रविवार, 20 मई 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण ..तीसरी किश्त



                              विमल चन्द्र पाण्डेय 



पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि दिल्ली गए विमल को एक समाचार एजेंसी में नौकरी तो मिल जाती है , लेकिन परिस्थितियां उन्हें इलाहाबाद में ला पटकती हैं | इस बीच उनकी कहानी 'नया ज्ञानोदय' के विशेषांक में छपती है,जो काफी चर्चित हो जाती है | किसी भी नवलेखक की तरह विमल उसमे डूबते उतराने लगते हैं. कि तभी उनका सामना इलाहाबादी तेवर वाले एक मित्र से होती है , जो चुटकियों में उन्हें जमीन पर ला पटकता है | लेकिन यही तेवर विमल के लिए वरदान साबित होता है | ...और फिर आगे  ...?

                    
                      प्रस्तुत है विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
             शहरों से प्यार वाया इलाहाबाद-मेरी जिंदगी के सबसे उपजाऊ साल 
                                की तीसरी किश्त 

                                     3...


मुझे इलाहाबाद पहुंच कर यूएनआई में दो अप्रैल से ड्यूटी ज्वाइन करनी थी। दिल्ली से मैं बोरिया बिस्तर समेट कर पहले अपने घर यानि बनारस पहुंचा था। दिल्ली से बहुत जल्दी-जल्दी निकलना था और इस जल्दबाज़ी में मैं अपनी सारी किताबें नहीं ला पाया था। मैंने दो कार्टन्स में अपनी ढेर सारी किताबें और साहित्यिक पत्रिकाएं रख दीं और उसे पांडव नगर के बी-32 में (जहां मेरी कहानी `एक शून्य शाश्वत´ का शाश्वत रहता था और वास्तव में वह शशि शेखर (चौथी दुनिया वाया इंडिया न्यूज और ईटीवी) और आनंद पाण्डेय (आईबीएन 7 वाया ईटीवी) का डेरा था) रख दी। विभव ने भी तब तक अलग फ्लैट नहीं लिया था और मेरी किताबों की देखभाल करने के लिये सबसे विश्वसनीय शख्स था। मैंने कहा कि मैं अगली बार जब दिल्ली आउंगा तो अपनी किताबें ले जाउंगा। खैर, थोड़ी लापरवाही मेरी भी हो गयी कि मैं उसके बाद कई बार दिल्ली गया और वहां से कार्टन को बिना लिये आ गया। इसके पीछे वजह यह थी कि मन ही मन मैं जल्दी ही मुंबई निकलने की योजना बना रहा था और चाहता था कि किताबें दिल्ली से सीधा मुंबई ले जाउंगा इसलिये उन्हें एक बार बनारस और फिर वहां से मुंबई ले जाने की जद्दोजहद मुझे बेकार लगी। ताज़ा ख़बर ये है कि वे दोनों कार्टन अपनी जगह पर मौजूद नहीं हैं और मुझे बार-बार पूछने पर बताया गया है कि आदरणीय शशि शेखर गरीबी के दिनों में कभी वे किताबें बेचकर अपने पौवे का इंतज़ाम कर चुके हैं। हालांकि शशि जी ने इस आरोप का पुरज़ोर खंडन किया है लेकिन किताबों की बाबत वे भी अनभिज्ञता व्यक्त करते हैं।


बहरहाल, 2 अप्रैल को ज्वाइन करने से पहले मैंने बनारस से ही 1 अप्रैल को इलाहाबाद में यूएनआई के कांटैक्ट परसन श्री जियालाल को फोन किया और बताया कि मैं कल से आपके साथ ऑफिस ज्वाइन करने आ रहा हूं। उन्होंने मेरी बात को इस भाव से सुना गोया मैं फ्रेंच में बोल रहा हूं और उन्हें ये भाषा कतई नहीं पसंद। मैं समझ नहीं पाया कि मामला क्या है और निश्चिन्त होकर अपने कॉलेज के दिनों का एक गाना सोचते हुये सो गया।
``जब नौकरी मिलेगी तो क्या होगा
जिसम पे सूट होगा, पांव में बूट होगा
 हाथों में गोरी का हाथ होगा।´´
दसियों नौकरियां करने छोड़ने के बाद आखिरकार ये ऐसी नौकरी थी जिसमें पढ़ना लिखना था और भागदौड़ बहुत कम थी।


जब मैं 2 अप्रैल को सिविल लाइंस बस अड्डे पर बस से उतरा तो मैंने पहले सैलून में जाकर दाढ़ी बनवायी। यह वही शहर था जिसमें मैं कई बार कई प्रतियोगिता परीक्षाएं देने के बहाने से घूमने आ चुका था, जहां मेरे चाचा का घर था और जहां सिर्फ तीन महीने पहले मैं अपनी चचेरी बहन की शादी में गया था। लेकिन आज इस शहर में मैं एक राष्ट्रीय एजेंसी के पत्रकार की हैसियत से जा रहा था। मेरी कल्पना में एक ऑफिस आया जिसमें मुझे एक छोटा सा केबिन मिले और सहयोगी स्टाफ हों। चूंकि मैं एक कल्पनाशील लेखक हूं इसलिये मैं ये मान कर चल रहा था कि मेरे सहकर्मियों में ज़रूर कोई सुंदर लड़की भी होगी जिसे कहानियां कविताएं और फिल्मों वग़ैरह में रुचि होगी। कल्पनाएं ढेर सारी थीं और समय बहुत आशावादी थी। मौसम में गर्मी थी और सिविल लाइंस के गिरजाघर से थोड़ा आगे मैंने रिक्शा रुकवाया तो सामने एक बड़ा सा बोर्ड था जिस पर लिखा था `यूनाइटेड न्यूज़ ऑफ इंडिया´। मेरी धड़कनें बढ़ गयीं। थोड़ी दूरी पर अमर उजाला का बड़ा सा बोर्ड टंगा था और वहां लाइन से चाय की दुकानें थीं। आगे जाकर जहां से नज़र वापस लौट आती थी, वहां ढेर सारे लोग काले कोट में खड़े चाय पी रहे थे। मैंने अपने कदम अपनी मंज़िल की ओर बढ़ा दिये।


लेकिन वहां एक दूसरा आश्चर्य मेरा इंतज़ार कर रहा था। कांटैक्ट परसन श्री जियालाल जी ने कहा कि उन्हें ऐसी कोई सूचना नहीं मिली कि यहां कोई पत्रकार ज्वाइन करने आ रहा है। मैंने उन्हें कल बनारस से किये फोन की याद दिलायी तो उनका मासूम सा जवाब था कि उन्हें लगा कि कोई उन्हें `अप्रैल फूल´ बना रहा है। वे तीन कमरों के एक फ्लैट में अपने छोटे मगर दुखी परिवार के साथ रह रहे थे और मुझे पता चला कि यही यूएनआई/यूनीवार्ता का दफ्तर है और एकमात्र वही वहां के स्टाफ। उन्होंने मुझे ज्वाइन कराने से इंकार कर दिया और दिल्ली फोन मिला कर प्रबंधन से बातें करने लगे। मैं भी फिक्र को धुंएं में उड़ाने के लिये बाहर चला आया और बाहर आकर मां को फोन करके स्थिति बतायी। वह दुखी हो गयीं और मेरा पुराना इतिहास बताने लगीं कि मेरा कोई भी काम आसानी से नहीं होता और हर काम कगार पर आकर रुक जाता है, अब वक्त आ गया है कि जिस रुद्राभिषेक और महामृत्युंजय जाप को मैं कई सालों से टालता आ रहा हूं उसे करा लूं। मुझे मेरी गलती का एहसास हुआ और मैंने फोन काट दिया। फिर मैंने आनंद को फोन लगा कर पूरी बात बतायी तो उसने कहा कि मैं वहां से बिना ज्वाइन किये न हटूं और वह आदमी अगर ज्वाइन न कराये तो उसे यह लिखवा कर ले लूं। लिखवा कर लेने वाली सलाह ने मेरे कदमों में फुर्ती भर दी और मैं वापस उनके घर यानि अपने ऑफिस पहुंचा। मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं हुयी। उन्हें दिल्ली से वांछित आदेश मिल चुके थे। उन्होंने कहा कि मैं कल से आ जाउं और यहीं यानि उनके फ्लैट के बाहरी कमरे जो ड्राइंगरुम होने के साथ-साथ यूएनआई का दफ्तर भी था, बैठकर उनसे पत्रकारिता के गुर सीखूं। मैंने ठंडी सांस ली और कल आने के लिये कह कर अपनी अटैची उठायी और चाचा के घर की तरफ यानि सुलेम सराय के लिये चल पड़ा।


                                      4....                                                




चाचा के घर में मेरा बहुत स्वागत हुआ और मैं भी अपने चचेरे भाई बहनों से मिल कर काफी खुश हुआ। खास तौर पर मेरे छोटे भाई बेटू यानि प्रशांत से मेरी अच्छी बनने लगी थी लेकिन घर से निकलने का अर्थ मैं आज़ादी मानता था और एक घर से निकल कर फिर से दूसरे घर में रह कर अपनी आज़ादी को दांव पर लगाने के पक्ष में नहीं था। दिल्ली में इतने सालों तक रहकर अकेले रहने की आदत पड़ गयी थी और रवैया बदल चुका था। जैसे दिल्ली के शुरुआती दिनों में जब कभी छोटी मोटी चोट लग जाती थी तो ये सोच कर मन रो उठता था कि कोई पूछने वाला नहीं है कि क्या हुआ कैसे हुआ और बाद के सालों में ऐसा होने पर ये संतोष होता था कि कोई हल्ला मचाने वाला नहीं है कि ये लगाओ वो लगाओ। दूसरी खटकने वाली बात थी कि चाचा जी के घर में वह घर के मुखिया थे और इस बात को खासा सीरियसली लेते थे। मेरे घर में मेरे पिताजी ठीकठाक लोकतांत्रिक आदमी हैं और अख़बार आने पर उनसे कोई भी संपादकीय पृष्ठ मांग सकता था जब वह मुखपृष्ठ पढ़ रहे हों। चाचाजी के कब्ज़े से अखबार तब तक नहीं पाया जा सकता था जब तक वह पूरा पढ़ न चुके हों। खैर मैंने चाची से कहा कि मैं अलग कमरा लेना चाहता हूं तो वह दुखी हुयीं। उनका कहना अपनी जगह दुरुस्त था कि जब इसी शहर में अपना घर है तो फिर कमरा लेने की क्या जरूरत है। मैंने बहाना बनाया कि मेरा काम कुछ ऐसा है कि मेरे कमरे पर हमेशा लोगों का जमावड़ा रहेगा और इसलिये मैं अलग कमरा चाहता हूं। चाची से बहाना बनाते हुये मुझे नहीं मालूम था कि इलाहाबाद जल्दी ही मुझे ऐसे दोस्तों से नवाज़ने वाला है कि मेरी ये बात एकदम सच साबित होगी। बेटू मेरे साथ कमरे के लिये बहुत दौड़ा और उसने एक कमरा दिलवाया भी जो लड़कों के लॉज में था और वहां प्रतियोगी परीक्षाओं का माहौल था। गर्मी के मौसम में कमरे के टॉप फ्लोर पर होने से ज्यादा दबाव वहां के प्रतियोगी परीक्षाओं के माहौल का था जिससे एडवांस देने के बावजूद मैंने वहां कदम रखने की हिम्मत नहीं की। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले बिल्कुल युवा और युवतर लोग जो विषय से प्यार करने की बजाय उससे लड़ते रहते हैं, मेरे मन में कई कारणों से डर पैदा करते हैं।


इलाहाबाद में जितने अखबार मैंने पढ़े थे या उनके बारे में जानता था उससे कई गुना अखबार वहां से छपा करते थे (यह बात लगभग हर छोटे शहर पर लागू होती है), ये बात मुझे वहां के प्रेस कॉन्फ्रेंसेज में पता चलती थी। ज्यादातर प्रेस कांफ्रेस जेड गर्दन रेस्टोरेंट, मिलन होटल, कान्हा श्याम होटल, येल चिको रेस्टोरेंट और प्रेस क्लब आदि जगहों पर हुआ करती थी। विधानसभा चुनावों के दिन थे और हर रोज़ दो तीन बड़ी प्रेस कांफ्रेंस या जनसभाएं हुआ करती थीं। मेरा शेड्यूल बड़ा अजीब सा था। दो-तीन दिन जियालाल जी के कमरे से खबरें भेजने के बाद मुझे उनके घर, जिसे वह बड़े गर्व से ऑफिस कहते थे, जाकर उस कंप्यूटर से खबरें भेजने में मुझे बड़ा संकोच सा होने लगा जिसे उन्होंने पता नहीं किस सभ्यता से बचा कर रखा था। उसमें कृतिदेव जैसा ही न जाने कौन सा फांट था कि डी दबाने से तो क ही आता था लेकिन फ के लिये  शिफ्ट के साथ क्यू नहीं दबाना होता था बल्कि तीन चार बटन एक के बाद एक दबाने पड़ते थे। मैं उस कंप्यूटर के चक्कर में खुद का सीखा हुआ फांट न भूल जाउं और हर रोज़ मेहमान की तरह उनके घर जाकर खबर भेजने से पहले उनकी चाय नमकीन का दुश्मन न बनूं, इसके लिये निर्णय लिया कि मैं साइबर कैफे से खबरें भेजा करुंगा। हालांकि उनका कहना था कि मैं उनके साथ भेजूं तो मेरी ग्रामर और न्यूज राइटिंग उनके मार्गदर्शन में अच्छी होगी। मुझे उनकी बात पर शक होता क्योंकि हिंदी में खबरें भेजते हुये वह टाइप करते, ``आज इलाहबाद हाई कोट ने....´´ मैं कहता, ``सर इलाहाबाद की जगह इलहबाद और कोर्ट की जगह कोट हो गया´´ तो वह मुस्करा कर कहते, ``अरे कुछ लखनउ वालों को भी करने दो।´´ यह कहते हुये उनके चेहरे पर बदला लेने की संतुष्टि आ जाती और वह कुर्सी की पुश्त पर पीठ टिकाकर लंबी सांस लेते। मुझे खुद से ही गलतियां करके सीखने का विकल्प ज्यादा अच्छा लगा। अब हर देर शाम या रात मैं जियालाल जी को फोन करता और पूछता, ``कैसे हैं सर ?´´
``ठीक हूं। क्या चल रहा है ?´´
``ठीक हूं सर। कल का क्या है ?´´
``कल जेड गार्डन में सुबह ग्यारह बजे प्रेस कांफ्रेंस है मुख्तार अब्बास नकवी की और तीन बजे सभा है मुलायम सिंह यादव की।´´
``ठीक है सर। मैं प्रेस कांफ्रेंस अटेण्ड कर लूं ?´´
``नहीं वो मैं कर लूंगा। तुम जनसभा देख लेना मुलायम की।´´
``ओके सर। मैं देख कर भेज दूंगा इंगलिश में।´´
``अब तुम्हीं जाओगे तो हिंदी में भी भेज ही देना।´´
``अम्मम ठीक है सर।´´


अब जनसभा हो और मुलायम, मायावती या सोनियां गांधी जैसे बड़े चेहरों की हो तो फिर आपका पूरा दिन खराब होना स्वाभाविक है। तीन बजे की जनसभा में लोग बारह बजे से ही इकट्ठा होना शुरू हो जाते। दूर के गांवों से ट्रकों में एक टाइम के खाने पानी के एवज में भर कर लाये गये लोगों का काफिला आकर दो बजे तक के पी ग्राउंड के आधे हिस्से को भर देता। फिर तीन बजते, चार बजते और इसके बाद पांच बजते। स्थानीय नेताओं को अपने हथियारों को धार लगाने के खूब मौके मिलते। घटिया शेरो शायरी के बीच न्यूज चैनल के दोस्त आगे जाकर अपने कैमरे फिट कर देते और इंतज़ार की घड़ियां गिनने लगते। जो समय के कम गैरपाबंद नेता होते वे तीन के शेड्यूल में पांच साढ़े पांच बजते हाज़िर हो जाते। इधर लखनउ से मेरे पास फोन आना शुरू हो जाते। ``विमल, खबर भेजो यार।´´ ``अरे सर अभी तो आये हैं मुलायम। खत्म होते ही भेजता हूं।´´


खैर, जब तक जनसभा खत्म होती, शाम का अंधेरा घिर आता। मैं तुरंत बाहर निकल कर किसी साइबर कैफै में जाता और खबर बनाना शुरू करता। ``मुलायम अपील्स यूथ टु चूज अ रिस्पांसिबल गवर्नमेंट´´ ये हेडिंग लगाकर मैं किसी से पूछ नहीं सकता था कि कोई बढ़िया हेडिंग क्या लगायी जा सकती है। कैफे से खबर भेजने भर में जोनल ऑफिस लखनऊ से दो-तीन बार और फोन आ जाता। ``यार कितना टाइम लगाते हो, जल्दी भेजो।´´ मैं भेज कर खाली होता फिर जियालाल जी को अपनी खबर के बिंदु बताता लेकिन अक्सर वह खबर टीवी पर देखकर पहले ही बना चुके होते थे।
दुर्गेश से मेरा परिचय जियालाल जी ने ही प्रेस क्लब में एक कांफ्रेंस में कराया था। ``इनसे मिल लो, ये भी ऐजेंसी के आदमी हैं।´´ उनके शब्दों का मान रखने के लिये नहीं बल्कि इलाहाबाद की अजनबियत से बचने के लिये मैंने उससे दोस्ती कर ली। लेकिन दरअसल मेरा स्वार्थ यह था कि मेरे पास कोई वाहन नहीं था और उसकी हीरो पुक पर बैठने से ऑटो रिक्शे के किराये में बहुत बचत हो जाती थी। एक दिन मैं उसके हीरोपुक पर बैठा सिविल लाइंस की ओर जा रहा था कि बैरहना से आगे बढ़ते ही उसने एक गली की ओर अपना वाहन मोड़ दिया। ``आओ विमल भाई तुमका आपन एक दोस्त से मिलाई।´´ मैं कुछ प्रतिवाद करता तब तक गाड़ी गलियों में सरपट दौड़ती, पतली गलियों को पार करती एक दरवाज़े के सामने खड़ी हो चुकी थी। वह विवेक का घर था जिसके बारे में मेरा खयाल था कि दुर्गेश का दोस्त है तो दुर्गेश जैसा ही बड़बोला और आत्ममुग्ध होगा। मेरे बारे में कुछ ऐसे ही खयाल विवेक के मन में भी आये जब दुर्गेश ने मेरा परिचय करवाया, ``ई विमल भाई हैं, यूयनाई में हैं, जनत्यो कि नै यूयनाई ?  कहानियो लिखत हैं, कानसेप्टै नै ना किलयर एनकै।´´ दो तरह के लोगों से मुझे बहुत कोफ्त होती है। एक आत्ममुग्ध और दूसरे बड़बोले। दुर्गेश का मेरे बारे में कहना है कि मेरा कांसेप्टै क्लियर नहीं है क्योंकि मैं पत्रकारिता भी करता हूं, सिनेमा पर भी लिखता हूं, कहानियां भी लिखता हूं और इधर उसका ये विश्वास और बढ़ गया है जब से उसने पाया है कि मैं कविताएं भी लिखने लगा हूं। वह मेरे बारे में जितनी बातें करता है, उनमें से मैं सिर्फ़ इसी एक बात पर उससे मुतमइन हो पाता हूं।

                                                   क्रमशः ......
                                                
                                           (प्रत्येक रविवार को नयी किश्त)


संपर्क ..
विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130-131
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र.., 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246

फिल्मों में विशेष रूचि 


5 टिप्‍पणियां:

  1. Behtarin hai...Jiyalal ji ka computer aur badla lene ka tarika..

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  2. बड़े गौर से पढ़ रहा हूँ...इतने कि लिखने का मन कर रहा है...हालांकि हमेशा लगता है कि यह मेरे जैसे भुलक्कड के लिए नामुमकिन सी विधा है

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  3. मजा आ गया!
    वैसे इलाहाबाद का भी जवाब नहीं है .
    दुर्गेश जी जैसे लोग हर नुक्कड़ पे मिल जाते हैं. वे आपकी भावनाओं का कतई ख्याल नहीं रखते और वह जरूर कहते हैं जैसा महसूस करते हैं या जैसा कह कर उनको लगता है कि साले को औकात बता दी! चाहे खुद कैसे भी हों! औकात बताने की अलक सबमे होती है यहाँ!
    मजा आ गया. अगली किश्त का इंतज़ार रहेगा.

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  4. alag kamra vyktitv ko visarjit karne ke liye kaafi zaroori tha.. aur maa hamesha aisi hi hoti hain..bahut rochak sansmarn hai..

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