प्रतिबद्धता की किताब
कुछ चीजों का चुपचाप आपके इर्द-गिर्द होना इतना महत्वपूर्ण होता है कि उनसे आपकी पूरी दुनिया बनती-बदलती है और आपको पता भी नहीं चल पाता..| किसी भी रचनात्मक विधा से जुड़े व्यक्ति को केंद्र में रखकर इसकी पड़ताल की जा सकती है....आप जैसे ही खोज करने निकलेंगे ,पहली नजर में आपको हमारे समय के खारिजी अश्वमेधी घोड़े नजर आयेंगे, जो पूरे रचनात्मक संसार को रौंदते चले जा रहे है..| आपको यह जानकार विस्मय होगा बावजूद इसके भी लोग अपने रचनात्मक मोर्चो पर डटे हुए है...वे प्रतिदिन इन घोड़ो के टापों के नीचे आते है, प्रतिदिन रौंदे जाते है लेकिन प्रतिदिन एक नए संकल्प के साथ मैदान में डट जाते है..आर्थिक चादर को रुमाल में परिवर्तित होते देखना, अपने साथियों को पद ,प्रतिष्ठा और धन के एवरेस्ट पर चढ़ते देखना और फिर अपनों के बीच ही उपहास का पात्र बनते जाने की प्रक्रिया बेहद सालने वाली होती है..ऐसे में आपको हर सुबह अपने चुनाव के संकल्प को दोहराना होता है, उस प्रेरणा को जगाना होता है, जिसके बल पर यह जंग जारी रखी जा सके...|
लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि आपके भीतर इस आग को जलाने के लिए लकड़ी और तेल कौन उपलब्ध कराता है..? क्या वह बाज़ार हो सकता है, जिसके खिलाफ आपकी सारी लड़ाई चलती है..? बिलकुल नहीं...आप हैरान हो जायेंगे उन लोगो के संघर्ष को देखकर , जो आपको बनाने-सवारने कि प्रक्रिया में दिन-रात एक किये रहते है... तमाम खरिजो के बावजूद आपको पढ़ने, सुनने ,जानने और समझने वाले लोग इस दुनिया में मिल जायेंगे, लेकिन नेपथ्य से आपको रचने वाले उन लोगो को कोई भी इतिहास और वर्तमान दर्ज करता नहीं मिलेगा...आसमान में उड़ती पतंगों को धरती कि गुमनामी से थामे असंख्य नामों कि सूची आपको प्रत्येक रचनात्मक विधा में कही भी मिल जायेगी...|
मसलन मैं स्थान के रूप में अपने शहर बलिया और विधा के रूप में साहित्य को लेता हूँ ....पहली ठोकर साहित्य के नाम को ही लेकर लगती है...हमारे समाज द्वारा कोने-अंतरे में खदेड़ दी गयी यह विधा , आज सरकारी खरीद और बड़े प्रकाशकों के भरोसे साँस ले रही है...लेखक और पाठक दोनों छटपटा रहे है....ऐसे में बलिया जैसी छोटी जगह में पाठकों के भरोसे साहित्यिक पुस्तकों कि दुकान चलाने कि कोशिश अविश्वसनीय लगती है...लेकिन सरस्वती पुस्तक केंद्र के मालिक श्री राजेंद्र प्रसाद इस अविश्वसनीय कारनामे को पिछले तीस सालो से करते आ रहे है...उन्होंने अपने साथी दुकानदारो कि बदलती प्राथमिकताओ को देखा है...किताबो कि दुकानों कि जगह मोबाईल , कोका-कोला, और अंकल चिप्स कि दुकानों ने ले लिया है और जिन कुछ दुकानों में किताबे बिकती है, वहा भी पाठ्य पुस्तकों की जगह श्योर सीरीज और पाकेट बुक्स ने ले ली है...
राजेंद्र जी की यह दुकान मुख्य सड़क से चार बार विस्थापित होते-होते , साहित्य की ही तरह, एक गली के कोने - अंतरे में सिमट गयी है...जो चीज नहीं सिमटी है वह है उनका जज्बा और हौसला...इस छोटी सी दुकान का बलिया में होना हमें दिल्ली , भोपाल, इलाहाबाद और पटना जैसे साहित्यिक केंद्र में होने जैसा नवाजता है...यहाँ आने वाले साहित्यकार /पत्रकार पुरोधाओ में सर्व श्री केदार नाथ सिंह, शिवमूर्ति, विनय विहारी सिंह, भगवती प्रसाद दिवेदी , शैलेन्द्र, उमेश चतुर्वेदी, श्री प्रकाश ,चितरंजन सिंह और संतोष चतुर्वेदी जैसे कई नाम है.....अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप यहाँ हिंदी की सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक और वैचारिक पत्रिकाए पा सकते है...सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय समाचार पत्र हमारे शहर में इसी दुकान पर उपलब्ध होता है......यह खयाल आते ही कि यदि राजेंद्र जी की यह दुकान बलिया में नहीं होती , हमारी रूह काँप जाती है......बलिया के साहित्य प्रेमियों को इस साहित्यिक पूजा स्थल पर हर शाम देखा जा सकता है....
पिछले तीन दशक का यह सफ़र इस दुकान के आसान तो नहीं रहा होगा...उसमे कई उतार चढ़ाव आये होंगे, लेकिन राजेंद्र जी एक सामान्य पुस्तक विक्रेता कि तरह ही मुस्कुराते हुए कहते है "किताबो के अतिरिक्त और किसी भी चीज की दुकान खोल लेने का विचार तो मेरे सपने में भी नहीं आता"...उनकी दृढ़ता को देखकर प्रतिबद्ध नामों की सूची में कुछ और जोड़ने की ईच्छा होती है....उन बड़े नामों के नीचे इस तरह के नाम को रखने में क्या हर्ज हो सकता है ? क्योकि ऐसे ही लोगो ने तो इन बड़े नामों को अपने कंधो पर उठा रखा है...कवि मित्र संतोष चतुर्वेदी कि पंक्तिया है " ये मजदूर हैं / थकते नहीं / मिट्टी के बने मजदूर / मिट्टी कि तरह अपना अंतिम दंश / झोंक देते है / पेड़ो कि हरियाली में चुपचाप |".....
रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो. न.. 09450546312
सबसे पहले तो ब्लागर के रूप में इस नए अवतार के लिए आपको मुबारकबाद ...अब मेरे जैसे काहिल "लेखकों" .(.दरअसल लेखक से कोई भ्रम न हो इस लिए मै अपने आपको की-बोर्ड हीटर कहलाना ज्यादा पसंद करता हूँ )..के लिए आप अपेक्षया अधिक सुविधापूर्ण ढंग से उपलब्ध हो गये..आप की बात से जयादातर सहमत होने के बावजूद कुछ चीजें जो मेरे ख्याल में थोड़ी तारिकी में रह गयीं जान पड़ती है उन पर आपकी नज़र-ए-रोशन बख्शने की इल्तिजा करूँगा ..अव्वलन तो यह कि "साहित्य और इसकी पठनीयता पर मंडराता संकट " तकरीबन "गरीबी हटाओ" के मानिंद एक नारे में तब्दील हो चूका मौजु है ..यहाँ यह काबिल-ए-गौर है कि मौजूदा वक्त में पहले से कहीं ज्यादा इफरात में साहित्य हमारे इर्द-गिर्द अपनी पूरी शिद्दत के साथ मौजूद है ..पहले से अधिक लघ-पत्रिकाएं ,जर्नल न केवल प्रकाशित हो रहे हैं बल्कि आश्चर्यजनक रूप से बड़ी तादाद में पाठकों द्वारा पढ़े भी जा रहे हैं ..मै समझता हूँ कि अज्ञेय की हिंदी-प्रतीप रही हो या सारिका या फिर भारतीजी का धर्मयुग जिसे हमलोग पढते हुए बड़े हुए ..किसी को भी अपने पाठकों का वह आशीर्वाद/दृष्टि/संरक्षण उतनी निष्ठां की मात्र में नहीं मिला जितना आज हंस/पाखी/नया ज्ञानोदय/आजकल /बया..इत्यादि तमाम प्रकाशनों को सहज प्राप्य है ..इतना ही नहीं बढते बाजारवाद /उपभोक्तावाद के आरोपों से असहमति न होने के बावजूद तथा इन चीजों को कोसने वाली एक खास "स्वयम्भू प्रगतिशील बुद्धिजीवी गिरोह" के हल्ले के बावजूद नयी पीढ़ी एक नया उर्जावान लेखक -वर्ग तेजी से पैदा कर रही है जिन्होंने अपनी नयी-संवेदना ,नयी दृष्टि के सहारे निश्चित ही नए मुहावरे गढे हैं ,जो हिंदी साहित्य के स्वयम्भू मठाधीशों के स्व-निर्मित मूर्खतापूर्ण खांचों में से किसी भी एक में फिट बैठने को तैयार नहीं है ...यह तथ्य इन नए उदीयमान लेखकों से अधिक हिंदी साहित्य के इन स्व-घोषित ,स्व-प्रमाणित व स्व-नियुक्त कर्णधारों की सीमाओं को रेखांकित करता है ...लंबा हो रहा है ..शेष बाद में लिखूंगा ..नमस्कार
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंCongrats for new blog... May it takes you to new heights... and nice article
जवाब देंहटाएंवाह... सबसे पहले तो अपने गांव 'सिताब दियारा' के पर इस ब्लॉग के नामकरण के लिए आपका आभार करूं... हार्दिक स्वागत... टिप्पणी जीवंत है। बधाई...
जवाब देंहटाएंसरस्वती पुस्तक केन्द्र से, और राजेंद्र जी से परिचय कराने के लिए आभार. सही जगह नज़र डाल कर आपने अपने ब्लॉग का शुभारंभ किया है. यह फले-फूले. मेरी शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंराजेंद्र जी को सलाम पहुंचे !!
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