरू से 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली नीति रही है। यूरोप और अमरीका का पिछले 200 वर्षों में अर्जित ऐश्वर्य तो हिंदुस्तान, चीन और दूसरे पिछड़े देशों का दोहन रहा है मगर अब खुद ये देश भी अपने आकाओं से सीखकर उसी काम में लग गए हैं। अब अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, साइबेरिया और अमरीकी महाद्वीपों के रियल इस्टेट और प्राकृतिक संपदाओं का वास्तविक दोहन हो रहा है। इसमें अब अमरीका के साथ चीन, रूस, ब्राजील और भारत भी शामिल है। पर्यावरण पर इस दोहन के आत्मघाती असर का अध्ययन यह स्पष्ट करता है। विश्वव्यापी मंदी का कारण सिर्फ अमरीका और यूरोप की मंदी नहीं है इसमें चीन और भारत भी शामिल हैं जहां की गरीब जनता इन प्राकृतिक संसाधनो के दोहन में अपना जायज़ हिस्सा मांग रही हैं और प्राप्त कर रही हैं।000
जवाब देंहटाएंरामजी भाई को इस गहन मंथन एवं जरुरी और सामयिक लेख के लिये धन्यवाद । साल भर के वैश्विक परिदृश्य पर आवश्यक काम आपने किया है....
जवाब देंहटाएंपिछले वर्ष के अन्तर्रष्ट्रीय घटनाक्रम पर जिस विश्लेषणात्मक तरीके से आपने लिखा है वह आपकी पैनी नजर एवं संश्लिष्ट विचार को प्रतिबिंबित करता है. बेहतर आलेख के लिए बधाई रामजी भाई.
जवाब देंहटाएंपूरे लेख में जो स्पष्टता और बारीकी उभर कर आई है, वह आपकी मेहनत और समदृष्टि की ओर इंगित कर रही है, एक सामयिक आलेख जिसमें वैश्विक परिदृश्य का कोई भी पहलू अछूता नहीं रहा, खासतौर से भारतीय उपमहाद्वीप और उससे इतर पडोसी राज्यों में होने वाली उथलपुथल पर भी भरपूर नज़र डाली है आपने ......धन्यवाद रामजी भाई .......
जवाब देंहटाएंगहरे अध्ययन और वैसी ही सूझ-बूझ के साथ लिखा हुआ आलेख, जो पूरी दुनिया में घटित साल भर के घटनाक्रम को अपने आप में समेटे हुए है. बहुत बधाई, रामजी तिवारी को इस दृष्टिसंपन्न आलेख के लिए.
जवाब देंहटाएं