महेश चंद्र पुनेठा
लोक और
जनपदीय कवियों की युवा पीढ़ी में महेश पुनेठा का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया
जाता है | उनकी कविताओं के सन्दर्भ बिलकुल उनके पड़ोस से आते हैं | महेश की कवितायेँ अपने परिवेश के साथ साथ अपने रचयिता
कवि की भी सूचना देती हैं | और फिर यही देशज सन्दर्भ क्षेत्रीय , राष्ट्रीय और
वैश्विक संदर्भो से जुड़ जाता हैं | “ बिना स्थानीय हुए आप अन्तराष्ट्रीय नहीं हो
सकते ” के सूत्र वाक्य को साधने की कोशिश महेश की कविताओं को विशिष्टता प्रदान
करती हैं | ऊपर से नरम , कोमल और सुन्दर दिखने वाली ये कवितायें मूल अर्थ में
प्रतिरोध और संघर्ष का आह्वान करती हैं | इनमे हमारे समय का भयावह अक्स तो उभरता
ही है , साथ ही साथ उसे कैसे बेहतर बनाया जाए , इसका चिंता भी दिखाई देती है |
तो पढ़िए “सिताब दियारा”
ब्लाग पर ‘महेश चंद्र पुनेठा’ की छः कवितायें .......
रामजी तिवारी
1...
खिनुवा
खिनुवा का पेड़ हूँ मैं
तुम कहाँ पहचानोगे मुझे
मैं नहीं दे सकता हूँ तुम्हें
सरस-स्वादिष्ट फल
नहीं बन सकता हूँ तुम्हारी हवेली की
दरवाजे-खिड़कियों की चौकठ
मेरे पास नहीं हैं
चित्ताकर्षक और सुगंधित फूल
जिन्हें सजा सको तुम अपने फूलदानों में
तुम्हारे व्यवहार पर
मुझे न आश्चर्य है और न अफसोस
मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ तुम्हें
तपती दुपहरी बिच
बीहड़ में भटकते को
मैं दे सकता हूँ गझिन छाया
ठंड में ठिठुरते की रात को
गरमा सकता हूँ
लौकी-ककड़ी-तोरई की बेलों के लिए
बन सकता हूँ माकूल ठाड.रा ।
काट कर फेंक दो मुझे
तमाम उपेक्षाओं के बावजूद
जरा सी मिट्टी और नमी पाकर
फिर से खड़ा हो सकता हूँ
फैला सकता हूँ अपनी भुजाएं
खुशी है मुझे
शामिल हो सकता हूँ
पक्षियों के मुक्ति समूहगान में
दूर आसमान की उड़ान में ।
तुम नहीं पहचानोगे मुझे
मैं खिनुवा का पेड़ हूँ।
2.. धौल
नहीं पता मुझे इसका वैज्ञानिक नाम
क्या कहते हैं इसको मानक हिंदी में
यह भी नहीं पता
कहीं धौल कहीं धुँइयाँ
पुकारते हैं इसे ग्वाले-घस्यारियाँ-लकड़हारिनें
पूछो इसके बारे में तो
धूप-धूप हो आता है उनका चेहरा
शहद उतर आता है बोली में
बताते हैं-
मौ भौत होता है इसके भीतर
मौन खूब आते हैं इसके पास
इसके झुरमुटों में बैठे-बैठे
रस चूसते हुए
भौत मजा आता है
घस्यारियाँ कहती हैं -
बकरियाँ खाती हैं इसकी पत्तियों को
बड़े चाव से
बड़ा गरम होता है सौत्तर भी इसका
इसकी लकड़ी में आग होती है भरपूर
बताती हैं लकड़हारिनें
बुरूँश के पड़ोस में ही खिला है धुँइयाँ
ऊपर-ऊपर बुरूँश नीचे धुँइयाँ
धौलिमा फैली है पूरी घाटी में
उतर आया हो जैसे
गोधूलि का आसमान
बुरूँश जितने बड़े व रक्ताभ न सही
पर कम नहीं सौंदर्य इनका भी
खिलते हैं जब अपने पूरे समूह के साथ।
पता नहीं क्यों
किसी कविता में खिल न पाया
किसी चित्र में ढल न पाया
किसी ने किया नहीं कैद अपने कैमरे में इसे।
3...
खतड़वा संकराँद
बच्चों-किशोरों का झुंड
उल्लास से भरा
इकट्ठा करने में जुटा है केड़-पात
मक्के के ठूँठ , सूखे झील-झंखाड़
ढूँढ-ढूँढकर लाए जा रहे हैं
गाँव भर से
सबसे ऊँची टिकड़ी में गाँव की
बनाया जा रहा है ढेर ।
घसियारिनें लगी हैं
घास के पूले के पूले काटने में
भर पेट खिलाना जो है आज के दिन
इतना कि
गाएँ उसी का सोत्तर बनाकर सो जाएँ ।
शाम होने को आई
लौट रही हैं घसियारिनें
घास का लूटा सा ही पीठ में लादे
इसी घास से बनाए जाएंगे बुड़ि के पुतले
डाले जाएंगे -
गोशाला की छत पर
गोबर के खात पर
लौकी-कद्दू-ककड़ी -तोरई के बेलों में
एक साथ ले जाई जाएगी
टिकड़ी में बने ढेर में जलाने ।
अब सारी तैयारी पूरी हो चुकी है
जल उठी है मशालें
सिन्ने के ढाँक साथ बुड़ि का पुलता
पकड़कर
भीतर से लेकर गोठ के ओने-कोने से
झाड़-पोछकर
बाहर भगाया जा रहा है बुड़ि को।
हाँक लगाकर -
‘भ्यार निकल बुड़ि ,भ्यार निकल ’।
दौड़ पड़े हैं सभी टिकड़ी की ओर
मशालें लहराते
समवेत स्वर में चीखते-चिल्लाते
सार गाँव गूँज उठा है
ऐसे में भला बुड़ि कहाँ छुपी रह सकती है
कितना सुदंर लग रहा है गाँव
अंधकार दुबक रहा है जान बचाकर ।
एक इशारा पाते ही
धू-धू जल उठा है केड़-पात का ढेर
झोंक दी गईं हैं उसमें सारे के सारे पुतले
फैल गईं हैं आसमान में असंख्य चिनगारियाँ
हर पहाड़ी ने
थाम ली हो जैसे एक-एक मशाल
और समवेत स्वर चक्र बन घूमने लगे हों घाटी में ।
पता नहीं कब से
हर साल
बुड़ि को खदेड़कर सुपुर्द-ए-खाक करते
आ रहे हैं ये लोग
पर बुड़ि है कि फिर -फिर लौट चले आती है।
4.... संक्रमण
वे केवल हमारी जेबें ही खाली नहीं करते
जेब के रास्ते दिल-दिमाग तक भी पहुँच जाते हैं
खाली कर उन्हें
अपने मतलब का
साफ्टवेयर लोड कर देते हैं वहाँ
सूखे काठ में बदल देते हैं हमारी आत्मा को
एक औचित्य प्रदान करते हैं वे
अपने हर काम को
जैसे वही हों सबसे जरूरी
और
सबसे लोक कल्याणकारी ।
वे जोकों से भी खतरनाक होते हैं
केवल खून ही नहीं चूसते
खतरनाक वायरस भी छोड़ जाते हैं हमारे भीतर
जिसके खिलाफ
कारगर नहीं होता है कोई भी एंटी वायरस
रीढ़ और घुटने तक नहीं बच पाते साबूत
पता तक नहीं चलता
कि
कब सरीसृप में बदल गए हम
कब संवेदनाओं की धार कुंद हो गयी।
गरियाते रहें उन्हें दिन-रात भले
मौका मिलते ही
खुद भी चूसने में पीछे नहीं रहते हैं हम
और
फिर हम भी
उसे औचित्य प्रदान करने में लग जाते हैं।
5...
खड़ी चट्टान पर घसियारिनों को देखकर
एक-दो ने अंतरिक्ष में
कर ली हो चहलकदमी
दो-चार ने एवरेस्ट में
फहरा दिया हो अपना परचम
कुछ राजनीति के बीहड़ को लाँघ कर
खड़ी हो गई हों उस पार
कुछ और इसी तरह किसी अन्य वर्जित प्रदेश में
कर गई हों प्रवेश
दृष्टांत के रूप में
उद्धरित किए जाने लगे उनके नाम
मील के पत्थर ही हैं वो
इधर तो बहुत सारी
टँकी हुई-सी हैं अभी भी
सदियों से इसी तरह
ओस की बूँद सी
अब गिरी कि तब गिरी ।
कैसे करूँ संतोष
नहीं मिल जाता जब तक इन्हें
जीवन का कोई मैदान
बेखौफ होकर खड़ी हो सकें जहाँ ये।
6... सावधान
वे लिखेंगे
कविता-कहानी-उपन्यास
जनता के
शोषण-उत्पीड़न पर
मानवाधिकारों
के हनन पर
वे पत्रिका
निकालेंगे
जनता की
आवाज को स्वर देने के नाम पर
छापेंगे
उसमंे
देश-दुनिया
के क्रांतिकारी रचनाकारों को भी
वे संस्थान
भी स्थापित करेंगे
जनपक्षधर
रचनाकारों के नाम पर
गोष्ठियाँ
आयोजित की जाएंगी जहाँ
जनता से
जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर
जयंतियाँ
भी मनाई जाएंगी
जनकवियों
की याद में
देवता
की तरह याद किया जाएगा उन्हें
वे पुरस्कारों
से भी नवाजेंगे
युव से
युवतर साहित्यिकों को
वे सब
कुछ करेंगे
ताकि आपको
विश्वास होने लगे
नहीं है
कोई उनसे बड़ा जनपक्षधर
पर सावधान!
जब अपने
हक-हकूक के लिए
या शोषण-उत्पीड़न
के खिलाफ
जनता होगी
संघर्षरत
तब वे
सबसे आगे होंगे
उन्हें
बर्बर-जंगली और असभ्य साबित करने में।
अंतिम कविता के लिए खास बधाई स्वीकार करें . इस कथ्य की यही भाषा हो सकती है. सीधी सपाट.... हमारे सरोकारों से जुड़ जाती हुई . आम आदनमी को सावधान करती हुई .
जवाब देंहटाएंKhinuwa ka ped yah kawi.poori sambhawnao k sath hajir huwa ha.aaj ki mechnical aur aur hawai kawitaon k baraks ye kawitayen .apne jan apni jameen ki kawitayen.han ye .ram ji bhai aapko bhi ye kawitayen padhwane ka sadhu wad.....keshav tiwari
जवाब देंहटाएंवैसे तो आज के इस दौर में विचारों की शून्यता का प्रतिशत कुछ हद तक घटा है पर विचारों का प्रवाह किस दिशा मैं हो रहा है यह बात महत्वपूर्ण है. पहले की अपेक्षा काफी अधिक लिखा जा रहा है परन्तु कैसा लिखा जा रहा है और कितना पड़ा जा रहा है यह भी विचारणीय है. इन परिस्थितियों में यदि कुछ अच्छा लिखा पढ़ने को मिले तो शायद मेरी तरह औरों को भी अच्छा ही लगता ही होगा. बिलकुल हासिये पर धकेल दिए गए विषयों को पुनेठा जी आपने जिस हिम्मत, साहस व कवित्वपूर्ण ढंग से उजागर किया है, काबिलेतारीफ के लायक है. ऐसा में सतही तौर पर नहीं कह रहा हूँ या फिर में आपको जानता हूँ इसलिए भी नहीं कह रहा हूँ बल्कि इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इस प्रकार के विषयों पर लोगों ने लिखने का प्रयास ही नहीं किया है. ये तमाम हासिये के विषय नहीं हैं बल्कि बना दिए गए हैं तथाकथित संभ्रांत लोगों के द्वारा. आज लोग प्रचलित व्यवस्था के खिलाफ नहीं लिखते बल्कि इस व्यवस्था के ठेकेदारों की पैरवी करते हैं. सावधान कविता हो या संक्रमण आपने व्यवस्था के ठेकेदारों के प्रति लोगों को सावधान किया है. कविताओं में आंचलिक शब्दों के प्रयोग वाह...क्या चार चाँद लगा रहे हैं. एक उदाहरण देखिये - " मौ भौत होता है इसके भीतर , मौन खूब आते हैं इसके पास .................भौत मजा आता है". खिनुवा कविता में आपने समाज में बढ़ते उपेक्षा के भाव का सुन्दर चित्रण किया है. कुल मिलकर सभी कवितायेँ आंचलिकता लिए काव्य सौन्दर्य का बोध कराती हैं. हो सकता है आंचलिक शब्दों का अधिक प्रयोग कतिपय के लिए दुरूह हो. पुनः साधुवाद ..........................रमेश जोशी
जवाब देंहटाएंमहेश चंद्र पुनेठा हमारे समय के ऐसे कवि हैं जो बिना किसी शोर-शराबे के दूरस्थ और दुर्गम जगह पर रहते हुए भी महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. उनकी कवितायें पढते हुए उनकी प्रतिबद्धता साफ़ तौर पर जाहिर हो जाती है. लोक और जन से उनका गहरा जुड़ाव है जो इस समय के बहुत कम कवियों में ही दिखाई पडता है. वे उस लोक के पक्षधर हैं जो आज के समय में हर जगह उपेक्षित किया जा रहा है, हालांकि आज जो यह दुनिया दिख रही है वह उसी लोक की वजह से ही है. पहली कविता ‘खिनुवा’ कविता के माध्यम से महेश ने इस विडम्बना को बखूबी उभारा है. जो कहता है कि ‘तुम कहाँ पहचानोगे मुझे.’ वह पेड़ जो कुछ देने के काबिल नहीं- न चित्ताकर्षक फूल, न फल, ना ही दरवाजे, खिडकियों के लिए चौखट. लेकिन वह चिलचिलाती धुप में छाया जरूर दे सकता है. छाया स्नेह की, प्यार की छाया जिसकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी. वह रात को ठण्ड में गर्मी दे सकता है अपनत्व की गर्मी जो खरीदी नहीं जा सकती. और भी कवितायें महत्वपूर्ण है और उन पर लंबी बात की जा सकती है.
जवाब देंहटाएंमहेश को बेहतर कविताओं के लिए बधाई और रामजी भाई को प्रस्तुतीकरण के लिए आभार.
आपकी अपनी जमीन पर कवितायेँ भी खिनुवा के पेड़ की तरह उगती हैं | यही आपकी वास्तविक काव्य- भूमि है | अपनी भाषा और व्यंजना में भी बेजोड़ | खिनुवा तो थोड़े में बहुत कुछ कह जाती है | बधाई |
जवाब देंहटाएंtaro taza hua in kavitaaon ko padkar.........sadhuwaad.....shubhkamnain.
जवाब देंहटाएंकमलेश उप्रेती------------------------------------------------------ आपकी कवितायें समझने के लिए अधिक माथापच्ची नहीं करनी पड़ती, लगता है कि अपने ही गांव पडौस की बात है......
जवाब देंहटाएंAjay Kumar खिनुआ' कविता मुझे इस अर्थ मे भी महत्वपूर्ण लगती है कि बरसों पहले निराला ने कुकुरमुत्ते का प्रतीक दिया था गुलाब की छायावादी सुकोमलता के विरोध मे . बेशक उस दौर मे यह बड़ी छलाँग थी . और इस प्रतीक को और तद्जनित दलित ( आज के प्रचलित सीमित अर्थों ने दलित नही ) चेतना को उन दिनो यथोचित पहचान और स्वीकृति भी मिली . बल्कि वो चेतना उत्तरोत्तर नई कविता / अकविता / प्रगति शील कविता के माध्यम से हिन्दी मे विकसित हुई . खिनुवा उस अगली छलाँग का प्रतिनिधित्व करता है जो निराला युगीन कुकुरमुत्ते की लिजलिजाहट / फुसफुसेपन / प्रभावहीनता और उस के टॉक्सिक प्रभावों के ज़ेरे असर पनप रही घातक चेतना को भी रिजेक्ट करने से उत्पन्न हो रही है . खिनुए का उजड्डपन , उस की ढीठ ज़िद , उस की नैसर्गिक लड़ाकू चेतना कुकुरमुत्ते के फोके वाचिक विद्रोह के सामने नई उम्मीद जगाती है . मैं यह दावा नही करता कि पुनेठा ने ही यह छलाँग पहली बार मारी है . खिनुए के प्रतीकात्म्क बिम्ब यद्यपि कुछ अस्पष्ट- 2 से , आज की पूरी लोकधर्मी हिन्दी कविता मे झाँकते मिल सकते हैं . यदि हम ध्यान से देखें . ( महाकवि की काव्यात्मा से सादर क्षमा याचना सहित . )
जवाब देंहटाएंकमलेश उप्रेती............ आपकी कवितायें समझने के लिए अधिक माथापच्ची नहीं करनी पड़ती, लगता है कि अपने ही गांव पडौस की बात है......
जवाब देंहटाएंachhi kavitayen hain Mahesh ji, khinua aur dhaul to behtareen lagin ekdam, shukriya
जवाब देंहटाएंहम अपने इर्द-गिर्द जो देखते हैं ...सर्द भावनाएँ.....रिश्तों पर पड़ती गर्द ...
जवाब देंहटाएं.रिसते रक्त संबंध....
घास और सास के लिए खटती परदेसी की परिणीता की टूटती आस ....
अदम्य जिजीविषा ....जीतने की ज़िद...हार-हार कर .....
पहाड़-सा जीवन...पहाड़ का जीवन ...
और
और भी
बहुत कुछ
'पुनेठा' जी की कवितायें .....उतार लाती हैं अलगनी से ....वो यादें भी .... जो टांग कर लोग भूल गए...यहाँ सलवट-पड़े कपड़े कोई नहीं खरीदता ....!
Rajiv Joshi................................................. khinaawwa, or dhoul kavitaye pasand aayi me to aapki kavitao ka prasansak hu,ye kavitaye kavya ki kasouti me to khari hai sath hi saralta se samajhi ja sakti hai.mere vichar se yahi sachhi kavita hai
जवाब देंहटाएंलोक बींबों की मदद से आम आदमी की व्यथा और उसकी उपेक्षा कथा को बड़ी ही मार्मिक अभिव्यक्ति और उम्मीद का बुत्ता भी। सबसे मारक है अंतिम कविता। बिल्कुल आज का सच। व्यवस्था के शातिर सटोरियों ने नयी चाल चली है। कुछ बगुलाभगतों की मदद से हकीकत को झुठलाने की साजिश। लेकिन वो भूलते हैं, काठ की हांडी बार-बार नहीं चढती।
जवाब देंहटाएंखिनुबा...धौल ...
जवाब देंहटाएंइलाकाई शब्दों के बहतरीन प्रयोग के साथ एक गंभीर सन्देश देती बहुत ही सार्थक और महमोहक चित्र खींचती कवितायेँ
संक्रमण ....सूखे काठ में बदल देते हैं हमारी आत्माओं को ....एक औचित्य प्रदान करते वो अपने हर काम को ....वाह वाकई कुछ ऐसा ही
कड़ी चट्टानों पर कड़ी घसियारिओं को देखकर......क्या विडम्बना है ...
सावधान ...आज के सूरतेहाल पे लिखी गयी सबसे बेहतरीन कविता ...
महेश साहब ये कवितायेँ यूँ तो बहुत वक़्त चाहती हैं फिर जो कुछ भी मैंनेमहसूस किया पढ़ते वक़्त सब यहाँ नहीं लिख सकता ....हाँ इतना ज़रूर कह सकता हूँ ..कि इस दौर को दर्ज करते ऐतिहासिक दस्तावेज़ हैं ....बहुत काम पढने को मिलता है ऐसा.....ये भी नहीं कि अच्छी कविताओं का अकाल हो ...पर हाँ ऐसी सरल भाषा और हरियल शब्दों का अकाल ज़रूर हैं ....बहुत बहुत शुभकामनाएं
खिनुआ कविता मुझे बहुत अच्छी लगी. कोई भी प्रतीक खोजने में कवि को महारत चाहिए जो महेश जी में है. किसी प्रतीक के माध्यम से बात कहने की कारीगरी ही अच्छी कविता है. महेश पुनेठा को बधाई. अन्य कविताएँ शीघ्र पढूंगा.
जवाब देंहटाएंaapki rachnaayen vaastav men prabhaavit karti hain. aap shabd jaal na failaakar jameen se judi baaten bahut hi sahajta se kah jaate hain jisse paathak seedhe taur pe jud jaata hai.
जवाब देंहटाएंsabhi kavitaayen bahut achhi lagi. lekin सावधान kavita jabardast hai.
aabhaar
evam
saadhuvaad
कविताओं में अभी कहीं-कहीं कुछ कच्चापन जरूर लगता है, मगर इनकी सबसे महत्वपूर्ण खासियत यह है कि इनमें अपने परिवेश के प्रति अन्तरंग जुडाव है. सारे बिम्ब परिचित हैं, फिर भी ताजगी से भरे. घास काटकर लाती औरतों के बिम्ब, धूसर खेतों, खलिहानों में खेलते बच्चे और निरर्थक सी बिखरी वनस्पतियाँ जिस आत्मीयता के साथ कविताओं में आई हैं, देर तक स्मृति का हिस्सा बनी रहती हैं. यही नहीं, वे अपने परिवेश के चेतनाशील प्राणियों कि व्यथा को सहज ही रेखांकित करने लगती हैं. उम्मीद है यह रचनाशीलता अधिक सघन और व्यापक होती चली जाएगी.
जवाब देंहटाएंमहेश भाई की कवितायेँ हमेशा ही बेजोड़ होती है .........इन्हें पढ़ कर ये विश्वास बना रहता है कि अभी भी कविता उन सब के पक्ष में खड़ी है .........जो बिलकुल अकेले अपना संघर्ष जारी रखे हुए है........या .जो बिना चमक दमक के अपनी उपयोगिता के दम पर इस बाज़ार वक़्त में अपना आस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं .,,,,,,,,,,वह चाहे खड़ी चट्टान पर चढ़ी घसियारिने हों या फिर उपेक्षा के शिकार खिनुवा और धौल .
जवाब देंहटाएंkhinva aur dhaul bejod hain.. padhne ke baad irshya hui.. raghuvir sahay ne kaha tha ki achhi kvita hamesha chhotee jagah se hee aayegi.. dilli me kahan honge khinuvaa.. aur dhaul.. aur ho bhi to kaun sa mali batayega..
जवाब देंहटाएंपुनेठा जी की छः कविताएं - जीवन के करीब
जवाब देंहटाएंवस्तुतः साहित्य में कोई अछूत नहीं होता बशर्ते उसका सरोकार मनुष्यता के उत्कर्ष एवं संवर्द्धन का हो, चाहे विचारधारा जो भी हो । मेरी समझ में समग्र मनुष्यता की चिंता करने वाला भले ही माक्र्सवादी, समाजवादी, प्रगतिवाद, प्रयोगवादी, अस्तित्ववादी, उत्तर-आधुनिकतावादी या दलितवादी न हो, किंतु वह फासीवादी, सम्प्रायवादी या तत्ववादी भी हर्गिज नहीं हो सकता। जिस प्रकार ईश्वर के पास पहुँचने के मार्ग अनेक हैं, उसी प्रकार मनुष्यता के सरोकार भी साहित्य में अनेक दृष्टिकोणों से व्यक्त होता हैं, जिसे देखने-समझने के लिए एक मत विशेष की सीमाबंदी से मुक्त होना आवश्यक है। मैंने महेश पुनेठा जी की 6 कविताएं पढ़ी, जिसमें- खिनवा,धौल, खतड़वा,संक्रमण, खड़ी चट्टानों पर घसियारीनो को देखकर, और सवधान। उन्होंने अपने काव्य रचना में पहाड़ी परिवेश ही नहीं वरन् पर्यावरण और मानवीय समावेश को इस तरह से बांधा है जिसे पढ़कर उनके स्वंय के विचारों को समझने में आसानी होती है।
‘खिनवा’ की विषय, प्रकृति और जीवन के व्यवहार को जिस बखुबी से बखान करती है उसे पढ़ कर समझ आता है।
‘‘काट कर फेंक दो मुझे,
तमाम उपेक्षाओं के बावजूद
जरा भी मिट्टी और नमी पाकर
फिर से खड़ा हो सकता हूँ
और फैला सकता हूँ अपनी भुजाओं को ’’
ये पहाड़ी दम हैं अतिश्योक्ति नहीं। तमाम कठिनाईयों के बाद भी पहाड़ी जीवन हर समय अपने आपको जीवंत करने के लिए तत्पर रहता है।
उसी तरह ‘खतडवा’ एक पूरी संस्कृति है- पहाड़ी परिवेश, सोच, सभ्यता और इतिहास के पन्नों को बार-बार टटोलता है। नारी की पहाड़ जैसी पीढ़ा और वैसे भी लगभग पांच सौ वर्षो पूर्व भारतीय समाज में नारी की पराधीन स्थिति का जायसी ने बहुत ही सूक्ष्म ढंग से चित्र उपस्थित किया है। वहीं अन्य रचनाओं में ‘सावधान, घौल और खड़ी चट्टानों पर घसियारीनो को देखकर जैसी रचनाओं में कुमाउँनी शब्द को शामिल कर के हिन्दी को शब्दकोष को बढ़ाने के साथा-साथ एक नई परम्परा को हमारे सम्मुख रखा है। भाषा सरल और आम जन को सरलता से समझने वाली है।
मनोज प्रसाद
aapko padhna apne aapme ek anubhav hai punetha ji . lokgeeton si bhaasha aur aam jan ki bhavnaa aur unki boli in sabko apnaakar aap poora padaadi parivesh hi saamne khadaa kar dete hain par ek yaksh prashn ke saath ...iske saath hi vyavhaarik jivan ki kadvi sachchaaiyon ko bhi utni hi sahjtaa se saakar karte hain ki dil ko chubh jaaye ..aapko padhne ke baad hamesha hi kuchh sochne par majboor hona padta hai ...badhaai aapko itne saargarbhit lekhan ke liye !!
जवाब देंहटाएंखिनवा के पेड़ के माध्यम से महेष जी ने समाज के वंचित एवं उपेक्षित वर्गों की चिंता प्रकट की है, जिन्हें हम अपने लिए अनुपयोगी मानते हैं लेकिन समाज के अंग होने के नाते उनकी भी उपयोगिता है
जवाब देंहटाएंSthaneeyata ke rang se sarabor aapkee ye lokdharmi kavitayen man- mastishak men kaundh hee paida naheen kartee apitu mere pathak - man ko satarak bhee kartee hain...Bhasha - shilp kee drishti se bhee ye kavitayen sahj sampreshneeya hain,atdarth Badhai.
जवाब देंहटाएंMeethesh Nirmohi,Jodhpur.