बुधवार, 20 जून 2012

सिर झुका लेने का वक्त नहीं है यह ...भरत प्रसाद


                                  भरत प्रसाद 

हिंदी युवा आलोचना जगत में भरत प्रसाद का नाम जाना पहचाना है | उनकी स्थापनाओं को न सिर्फ गंभीरता से लिया जाता है , वरन उस पर पर्याप्त बहस भी होती है | लेकिन कभी कभी यही छवि उनके द्वारा अन्य विधाओं में किये गए कार्यों पर भारी भी पड़ जाती है | जैसे उनकी कविताओं को ही लें | इतनी वैचारिक प्रतिबद्धता और जनोन्मुख सम्वेदनशीलता के बावजूद इन कविताओं पर उतनी बहस और बात नहीं होती , जितनी की ये हकदार हैं | खैर ................. | यहाँ प्रस्तुत कविताओं में एक तरफ भरत प्रसाद का संवेदशील मन हमारी दुनिया के माथे पर लगे कलंको की पड़ताल करता है , वही दूसरी तरफ वह अपने आपको भी कोई छूट नहीं देता और उसी निर्ममता से जांचता है, जिस तरह इस दुनिया को  |

           तो प्रस्तुत है 'सिताब दियारा' ब्लाग पर 'भरत प्रसाद' की चार कवितायें 


1...             रेड लाइट एरिया 


यहाँ दिन कभी नहीं होता,
चौगुनी रात रहती है,
जिधर सूरज की रोशनी-
सिर्फ इच्छा में संभव है।
जहाँ के मौसम में हमेशा
पतन की खौफनाक बदबू उड़ती है-
यह वही श्मशान है
जहाँ वासना की जिंदा लाशें
हवश का नृत्य करती हैं,
जिसकी दिशाओं से दमन की गूँज उठती है-
जिसकी हवाओं में बदनाम आत्माओं की चीखें सुनाई देती हैं।
यहाँ आते ही औरत की सारी परिभाषाएँ उलट जाती हैं
वह न तो बहन है, न बेटी
न ही किसी की पत्नी
माँ कहलाने की गलती वह सपने में भी न करे,
यहाँ वह औरत भी कहाँ रह जाती है ?
वह तो बस
प्रतिदिन परोसी जाने वाली थाली है,
या फिर कोई मैली झील
जो सिर्फ जानवरों की प्यास बुझाने के काम आती है।
शरीर पर जख़्म चाहे जितने भी गहरे हों
गिने जा सकते हैं,
परन्तु ह्रदय के जख़्मों की गिनती कैसे की जाय ?
ऐसे घावों के इलाज के लिए
कोई दवा ही नहीं बनी आज तक।
किसी लावारिश खिलौने की तरह
उससे इस तरह खेला जाता है,
कि उसको चाहे जितनी बार जमीन पर फेंको
कोई आवाज ही नहीं आती।
यकीनन, उसके भतीर से
आत्मा का नामोनिशान मिट चुका है,
अपनी इच्छा के लिए उसमें अब कोई जगह नहीं,
सपने देखना तो जीवन भर के लिए प्रतिबन्धित है
आजादी का हक उसे मरने के बाद सम्भव है
और तो और
अपने एहसास पर भी उसका कोई अधिकार नहीं
हाँ, उसको यदि कोई छूट है,
तो बस गुमनाम रहकर
चुपचाप जमीन में दफन हो जाने की।
पृथ्वी पर जीने की एक शर्त
यदि हलाहल नफरत को पी जाना हो,
तो वह सबसे पहले इसी पर लागू होता है-
बंजर इससे कहीं ज्यादा उपजाऊ है,
तिनका इससे कहीं ज्यादा मजबूत
आदमी दुर्गन्ध से भी इतनी घृणा नहीं करता,
उम्र कैदी की आत्मा भी इतना विलाप नहीं करती ;
मैं और क्या कहूँ ?
कोई निर्जीव वस्तु भी इतनी जड़ कहाँ होती है ?
इसके बावजूद
उसमें औरत की तरह जीने की बेचैनी अभी बाकी है,
बाकी है सलाखें तोड़कर निकल भागने की हसरत
अपनी भस्म पर फसल लहलहाने की हिम्मत अभी बाकी है,
कोई देखे जरा,
सब कुछ लुट जाने के बावजूद
उसकी आँखों में अभी कितना पानी शेष है,
यकीन नहीं होता कि,
वह अब भी हँस सकती है,
रो सकती है, नाच सकती है, खुश हो सकती है
सबसे आश्चर्यजनक यह कि
वह अभी भी प्यार कर सकती है ;
ख़ैर मनाइए,
आपके आदमी होने से अभी भी उसका विश्वास उठा नहीं है।


2...        वह चेहरा
                    (जिसका होना सिर्फ आश्चर्य है)

तुमको देखना,
मानो वेदना की दबी-कुचली पुकार को सुनना है,
पढ़ना है यातना के सदियों पुराने इतिहास को
उस मिटते हुए अध्याय को जानना है
जिसके नष्ट-भ्रष्ट शब्दों से
अनहद नाद करती
सुदूर अतीत की चीखें सुनाई देती हैं।
तुम्हारे होने का अर्थ है
लाचार इंसानियत के साथ लगातार होने वाला अनर्थ
जड़ से बार-बार उखड़ जाने के बावजूद,
सूखा ही सही
जमीन में धसा हुआ ठिगना पौधा,
लहलहाने के पहले पशुओं द्वारा
रौंद कर बर्बाद कर दी गयी खेती।
दीदी ! सच-सच बतलाना
तुम्हारी साँवली नसों में दिन-रात
गैरों से मिले हुए अपमान का
तीखा-तीखा दर्द बहता है कि नहीं ?
तुम कहो, न कहो
हमें पता है कि तुम्हारी हड्डियाँ
रोज-रोज दुश्वारियों से टकरा-टकरा कर
पत्थर बन गयी हैं।
ग़़मों के चक्रवात से लड़ने का दुस्साहस
किसे कहते हैं,
यह कोई, चट्टान बन चुकी तुम्हारी आत्मा से पूछे।
ऐसा क्या है कि
अपने बारे में तुम्हारी जुबान अक्सर ख़ामोश ही रहती है,
वैसे, तुम्हारे लाख छिपाने के बावजूद
भविष्य के गहन शून्य में खोई-खोई सी आँखें,
पिटे हुए लोहे जैसी काया,
हारी हुई त्वचा की रंगत,
बचपन से ही दबा हुआ मस्तक
तुम्हारी अन्दरूनी हकीकत का
मुँह-मुँह बयान करते हैं।
देर रात नींद आने से पहले
तुम्हारी थकी हुई कल्पना के आकाश में
दसों दिशाओं से
हताशा की कैसी घुप्प घटाएँ घिरती होंगी,
कौन जानता है ?
तुम्हारे विलाप को स्वर देने के लिए
सिर्फ एक मुँह काफी नहीं है,
पछाड़ खाकर रोने से कई गुना बढ़कर
अपने आप से रोना किस बेबसी का नाम है
यह कोई तुमसे जाने।
तुम्हारे भीतर इतना उजाड़ बस चुका है
कि उजड़ने का कोई मतलब ही नहीं रह गया है,
अन्तरात्मा में पराजय इस कदर भर गयी है
कि जैसे पराजित होना कोई मायने ही नहीं रखता,
तुम मौजूद हो- यह सच है?
परन्तु इस मानव - सभ्यता में
तुम्हारी मौजूदगी कहीं भी नहीं है,
यह भी एक हक़ीकत है।


3...        कैसे कह दूँ ?


क्या हमारी शरीर में ऊँची जगह पाकर
हमारा मस्तिष्क सार्थक हो उठा ?
क्या हमारी आँखें सम्पूर्ण हो गयीं,
हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर ?
क्या हमने अन्धकार के पक्ष में बोलने से
बचा लिया खुद को ?
क्या सीने पर हाथ रखकर कह सकता हूँ मैं
कि अपने हृदय के कार्य में कभी कोई बाधा नहीं डाली ?
आत्मा की गहराइयों से उठे हुए विचारों की
क्या मैं हत्या नहीं कर देता ?
दरअसल अपनी गहन भावनाओं का सम्मान करने वाला
मैं उचित पात्र ही नहीं हूँ।
वे इस कायर ढाँचे में क्यों उमड़ती हैं ?
छटपटाकर मरती हुई अन्तर्दृष्टि से प्रार्थना है-
कि वे इस जेलखाने को तोड़कर कहीं और भाग जायँ ।
अपनी अंतर्ध्वनि का तयपूर्वक मैंने कितनी बार गला घोंटा है,
कौन जाने ?
पूरी शरीर को ता-उम्र कछुआ बने रहने का रोग लग चुका है,
हाथ-पैर, आँख-कान-मुँह आज तक अपना औचित्य सिद्ध ही नहीं कर पाए
करना था कुछ और तो कर डालते हैं कुछ और
दृश्य-अदृश्य न जाने कितने भय और आतंक से सहमकर
पेट में सिकुड़े रहते हैं हर पल।
मेरा अतिरिक्त शातिर दिमाग शतरंज को भी मात देता है,
भीतर के अथाह खोखलेपन के बारे में क्या कहना ?
कैसे कह दूँ कि मैं अपने जहरीले दाँतों से,
हत्याएँ नहीं किया करता ?



4...      सर उठाओ बंधु !


मौके पर सटीक उत्तर न देने की चालाकी
हाथ-पैर, जुबान से ही नहीं
दिलोदिमाग से भी तुम्हें नपुंसक बना देती है।
सुनकर भी अनसुना कर देने की आदत
सिर्फ कान से ही नहीं,
मन से भी तुम्हें बहरा कर देती है,
हक़ीकत से अक्सर मुँह फिरा लेने की कायरता
भीतर-भीतर कितना खोखला
और सड़ता हुआ मुर्दा बना देती है,
तुम्हें पता ही नहीं चलता,
                        जब तक तुम खड़ा होने के बारे में सोचोगे,
                        दुश्मन अपना मकसद पूरा कर चुका होगा
                        सच-सच बोलने की जब तक हिम्मत जुटावोगे,
                        तुम्हारी जीभ कट चुकी होगी,
                        तुम्हारी मुकाबला करने वाली नजरें जब तक उठेंगी-
                        अंधा कर दिया जाएगा,
                        हमेशा के लिए मिट गये वे,
                        जिन्होंने हद से ज्यादा खुद को बचाया,
                        कहाँ हैं उनके नामोनिशान ?
                        जिन्होंने अपने आगे
                        और किसी की सुनी ही नहीं-
जीवित कौन हैं ?
वे, जिन्होंने जीते जी खुद को मिटा डाला ?
या फिर वे, जो मौत के नाम से हाड़-हाड़ काँपते थे ?
जब एक सिर उठता है, तब सिर्फ एक सिर नहीं उठता,
जब एक कदम बढ़ता है, तो केवल एक कदम नहीं बढ़ाता,
जरा तबियत से एक बार खड़े तो हो जाओ,
न जाने कैसे अनगिनत शरीर में अड़ने का साहस आ जाएगा,
सिर झुके तो सिर्फ उनके लिए
जिन्होंने तुम्हें सिर उठाने की तहजीब दी,
वरना, सिर उठाओ बंधु !
सामने मौत बनकर नाचते अन्धकार से
नजरें चुराकर, सिर झुका लेने का वक्त नहीं है यह। 


संपर्क

भरत प्रसाद
सहायक प्रोफ़ेसर
हिंदी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग , मेघालय ...793022
मो.न. 09863076138



5 टिप्‍पणियां:

  1. Bharat mere priya kawi han.bhale hi kisi ko thoda loud lagen. doosare ko prawachan dene se behter hai khud se sawal karna jo wo karte han. Sahitya aur rajneet ki polymics ko gahare se samjhte hain . Kahe k pramad me ye kawitayen han....केशव तिवारी

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  2. भरत प्रसाद अपनी कविताओं में गहन संवेदना के साथ-साथ जिस तरह अपनी जीवंत अनुभूतियाँ पिरोते हैं, वह हमें देर तक सोचने के लिए विवश करता है. दुनिया में सबसे मुश्किल होता है दूसरे पर दोष न मढ़कर खुद अपने को सवालों के दायरे में खडा करना. भरत यह काम बखूबी करते हैं. वे हमारे समय के एक महत्वपूर्ण आलोचक हैं, कहानीकार हैं और साथ-साथ कवि भी. कहीं कहीं उनकी कविताओं पर उनका आलोचक हावी हो जाता है. कहीं पर उनका कहानीकार कविताओं में घुसपैठ करने लगता है. और यह स्वाभाविक भी है. विधाओं की यह आपसी आवाजाही उनकी कविताओं को समृद्ध ही बनाती है. लेकिन अधिकतर जगहों पर जब भरत का कवि मन सीधे तौर पर उनकी कविताओं से रू-ब-रू होता है वहाँ वे हम जैसे पाठकों को अपनी धारा में अनायास ही बहाते चलते हैं.

    जब तक तुम खड़ा होने के बारे में सोचोगे,
    दुश्मन अपना मकसद पूरा कर चुका होगा
    सच-सच बोलने की जब तक हिम्मत जुटावोगे
    तुम्हारी जीभ कट चुकी होगी,
    तुम्हारी मुकाबला करने वाली नजरें जब तक उठेंगी-
    अंधा कर दिया जाएगा,
    हमेशा के लिए मिट गये वे,
    जिन्होंने हद से ज्यादा खुद को बचाया,
    कहाँ हैं उनके नामोनिशान ?
    जिन्होंने अपने आगे
    और किसी की सुनी ही नहीं
    भरत की बेहतरीन कविताओं के लिए उन्हें बधाई और प्रस्तुतीकरण के लिए आपका आभार.

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  3. bharat ji kavitaon k visheshata h sahajata aur saralata.iske niv par hi ve pratirodh rachate hai.jiske ghere me khas pathak to ata hi h aam pathak v aa jate h. mai inhe jankavi k parmpra ka kavi manata hu....अरविन्द वाराणसी

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  4. जीवित कौन हैं ?
    वे, जिन्होंने जीते जी खुद को मिटा डाला ?
    या फिर वे, जो मौत के नाम से हाड़-हाड़ काँपते थे ?
    जब एक सिर उठता है, तब सिर्फ एक सिर नहीं उठता,
    जब एक कदम बढ़ता है, तो केवल एक कदम नहीं बढ़ाता,
    जरा तबियत से एक बार खड़े तो हो जाओ,
    न जाने कैसे अनगिनत शरीर में अड़ने का साहस आ जाएगा,
    सिर झुके तो सिर्फ उनके लिए
    जिन्होंने तुम्हें सिर उठाने की तहजीब दी,
    वरना, सिर उठाओ बंधु !
    सामने मौत बनकर नाचते अन्धकार से
    नजरें चुराकर, सिर झुका लेने का वक्त नहीं है यह। ...........................भरत प्रसाद की कवितायेँ आत्मालोचन की कवितायेँ हैं जो ये सहसा देती हैं कि जो जैसा है उसे ना सिर्फ़ स्वीकार किया जाए बल्कि खुद से उसके बदलने कि शुरुआत की जाए...ये अपने आप में एक स्टेटमेंट जैसा है और ऐसी कवितायेँ आईना दिखाने का काम करती हैं..भरत जी को बधाई
    -विमल चन्द्र पाण्डेय

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  5. सचाई से रू -ब रू कराती रचनाएं ...

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