रविवार, 6 मई 2012

अपने समय का कठफोड़वा मैं ----केशव तिवारी





                                  केशव तिवारी 


केशव तिवारी की कविताओं से गुजरते हुए ऐसा लगता है मानो मध्य युग या भक्ति काल का कोई कवि अपने संवेदनो के साथ आधुनिक भाषा शिल्प का संसार रचता इक्कीसवीं सदी में आकर अपनी कविता सुना रना रहा है | यह कवि अपने मूल चरित्र में श्रुति परम्परा का कवि है जिसकी कविता का आधार स्वानुभव और अपने समय को लोक से साझा करने की सहज व्यग्रता है | यहाँ कवि को अपनी कविता को अलंकृत करने की चिंता नहीं है | उसके लिये कविता की भाषा एक खरखराता स्वर है , जिसमे मनुष्य के सारे दुखों को बयान किया जा सके | उसके कविता दुनिया की तमाम चिकनी-चुपड़ी , चमकती कृत्रिमताओं के विरुद्ध एक खुरदरा ही सही , लेकिन नैसर्गिक संसार है , जिसमे कोई भी मनुष्यता अपना अक्स देख सकती है | इस सजग कवि को अपने यथार्थ को व्यक्त करने की जितनी व्यग्रता है , उतनी ही बारीक समझ भी , जिसमे वह देख पा रहा है कि यथार्थ इतनी बलि देने के बाद भी बदल नहीं रहा है | वह कविता के सामाजिक सरोकारों को समकालीन कविता की प्रचलित भाषा के ‘फैशन’ से मुक्त कर कवि के निजी ‘पैशन’ से जोड़ देता है , कि यदि केवल सुनाने के लिए ही कविता करना है तो ‘फिर काहे का मैं ?’ केशव तिवारी की कविता हमें यह भी सिखाती है कि जब अनुभवजन्य संवेदनो का दबाव असहनीय होता है , तो किसी कवि-प्रतिभा को भाषा और क्राफ्ट की तलाश नहीं करनी पड़ती | तब वह एक स्वस्फूर्त रचना-प्रक्रिया में तब्दील हो जाती है | क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि कविता के उपादानों से , उसकी समूची रचना-प्रक्रिया की औपचारिक मगजमारी से मुक्त यह कवि अपने समय-समाज-परिवेश के प्रति कितना जागरूक और अद्यतन है !

                                                        - निरंजन श्रोत्रिय
                                                    (समावर्तन पत्रिका से साभार )

            प्रस्तुत हैं ‘सिताब दियारा’ ब्लाग पर ‘केशव तिवारी’ की सात कवितायें              







1...               तो काहे का मैं

किसी बेईमान की आँखों में
न खटकूँ तो काहे का मैं
मित्रों को गाढ़े में याद न आऊँ 
तो काहे का मैं
कोई मोहब्बत से देखे और मैं उसके
सीधे सीने में न उतर जाऊँ
तो काहे का मैं
अगर ये सब कविता में तुम्हें
सिर्फ सुनाने के लिए सुनाऊँ
तो फिर काहे का मैं    |


2...                      डर



डर कहीं और था
मै कहीं और डर रहा था
डर इस जर्जर खड़े
पेड़ की छांव में था
और मैं धूप से डर रहा था ।
दुनिया भर की पवित्र किताबें
भय और आतंक से भरी पड़ी थी
और मैं अपने
सबसे डरे क्षणों में
उन्हीं को पढ़ रहा था  |



3...                      कठफोड़वा


जैसे मूस लिया गया हो
किसी गरीब का घर
आंधी में भहरा कर गिर पडा़ हो
आमों से लदा पेड़
अपने समय का कठफोड़वा मैं
गोद रहा हूं काठ
तुम याद भी आयी तो किस वक्त
मै मुस्करा तक नही सकता।

(मूसना - सेंध काटना)




4...                    किले होते महल होते
              


रावण हत्था बजाता यह भोपा
क्या गा रहा है
ठीक – ठीक कुछ भी समझ नहीं आ रहा

इस मरुभूमि के निपट वीराने में
इसका स्वर
और इसकी रंग-बिरंगी पगड़ी
बता रही है
एक बूढ़े भोपा ने यहाँ
मुहिम छेड़ रखी है
वीरानगी के खिलाफ

लोहा लेना तो यहाँ के पानी में है
एक स्त्री ने भी लिया था लोहा
राना जी के खिलाफ
और ढोल बजा-बजा
कर कर दी थी मुनादी
मैंने लीनो गोविन्द मोल

तराजू के एक पलड़े पर था गोविन्द
दूसरे पर राना का साम्राज्य

यह सुरों में डूबा भोपा
एक तारा लेकर महल त्याग चुकी वह स्त्री
ऊंट गाड़ी में पानी की तलाश में
निकले लोग
रेवडो के पीछे मस्त गडरिये
इनके बिना यह प्रदेश
सामंती अवशेषों के सिवाय क्या होता

जहाँ किले होते महल होते
पर अपने समय को
ललकारने वाले लोग न होते |




5...                      तुम्हारा रूप




तुम्हारा रूप जैसे पूस की सुबह
केन पर चमकती हुयी धूप
तुम्हारा नाम जैसे होठों पर
रच रच जाये देसी महोबिया पान
इस आंधी में हमारा प्यार
जैसे लफ लफ जाये
आरर जामुन की डार।

(आरर - कमजोर, केन - बांदा की नदी)




6...                   बेरोजगारी में इश्क
          


जो दिन हमारी घोर दरिद्रता के थे
वही हमारे प्रेम भी करने के थे
एक खाली जेब आशिक का दर्द
हमारी ही बिरादरी के कुछ आशिक
बखूबी समझते थे
हमारी आपस में एक अव्यक्त
संवेदना स्थापित हो गयी थी
हम जम कर गरियाते उनको
अमीर थे जिनके बाप
वे दिन न खुलेआम वादा करने के थे
न ही निभाने के
कुछ खुली अधखुली थी दुनिया
इतना भी न रहता कि
कुछ दे पाते उसे मनपसंद
एक समय के बाद तो
कुछ देने का वादा करने पर भी
आने लगी शर्म
दस रू0 में तो मामू की चाय की दुकान पर
जम कर चलती कट चाय
लकड़ी के पटरे पर बैठे फूँकते सिगरेट
और सामने इंडियन काफी हाउस
की भीड़ भाड़ देख कुढ़ते
चाचा मजनू की फटेहाली से
जोड़ते खुद को
और कभी कभी तो उनके मुकाबिल का
आशिक भी मानते
धीरे धीरे मां बाप हमारी तरफ से
निराश हो रहे थे
और पडोसी सशंकित
दुनिया की नजर मे हम भले ही
फुरसतिया थे पर हम
प्रेम की एक उदात्त अनुभूति को
जी रहे थे
फिर भी
बेरोजगारी में इश्क था ये दोस्त
खाली जेब उससे मिलते और
भरे मन वापस लौट आते



7...                दीवट का दिया



मै तुम्हारी कोठरी के
दीवट पर रखा हुआ दिया हूँ
तुम मेरे पास आओ
लटियाये बालो को सुलझाओ
पाटी पारो
माथे पर लगाओ
लाल रंग वाली बडी टिपली
मांग भर सेंदुर ऐड़ी भर महावर रचाओ
और मै
तुम्हारी मद्धिम रोशनी में
झिलमिलाऊं जैसे
छरहर नींम की छांव में
झिलमिलाता है चांद






             
नाम               - केशव तिवारी
शिक्षा              -  बी0काम0 एम0बी00
जन्म              -   अवध के एक ग्राम जोखू का पुरवा में
प्रकाशन            -    दो कविता संग्रह प्रकाशित  1... “इस मिट्टी से बना”
                                                     2... “आसान नहीं विदा कहना”
सम्प्रति                  -     हिंदुस्तान यू0नी0 लीवर लि0 में कार्यरत्

                  -     कविता के लिये सूत्र सम्मान:      
                  -    सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित |
                  -   कुछ कविताओं का मलयालम, बंगला, मराठी, अंग्रेजी में अनुवाद
संपर्क              -  द्वारा – पाण्डेय जनरल स्टोर , कचहरी चौक , बांदा (उ.प्र.)
मोबाइल न.         – 09918128631 

18 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद आत्मीय कविताएं । कविता की यह सादगी भी अपने प्रभाव में मारक है । सहज संप्रेषित होती भाषा में जीवन के बहुत गहरे चित्र । इन कविताओं को बार बार पढ़ना देखना भी आनन्ददायक अनुभव से गुज़रना है ।

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  2. बेनामी10:35 am, मई 06, 2012

    keshav ji ki rachnatmak kala ka rahasya hai vishyon ki atma se abhinnata. ve sirf kavita likhne ke liye kavita nahin likhte, balki jeevan ke anivarya kartabya nibhane ki tarah kavita likhte hain. jise nibhye bina ve n chain se rah sakte hain n apne aapko manushya kah sakte hain. dar jaise bahu arthmayee kavita - dekhan men chote lage....... wala muhavara siddha karti hai . bharat prasad, shillong

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  3. केशव हमारे समय के ऐसे खुरदुरे कवि हैं जो खुद अपने को भी कटघरे में खडा करते हुए बेबाकी से कहते हैं- ‘फिर काहे का मैं’ यह कहने का दुह्साहस हमारे समय के कितने कवियों में हैं. यहाँ केशव लोक का प्रतिनिधित्व करते दिखाई पड़ते हैं जो हर संकट की घड़ी में हमें आश्वस्त करता है.
    यहाँ प्यार भी है तो लफ-लफ करने वाला तो किसी आपति-विपत्ति में लचक तो सकता है पर टूट नहीं सकता.
    कवि और प्रस्तोता को बधाई एवं आभार.

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  4. ramji bhayi , keshav ji ki sundar kavitaon ko yahan prastut karane ke liye aap sadhuwad ke patra hain. unaki kuchh kavitayen pichhale dino santosh ji ne apane blog main post ki hain jinako is link main pada ja sakata hai.............................................................http://pahleebar.blogspot.in/search/label/%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%B5%20%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81

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  5. बेनामी7:37 pm, मई 06, 2012

    yah keshav tiwari ka hi andaz ho sakata hai.akhnri kavitayen hain! koi milawat nahi,koi banawat nahi.....सूर्य नारायण

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  6. बेनामी7:43 pm, मई 06, 2012

    इस रचना को पढ कर भी तारीफ न करुं तो फिर काहे का मै.... बृज मोहन श्रीवास्तव

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  7. अगर ये सब कविता में तुम्हें
    सिर्फ सुनाने के लिए सुनाऊँ
    तो फिर काहे का मैं
    यह पंक्तियां मुझे क्यों भा रही हैं ? या यही पंक्तियां भाई संतोष चतुर्वेदी को क्यों पसंद आयी? क्या इस सवाल से टकराते हुए कविता/रचना के उस मर्म तक पहुंचा जा सकता है जो प्रतिबद्धता की मांग करता है ? यकीकन यह पंक्तियां न सिर्फ़ बहुत सी दूसरी स्थितियों को अपने निशाने पर रख रही हैं बल्कि प्रतिबद्धता के वास्तविक मायनों को भी अपना निशाना बना रही हैं। सवाल है कि एक कवि को यह क्यों कहना पढ़ा ? क्या इसे कवि का बड़बोलापन माना जाये या इससे यह अर्थ निकाला जाये कि रचनात्मक दुनिया के एक बड़ा हिस्से का सच रचना और रचनाकार के जीवन में साम्यता के साथ नहीं है और उसी खतरे को भांपते हुए कवि को कहना पड़ रहा है कि "तो फिर काहे का मैं"।
    सारी कविताएं विस्तार से चर्चा की मांग करती है और जिसके लिए पर्याप्त अवकाश की जरूरत है। अभी तो राम जी आपका आभार और कवि को शुभकामनाएं।

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    1. " काहे का मैं " पढ़ कर हम खुद को टटोलने लग जाते हैं .... बड़बोला पन तो नही लग रहा अपितु इतना ज़रूर मान सकता हूँ कि , ओढ़ी हुई प्रतिबद्धता पर सीधा प्रश्न है . और स्वागत योग्य प्रश्न है .

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  8. बेनामी11:21 pm, मई 06, 2012

    sidhe man ko chhu jati hai ye kavitayen.lok se nata kavita k jamin ko aur samriddh karata hai.sahi artho me ise hi to kavita kahate hai.sayas harek pankti aati gayi hai.keshav ji ko sadhuvad aur ramji sir ka aabhar....arvind varanasi

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  9. बेनामी9:45 am, मई 08, 2012

    Ek kavi ki rachnashilta ke khubsurat aur vividh aayam ek jagah prastut karane ke liye Ram ji bhai apko aur in achhi kavitaon ke liye bhai Keshv tiwari ko bahut badhai...आत्मा रंजन

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  10. पहली बार ग्वालियर में भाई केशव तिवारी से मिला था तब अंदाजा नहीं था कि समय के ितने सशक्त कवि से मिल रहा हूं। यह मेरी मंदबुद्धि थी कि मैं केशव तिवारी की कविताओं से परिचित नहीं था। लेकिन मंच से जब उनकी कविताएं सुनी तो लगा कि यह तो अद्भुद कवि हैं। तो काहे का मैं। अच्छी बात यह कि केशव भाई को अपनी लगभग कविताएं याद हैं। और यहां दी गई कविताओं में से कई कविताएं मैं उनके मुंह से सुन चुका हूं। उनकी कविताओं में एक कवि की संजीदगी के साथ फक्कड़ाना लापरवाही भी है जो यह इंगित करती है कि यह लोक का कवि है और इसके लिए कविता-वविता से ज्यादा आद भी संबंधों की गरमाहट प्रिय है। केशव तिवारी मुझे कवि के रूप में इसलिए भी पसंद हैं कि वे एक महत्वपूर्ण कवि होने के साथ एक अच्छे मित्र और भाई हैं। उनकी कविताओं में संबंधों की जो गरमाहट मिलती है, वह उनके जीवन में भी है। कविता और जीवन का यह सहमेल मैंने केशव भाई के यहां देखा है.... यहां पढ़ी गईं सारी कविताएं मेरे कहे हुए की प्रमाण हैं.... बहुत-बहुत बधाई....

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  11. रावणहत्था बजाते भोपाओं का बिम्ब भीतर उतर जाता है .... यह एक ज़िन्दासमुदाय और एक जीवंत लोकेल को महसूसने जैसा है . अपनी तमाम आवाज़ों और वेदनाओं के साथ . मैने भोपाओं को ध्यान से सुनने समझने की कोशिश की है . मुझे बताया गया कि तेंतीस करोड- देवों का आदिम कॉंसेप्ट भोपाओं से ही निकला है. और सामन्यतः ये लोग कबीर को ही गाना पसन्द करते हैं . विश्वास नही होता कि साहित्य ऐसे भी ज़िन्दा रह सकता है !

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  12. केशव की कवितायेँ उनके जीवन का पर्याय हैं | इनकी खासियत है कि यहाँ जीवन और कविता में कोई फांक नहीं है | जैसा जीवन वैसी कविता और जैसी कविता वैसा जीवन |

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  13. तो काहे को मैं...केषव तिवारी जी की कविताएं सोचने को मजबूर करती है, वे पूरे अधिकार के साथ अपनी बात रखते हैं....

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  14. tum yad bhi aai to kis vakt main muskura tak nhi sakta.. sabhi kavitaen.. kahe ka main .. apna khas chehra liye hue hain.. jeevant kavitayen.. achhi lagi

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  15. बेनामी10:11 pm, मई 17, 2012

    "किसी बेईमान की आँखों में
    न खटकूँ तो काहे का मैं"... यह कविता का केंद्रीय स्वर बन जाए, तो कविता किसी टिप्पणी की मोहताज नहीं रह जाती. केशव को बहुत-बहुत बधाई........मोहन श्रोत्रिय

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  16. KESHAV TIVARI lokopyogi suktiyon ke kavi hai...aise hi sahaj rachate rahane ke liye shubhkamnayen

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  17. बहुत ही प्रभावशाली कविताएं। केशव जी की कविताएँ पाठक को सहज ही बाँध लिया करती है।

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