गुरुवार, 13 मार्च 2014

युवा कथाकार 'अरविन्द' की कहानी - 'दुःस्वप्न'

                                    अरविन्द 





‘ईश्वर की गलती’, ‘चिट्ठी’ और ‘रेडियो’  जैसी तीन चर्चित कहानियों के बाद युवा कवि/कथाकार ‘अरविन्द’ सिताब दियारा ब्लॉग पर अपनी नयी कहानी के साथ एक बार फिर हमसे मुखातिब हैं | उनकी प्रवाहमय भाषा और कहन के अंदाज का यह कमाल ही है, कि इतनी लम्बी कहानी भी हम एक बैठकी में ही पढ़ लेते हैं | हालाकि अपनी पूर्व की तीनों कहानियों से भिन्न विषय चुनते हुए ‘अरविन्द’ इस बार राजनीति की बिसात को समझने की कोशिश कर रहे हैं | लेकिन इस बार भी वे अपने पुराने विषय ‘प्रेम’ को नहीं भूले हैं | इस बात के लिए हम उनके आभारी हैं, कि उन्होंने एक बार फिर सिताब दियारा ब्लॉग को अपनी नयी कहानी को प्रकाशित करने के लिए चुना है |

            

         आईये पढ़ते हैं युवा कवि/कथाकार अरविन्द की यह कहानी
 
                  दुःस्वप्न


मिस मुस्कुराहट का परिचय


लोग नहीं मैं ही कहता हूँ कि मैं मूलतः आवारा हूँ और एक दौर था मुझे केवल मिस मुस्कराहट से लेना देना था .मिस मुस्कराहट एक तरह से मेरी पड़ोसन थीं .और मेरे पिताजी के चीफ की दूसरी बेटी भी .और उनकी अम्मा , सॉरी! मम्मा जो तीन बच्चों के बाद मोटापे के एक बहुत अच्छे सांचे में ढल चुकी थीं ,नजदीकी ब्यूटी पार्लर की शान और संचालिका थीं  .खासकर खूब चटक रंगों वाले लिपस्टिक अपने होठों पर उसकी आत्मा को घिसते हुए लगाती थीं .और होठों के किनारों पर बेहद बारीक आउट लाइनर देखने वालों को अपनी सीमा में बांध लेता था  .वे जब किचन के नाजुक पसीने वाली गर्मी में होती थी तब भी उनके चेहरे की गरिमा से वे सारी चीजें नहीं उतरती थीं .मैं सोचता हूँ कि  वे मेक अप उतार कर ही सोती होंगी .लेकिन वहां तक मुझे नहीं पहुचना हैं .मुझे तो बस मिस मुस्कराहट तक ही रह जाना है .हाँ !तो मिस मुस्कराहट के चेहरे पर भी अपनी मम्मा के गुणों की वे सारी परछाईयाँ थीं जिसका लेखा जोखा और पूर्वानुमान कोई पहले भी लगा सकता था .ऐसा जानिए कि दोनों एक ही कसौटी पर दो अलग अलग उम्र वाली थीं.मिस मुस्कराहट के बारे में आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि वे कुंवारी थी .मतलब शादीशुदा नहीं थीं .ऐसा मैंने एक घटना के बाद निष्कर्ष निकाला था .और हलके पाउडर या क्रीम वाले चेहरे के साथ अपनी मम्मा की ब्लेक एंड व्हाइट संस्करण लगती थीं.लेकिन वह चीज जिस पर मैं बेहोश होने की हद तक फ़िदा था वह थें उनके होंठ .इतने पतले कि जैसे होठ होने की औपचारिकता भर पूरी कर रहें हों .नक्काशी दार .और बेहद मुलायम भी थे ,यह मैंने कहानी के अंत में छूकर देखा था .इस क़यामत वाली जगह पर लिप लिक्विड लगाती थीं.वह लिक्विड वहां उन रसों की उत्पत्ति कर देता था ,जो कभी कभी दायें या बाए भाग रहे होतें थे. उनके होठों के ठीक ऊपर बाए तरफ जो काला तिल था ,उसे शायद मेरी नजर ने पैदा किया था .क्योंकि मैं मानता हूँ कि पहले वे नहीं थें .यह तील मेरे अन्दर एक साहस पैदा करता था .वह एक ऐसी चीज थी कि मुझे लगता था मिस मुस्कराहट बाखुशी मेरे नाम कर सकती थी.लेकिन बस लगता रहा .और इसी नीव पर दुःस्वप्नों की शुरुआत होती है .जो रिसकर मेरे यथार्थ में भी टपकने लगते हैं .आप को कोई अतिरिक्त आनंद आये इससे पहले मैं बता दूँ कि कहानी अपनी शुरुआत की तरह खुशनुमा नहीं है .यह एक डरावनी किस्म कहानी है .


मेरा घर                                                                       

                                      
बाबूजी जी स्वभाव से यूकीलिप्टस की तरह एकदम सीधे थे .वे एक लेखा जोखा रखने वाले केन्द्रीय कर्मचारी थे .ठीक ठीक कहूँ तो जो सरकार की लूट-पाट की योजनाओं का हिसाब और बही खाता रखने की जिम्मेदारी थी .हमारा घर उत्तर प्रदेश और बिहार के सीमा रेख पर था .अम्मा आरा जिले से थीं .और हमेशा सीधे पल्ले में रहती थीं .कभी कभी बोलती थीं .उनका बोलना इतना नगण्य था कि आवाज से भरोसा उठा देने वाला था .गाहे बगाहे अम्मा जब भी बोलती घर में मिसरी की परछत्ती छा देती .घर में खट पट एकदम नहीं होती थीं .मेरे घर का जीवन बिलकुल गाँधी जी के भोजन की तरह नमकविहीन खाने की तरह था .गांधीजी का जिक्र इसलिए कि पिताजी गाँधी जी को अन्य देशभक्तों के मुकाबले ज्यादे पसंद करते थें .मैं जैसा कि घोषित आवारा था .इसलिए पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी थी .घर के ताखों में एकाध श्योर सीरिज के अलावा जो जो दो चार किताबें थीं ,वे पिता जी की थीं .जिसपर मैंने गांधी के नाम के सिवा कुछ नहीं पढ़ रखा था .बेहद मन बना कर छुट्टियों में कभी कभार पिताजी उन किताबों को निकालते .और शायद दो चार पन्ने पढ़ कर रख देते थें .बाबूजी दिन भर में मात्र एक पेज से ज्यादा नहीं वोलते थें .अम्मा थी तो आफत विपत के समय ही कुछ कहती थीं .सब कुछ घर में घडी की तरह यंत्रवत चलता था .जैसे आप जब भी आयें सुबह के वक्त हमेशा चाय तैयार मिलती थी .खाने में किस दिन क्या बनेगा निर्धारित था .शुक्रवार के दिन बाबूजी के लिए सैजन की सब्जी बनती थी .सैजन  खरीदना नहीं होता था .कालोनी में ही बगल के पेड़ से तोड़ कर लाया जता था .जिन महीनों में सैजन का सीजन का दिन नहीं होता था उन दिनो  सुरन ,टिंडा,अरुई ,सेम ,ऐसी ही कोई रहस्मयी सब्जी बनती थीं .बाबूजी जब शाम में आते थें तब अम्मा कोई न कोई हलवा जरुर बना के रखते थीं .मान लीजिये किसी दिन वे न ही आये तब भी आप शाम में हलवा बना मिल जाता था .अगले दिन भी यह जानते हुए कि पिताजी नहीं आयेंगे ,ढलती हुई शाम में हलवा मिल सकता था .कोई विशेष कारण नहीं, बस इसलिए कि यह आदत और दिनचर्या का अटूट हिस्सा बन चुका था .शनिवार चोखे और खिचड़ी का दिन था .माँ चोखा इतना लाजवाब बनाती थी कि मैं मान बैठा था कि उसकी पसंदगी अगर होगी तो यही है .घर इतना सादगीपूर्ण था कि जैसे शनिवार के दिन दूरदर्शन पर शाम चार बजे आने वाली कोई पुरानी ब्लैक एंड वाइट फिल्म का संस्करण  .सब कुछ मजे में और दुरुस्त था कि तभी पटना के एक कस्बाई शहर से डेल्ही को अचानक हुए  ट्रान्सफर में एकाएक सब कुछ तहस नहस हो गया .और शायद सीधे सीधे इसका जिम्मेवार मैं साबित हुआ था .यह कहानी इसी संदर्भ में है .


एक सुबह घर से निकलते ही की भूमिका


हम तबादले में जैसे उजड –पजड के आये और फिलहाल एक समय तक डेल्ही मेरे लिए अनजान जगह रही .......................................

मुझ जैसे आवारों के लिए पान की दूकान किसी मंदिर की हैसियत रखता था .हाँथ में जली हुई सिगरेट को अगर आप अगरबत्ती समझना चाहते हैं तो समझ सकते हैं .मैंने कालोनी के बाहर, जहाँ आंटी जी का पार्लर था, उसके सौ मीटर के घेरे में पान की दूकान को अपना अड्डा बना लिया था .मैं घर की बजाय वहां ज्यादा मिल सकता था .अगर नहीं मिलूं तो मेरी सायकिल का अक्सर वहां खड़े मिल सकती थी .वह इस बात का इशारा करती थी कि मैं कहीं भी होऊं ,जल्दी यहाँ पहुच सकता हूँ .मेरे हांथों और होठों के इर्द गिर्द अक्सर सिगरेट की एक काली गंध मिल सकती थी .मिस मुस्कुराहट का गुजरना वहीँ से एक ख़ास समय के लिए होता था .

                    
अम्मा ,जिनकी हालत कालोनी के चकाचौध से ,ट्रैफिक में फंसी किसी गाय की तरह हो गयी थी ,घर से कम निकलती .चूल्हे चौकों से निकलती तो बरामदे में बैठकर चावल के दाने चुनती .जैसे दुनिया का सारा सुख उसी में समा आया हो .मैंने उनसे कई बार कहा कि अम्मा चलो डेल्ही घुमा लाता हूँ .लेकिन जैसे ही वे चौराहे से आगे बढती ऐसे घबराने लगती जैसे उन्हें दिल का दौरा आने वाला हो .कहती कि बस बचवा यही तक .और कोई सब्जी ली और घर की और लौट पड़ती .कई बार पिताजी ने कहा कि यह आरा नहीं है .यह डेल्ही है बेगम .ये उलटा पल्ले करना छोडो और ज़रा सीधे पल्ले में भी रहा करो .अभी कौन सी उम्र चली गयी है .अम्मा को जवाब देने में कोई दिलचस्पी नहीं थी.वे अपने को ऐसे रखती जैसे कुछ सुना ही नहीं .पिताजी कहते कि मुन्ना इस बार गाँव जाना तो दो बोरा और चावल और लेते आना .और हो सके तो कुछ कंकड़ अपनी ओर से भी मिला देना .इसकी तो दुनिया यही है .और हंसने लगते .

                          
पहले तो मैं अकेले यहाँ वहां घूम आता .चिकनी सड़के और हरियाली ,पोश कालोनियां और उन्मुक्त लडकियां मन को मयूर बना देती थीं .राजधानी के आस पास रहने का अलहदा एहसास अब जीवन में कायम होने लगा था .पढ़ना तो था नहीं .लेकिन राजीनीति शास्त्र जैसे विषय लेकर मैंने पढने का कोरम शुरू कर दिया था .वह इसलिए कि मन में कभी कभी ख्याल आता था कि आगे चलकर चुनाव लड़ा जाएगा .जैसा कि हमारी भारतीय राजनीति की बुनियादी योग्यता एक आकड़ें में दिखने लगी थी .यह एक हौसला दायक आकडा था कि क्षेत्र के जितने आवारा थे वे बाद में अपराधी भी घोषित हुए थे और फिर हत्यारे की योग्यता हासिल की .और जेल से विधायकी का चुनाव लड़ा और जीत गएँ .मेरा मकसद इतना बड़ा नहीं था पर यह जरुर था कि कुछ नहीं तो कम से कम लोकतंत्र की छोटी इकाई प्रधानी पर तो जरुर हाँथ आजमाऊंगा .पिताजी ने अगर साथ दिया तो प्रमुख का चुनाव भी लड़ा जा सकता था .और इसके लिए कम से कम बेसिक जानकारियाँ जरुरी थी .मसलन विधायिका क्या है ? संसद कैसे काम करती है ? हमारे लोकतंत्र क्या है ? और योजनायें कैसे बनती हैं ? और उसपर हमारे नौकरशाहों और जनता के प्रतिनिधि लूटपाट का कैसे गणितीय मिथक रचते -रचाते हैं . इन सभी कामों का विश्लेषण मेरे लिए अहम् था .इसके उलट किताब पलटते मुझे लगता था कि मेरे पाठ्यक्रम में प्लेटो ,अरस्तु ,मैकियावेली आदि के राजनितिक सिद्धांत एक खुबसूरत गल्प या मजाक थें .इसलिए ये सब व्यक्तित्व मेरे लिए बस एक पौराणिक मिथक भर थे . ये कभी रहें होगे ,ऐसा मानने का मन नहीं करता था . हमारा तंत्र इन सब सिद्धांतों पर कितना आधारित था ,यह भी मैं ठीक ठीक नहीं जानता था .और इन विद्वानों का हमारे निजी जीवन से,उसके दर्शन और गणित से कभी सम्बन्ध रहा होगा ,इस बात से मैं इनकार करता रहा .हमारी सरकार, संस्थान ,योजनाओं और उसके क्रियान्वयन से आकडा छतीस का ही था .हमारी सरकारी योजनाओं के यथार्थ में ऐसे कई गणितीय धोखें थे जो अपने निष्कर्षों में किसी जादुई यथार्थवाद की तरह साबित होने वाले थें.
खैर  !


अभी तो मेरे खेलने खाने और गाने के दिन थें .मैं चादनी चौक चला जाता .कनाट प्लेस घूम आता था .दरियागंज चला जाता .वहां पटरियों के अगल बगल कई साहित्यिक पत्रिकाएं और महत्वपूर्ण किताबें धूल खाते खाते जर्जर हो चुकी थी .उसके अगल बगल से शानदार गाड़ियां और लोग जाते थें .ऐसी गाडिया जो केवल और केवल महंगे शब्द में अर्थ भर देने के लिए बनी थी ,उसके ऊपर से गुजर जाती रही .और विक्रेता की उब और खीज देखकर ऐसा लगने लगता था कि वह दिन जल्दी ही आने वाला है जब वह इन सब पोथियों को उठाकर वह नजदीक वाले बस स्टैंड पर मूंगफली वाले को बेच आयेगा .और कोई बुद्धिजीवी अनजाने में उसपर मूगफली लेकर टूंगता हुआ बस मे चढ़ जाएगा.और सिगरेट के छल्ले बनाएगा .और किसी मोड पर वह उस कागज को ,जिसपर किसी राजनितिक व्यक्तित्व का विचार लिखा रहेगा,को दोनों हथेलियों के बीच रगड कर खिड़की के बाहर फेंक देगा . वह पन्ना सड़क पर किसी झोंके से उड़कर पहले तो विचार से निकलेगा फिर सीधे सभ्यता से निकल कर ब्रहमांड में गुम जाएगा.और जिस दाढ़ी वाले आदमी का उस कागज पर चित्र है ,उसका नाम मार्क्स है .कहते हैं कि एक दिन उसके बल पर किसी देश में क्रान्ति हुई थी . सरकार बदल गयी थी .वैसे ही जैसे अपने यहाँ गांधी ने किया था .और देश आजाद हुआ .सब कुछ के बावजूद गांधी क्रांतिकारी कभी नहीं कहलायें .भारतीय संदर्भों में जो क्रांतिकारी कहलायें वे फांसी चढ़ने वाले थें .आजादी मिली ,ऐसा हम पढ़ते आयें हैं .लेकिन लोग समझ नहीं पायें कि आजादी किस चिड़िया का नाम है .और बुद्धिजीवी इसकी अलग अलग हसीन व्याख्या करते रहें ,जो आज तक जारी रही .जो नियम हमने लोकतंत्र के नाम पर लागू किये थे ,वह नियम कम और नाटक ज्यादा था .कागजी खानापूर्ति के बोझिल नाटकों के साथ न्याय जैसे किसी कहानी का जादूई   करतब भर  था .जिसका असर तभी तक रहता था जब तक हाँथ में पैसे थे. अम्बेडकर,हिगेल ,सिमोन,देरिदा ,फूको ,के विचार जो उसी फुटपाथ वाली किताबों में रचे बसे अपने भारतीय दिन का इन्तेजार कर रहे थे . उन स्वपनों पर कोई दुनिया कायम होगी  .लेकिन मौजूदा माहौल में यह ख्याल ही एक छलावे की तरह लगता था .और कुछ हो न हो , कोई आये या न आये ,लेकिन कम से कम इन किताबों को उद्धार के लिए कोई आयेगा या नहीं , यह भी मुझे ठीक से पता नहीं था  .और मुझे इन सबमे जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ कोई दिलचस्पी नहीं थी .आते जाते नजर पड़ जाती थी . तो बस एक सोचना भर हो जाता था . मैं था कि दिन भर उस पान के दूकान के सिवा जहाँ भी रहा भटकता रहता .बाते मैं और लिखूंगा पर उसके पहले एक बहुत सज धज कर आती सुबह पर एक नजर जो मेरे जीवन के रंगत को पलट कर रख देने वाली थी .


एक सुबह घर से निकलने के दृश्य में एक ब्रेक जो किसी पूंजीवादी विज्ञापन की तरह खुबसूरत है ....

                    
उस सुबह उठकर मैंने पाया कि सिगरेट ख़त्म हो गयी है .और दिमाग के धुन्धुले भाप को पोछने के लिए उसके गर्माहट की तलब होने लगी थी .मैं चुरा कर पीता था .कारण थे पिताजी .पिताजी किसी भी मादक द्रव्य से न केवल परहेज करते थे बल्कि एक आधे घंटे के ऊपर तक इस पर भाषण भी तैयार कर रखा था .हो सकता है कि इन सब बातों पर गांधी जी का असर रहा हो .मैंने पूछा नहीं था .बस एक अनुमान भर लगा रखा है .क्योंकि गाँव में जिस किसी भी व्यक्ति को ऐसा करते देखते उसे बाकायदा बुलाकर उपदेश की घुट्टी पिलाते थे .लेकिन मेरे जाने में उनकी बातों का असर रत्ती भर नहीं होता था .खैनी खाने वाला इतना जरुर करता था कि जब भी वह हंथेली को मलता आगे पीछे देख जरुर लेता कि पिता जी है या नहीं .

                       
उस सुबह जब पान की दूकान से जब मैं घर की ओर बढ़ रहा था तब मिस मुस्कुराहट को देखा .यह मेरा पहला देखना था .सुबह की नहाई हुई. जिसे विद्यापति ने सद्यस्नात कहा है .बालों में हलकी कंघी फेरे हुए .स्कूटी से जाते हुए .स्कूटी लाल रंग की थी .लाल रंग की यह स्कूटी बनाने वाले कंपनी का मालिक जैसा कि हमेशा होता है ,एक पूंजीपति था .और उसे लाल रंग से बहुत लगाव था .उसके आंकड़े बताते थे कि यह रंग भारतीय संदर्भों में बेहद शुभ और पूजनीय है . और इस रुझान को देखते हुए उसने इस रंग की बनावट कुछ ज्यादा करनी शुरु कर दी थी .कुछ ऐसे ही समीकरणों से पूंजीपति घर की बेटी मिस मुस्कराहट भी थीं . जैसा कि बता चुका हूँ कि मिस मुसुकुराहट के डैड उसी विभाग में एक बहुत बड़े पद पर थें ,जस विभाग में मेरे पिताजी थें .वे उनसे कई पायदान नीचे थें .मिस मुस्कुराहट के डैड ने बहुत सारी प्रोपर्टी बना रखी थी .उस रुपयें का पेड़ उगाने वाली नौकरी के साथ उन्होंने कई सारी एजेंसियां अपने नाम से ले रखी थी .इसके अलावा उनका दिल्ली जैसे इलाके रियल स्टेट का करोडो का कारोबार था .पान वाला बताता है कि अभी दो साल पहले शादी में अपनी बड़ी लड़की को उसने कोई जगुआर दी थी . मैं मिस मुस्कुराहट को इस पूंजीवादी नजर से तो देखना नहीं चाहता था पर असर तो सामने आ ही जाता था . उस दिन बेहद हलकी और मुलायम धूप थी .ऐसी धूप जिसमे किसी चीज की ठीक ठीक परछाई तक न बन पाए .इसलिए ठीक से नहीं बता सकता कि उसके प्रेम की मेरे अन्दर परछाई बनी थी या नही , लेकिन ऐसा देखते ही लगा था कि बस इसी लड़की की तो अपने अन्दर कही खोज थी .वह कालोनी के मोड के पार्लर पर रुकी अन्दर गयी जो उसकी मम्मा का था और एक हैण्ड बैग के साथ बाहर आई .उसने हैण्ड बैग को अपने बांहों में लटकाया और चल दी .बाद में पता चला कि वह हैण्ड बैग कोरियन था .और सांप के चमड़े का बना था .वह पान की उस दूकान से होते हुए गुजरी .जहाँ अब मैं खडा था .सिगरेट के कश लेते हुए मैंने महसूस किया कि नशे की गहराई दुगुनी हो गयी है .इसके साथ ही मैंने यह भी नोट किया वहां दुकान पर खड़े हमउम्र लड़कों में एक चमक सी आ गयी .यह दृश्य बिलकुल वैसे ही था जैसे हम किसी स्कूटी के विज्ञापन में किसी ख्यात अभिनेत्री को टेस्ट ड्राइव करते हुए देखते हैं .
                          

कुछ सवाल रह रह कर मेरे जेहन में उठ जाते हैं .जैसे प्रेम क्या पूंजी पर सीधे सीधे आधारित है ? अगर नहीं तो क्या प्रेम को पूंजी अप्रत्यक्ष रूप से चुटकी भर नमक जितना भी प्रभावित करती है .अगर आपका उत्तर सकारात्मक रूप से दशमलवाश भी आता है तो अपनी बात कहने की एक जगह बन जाती है .मैं हमेशा से यह सोचता रहा कि प्रेम में दिए गए उपहारों में एक गुलाब महत्वपूर्ण है या कोई विमान ? हमारे जीवन में संसाधन जो कि पूंजी की ही उपज है ,कितने जरुरी है .हमारे द्वारा बनाया गया समाज में कोई न्यूनतम और अधिकतम उपभोग का कोई मानक है ? आप हंस सकते हैं पर मैं इस बात को प्रेम के संदर्भ में सोचता हूँ कि मान लीजिये कि मिस मुस्कराहट को मुझे कुछ देना ही हुआ तो दो समानधर्मी प्रेम वाले दो लड़कों में (जिसमे मैं हूँ और मेरा रकीब है ) वह किसे वरीयता देगी? पहला प्रेमी ताजमहल बना देता है और मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है ( रखना तो नहीं चाहिए पर चलिए एक शर्त भी रख देते हैं कि दोनों को वह उतना ही चाहती है ) ? 

                           
यह मैं इसलिये कह रहा हूँ कि मिस मुस्कराहट ने गली के आखिरी मोड पर जहाँ एक ब्रेकर है वहां अपनी स्कूटी रोक दी है .वहां एक लड़का है जो इन्तेजार में है .वह यामाहा की एक महँगी मोटरसायकिल पर है .वहां रुककर वह उससे कुछ देर तक बात करती है .और अपना आई पोड जो दिखाई तो नहीं दे रहा पर यक़ीनन किसी शानदार कंपनी का होगा ,उसे देती है .लड़का उसे अपने कान में लगाता है और दोनों चल देते हैं .हो सकता है कि वह इयर फोन उसी लडके का रहा हो .हो सकता है कि वह मिस मुस्कुराहट का ही रहा है .हो सकता है कि वे दोनों एक ही कालेज में पढ़ते हों .हो सकता है कि वे एक ही इयर में हो .हो सकता है वे दोनों प्रेम में हो .और हो सकता था कि मेरे साथ प्रेम की कभी संभावना भी बने तो मेरी स्थिति त्रिकोण के उस सिरे पर रहे जहाँ से मिस मुस्कराहट की दूरी अनंत पर बैठे .जिसे मेरी अदनी सी सायकिल पूरी न कर सके .



एक शाम शराब के नाम ....चीफ की दावत...एक छोटा सा –मजाक     
                                 

लोग कहते हैं और मैं मानता भी हूँ कि धर्म के बाद नशे में शराब का नशा सबसे बुरा है .लत लग जाए तो जीवन या तो तबाह कर देती है.कुछ परम शराब भक्त कहते हैं कि बना भी देती है  .शराब सदियों से मशहूर शायरों ,कलाकारों, और बुद्धिजीवियों के चिंतन का सहारा रहा है .यह धरती पर मिलने वाली सबसे ख्यातिलब्ध चीज थी .प्रखर मार्क्सवादियों ,पूंजीपतियों के साथ साथ मजदूरों का भी संबल रही है .यह वर्ग अंतर जरुर रहा है कि जहाँ ये लोग वोडका ,व्हिस्की ,रम इत्यादि के विदेशी ब्रांड पीते रहें वही मजदूर जैसे रिक्शाचालक ,सफाई करने वाले ,चौकीदार ,कुली ,ठेला वाले,बेलदार ,इत्यादि ठर्रे ,महुए ,ताड़ी और जहरीली शराब पीते रहें . जहाँ तक मुझे पता है कि गांधीवादी चिंतन में यह तरल पेय सिरे से गायब है .लेकिन उस शाम की बात है जब मैंने भी इसकी शरुआत कर दी थी .इसकी सीधे सीधे वजह पिताजी थे .और पिताजी के लिए वजह मिस मुस्कुराहट के डैड !
                                                     

जैसा कि मैंने पहले बताया था कि पिताजी केन्द्र की एक नौकरी में लेखा जोखा अधिकारी थें .और मिस मुस्कुराहट के डैड भी उसी विभाग में ऊँचे पद पर थे .सीधे सीधे वे चीफ की हैसियत से थे .पहले तो मुझे नहीं पता था .लेकिन एक दिन सुबह की सैर से लौटते हुए मुझसे इस बात का जिक्र पिताजी ने उनके आलिशान घर को दिखाते हुए कहा था कि वह देखो मेरे चीफ का घर .और फिर वे चुप हो गए .उस चुप्पी के घनत्व में इतना दम था कि एकाएक मुझे लगा कि मैं छोटा हो गया .यह सूचना तो मुझे देर सवेर मालूम चल ही जाती  .लेकिन मुझे दिखाकर अचानक चुप हो जाना ,मुझे साल गया .मैं जानता था कि पिताजी इतने नेक थे कि किसी का अनर्गल पैसा लेना नहीं चाहते थे .जिसे कि हम घूस कहते थे .अगर लेते तो बस एक इशारे से इतनी रकम तो कमा ही लेते कि गाँव से जुड़े किसी अच्छे कस्बे में अच्छा सा देखने लायक मकान बन जाता .उस दिन पिताजी क्या कहना चाहते थे .उनकी चुप्पी का कई सारा अर्थ था. उस आलिशान हवेली के ऊपर जो आसमान चमक रहा था वह चटक नीला था .लेकिन वही आसमान वहां से कुछ दूर की झुग्गी झोपड़ियों पर भी चमक रहा था .मैं सोचता था कि एक ही समय दो अलग अलग जगह चमकता वह आसमानी टुकड़ा किसी समय की व्याख्या के लिए कितना महत्वपूर्ण था .बिलकुल पिताजी के चुप्पी की तरह .

                        
एक फीके दिन की एक शाम जब वे घर आये तो थकान में डूबकर बरामदे वाली कुर्सी पर पसर गएँ .शाम में माँ हलवा रख गयी .देर तक बैठे रहे .बरामदे में शाम भरती गयी .और रात हो आई .मैं ढली रात जब घर आया तो माँ ने कहा कि शायद पिताजी की तबियत ठीक नहीं है .जाकर पूछ लो कोई दवा तो नहीं लानी होगी .मैं गया और उनकी तबियत के बारे में पूछा और देर तक बैठा रहा .खाना खाने के बाद भी बैठा रहा .जब सोने के लिए अपने कमरे में जाने लगा तो उन्होंने कहा कि मुन्ना ! किसी शराब का नाम जानते हो .कौन सी शराब सबसे अच्छी होती है .
                          

दफतर में बात ही बात में पिताजी के चीफ ने घर में दावत रखवा ली थी  .जैसे कि होता है अक्सर चीफ तानशाह होते हैं .मिस मुस्कुराहट के डैड भी उसी में से एक थे .पिताजी से उसने यह कह रखा था कि पार्टी में शराब उसी तरह जरुरी होनी चाहिए जैसे कि पूजा में अगरबत्ती .और सब तो ठीक था .पिताजी सहर्ष राजी थे .पर शराब की बात से वे बिदक गए .उन्होंने कहना चाहा था कि साहेब और सब तो ठीक पर मैं शराब पीने पिलाने की दूर उसके बारे में सोच भी नहीं सकता .बस यही बात उनके गले में अटक कर फांस बन गयी .चीफ के सामने निकल ही नहीं पायी .और इसी सोच में वे देर तक बैठे रहे .बाद में जब उस चपरासी के माध्यम से यह बात कहलवाई ,जो रिश्वत लेने में दलाली का काम करता था ,तो चीफ हँसने लगे .’’अरे पीता नहीं है तो पिला तो सकता है ‘’सुनकर पिताजी की कनपटी की एक नस तनाव में तन गयी .कोई और दिन और कोई और आदमी होता तो पिताजी कान के नीचे एक दे देते .पर एक मिनट पिताजी हिंसा में विश्वास नहीं करते थे .तब ?तब वे क्या करते मुझे सोचने के लिए कुछ समय चाहिए .

                                                                                    
अगले दिन मैं दौड़ता रहा .घर की सजावट अति सामान्य थी .लाफिंग बुद्धा के सिवा  अनर्गल कोई ऐसा सामान नहीं था,जिसकी जरुरत न लगे .सबकी जरुरत थी .परदे ,चादर भी थे पर महंगे नहीं थे .स्टेट्स सिम्बल का एक जर्रा तक न था .खादी की उपस्थिति विशेष थी .माँ को ऐसा कोई ज्ञान और शौक नहीं था जिससे वह सिलाई कढाई बुनाई जैसा कोई गुण रखती .मैं चादर ,परदे .क्रोकरी ,चाय के अच्छे बरतन ,कालीन ,शराब पीने के ख़ास गिलास , ख़ास नमकीन ,सोडा,मुर्गे ,अंडे मछली आदि इत्यादि सामान  खरीद लाया था .यहाँ तक कि घर में फ्रिज जैसी सर्व साधारण चीज नहीं थी .तो अलग से बर्फ भी लानी पड़ी थी .मेरे घर में एयर कंडीशन भी नहीं था .अलबता बोनस के पैसे से कूलर का जुगाड़ जरुर हुआ था .पिताजी के विभाग में ऐसे कई पहुंचे हुए चपरासी थे जो केवल  दलाली की बदौलत अच्छी रकम बटोर चुके थे .और सुख के वे सभी साधन जुटा चुके थे जो हम लोग सोच तक नहीं सकते थे . खैर ! माँ के साथ मैं घर की सजावट में लग गया था .इन सभी कामों में उस दलाल चपरासी ने काफी मदद की.कहा जाए कि निर्देशन किया था.

                                  
रात के करीब नौ बजे चीफ और उनके दोस्त आये थे .तब तक हम दिन भर के कामों से थककर चूर हो गए थे .वे पहले से ड्रिंक किये हुए थें .बरामदे में जहाँ थोड़ी सी उचाई है वहां उनका दोस्त लडखडाया था ,जिसे मैंने लपक कर थाम लिया .चीफ ने कहा कि करमचंद  बहुत प्यारा और फुर्तीला बेटा है तुम्हारा .पिताजी ने आगे बढ़कर चीफ का अभिवादन किया था .मैंने गौर किया कि पिताजी की आँखों में अजब किस्म की विनम्रता चमक रही थी .जो बमुश्किल से खिंच तान कर आई थी .चीफ की आवाज कुत्ते और शेर की गुर्राहट की मिली जुली आवाज थी .शराब पीने से उसकी आँखों की लालिमा उसके नीचे फैले कालेपन पर चढ़ आती थी .और भयावह दिखती थी .

                                                
दलाल चपरासी किचेन में मदद कर रहा था . ट्रे वही ले के जाता था .बीच में कुछ घट जाता था तो मुझे बुला लेता था .मैं भी किचेन में ही था .और मिठाइयों को सजाने में मदद कर रहा था .बोतल खोलने और ढालने में मदद कर रहा था .और सामान तो रेडीमेड आ गए थे पर पकौड़े तुरंत बनाकर गरम गरम परसे जाने थे .मछली हल्दी लगाकर रख दी गयी थी .और समय पर मांगे जाने पर तली जानी थी .सो रुककर मैं अम्मा की भी मदद कर दे रहा था . चीफ के चार दोस्त थे जो उसी विभाग से थे .क्या पता वे चीफ से भी ऊँचे पद पर रहे हों .जैसा की बातों से अनुमान लगाया जा सकता था  .और कुल मिलाकर वे बाते कम और हल्ले ज्यादा कर रहे थें .दलाल चपरासी अपने चीफ को छोड़कर और शेष चार दोस्तों के लूट पाट के हिसाब का बखान कर रहा था. वह उनकी औकात बता रहा था .जिसके आगे मैं दब दब जाता था और अम्मा सहम सहम जाती थी .

                             
पिताजी वही निष्क्रिय बैठे थे .और वे जैसा कि मैंने पहले बताया कि बात कम करते थे और जो पियेला है उससे सिवाय उपदेश के कुछ बात कर भी नही सकते थे .अचानक चीफ चिल्लाने लगे .उनकी चिल्लाहट सुनकर मैं अन्दर गया .चीफ ने जैसे ही मुझे देखा अपने पास बुलाया और पिताजी से मुखातिब हुआ  .घर में सोफा एक ही था लम्बा वाला .जिसपर वे चारों बैठे थे .सोफा जैसे दम तोड़ने वाली स्थिति में था .चीफ ने मेरा हाँथ पकड़ा और पिताजी से पूछा कि बताओ तुमने अपने बेटे के भविष्य के लिए क्या योजना बनायी है .कितनी जमीं है .कितने की पालिसी है.कितना इन्वेस्ट किया है ? भगवान् न करे मान लो कल तुम मर ही गए तो सोचा है कि बीवी बच्चों का क्या होगा ?इसीलिए कहता हूँ कि हाँथ धोकर बस कमाओ .पैसे तुम्हारे सर के दायें बाएं से होकर जा रहे हैं .बस पकड़ लो .अपना नहीं सोचते हो तो बच्चों का तो सोचो .गाँव में कम से कम एक पक्का मकान बनवा लो .जानते हो तुम्हारे एक साइन की कीमत तुम्हे लाखों में मिल सकती है .करना कुछ नहीं है .फसना –फसाना कही नहीं है .अरे ऊपर हम लोग किस दिन रात के लिए बैठे है ...क्यों भाई ! उसने सामने बैठे अपने दोस्त की ओर देखते हुए कहा था ,जो नशे में धुत्त था .जाओ बेटा सोडा ले आओ कहकर उसने मेरा हाँथ छोड़ दिया और शराब की बोतल पकड़ ली .मैंने सोडा ले जाकर दिया और किचेन में लग गया .दलाल चपरासी ने जोड़ा कि साहेब आज पूरा मूड में हैं .चीफ की बात में हरियाणा का बोली का पूरा असर था .एक बार फिर हल्ला हुआ तो मैं फिर गया .क्या देखता हूँ कि चीफ पिताजी को एक शराब की गिलास थमा रहा है .और कह रहा है कि बस थोड़ा सा चखो .मेरी कसम .मेरी बात की तो कुछ कीमत ही नहीं है .पिताजी ने गिलास पकड लिया है .और थामे थामे खड़े हैं कि क्या करें .पीओ यार ...पीओ ..एक घूंट से क्या होने वाला है .दुनिया पलट थोड़े जाने वाली है .मेरा मन किया कि जाकर उसके कान के निचे एक चमाट दूँ .लेकिन क्या किया जाए .मैं आगे बढ़ा और पिताजी के हाँथ से गिलास छीन लिया और चीफ से बोला कि पिताजी नहीं पीते है और नहीं पियेंगें .थोड़ी देर तक शांति छायी रही .फिर चीफ अचानक हँसने लगा .अरे मैं तो बस मजाक कर रहा था .तुम तो बेवजह लोड ले लिए बेटा ! मजाक ! यह कैसा मजाक था .मैं समझ नहीं पाया .और बात आगे न बढे इसलिए मैं चुप रह गया.अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मजाक की भी खोज किसी गंभीर मुद्दे के संधान के लिए किया गया होगा .
                                          

चीफ की दावत रात के दो बजे ख़त्म हुई .इन सभी घंटों में मुझे और घर वालों को घुटन से ज्यादे कुछ नहीं मिला था .चीफ ने जाते हुए पिताजी से कहा कि करमचन्द भाई हमारी भी मदद किया करो .क्या बिगड़ जाता है .साथ में मिल जुल कर रहने में फायदा है .और फिर माता जी के लिए उसने पार्लर का पता दिया .और कहा की जब भी जरुरत हो निःसंकोच चली जाय करें .और घर तो अपना ही है .कभी कभी आया करो आप सब .मुझे पता नहीं कि कोई  चीफ अपने कनिष्ठ को कभी घर भी बुलाता हो .पर शराब माथे पर चढ़ी हो तो जरुर बुलवा देती है .हम हाँ में हाँ मिलाते गए .इस तरह से दावत ख़त्म हुई .घर में सिगरेट, शराब ,मछली की मिली जुली गंध बची रह गयी .जिसे हम जल्दी से साफ़ कर देना चाहते थे .
                                

यहाँ मैं पिताजी की मनोस्थिति का रेखाचित्र नहीं खींचूंगा ,बस आपकी कल्पना के लिए छोड़ देता हूँ .सबके जाने के बाद मैं कमरे में कुछ देर तक पड़ा रहा .फिर जब नीद नहीं लगी तो किचेन में गया और सिगरेट लिया .सामने बोतल रखी हुई थी .उसे पहले एकटक देखता रहा .फिर उठा लिया और सब लेकर छत पर आ गया .सामने दिल्ली की दूर दूर तक चमकती हुई रोशनियाँ थी .मैं देर तक देखता रहा .और गिलास के साथ कश लेता रहा .अचानक आँखों में पानी उतर आया .उसमे सब चमक धुन्धुलाने लगी थी .चाँद अब जर्द पड़ गया था .और उसका इस शहर में कुछ महत्व भी नहीं था .इतनी चमक दमक में वह बीमार सा दिख रहा था .


एक स्वप्न में यथार्थ की दरार
                             
किसी भी किस्म के स्वप्न से लगातार मुझे डर लगता रहा .मैं हमेशा रात भर की एक लम्बी और स्वप्नहीन नीद के पक्ष में रहा. .मुझे जागती दुनिया हमेशा अच्छी लगी ..स्वप्न हमारे अवचेतन को दर्शाते थे .और अवचेतन एक ऐसा अन्धेरा था जो लगातार मेरे यथार्थ का भयानुवाद करता रहा .जैसे बहुत सारी चीजें ऐसी आती रहीं जो रात की नीद हराम कर देती थीं .राजनीति का बहुत कमजोर विद्यार्थी होने के कारण  सारे अधिकार और कर्तव्य भले याद न हो पाते थे या परिभाषाएं एक में मिल जाती थीं पर अलग से मेरा सोचना यह था कि किसी भी नागरिक को कम से कम अच्छे स्वप्न देखने का अधिकार होना चाहिए था .और उसके लिए एक सुन्दर सम्भाव्य यथार्थ .जैसे कि यह स्वप्न मेरे लिए किसी भयावहता से कम नहीं था कि मैं मिस मुस्कुराहट से प्रेम करता हूँ .यह चीज तो थी .लेकिन बस अवचेतन का एक हिस्सा भर थी .इसकी ठोस यथार्थवादी शुरुआत एक दिन की घटना के बाद से शुरू हुई थी .फिर तो स्वप्न से यथार्थ और यथार्थ से स्वप्न की एक लम्बी कड़ी ही शुरू हो गयी .
                             

पहले उस स्वप्न की एक बात जो भुलाए नही भूलती है और इस स्वप्न से सच कहूँ तो मुझे बहुत पहले सीख भी ले लेनी चाहिए थी . लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सका था .उस रात मैंने देखा कि दोपहर का समय है और मैं और मिस मुस्कुराहट दिल्ली की किसी माल में टहल रहे हैं .माल एकदम सूनी हवेली की तरह खाली है .सारी दुकाने सजी हुई हैं .पर दुकानदार कोई नहीं है .सिनेमा होल में फ़िल्में अपने आप चल रही हैं .सारे सिनेमा होल में मैं ही बैठा मिलता हूँ .सीढियां यंत्रवत गतिमान है .मैं देखता हूँ कि मैं और मिस मुस्कुराहट उस पर आ रहे हैं और जा रहे हैं .मुझे प्यास की तलब होती है .मैं सिनेमा होल के कार्नर में पानी खरीदने के लिए भागता हूँ .वहां कोई नहीं है वहां का दुकानदार मैं ही हूँ .मैं चौक जाता हूँ .वह जो मैं ही हूँ , नहीं चौकता है .मैं खुद से एक ग्राहक की तरह व्यवहार करता हूँ . मैं उससे पानी मांगता हूँ .वह एक बोतल पानी देता है .मैं उसे सौ की नोट देता हूँ .वह भीतर से किसी से छुट्टे की मांग करता है .मिस मुस्कराहट आती है .और वह चेंज मेरे हाँथ पर रखती है .सिक्के जो की मेरी हंथेली पर हैं ,देखते ही देखते बिछुओं में बदल जाते हैं .मैं झटक कर बाहर भागता हूँ .पानी की बोतल वहीँ छुट जाती है .मैं बाहर आता हूँ और सड़कें सुनसान मिलती है .मैं घर की ओर भाग रहा हूँ .रास्ता भूल गया लगता हूँ .एक गली में घुसता हूँ तो गली में गली और गली में गली मिलने लगती है .एक सघन अबूझ अंतर्जाल .मैं आँखें मूंदे भाग रहा हूँ .एक मोड पर कोई मरा सा पडा हुआ लेटा है .मैं उसे के निकट जाता हूँ .और जैसे ही उसका चेहरा देखने के लिए झुकता हूँ वह एक झटके में उठ खड़ा होता है .वह आदमी मैं ही हूँ .दाढ़ी खूब बढ़ी हुई है .और बरसों से जैसे नहाया नहीं हूँ .वह पीछे से मेरी गर्दन पर चाक़ू रख देता है .और जैसे ही दबाव बढ़ने लगता है मैं उसे झटक कर भागता हूँ .गली से आगे निकलते हुए मैं चार आदमियों को जाते हुए देख रहा हूँ .मैं जैसे ही आगे बढ़कर मुड़ कर देखता हूँ पाता हूँ कि वे मेरे ही चेहरे हैं .मुझे मेरा घर सामने दिख रहा है .मैं और जोर लगाकर भागता हूँ .घर का दरवाजा जैसे ही मैं खोलता हूँ वैसे ही मैं पाता हूँ कि मैं किसी भयावह खंडहर में पहुँच गया हूँ .यह खंडहर चीफ के आलिशान घर के हिस्से जैसा है .अचानक एक बड़ी सी गाडी में मुझे मिस मुस्कुराहट मुझे दिखाई देती है .मैं चिल्लाता हूँ .मैं फिर चौक जाता हूँ .ड्रायवर की सीट पर मैं ही बैठा हूँ .वह धुल उड़ाते हुए मेरे सामने से गुजर जाती है .अचानक आगे जाकर किसी को कुचल देती है .मैं दौड़कर आगे बढ़ता हूँ .उस लहुलुहान व्यक्ति को उठाता हूँ .यह पिताजी हैं .और मेरी नीद खुल जाती है .

                         
इतना सन्नाटा है कि घडी की टिक टिक साफ़ सुनाई दे रही है .मैं पसीने से तर बतर इस स्वप्न से इतना भयभीत हो गया हूँ कि कई सारे टुकड़े जैसे यथार्थ में लिथडकर चले आयें हैं .क्षणों के कई अंतराल खुद इस बात को समझाने में निकल जाते हैं कि नहीं यह कोरा स्वप्न है और यथार्थ से रिश्ता दूर दूर तक नहीं .मैं उठता हूँ और किचेन में जाता हूँ .एक गिलास पानी पीता हूँ .और फिर पिताजी के कमरे में जाता हूँ .पाता हूँ कि पिताजी के सांस लेने की आवाज गूंज रही है .यह मेरे लिए राहत की बात है .
                                              
                                                    
उस दिन के बाद मैंने नोट किया था कि पिताजी की चुप्पी गहन से गहनतर होती गयी थी .पहले तो वे घर पर ऑफिस के काम की कोई फाइल नहीं लाते थे .अब लाने लगे थे .रोजाना दफ्तर के अलावा वे अब दो घंटे शाम में काम करते थे .और बार बार अपना चश्मा पोछते जाते थे .हलवा रखा का रखा रह जाता था .बेहद थके से दिखते .तनावपूर्ण चेहरे जल्दी पहचान में आ जाते है .संख्याओं का एक मकड़ जाल था जिसमे वे उलझे रहते थे .मुझे यह नहीं मालूम था कि पिताजी जोड़-घटाना में कैसा और कौन-सा सूत्र लगा रहे हैं .पूछने पर बताते कि किन्ही सरकारी योजनाओं की फाइल थी .एक दिन मैंने देखा कि फाइल के कई बण्डल वे घर ले आये हैं और पूरी आलमारी भर दी है .दिन रात फाइलों में उलझे रहने के कारण उनकी आँखों के निचे काली लालिमा हो आई थी .
                           
                        
एक दिन मुझे एक फाइल देते हुए कहा कि इसे ले जाओ और चीफ के घर दे आओ .पहले तो मैं जाना नहीं चाहता था .लेकिन पिताजी का आदेश था इसलिए जाना पडा .चीफ के घर जाने के लिए एक बड़े से गेट और कुत्तों से होकर गुजरना था .घर में सबसे पहले भेट मिस मुस्कुराहट से ही हुई .मैंने कहा कि यह फाइल साहब को देनी है .उसने एक कमरे की ओर आवाज दी .डैडी! कोई फाइल लेकर आया है .चीफ निकले .वे शेविंग कर रहे थे .मुझे देखते ही उन्होंने बैठने के लिए कहा और मिस मुस्कुराहट की ओर देखते हुए कहा कि इसे पानी वगैरह पिलवाओ.अपने करमचंद का बेटा है . .मिस मुस्कुराहट ने एक मुस्कुराहट मेरी ओर फेकी . ‘’आइये’’ .मैं एक शानदार गेस्ट रूम में बैठाया गया .और किसी को पानी पिलाने के लिए आदेशित कर दिया गया .मिस मुस्कुराहट ने इस बीच मुझसे कई सारे सवाल पूछे .यह जानकार कि मैं राजनीति का विद्यार्थी हूँ ,जोर से हँसने लगी .उसने कहा कि राजनीति कोई पढ़ने की चीज होती है .मैंने कहा कि और क्या ! उसने जो कुछ बताया वह चौकाने वाली बात लगी .उसने कहा कि राजनीति पढ़ने की नहीं , करने की चीज होती है .पढ़ने और पढ़ाने वाले लोग अमूमन राजनीति में भाग नहीं लेते हैं .उसने कहा कि दो चार दिन में उसके कोलेज में एक फंक्शन है.वह नाटक में भाग ले रही है और मुख्य भूमिका में है . और मुझे जरुर आना चाहिए .उसने यह भी कहा कि मैं चाहती हूँ कि तुम कोई उसमे रोल करो .मैंने वादा किया कि आऊंगा और भूमिका निर्वहन के बारे में सोच कर बताउंगा .
                              

नाटक शेक्सपियर का था .मैकबेथ .और प्रेतात्माओं की उपस्थिति में कुछ पात्र कम पड़ रहे थे .सो उसने कहने पर और कुछ मेरी रूचि भी थी .मैंने हामी भर दी थी .डेल्ही  कॉलेज के उस स्कूल का ऑटोडोरियम बेहद भव्य था .उसका कैंटीन और बन रहे उसमे पकवान , रुचिकर थे .वहां के टेबल और मेज पर चाय पी रहे लडके और लडकियाँ दुनिया जहाँ की बाते कर रहे थे .जिसमे  सर्वाधिक उच्च सुर दुनिया को जल्दी से बदल देने के बारे में था .इसके सिवा बात बात में हंसी और मजाक से फूटते हुए गुब्बारे थे .मैंने वहा बैठकर बातें सुनी .वहां मेरे राजनीति विषय के ख्यातिलब्ध विद्वानों के अलावा भी कई महान कवि ,दार्शनिकों ,विचारकों ,संगीतकारों और कलाकारों की बातो को कोट किया जा रहा था.मैं नहीं समझ पाता था कि इतने जहीन विचारों वाले विद्यार्थी आखिर कॉलेज से निकल कर कहाँ जाते हैं. अगर ये ऐसे ही विचारों से लैस होकर जब जाते हैं तो क्या वे सिस्टम का एक हिस्सा बन जाते हैं .क्योंकि जितना सुन्दर इस कोलेज में उत्पन्न और चलायमान विचारधाराएँ थीं उतना ही कैम्पस से बाहर का वातावरण दूषित था . हमारी नाटक की टीम अक्सर वहां बैठती थी .वहां हम (जिसमे मैं चुप ही रहता था ) नाटक के संक्षिप्तीकरण से लेकर उसके बहुलतावादी अर्थों बहस करते थें
                                    
नाटक का वह हिस्सा और दृश्य जहाँ मुझे आना है वहां एक लम्बे टेबल पर मोमबत्तियों की जलती हुई श्रृखलायें रखी हुई हैं .कुछ ऐसा परिदृश्य तैयार किया गया है कि परदे पर खिंची आकृतियों का उतार चढाव राजमहल की दीवारें जैसी लगी .और लेडी मकबेथ की भव्य भूमिका में मिस मुस्कुराहट को वहां से गुजरना है .लगभग अर्धनिद्रा में .कदम थोड़े से लड़खडाते हुए पड़ने थे . सारी पोशाक पाश्चात्य तरीके की हैं .मिस मुस्कुराहट पहले से ही सादगी के ओज में ढाती रहती थीं .मेकअप के बाद तो वे और जानलेवा साबित होती थीं .होठों के बाएं सिरे पर अलग से कोई कृत्रिम तील लगाने की कोई जरुरत नहीं थी .खुदा ने पहले से बक्श रखा था .जो किसी बुरी नजर की ताकत को त्वचा को छूने से पहले ही सोख लेता था .इस मोमबत्ती वाले हिस्से में लेडी मैकबेथ को लहरा कर चलना था .जिससे मंच के ऊपर हिसाब किताब से प्रकाश और अँधेरे का एक जुगलबंदी चल सके .और ठीक उसी समय मेरी उपस्थिति होनी थी .
                            

लेकिन रिहर्सल की एक दुर्घटना ने मुझे मिस मुस्कुराहट के और करीब कर दिया था .लेकिन इस दरमियाँ मैं मैकबेथ की भूमिका वाले लडके का परिचय देना भूल ही रहा हूँ जो इस कहानी में केन्द्रीय हस्तक्षेप की तरह मौजूद था और हमेशा आई पोड कान में लगाए घुमता था उसके पास किसिम किसिम के आईपोड थे .और उनमे भरा था एक रॉक संगीत .मैंने उसका जिक्र पहले ही किया था . यह वही लड़का था जिसे उस दिन मिस मुस्कराहट ने अपने कान से निकालकर आई पोड दिया था .बाद में पता चला कि इसका नाम ही आई पोड था .यह उनके कॉलेज के दोस्तों का दिया हुआ एक निक नाम था .आई पोड के बाल लम्बे और घुघुराले थे .उसके चचा विधायक थे .आई पोड के चाचा और चीफ का जो रिश्ता था .वह व्यापारिक था .इस तरह से मिस मुस्कुराहट और आई पोड के नजदीक आने के हजार कारण बनते थे .मेरा एक कारण था प्रेम जो शायद अभी तक मेरी समझ से भी बाहर था ,वह इन कारणों के बरक्स कितना टिक पायेगा मैं नहीं बता सकता .

                                 
लेकिन एक वजह जो देखा जाये तो मिस मुस्कुराहट मेरे नजदीक आई थी .उस दिन हुआ क्या था कि रिहर्सल में शाम हो आई थी .मैकबेथ अपनी तलवार चलाने की बारीकी और हुनर सीखने में मगन था .और इधर लेडी मकबेथ का रिहर्सल उन जल रही मोमबत्तियों के बीच से होना था .मंच पर भरपूर अँधेरा था .परदे के बीच से कई आवर्तन में घुमकर लेडी मैकबेथ को अपनी पोशाक के लहराव से मोमबत्तियों के प्रकाश को अँधेरे की ओर एक ख़ास दिशा देनी थी .और यह कई बार करना था.इन्ही के बीच समयों में  मुझे  दुसरे परदे की आड़ से चुड़ैलों के साथ निकलना था .और संवाद के बीच अपनी क्रियात्मक उपस्थिति ज़िंदा रखनी थी .हुआ यह था कि उस ख़ास एक्ट को करते वक्त मिस मुस्कुराहट की पोशाक ने आग पकड़ ली थी .मिस मुस्कुराहट चीखने लगी .इससे पहले कि वे बदहवास होकर भागे  और आग अपनी रवानी पर हो मैंने उन्हें पकड़ कर जमीं पर लिटा दिया था .और साथ में लुढ़कते हुए बहुत दूर तक चला गया .यह एकदम फ़िल्मी दृश्य था .

                                                     
यही से मुस्कुराहट का लगाव मेरी ओर हुआ होगा .पहले कुछ ख़ास नहीं थी लेकिन अब मेरे प्रति उसके व्यवहार में एक विशेष नरमी आ गयी थी .इस दुर्घटना से हदसकर निर्देशक ने इसे हटाने का फैसला कर लिया था .जब बात मुस्कुराहट तक आई तो इस फैसले को नकार गयी .उसने कहा कि यह दृश्य ख़ास है नहीं हटेगा .मैं करुँगी .संयोग से मैं वही था और ऐसा कहकर उसने मेरे कंधे पर हाँथ धर दिया था .यह सुखद अनुभूति थी .

                                 
उस रात इस सुखद आधार पर मुझे जो सपने आने चाहिए थे  वे कम से कम इतने डरावने तो नहीं होने चाहिए थे .जब रात में आया तो पिताजी फाइलों में डूबे हुए थे .उन्होंने इस सम्बन्ध में कुछ कहा तो नहीं था पर जहाँ तक मैं समझता हूँ उन्हें यह जानकर कि मैं नाटक में काम कर रहा हूँ ( भले प्रेत का ! )अच्छा ही लगा होगा.कम से कम दिन रात इधर उधर घुमने से तो अच्छा ही था .थोड़ा कमजोर दिखने लगे थे वे इन दिनों .मैंने कहा कि फाइलों में वे ऐसा क्या करते हैं अगर समझा देंगे तो मैं भी मदद कर दिया करूँगा .तुम्हारे वश का नहीं कहकर वे दूसरी फाइल चेक करने लगते थे .
        
                           
उस रात मैंने एक स्वपन देखा जिसका सम्बन्ध शायद यथार्थ से तो नहीं ही था .मैंने देखा कि मैं प्रेत हूँ .सचमुच का .जिसकी त्वचा उधड चुकी है .और यहाँ वहां हर जगह से रिसाव हो रहा है .मिस मुस्कुराहट जो सचमुच लेडी मैकबेथ हैं .और मैकबेथ सचमुच मैकबेथ है .वे अपने राजमहल में सो रहे हैं .राजमहल में आग लगी हुई है .मैं दौड़ता हूँ.और सीढियां चढ़ता हूँ .और वहां पहुंचता हूँ जहाँ मकबेथ और लेडी मैकबेथ प्रणय प्रसंग के नाजुक चरण में हैं .मैं खिड़कियों पर से होकर चिल्लाता हूँ .वे मेरी और देखते हैं .मुझपर हंसते हुए .मैं अपनी दशा पर तरस खा रहा हूँ .क्या मेरी नियति ही प्रेत होना है .जिसपर वे दोनों हंस रहे हैं .मैं फिर सीढियों से उतर कर सडक पर आ जाता हूँ .इस बार मैं जब राजमहल की ओर पलट कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि वहां अब मेरा घर है मैं दौडकर ऊपर जाता हूँ और पाता हूँ एक कमरे में पिताजी अपनी फाइलों में खोये हुए हैं .मैं चिल्ला रहा हूँ कि पिताजी भागिए ..आग आग आग !!! लेकिन जैसे वे सुनते ही नहीं हैं .और अपनी धुन में फाइलों में गुम हैं .आग उनके मेज तक पहुँच गयी है .वे उसे जैसे देख ही नहीं पा रहे हैं .वह उनके कपड़ों को पकड़ चुकी है .फिर भी वे उसी तरह फाइलों में मगन हैं .तभी मेरी नीद टूट जाती है .वही वैसा ही भयावह सपना ! इसके बाद मैं लगातार सोने का प्रयास करता हूँ पर सो नहीं पाता हूँ .क्या है ये सब ! मेरे डर का क्या कारण है .कितने परतों में वह दबा हुआ है .रात भर सोचने के बाद भी मैं समझ नहीं पाता हूँ .बिलकुल भोर में मुझे टूटकर नींद आती है और मैं धूप के चढ़ जाने तक सोता हूँ .

                                                                 
खैर ! उस दिन अचानक हुई बारिश की वजह से रिहर्सल रद्द करनी पड़ी थी .और फिल्म देखने का प्रोग्राम बन आया था .ठंडी हवा और झंकोरों के बीच यह मस्ताना आईडिया था .हम शहर के महंगे मल्टीप्लेक्स में गए .यह मल्टीप्लेक्स बीते सालों झुग्गी झोपड़ियों को हटा कर बनाया गया था .अब इसके चमक दमक में उन झोपड़ियों की याद भी नहीं आती है .उनकी कब्रें बहुत नीचे होंगी .घुसने के गेट पर एक चौकीदार, जो बुझे हुए चहरे के साथ एकदम निर्वासित और कई रातों से सोया नहीं लगता था ,वह झुकर सबको सलाम करता था .हमारी टीम ने इसओर ध्यान नहीं दिया .हमारी टीम की तो छोडिये ,शायद ही कोई उस ओर ध्यान देता हो .वह चौकीदार किसी परछाई मात्र के आभास से झुक जाता था .अगर ठीक से पड़ताल की जाए तो यह उसी झुग्गियों से निकला हुआ आदमी होगा .बाजार में गुलाम बनाने के अनंत तरीके थे .यह आदमी भी उसी तंत्र और तरीके का मारा हुआ लगता था .

                            
एकबारगी मुझे लगा कि मेरा देखा गया सपना सच होगा .मसलन मैं हर सिनेमा होल में मिलूंगा .लेकिन ऐसा रत्ती भर भी नहीं हुआ .मैंने चैन की सांस ली .हमने एक ताजा मूवी के टिकेट लिया .उस वक्त मौजूदा सिनेमा भी हमारे ख्यालों और तंत्र की तरह अपंग था . ऐसे सिनेमा देखने की जगह अगर हम जमकर एक नीद सो ले तो ज्यादा सेहतमंद साबित लगता था .मिस मुस्कुराहट जो की मेरी बगल की सीट पर बैठी थी ,ने हाँथ आगे बढ़कर चिकोटी काटी .मैं नीद से जग गया .वह हंसी और कहा कि सोने के लिये आये हो .मैंने कहा कि ऐसे सिनेमा देखने से तो अच्छा है कि मैं मर जाऊं .वह हंसी फिर ....तो क्या करोगे .यह सही वक्त था कहने के लिए और मैंने कह दिया कि इससे तो अच्छा है कि मैं तुम्हे ही देखता रहूँ .....देखता रहूँ क्या ? इस तरह मैं सो नहीं पाउँगा .वह जोर से हंसी पर उसकी हंसी परदे पर चल रही गोलियों के बीच दब कर रह गयी .देखते रहो कहकर वह फिर मार धड में गुम  हो गयी .मैं अँधेरे में उसे देखता रहा .बीच सिनेमा में कई बार उसने मुझे देखते हुए देखा .उस अँधेरे में उसकी आँखे मछली की तरह चमक जाती थीं .

                      
रात में हम एक लम्बी ड्राइविंग पर थे .दिल कितने भी गंदे रहे हो ,लेकिन देलही की सड़कें साफ़ और चौड़ी थी .आई पोड अहलुवालिया स्टेयरिंग पर से हाँथ छोड़कर अपना आई पोड के गाने सलेक्ट करने लगता था .सामने कई जगह फुटपाथ पर गरीब बेघर लोग सोये थें .बस एक चूक से मौत हो सकती थी.मुझे अचानक याद आई उस दरबान की ,जिसने मल्टीप्लेक्स में घुसते हुए गेट खोला था .फिर लगा कि जैसे वह कोई और नहीं मैं ही था .फिर उन झोपड़ियों के लोगों की याद आई जिन्हें जबरन बेघर कर दिया गया था .क्या वे सब ही फुटपाथ पर थें? फिर अचानक मुझे लगा कि अगर दो कमरों के उस सरकारी मकान को छोड़ दिया जाए तो मेरा यहाँ क्या है ? एक बित्ते भर की भी तो जमीं नहीं है .पिताजी तो एक पैसे घूस में लेते नहीं .और मैं सौ फिसद आवारा और नकारा .गाँव में भी क्या रखा है ? दो कमरों का मकान .जिसकी ढहती हुई दीवार किसी दुःस्वप्न से से कम नहीं .क्या है मेरे पास जिसके बल पर मैं कहूँ कि मैं सुन्दर स्वप्न और यथार्थ के बीच रहने वाला इस देश का नागरिक हूँ ? न तो मेरे पास इन धनाढ्यों जैसे मेल मिलाप करके घोटाले करके करोडो की संपत्ति है और न ही हजारों बीघे खेत है .फिर भी मेरी स्थिति तो इनसे कई गुना अच्छी है .कम से कम दो वक्त की शानदार रोटी है .हलवा है .अल्लसुबह सिगरेट है .माँ पिताजी है .किराया या सरकारी ही सही ,दो कमरे का घर है .और मेरा पेट भी इतना भरा है कि कम से कम एक अदद प्रेम को अफोर्ड करने की औकात भले न हो .उसके बारे में सोच तो सकता है .लेकिन क्या यही सब कुछ है ? क्या मुझे घर जाकर चादर तानकर सो जाना चाहिए ? फिलहाल तो अफसोस कि मैं यही कर रहा हूँ .घर पहुंचा तो पिताजी फाइलों के बीच सोते हुए मिले .मैंने उन्हें जगाया और कमरे में जाकर सोने के लिए कहा .बत्ती बंद कर दी .रात और गहराती गयी .इस अमावस की रात में डेल्ही और चमक रही होगी .फिलहाल उस देखने की कोई तम्मना नहीं बची है .और आगे जो कुछ हुआ उसमे सपने और यथार्थ इतने घुल मिल गए थे कि उसे अलगाना मेरे वश की बात नहीं रह गयी थी .


दुःस्वप्न  
                             

जैसे कि यह जो हुआ था सपने की तरह लग रहा था .मैं कई दिन उस रिहर्सल में जाता रहा .चूँकि मैं उस कोलेज का विद्यार्थी नहीं था इसलिए नियमतः रोल मिलना मुश्किल-सा था .लेकिन करना चाहो तो सब एडजस्ट हो जाता है .और वैसे भी मैं उस टीम में कौन सा विशेष महत्वपूर्ण था .मेरा चेहरा तक पहचान में मुश्किल था .मेरी पूरी बनावट ही प्रेत के नजदीक थी .एक शाम की मैं बात बताने जा रहा हूँ .नाटक की निर्धारित तारीख नजदीक थी .और हम जोरों से मेहनत कर रहे थे .रिहर्सल की उस शाम हुआ यह था कि निर्देशक पहुंचा नहीं था .कहीं ट्रैफिक में फंसा था .उसने कहा था कि तुम लोग तैयार रहो .जल्दी ही मैं पहुंचता हूँ. मैंने अपना मेक अप कर रखा था .और मिस मुस्कुराहट भी पुरे धज के साथ तैयार थी .वह एक ऐसी शाम थी जिससे देंह की सारी नसे और तंत्रिका तंत्र शिथिल पड जाती है .और मन एक अलहदा दार्शनिक ख्यालों में उड़ने लगता है .हम बाते करते हुए फाइन आर्ट की गैलरियों की ओर चले गए थे . वहां एक एकान्त से दिखाते बेंच पर बैठ गए .मिस मुस्कुराहट की ओर मैं देखता रहा .वह क्षण ही एक विशेष क्षण था जब मुस्कुराहट ने मेरी आँखों में आँखे डालकर पूछा था कि तुम सारी उम्र मुझे इसी तरह देखना चाहते हो ना ! इस अप्रत्याशित सवाल से मैं एकदम चौंक गया था .मैंने पूछा कि किस तरह .तो वह बोली ऐसे ही जैसे देखते रहते हो .सच कहूँ तो मैं उस वक्त उससे बहुत कुछ कहना चाहता था.लेकिन पता नहीं क्यों गले ने जवाब दे दिया .फिर बोली जानते हो तुम सबमे बहुत अलहदा लगते हो .पूरी टीम में तुम ऐसे हो जिस पर आँख मूद कर खुद को तुम्हारे भरोसे छोड़ सकती हूँ .फिर कुछ देर तक वह चुप बैठी रही .सामने हरे मैदान में लैम्प पोस्ट के रोशनी में चमकता एक स्कल्पचर था .लम्पोस्ट की सारी रोशनी उस पाषाण युवती के उभारों पर चमक बन कर उतर रही थी .मैंने अपनी पूरी ताकत जुटाकर कहना चाहा कि तुम्हारे होठों के ऊपर का तिल कितना प्यारा है .लेकिन नहीं कह पाया था .और वह जाने कैसे इस बात जान गयी .तुम मेरा तिल  देखते रहते हो न ! मैं चौक गया .हाँ ! यह मुंह से अनायास निकल गया था .वह हंसने लगी .तुम्हे कैसे पता ? .बस पता है .वह मेरी ओर इस तरह से देखने लगी जैसे कोई प्रेम में डूबकर किसी ओर देखता है .और आगे जो कुछ हल्का सा हुआ उसमे अगर दोष कहीं से था तो वह प्रकृति का है .मैं उसके और नजदीक पहलू में सिमट आया था .और होठों के ऊपर के तील को छू रहा था .उसके बेहद पतले और मुलायम होठों को छू रहा था .मुस्कुराहट की आँखें इस तरह से हो गयी थी जैसे अपने ही अन्दर कही कुछ मुलायम सा देख रही हों .हमारे इर्द गिर्द एक पीली सी स्वप्नमयी रोशनी गिर रही थी .अगर दूर से कोई देखता तो लगता कि किसी सपने में एक प्रेत के चंगुल में एक परी है .इसके पहले कि कोई अदृश्य सी इच्छा हमें हाँथ पकड़कर और आगे ले जाता गैलरी में कोई पात्र हमें पुकारता हुआ चला आ रहा था .निर्देशक आ गया था.
                                                    

जैसा मैं सोच रहा था या आप सोच रहे हैं वैसा रत्ती भर नहीं था .और होता तो ग़ालिब के एक लय की तरह मैं ख़ुशी से मर नहीं जाता  .एक दिन की घटना और हुई जिससे मुझे लगा था कि मिस मुस्कुराहट के अन्दर कुछ लगाव मेरे लिए है .मैं ठीक से नहीं बता सकता पर यह एक सपने की तरह घटित हुआ था .एक सुबह जब मैं सोकर उठा ही था तो मुस्कुराहट घर चली आई थी .और चुपके से अम्मा के साथ किचेन में लग गयी .अम्मा मना करते रह गयी .वह मेरी किताबें देखती रही .बगल में कई सारी फाइल पड़ी हुई थी .उसने अपना महँगा हैण्ड बैग उतार कर रख दिया था .जो मेरी साधारण सी मेज पर और असाधारण लग रहा था .वह चाय और ब्रेड लेकर मेरे साथ छत पर आ गयी .बेहद भींगी सी सुबह में उसके साथ होना मुझे अतिशय सुहाना लगा.इतनी देर तक सोते रहते हो .मैंने हाँ कहा .सामने उस रात की पी गयी खाली बोतल पड़ी हुई थी .पापा पीते हैं क्या ? ऐसा कहने पर मैंने कहा कि नहीं! उस दिन जब पार्टी सी थी तब की यह बोतल है.वह बोतल पुरे आभा में सूरज की रोशनी को अपने कब्जे में कर मेरे आँखों में भेज रही थी .उस रोज छत पर एक और वाकया हुआ था .मैं मिस मुस्कराहट का हांथ पकड़ कर एक कोने में खिंच ले गया .और मैंने पूरी हिम्मत जुटाकर उससे कहा कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ .फिर चूम लिया .पहले तो वह हंसी फिर कहा कि अभी तक नींद में ही हो .जाओ सो जाओ .मैंने कहा कि नहीं मैं बिलकुल नींद में नहीं हूँ .और मैंने वह बोतल उठायी और नीचे फेंक दी थी .एक खनाक से वह सड़क पर छितरा गयी .

                                
पिताजी का दिन रात काम करना उनके सेहत के लिए घातक था .लगातार फाइलों में डूबे रहने से वे किसी निर्बल जीव की तरह दयनीय लगने लगे थे .और एक दिन बीमार पड़ गए. मैंने उनकी सहायता के लिए कुछ सूत्रों को रटकर हाँथ बटाने लगा था .मैंने उन्हें सही करता जा रहा था .और पिताजी साइन करते जा रहे थे .वे बिस्तर पर पड़े हुए हिसाब किताब बताते जाते थे और मैं उन्हें सही करता जा रहा था .फाइलों में कई सारी गड़बड़ियां थीं .एक अलग से कोई फाइल उन्होंने बना रखी थी .जिससे मिलान करना था और सही करते जाना था .बहुत सारे आंकड़े बढ़ा चढ़ा कर लिखे गए थे .जैसे अगर किसी प्रोजेक्ट में पचास लाख रुपये की वास्तविक लागत थी  .तो उसे इस तरह की धोखेबाजी से समायोजित किया गया था कि वह एक करोड़ की पूंजी प्रदर्शित करता था . यह कुछ ऐसे था कि अगर हम एक नदी पर एक पुल दिखा रहे हैं तो वास्तविक अर्थों में वह दिखता हुआ पूरा पूल ,आधा पुल ही था .या था ही नहीं .या कोई दस करोड़ की सड़क है तो उसे तीन बार तीन योजनाओं में बस कागज़ पर दौड़ा दिया गया है .जबकि वह सड़क अपने पुराने जर्जर हालत में है .चुनाव नजदीक आने थे .और चुनावी गणित और अन्य चालों के तहत पिताजी के विभाग पर केन्द्रीय जांच लगा दी गयी थी .पिताजी ने यह बताया कि यह सारी जांच केवल इसलिए हो रही है कि चीफ ने वह कमीशन का वह हिस्सा उस मंत्री को भेजने से इनकार कर दिया था जिसे हमारा  धोखेबाज तंत्र योजना बनाने से पहले ही निर्धारित कर लेती है .पहले भेजा जाता रहा .पर आई पोड अहलुवालिया के विधायक चाचा ने इसमे हस्तक्षेप कर दिया था .और कहा था कि वह निर्धारित कमिशन मत दो .वह सब संभाल लेगा .और अंत में नहीं संभाल पाया .उस मंत्री ने शासन से कहकर एक जांच बिठवा दी थी .और मिथक आकडे तो यह बताते है कि जो यह केन्द्रीय जांच है ,वह सत्ता की रखैल है .इसका प्रयोग वह अपने अपने विशेष चुनावी प्रयोजन साधने के लिए करती रही है .खैर ! जो भी बात रही हो , यह सब फाइल पिताजी के मेज पर कई दिनों से साइन के लिए पड़ी हुई थी .जिसे उन्होंने इनकार कर दिया था .पहले तो चीफ कई दिन तक पिताजी को अपना हिस्सा लेने के किये समझाता रहा .और सही फाइल का हिसाब लेने से वह इसलिए नकारता रहा कि हो सकता है कभी किसी दिन उनका हृदय परिवर्तन हो जाए .और उसे ऊपर से भी बचना था .लेकिन ऐसा नहीं होना था . अब जब जांच आई तो काम का दबाव बढ़ गया था .अब पिताजी को सब सही सही करना था .नहीं तो वे इस मामले में फंस जाते .मैं भी पिताजी के निर्देशन में दिन रात एक करके सारे आंकड़े दुरुस्त करने लगा था .

                         
लेकिन इसी बीच मैकबेथ का वह नाटक भी होना था .वह नियोंन और कई किस्म की रंगीन प्रकश में डूबी हरी घास पर एक चमकती रात थी .कोलेज का मंच बेहद आलिशान था .मेकअप रूम के लिए अलग अलग कमरे थे .और सभी टीम को मिले थे .मुझे कुछ करना नहीं था .सभी लोग अपने अपने मेकअप में यहाँ वहां जा रहे थे . मैदान में टहल रहे थे .मैं भी टहलता हुआ मैदान से थोडा और आगे आ गया .वहां एक झाडी थी .झाडी में मैंने हलचल देखी थी और जो देखा उससे मैं पूरी तरह हिल गया था .वहां मिस मुस्कुराहट आई पोड अहलुवालिया के साथ थी .और ऐसी हालत में थी जो  हर लिहाज से आपतिजनक थी .सामने एक बेंच था .उस बेंच पर शराब की एक बोतल रखी हुई है .और बगल में अधपीया हुआ सुलगता सिगरेट पडा है .इसके पहले वे मुझे देखते मैं मंच की ओर लौट आया .लगभग बदहवास .अभी अभी कोई एक्ट पूरा हुआ था .और सभी दर्शक अतिउत्साह में तालियाँ और सीटियाँ बजा रहे थे .मैं आया और सीधे मेकअप रूम में बैठ गया .वहां मन नहीं लगा .मैं सीधे घर की ओर भागता हूँ .अम्मा दरवाजा खोलती हैं तो चीखकर एक ओर हो जाती हैं .मैं हूँ अम्मा ...मैं ! आवाज पहचान कर कहती हैं कि तू तो नाटक में गया था न ! मैं कोई जवाब नहीं देता और सीधे कमरे में लौट जाता हूँ .पिताजी देखते हैं तो चौककर खड़े हो जाते हैं .फिर ध्यान से देखकर कहते हैं कि क्या बना था तू ? प्रेत ! प्रेत बना था मैं ! फिर लगता है कि इस दुनिया में सचमुच मेरी स्थिति प्रेत की ही है .यहाँ सब उसी स्थिति में है .एक ऐसा जीवन जी रहे हैं हम जिसकी बहुत पहले हत्या कर दी गयी है.एक मृतप्राय जीवन !

                            
मैं सोता हूँ तो यह सोचकर सोता हूँ कि अब मेरी नींद कभी न खुले .मैं कोई सुबह नहीं देखना नहीं चाहता हूँ .मुझमे अब वह हौसला ही नहीं रह गया है .लेकिन ऐसा कहाँ होता है ! सुबह मेरी नींद पिताजी की आवाज से खुलती है .वे कोई फाइल ढूढ़ रहे हैं .मैं उनकी आवाज कान से पहले ही रोकर नींद में और अन्दर धंस जाना चाहता हूँ .वहीँ होगी आलमारी में ! कहकर   मैं दूसरी करवट बदल लेता हूँ .अरे उठो ! फाइल नहीं मिल रही है .इस बार उनकी आवाज का तंज भांपकर मैं उठता हूँ .तो वे बताते हैं कि फलां फलां नंबर की कई सारी महत्वपूर्ण फाइलें गुम है .उठकर मैं देखता हूँ . सचमुच आलमारी में फाइलें नहीं मिलती .हम सभी बदहवास होकर बाथरूम ,किचेन  से लेकर चारपाई के चादर और परदे तक झाड़कर देख लेते हैं. पिताजी कहते है कि वे फाइलें बेहद जरुरी हैं .आज जांच समिति के सामने पेश करना है .वे बहुत निराश होकर टेबल पर बैठ जाते हैं .

                        
मैं आलमारी के पास फिर से फाइलों के बीच जाता हूँ .हर फाइल उठाकर बारीकी से सूंघता हूँ और पाता हूँ कि इसमे मुस्कुराहट की एक विशेष किस्म इत्र की एक बेहद हलकी गंध बसी हुई है .यह गंध अरब अमीरात से आयातित किसी खास इतर की है .जिसे कम से कम हमारे परिवार की यह समकालीन पीढ़ी वहन नहीं कर सकती है .मैं धम्म से बैठ जाता हूँ .इतना बड़ा धोखा ! 
                   

केन्द्रीय जांच संगठन की जांच समिति पिताजी के इस घपले के लिए थाने में एफ आई आर दर्ज की .और अगली सुबह हम सड़क के चौराहे पर आ गए .पिताजी को बुरी तरह से फंसाया जा चुका है .चीफ ने यह कहकर कि वह सब सम्बंधित फाइल पिताजी ने उन्हें दी ही नहीं है .और वह जाने कब से मांग रहा है . जिसे वह साइन करके आगे शासन की ओर अग्रसारित करता .कुल मिलाकर ठीकरा पिताजी के माथे पर फूटना था , और फूटा .सरकारी घर हमसे छीन गया था .हमने अपने घर ,अपने गाँव की जाने की तैयारी बना ली थी .पिताजी को सम्बन्धित घोटालों से पूछ ताछ के लिए वहीँ रोक लिया गया था .उनके खाते सीज कर दिए गए .उसमे मात्र दस हज़ार चार सौ सैतिंस रुपये थे .गाँव आने के लिए पैसे उधार मांगने पड़े .

                          
एक दिन जब मैं सामान बाधने के लिए रस्सी खरीदने जा रहा था तो मिस मुस्कुराहट से मुलाकात हो गयी .मैंने उसे बुलाया तो उसने पहचानने से इनकार कर दिया .फिर जब मैंने सारी बातें तफसील से बताई तो उसने कहा की अच्छा तो तुम उस घोटालों वाले उस फलां बाप के बेटे हो .मेरे जबड़े तन गए .मन किया कि वही उसे जमीं में दफ़न कर दूँ .जब मैंने कहा कि तुम मेरे घर आई थी और सब फाइल चुराकर गयी हो .तो दांत पीसकर उसने अंग्रेजी में कोई गाली दी .मैंने कहा कि मैंने तुम्हार साथ नाटक में काम किया था .भूल गयी .तो उसने कहा कि कौन से नाटक में ! मैंने कहा कि उस दिन तुम छत पर थी मेरे साथ .और मैंने तुम्हारे बाप की पार्टी में पी गयी बोतल को उठाकर छत से फेंका था .और तुम्हें चूमा भी था .उसका पारा सातवें आसमान पर पहुच गया .उसने कहा कि कमीने मेरी नजरो से हट जाओ ! नहीं तो यही चिल्लकर तुम्हारी दुर्गति करवा दूंगी .तुम्हारी क्या औकात क्या है ? एक मामूली क्लर्क के बेटे हो और सपने इतने ऊँचे पालते हो .मुझे ऐसे ही किसी जवाब का अंदाज पहले से था .जिसका आभास उस सपने से मुझे हो गया था .लेकिन इतना तगडा और धूलपकड़ जवाब होगा ,नहीं सोचा था .इतना के बाद तो मैं यह भी जान गया था कि जब यह नहीं पहचान रही है तो इसके दोस्त सब क्या पहचानेगें ?लेकिन यक़ीनन उसका घर आना कोई सपना नहीं था .हाँथ से छुआ और आँख से देखी गयी बातें थीं .लेकिन एक घटित यथार्थ को बुरे सपने में बदल दिया गया था .और एक हो रही साजिश को सपने में से निकालकर यथार्थ में ला दिया गया था .मैं उस दिन मैं अपने दिमागी संजाल में उलझ गया .तो क्या जो सब हुआ था एक स्वप्न था .और जो मैं जीवन जी रहा हूँ ,वह बस नीद भर है .शायद हो .और हो जाए तो कितना सब कुछ आसान हो जाएगा .कि एकदम सुबह नीद खुले और पता चले कि हम गाँव में है .पिताजी की नौकरी बस एक सुखद स्वप्न की तरह झूठ है .और डेल्ही नाम का शहर बस नीद में कभी था .सच में था ही नहीं या फिर है ही नहीं .और अम्मा जिन्हें शहर के नाम से ही रक्तचाप बढ़ जाता है ,वे कभी गयी ही नहीं .और सवेरे सवेरे आगन में झाड़ू लगा रही हैं .और पिताजी को चाय पीने  के लिए बाहर आवाज दे रही है .लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है ! मैं इस सुखद स्वप्न में घुस जाने के लिए जैसे सड़क पर भाग रहा हूँ .लेकिन उस दृश्य में नहीं घुस पा रहा हूँ .और रात है कि इतनी लम्बी है कि उसमे दिन भी होने लगे हैं .और मैं उसी दिन में सांस ले रहा हूँ .मैंने पान वाली दूकान से सिगरेट का पैकेट लिया और छत पर जाकर पीने लगा था .मैंने देखा कि वहां कोने में वह बोतल पड़ी थी जिसे मैंने उठाकर नीचे फेंक दिया था .तो क्या वह छनाक की ध्वनि बस सपने से निकल कर आई थी .लेकिन नहीं एक मिनट ! मैंने ध्यान से देखा उसकी तली में थोड़ी सी शराब बची थी .उस दिन मुझे याद है कि मैं शराब की एक एक बूंद चाट गया था .लेकिन याद का क्या भरोसा ! वह भी मुझ जैसे आदमी पर,  जो सपने और यथार्थ के बीच किसी जर्जर कड़ी की तरह अटक गया हो .

                               
पिताजी को पूछताछ के लिए उठा लिया गया था .कुछ क्षणों को छोड़ दिया जाए तो हमसे मिलने नहीं दिया गया था .हमारी वहां कोई पकड़ नहीं थी जिससे हम कोई फ़रियाद करते .पिताजी ने कहा कि वे निर्दोष हैं और देर सवेर लाख साजिशों  के बावजूद वे पाक साफ़ घोषित होंगें .और जल्दी गाँव आ जायेंगें .पिताजी का चेहरा बहुत धुंधला और बीमार था .उन्होंने  हमें जल्दी अगली सुबह ट्रेन पकड़ लेने के लिए कहा था .माँ और मैं उस चमकती दुनिया में असहाय, लाचार और विक्षिप्त से लग रहे थें .जब हमारी ट्रेन उन विस्थापितों की झुग्गी झोपड़ियों से होकर गुजर रही थी जो इस तंत्र में अपाहिजों की तरह अपना जीवन घिसट घिसट कर ढो रहे थें,तो माँ के साथ साथ मुझे भी बेतरह रोना आ रहा था . .और ठीक ठीक देखा जाए तो हम भी कहीं न कहीं से उनका एक हिस्सा बन चुके थें .इस यात्रा में गर पिताजी साथ रहे होतें तो सच में मैं इस बीते चुके जीवन को कोई दुःस्वप्न मानकर भूल गया होता .

                                 
गाँव में पहले से हल्ला था कि करमचंद जैसे बेहद ईमानदार आदमी को जानबूझकर फंसाया गया था .पिताजी के शरीफ व्यक्तित्व का दबदबा कुछ ऐसा था कि अगर हमारे एक्के दुक्के दुश्मन भी कही होंगे तो उन्हें भी विश्वास नहीं होता .और एक किस्म की सहानुभूति उपजती .यह वही वक्त था जब जिला पंचायत के चुनाव नजदीक आ रहे थे.मैं कई महीनो तक घर ऐसे ही उदास बैठा रहा .आने वाले आते रहे और हाल चाल पूछते रहें .कुछ भी हो पिताजी की इलाके में छाप थी .कुछ सूत्रों से मालुम चला कि इस बार चैयरमैन की सीट आरक्षित होने वाली है .एक रात जब मैं सोने जा रहा था तो एक सपना  देखा .वह यह था कि सैकड़ों-हजारों  की भीड़ हमारे पीछे चल रही है .हमारे नाम की जय जयकरे करते हुए . पिताजी को लोगो ने माला पहना कर अपने कन्धों पर बैठा रखा है वे जिला मुख्यालय के अंदर जा रहे हैं और सामने की लगी हुई कुर्सी पर बैठ गए हैं .लोग मुझे बधाई और मिठाई दे रहे हैं .जब मैं जगा तो रात बस शुरू हुई थी .और अम्मा पशुओं को तबेले में बांधकर दूध की हांडी बोरसी पर से उतार रही थीं .मैंने उन्हें बुलाया और इस सुखद सपने की बाबत बात की.मैंने उन्हें यह बात बताई कि जीतने की सम्भावना बहुत है .और लड़ाई भी सीट आरक्षित होने की वजह से और माफियाओं ,दलालों और बदमाशों के प्रत्यक्षतः न लड़ने से थोड़ी आसान है .और एक तरह से यह मेरा सपना भी तो है .
                                   

माँ मान गयी .और चुनाव में मैंने अम्मा के नाम से पर्चा भर दिया था .चुनाव में पैसे लगने जरुर थे पर मेरे नहीं लगे .दारु और मुर्गा की मांग हम लोगों की दयनीय स्थिति की वजह से नहीं हुई थी .हमारे विपक्ष में भी क्षेत्र के माफियाओं ने अपने कैंडिडेट खड़े किये थे .जो कि हमारे बरक्स यानी कि पिताजी के नाम के बरक्स काफी कमजोर निकले थे .और कुछ तो रुपये पैसों और पहुँच से हमारी भी मदद करने को तैयार थे .मैंने खुद मना कर दिया था .इस सीट को हम निकाल लेने वाले थे .हमने गाँव गाँव घूमकर रात्रि सभा की .और पिताजी के मामले में पर्याप्त सहानुभूति हासिल की .गाँव वालों ने साथ भरपूर दिया था .और कहा जाए तो हमारे वार्ड में सभी ने साथ दिया .हम भारी बहुमत से जीते थे .अब बारी चैयरमैन के दावेदारी की थी .जिसमे हमने जी जान लगा दिया था .कुल तीन सीट हमारे प्रतिपक्ष में थी .और वे भी चैयरमैन की इस आरक्षित सीट पर दावेदारी करने वाले थे .और इन्हें मनाना आसान नहीं था .जब हम जीते थे तब इस अपार सफलता से प्रभावित होकर जिले के वर्तमान चैयरमैन और माफिया जगदम्बा चौधरी हमसे मिलने आये थे .और उन्होंने बताया कि पिताजी और वे माध्यमिक स्कूल में सहपाठी थे .पिताजी के साथ जो भी हुआ था उसे सुनकर उन्होंने कहा कि यह सरासर अन्याय है .और देर सबेर सत्य की जीत होगी .जो भी जरूरत होगी उनसे बिना संकोच के मिल लें .उस दिन अगर इस आदमी ने हस्तक्षेप नहीं किया होता तो हम शायद चैयरमैन का चुनाव हार गए होते .उसने हमारे विरोध में आने वाली हर आवाज को दबा दिया था .उसने एक प्रत्याशी को पैसे दिए और दुसरे को हडका दिया था .और तीसरे को अगवा कर लिया था .और हम निर्विरोध इस चुनाव को जीत चुके थे .अम्मा पहनाये जाने वाले मालाओं तले जैसे दब गयी थीं .जगदम्बा चौधरी से हमारी मुलाकात सीधे गेट पर हो गयी .मैंने झुककर उनके पैर छुए .उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया और माथे पर टीका लगाकर गोंद में उठा लिया था .उसने कहा कि मैंने किसी और के लिए नहीं अपने बेटे के लिए कुर्सी छोड़ी है .और अगले दिन शपथ में जगदम्बा पुरे कार्यक्रम में मौजूद रहें .उनके साथ में उनके कई गनर और बाहर कई सारी पजेरो खड़ी थीं .हम न न करते रहें पर वह हमें घर छोड़ कर गया था . मैं इस आदमी को पहले से ही सर पर चढ़ाना नहीं चाहता था .पर यह तो खुद हमें चढ़ा चुका था .

                                  
उधर पिताजी को जमानत मिल चुकी थी और मुकदमे में बार दौड़ना न पड़े इसलिए वे डेल्ही ही रुक गए थे .देर सवेर सच्चाई सामने आते ही उन्हें बहाल कर दिया जाता .लेकिन सबसे कठिन चीफ के खिलाफ सबूत जुटाना था .जो आसां नही था .उसने वे सभी फाइल पिताजी से रिसीव कराकर रखी थी .जिसमे उसका कहना था कि सब कुछ नियम और मानकों के अनुसार हुआ है .वे सारी रसीदें और खरीद की रिपोर्टें उस फाइल में दर्ज है जो पिताजी ले गए थें .जबकि ऐसा कुछ था ही नहीं .जांच समिति ने चीफ से भी पूछताछ कर रही है .पर मेरा तंत्र और मिली रही सूचनाओं को देखते हुए यह मानना है कि चीफ अपनी पहुँच का प्रयोग करते हुए बच निकलने वाला है .उस जांच समिति का एक सदस्य उसका दूर का समधी निकल चुका है .और जज के साथ वे होटलबाजी करते हुए देखे जा रहे हैं .यह सब चीजें हौसलों को कम कर देने वाली साबित हो रही हैं .लेकिन पिताजी हिम्मत बांधे हुए है .और यह बात उनके लिए बड़ी सुकूनदेह साबित हुई है कि अम्मा चैयरमैन हो चुकी है.लेकिन वे यह बात भूल रहे थें कि आखिर काम तो इसी तंत्र के अंतर्गत करना है जिसके रास्ते जीवन धूसर होता चला गया है .

                               
सब काम सही सही चल रहे थे .अगर इस तंत्र में वैध तरीके से भी काम किया जाए तो भी इतने पैसे आ जाते हैं कि कई सारी पीढ़िया बैठकर खा सके . मेरा दो घर सात-सात नक्काशीदार कमरों के बाद आलिशान कर दिया गया था .और एक स्कार्पियो द्वार पर खड़ी कर दी गयी थी .और कुछ एक सुबह की बात है जब जगतम्बा चौधरी हमारे घर आये थे .और चाय पीने के बाद उन्होंने कहा कि बेटे घर के आदमी हो तुमसे क्या छुपाना ! हमारे घर का खर्चा, राशन और गाड़ी का पेट्रोल तो यहीं जिला मुख्यालय से ही चलता है .मैं समझा नहीं सर ! अरे ! भाई ..तुम्हारे पिता जी रहते तो समझते .तुम क्या समझोगे ? खैर ...चौधरी मेरे कंधे की और झुक आया था .और कान से लग कर बोला था कि सुन रहे हैं कि अपने इलाके की नक्सलाइट बेल्ट में सड़कें बिछाने के लिए हजारों करोड़ की धनराशि आने वाली है .तो ? तो बेटा अगर मुझे मिल जाता तो मेरा भी कार बार चलता और तुम्हें भी......फिर उसने और पास आकर चुपके से कहा कि चिंता मत करो !बेटा समझ लो तुम्हें डबल कमीशन दूंगा ...वह क्या है न कि ऊपर के  नेताओं से मेरा हंसी मजाक चलता है .....सालों से मैनेज कर लूंगा .और वह तुम्हारा ही होगा .मेरा माथा वहीँ झनक गया था .और जब तक चौधरी चला नहीं गया तब तक मैं एक सन्नाटे में बैठा रहा .चौधरी जिले का घोषित माफिया था .इसमे दो राय नहीं .आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में उसकी चार हजार के करीब ट्रकें चलती थीं .
            
                                   
जैसा कि आप जानते हैं कि मैं राजनीति विज्ञान का निहायत ही कमजोर विद्यार्थी हूँ .और इसलिए इस विषय का चुनाव किया था कि मुझे राजनीति में जाना था .एक सपना था,जो कमोबेश सच भी होता जा रहा था .पर उस दिन बात अन्दर से महसूस हुई कि समकालीन राजनीति में आने के लिए राजनीति विज्ञान से रत्ती भर के लेना देना नहीं है .या यूँ कहें कि इस राजनीति में पढाई लिखाई से भी एक पैसे का नाता नहीं था .संविधान ने राजनीति में आरक्षण के माध्यम से यह व्यवस्था जरुर की थी.पर इस व्यवस्था में जमीदार ,भूमिधर ,दलाल ,शोषक ,सामंत .हत्यारे अपना रूप बदलकर एक नए तरीके से इस तंत्र को अपहृत कर चुके थे.और जाहिर है लूट पाट भी एक बड़े स्तर पर नियोजित थे .और लोक तंत्र के नाम पर ऐसे ऐसे तमाशे थे जो समझने और उबरने में बेहद जटिल और कर्क रोग की तरह लाइलाज थे . एक से बढ़कर एक ऐसी पार्टियाँ जिनका दावा था कि वे दबे कुचले की शुभचिंतक हैं लेकिन वे अपना टिकेट ऐसे ही माफियाओं को बांटती थीं .जिनका इतिहास काला और खुनरंगेजी था .और एक नए तरीके से पोषक साबित हो चुकी थी .संविधान में सबकी गहरी आस्था थी .पर उसके नियम उन पर कम ही लागू होते थें .न्याय पालिका भी बिकी हुई संस्था साबित हो चुकी थी .तो जिस अँधेरे में हम रह रहे थें वह अबूझ और घटाटोप था .जिससे  निकलने के रास्ते बहुत कम थें .अधिकतर विद्वान ,लेखक ,समाज सुधारक ,चिन्तक ,क्रन्तिकारी सब डेल्ही भाग चुके थे .गाँव गिराव जहाँ हम रहते थें ऐसे ही सडन में उब चूब हो रहे थें .वहां ऐसे लोग कम थे जो किसी भी तरह का लोकतान्त्रिक पहल करें.और थें भी तो ऐसे फांसीवादी जकड़न में जल्दी दम घोट देने वाले थे .भ्रष्टाचार ,जातिवाद ,क्षेत्रवाद ,सामंतवाद ,पुरुषवाद ,भाई भतीजावाद सर पर चढ़ कर बोल रहे थें .तब भी ऐसे कई जानबूझकर जहर खाने वाले लोग मिल जाते थे जो कहते थे कि नहीं सब मजे में है .यह चीज हर जगह मौजूद थी चाहे वह दिल्ली हो चाहे वह अपना छोटा सा जिला .

                     
मिस मुस्कुराहट और उसके साथ आये हुए सपनों और थप्पड़ से भी तेज चले हुए धोखों को मैं तब तक नहीं भुला सकता जब तक पिताजी को न्यायालय निर्दोष नहीं साबित नहीं कर देता है .लेकिन इधर बीच इस सम्बन्ध में हुआ कुछ नहीं है. बस कुछ और दुःस्वप्नों में वृद्धि ही हुई है .


कुछ और दुःस्वप्न


कुछ और भी दुःस्वपन आये थें .जो अगर पिछले सपनों की तरह सही साबित हो गए तो मेरा पतन निश्चित है .मैंने कई रातों में सपने टुकड़े टुकड़े देखे थे .और सभी स्मृति में गड्डमगड्ड हो जाते थे .एक रात मैं क्या देखता हूँ कि जगदम्बा चौधरी के साथ हम मीटिंग में बैठे है .जगदम्बा तो कोई सदस्य ही नहीं है .लेकिन बैठा है .साथ में उसके गनर है .सड़क के ठेके के मामले में मेरी उससे कुछ झड़प हो गयी है .साथ में उसके गनर भी है .और उसने मेरे ऊपर गन की बौछार कर दी है .मैं लिथड़ा हुआ वहीँ कुर्सी पर लटक गया हूँ .कमरे से उसे मैं जाते हुए मैं देखता हूँ तभी खिड़की से गुजरते हुए मैं देखता हूँ कि उसका चेहरा चीफ का हो गया है .सामने ही सड़क के पार मुख्यालय ऑफिस है .वहां बैठा हुआ पोलिस अधीक्षक मुझे देखता है .और हंसने लगता है .मैं लड़खड़ाते हुए बाहर सड़क पर आता हूँ तो पाता हूँ कि मिस मुस्कुराहट अपनी स्कूटी स्टार्ट कर रही हैं .मैं उससे कहता हूँ कि कम से कम वह मुझे अस्पताल तक छोड़ दे .वह नहीं छोड़ती है और चली जाती है .मैं सड़क पर लिथडता हुआ चला जा रहा हूँ .अचानक मैं प्रेत बन जाता हूँ .मैं देखता हूँ कि सड़क पर मेरा शव है .मैं उसके बगल में बैठा हूँ और उस प्रेत की तरह हूँ जैसे कि कभी मैंने नाटक में रोल करते हुए रूप धरा था .मेरी लाश पर अम्मा रो रही हैं .मैं उनके कंधे पकड़ कर कहता हूँ अम्मा ! अम्मा ! मैं यहाँ हूँ .तुम्हारे पास बैठा हुआ .पर अम्मा हैं कि सुन ही नहीं रही है .मेरे शव को को जब लोग जलाने वाले हैं तब दूर पश्चिम से एक धूसर सी मनुष्य की आकृति उभरती है .वह धीरे धीरे जब पास आती है तो मैं देखता हूँ कि वह पिताजी हैं .मैं आगे बढ़कर उनका हाँथ पकड़ लेता हूँ .और कहता हूँ कि कब आये पिताजी .तब मेरा ध्यान उस हथकड़ी पर पड़ता है जो उनके हाँथ में लगी हुई है .वे आगे बढ़ जाते हैं .मेरी लाश में आग लगती है .हड्डियां चिट चिट करके उड़ाती हैं .आसमान में गाढ़ा धुंआ इकठ्ठा हो जाता है .अँधेरे की तरह और सामने नदी में सूरज आहिस्ते आहिस्ते डूब जाता है .और काली रात की शुरुआत होने लगती है .फिर बारिश शुरू हो जाती है .मैं भींगने से बचने के लिए सामने नदी किनारे पीपल की ओर भागता हूँ .और जब बारिश खत्म होती है तब सब लोग जा चुके हैं .और मैं अपने घर का रास्ता इस कदर भूल गया हूँ कि घूम घाम कर उसी पीपल के नीचे पहुँच जा रहा हूँ .


बस यहीं मेरी नीद टूट जाती है .ऐसा दुःस्वप्न मैंने आज तक नहीं देखा था .शायद शेक्सपियर के नाटक में मैकबेथ ने भी ऐसा दुःस्वप्न नहीं देखा होगा .आगे क्या होगा मैं नहीं जानता .लेकिन मेरी इस कहानी को सुनने के बाद आप इस दुःस्वप्न के बारे में क्या राय रखते हैं ? जरुर .बताइयेगा


 परिचय और संपर्क

अरविन्द                      
      
उम्र २६ वर्ष
      
बी.एच.यू. से पढाई-लिखाई
      
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित

सिताब दियारा ब्लाग पर छपने वाली यह ‘चौथी’ कहानी
       
सम्प्रति प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक

चंदौली , उ.प्र.
      
मो. न. - 07376844005


          


4 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय अरविंद जी को इतनी सुन्दर कहानी के लिये हमारी तरफ से बधाई पहुंचे.
    ~अजय कुमार

    जवाब देंहटाएं
  2. अरविंद, कहानी पढ़ी, बहुत अच्छी कहानी है। अच्छी तरह लिखी हुई और सुगठित। बार-बार सपनों का ज़िक्र मुझे थोड़ा खटकता रहा। मगर कहानी में वे आवश्यक भी थे। उनका विवरण बिना उनके ज़िक्र के ही लिख सकते थे, शायद। या तो इस ब्लॉग में कुछ त्रुटि है या तुम्हीं ने कुछ व्याकरण की गलतियाँ छोड़ दी हैं। साथ ही कहीं-कहीं कुछ शब्द भी गलत छपे हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. आज की स्थितियों को राजनीति, नाटक और प्रेम की थीम के माध्यम से दर्शाया गया है. बहुत ठहरी हुई गंभीर कहानी जिसमें स्वप्न दुस्वप्न बन जाते हैं जो हमारे समय का यथार्थ है.

    जवाब देंहटाएं
  4. वर्तमान समय का यही सच है कि एक ईमानदार व्यक्ति का जीवन कितना मुश्किल हो गया है इसी सच्चाई को उजागर करती है अरविन्द की यह कहानी .

    जवाब देंहटाएं