कल हमने ‘संघर्षरत सहयात्री की कहानी’ का पहला हिस्सा
पढ़ा था | आज उस कहानी के दूसरे हिस्से के साथ ‘फकीर जय’ एक बार फिर हमसे मुखातिब हैं |
संघर्षरत
सहयात्री की कहानी – फकीर जय की जुबानी
दूसरा
भाग
गंताक से आगे.........
मैट्रिक में मानविकी विषयों के कारण मुझे मात्र 77 फीसदी अंक मिले .मै बहुत उदास हो गया .पढाई से मन उचट गया .बदमाश लडको का
साथ हो गया .मै ग्रुप का लीडर था .हम दिन भर मारपीट की बाते करते .मारपीट भी करते
.मजमा मेरे घर लगता क्यूँ कि माँ के न होने से मेरे घर
खाली रहता .अब्बू ड्यूटी चले जाते .बाकी साथियों के घरो में माएं डांटती .तभी
आरक्षण विवाद फैला .चारो तरफ जातीय तनाव था .पटना का बिहार नेशनल कालेज आरक्षण विरोधी
हंगामे का गढ़ था .भूमिहार नामक जाति के वर्चस्व वाला यह कालेज तथाकथित राष्ट्रीय
स्वदेशी आन्दोलन की देन था .यह ‘राष्ट्रीय’’ का क्या अर्थ भारत में होता है ,इस बात का ठोस रूप
था .इस कालेज को भूमिहार नारायण कालेज भी कहा जाता .यहाँ संघी लोगो का जमावड़ा था
प्रशासन में . इसलिए लडकियों का प्रवेश नहीं होता था .इसलिए इसे बिन नारी कालेज या
बालिका नदारद कालेज भी कहा जाता .मै साइंस कालेज पटना में पढता था .वह बिहार का
सबसे प्रतिष्ठित कालेज समझा जाता था .रास्ता अशोक राजपथ होते हुए साइंस कालेज जाता
था .बीच रास्ते बी एन कालेज था .एक दिन कालेज जाते हुए मेरी सायकल बी एन कालेज के
लडको ने रोक ली. मेरी जाति पूछी .मै तब बड़ा आदर्शवादी था .अब्बू ने जो सिखाया था ,बोल दिया –‘इन्सान’ .तभी एक
लडके ने जोर से मेरे प्रजास्थान पर एक लात मारी.गाली देते हुए बोला –छोटजतियन सब (छोटे जाति वाले लोग ) बड़ा ज्ञान छांटने लगा है ‘’. मै बिलबिला उठा .मैंने सायकल के लॉक से उनपर वार किया .मगर वे संख्या में
ज्यादा थे .मुझे काबू में कर लिया गया .मेरी सायकल छीन ली गयी . मुझे सर गणेश दत्त
की जय बोलने को कहा गया ,वे भूमिहार जाति के लीडर समझे जाते
थे .मैंने इनकार कर दिया .इसपर मुझ पर लात जूतों की बारिश कर दी गयी .उन्हें लगा
मै डर गया .उन्होंने कहा -कम से कम श्री बाबू (वे भी भूमिहार जाति के लीडर और
बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री थे ) या स्वामी सहजानद ( ये भी भूमिहार जाति और किसानो
के लीडर समझे जाते थे –थे कि नहीं ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता –इनका सम्पूर्ण वांग्मय भूमिहार जाति के एक कुलपति ने म.गा.अ.हि.विवि. की
वेबसाइट पर डलवा रखा है ) की जय बोल दूँ .मैंने आहत जरुर था मगर डरा नहीं था .मेरे
ताऊ जो लोरिकायन बहुत अच्छा गाते थे ,उन्होंने मुझे लोरिक की
तरह अभय होना सिखलाया था .मरने से नहीं डरना चाहिए क्यूंकि हमारी जिंदगी में रखा
ही क्या है जो इतना मोह रखा जाए .मैंने जय नहीं बोला . तब वे छोटी जाति के नेताओ
को गाली देते हुए मुझे कोड़े से मारने लगे .सबसे ज्यादा आंबेडकर और कर्पूरी ठाकुर
को गाली दे रहे थे .मुझे भगत सिंह पर बनी एक फिल्म की याद हो आई जिसमे अंग्रेज भगत
सिंह को इसी बेरहमी से पिटते हैं .भगत सिंह जी का ध्यान आते ही मन और मजबूत हो गया
.मैंने यथासंभव प्रतिरोध किया .उनके चंगुल से भागने का प्रयास किया .वे मुझे पिटते
पिटते थक गए थे .मगर मै अड़ा रहा .अंत में हारकर गाली देते हुए उन्होंने कहा—‘कम से कम गाँधी जी की जय बोल दो तो छोड़ देंगे ‘.मैंने
साफ़ इंकार कर दिया .जाने कहाँ से मुझमे ताकत और दृढ़ता आ गयी थी .तभी हमारे दोस्त
पीछे से आ गए –रंजीत दुसाध और मोहसिन खान .तीनो गुंडे छात्रो
से लड़ने लगे और उसके चंगुल से भागने में सफल रहे .
मुझे रात भर नींद नहीं आई .मुझे सायकल का अफ़सोस न था .वह मैंने
स्कालरशिप के पैसे से खरीदी थी .यह स्कॉलरशिप मुझे राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा
में राज्य में प्रथम स्थान लाने पर मिलती थी . अफ़सोस मुझे सिर्फ अब्बू के पैसो के
लिए होता था .वह हाड़तोड़ परिश्रम करते ताकि परिवार चल सके .वे अपने दोनों भाइयो के
परिवारों की भी देखभाल करते .मैंने इस जातीय अपमान का बदला लेने के लिए कट्टे का
इन्तेजाम किया .अब्बू की वजह से मैंने उसी उम्र में फ्रान्त्ज़ फैनन की किताब ‘’रेच्ड ऑफ़ द अर्थ’’ पढ़ रखी थी .इस किताब में पीडितो
मजलूमों के वास्ते हिंसा की अनिवार्यता को बड़े तर्कसंगत ढंग से समझाया गया था .इस
किताब से मै शदीद तौर पर मुतासिर हुआ था .मैंने मौका देखकर एक दिन सायकल छिनने
वाले गिरोह के सरगना अरविन्द शर्मा ,सवर्ण छात्र नेता जो
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुडा था, पर घात लगाया
.मैंने उसे सायकल लौटाने को कहा .उसने बदले में माँ-बहिन की गाली दी .मैंने उसे
सीधे गोली मार दी .बीच में मेरी क्लासमेट जयबुनिस्सा आ गई .निशाना गडबडा गया और
गोली शर्मा की बांह छिलती हुई चली गई .पुलिस ने रिमांड में कुछ दिन रखा .मुझे
साइंस कालेज से expelled कर दिया गया .मगर जुवेनाइल होने और
शर्मा के बाल बाल बच जाने के कारण मुझे छोड़ दिया गया .अब्बू इस बीच बहुत परेशान
रहे .वे हताश –निराश थे .मुझे इस आफत से बचाने में उनके
पसीने छुट गये .अब्बू जब पटना आये थे ,बिहार की शिक्षा
मंत्री रह चुकी उमा पाण्डेय के मायके वाले मकान में किरायेदार के रूप में रहते थे
और उनके छोटे भाई बहनों को मुफ्त में पढ़ा दिया करते .उमा पाण्डेय के हस्तक्षेप से
मामला सुलझा .इस घटना के बाद मै बहुत गुमसुम रहता .एक दिन अब्बू ने बुलाया .देखा,
रो रहे हैं .मै भी रोने लगा .मुझे निहारते रहे दम भर. फिर बस इतना
बोले –‘मुझपर दया नहीं आती?’ मुझे बहुत
धक्का लगा .मै अब्बू को बहुत प्यार करता था .जब भी जूता या जरुरत की कोई और चीज़
खरीदवाने बाजार ले जाते ,सबसे कम दाम वाली चीज़ पसंद करता
ताकि उनके कम से कम पैसे खर्च हों .एकदिन अब्बू को मेरी यह चालाकी पता चल गयी तो
बहुत रोते थे .बहरहाल अब्बू की बात के बाद मै बहुत संजीदा रहने लगा .सवेरे पांच
बजे जग जाता .बर्तन साफ़ करता .फिर मुह हाथ धो कर पढने बैठ जाता .अब्बू को रोटियां
बनाने में मदद करता .घर के सामने एक ब्राह्मण लडकी रहती थी .वह मुझे बर्तन मांजते
हुए देख कर उपहास करती और अभद्र टिप्पणी करती .जैसे –‘’छोटजतिया
पढ़ के तुम तो कुछ नहीं बनेगा ,तुम लोग का दिमाग घुटने में
होता है, मगर होटल में बर्तन मांजने का नौकरी मिल जायेगा ,अच्छा pratice हो रहा है सवेरे सवेरे .’ या –‘’ मांज ले ,मांज ले
.तुमलोग में मरदाना और जनाना में कउनो फरक नहीं है .मरदाना को जनाना का काम करना
पड़ता है ‘’. किशोर उमर थी .मेरे मन को चोट लगती . मैने चार
बजे जगना शुरू कर दिया .वह बहुत दुष्ट थी .उसने भी ताने कसने के लिए चार बजे उठना
शुरू कर दिया .एक होड़ सी लग गई .जीता मै ही. मैने 3 बजे जगना
शुरू कर दिया .दरअसल यह काम मेरी छोटी बहन किया करती .जिसपर आवारागर्दी के कारण
मैंने ध्यान ही नहीं दिया था .मगर अब्बू के उस बात के बाद मेरा मिजाज ही बदल गया
था .एक दिन उस नन्ही जान को झाड़ू देते देखा तो मेरी रुलाई छुट गई .उस दिन उसके हाथ
से झाड़ू छीनी तो फिर पकड़ने न दिया .अब घर के काम-काज मै करता था .इससे मेरे अंदर
परिश्रम की आदत पड़ गई. इससे मुझे पढाई में बहुत फायदा हुआ .मै नियमित 3 बजे जग जाता .बर्तन मांज देता ,झाड़ू दे देता,
पानी भर देता ,घर को ठीक से सजा देता .फिर आटा
गूँथ कर पढने बैठ जाता .मुझे रोटी पकाना नहीं आता था, अब्बू
पकाते थे .छोटी बहन को पढाता. हम भाई बहन में कभी लड़ाई नहीं हुई .मेरे उच्चवर्णी
दोस्त ऐसी लड़ाइयो के किस्से सुनाते तो मुझे समझ में नहीं आता.हमारे यहाँ तो इस लिए
लड़ाई होती कि मै त्याग करूँगा तुम दुध पी लो.जीतते अब्बू.खुद न खाकर कभी कभी सब
कुछ हम सबको खिला देते.इसलिए हमे ‘दोपहर का भोजन’ नाम की अमरकांत की कहानी कभी समझ में ना आई.वैसे छद्म की तो हम कल्पना ही
नहीं कर सकते थे .गरीबी उनके लिए दुर्लभ दुःख था जिससे कहानियां जन्म लेती थी –कभी ‘परदा’ तो कभी ‘कहानी का प्लाट’.हमारे लिए यह एक स्वाभाविक तथ्य
थी.इसलिए उनका साहित्य कभी हमारे काम का नहीं हो सकता.ईसा ने जो कहा कि सबको अपनी
सलीब खुद उठानी होती है –बहुत सही कहा .हमे अपना सत्य खुद
रचना होगा.
शाम को अब्बू अक्सर पुस्तकालय से किताब ले आते . उनकी आंखे कमजोर हो
गयीं थी .उन्हें पढ़कर सुनाता .उनके पैर दबा देता .मक्सिम गोर्की की ‘माँ’ और ‘दानको का जलता हुआ
हृदय ‘ मुझे पसंद आये .अब्बू के एक दोस्त थे इलाहाबाद के –बाबा प्रसाद .वे मुझे बहुत मानते और होनहार समझते .उन्होंने मुझे सरिता
प्रकाशन की पुस्तक –हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक-तुलसीदास ‘
पढने को दी .साथ ही अर्जक समाज की तमाम किताबे मुझे लाकर पढने को
देते .जैसे –ललई यादव द्वारा अनूदित परियार की किताब –गडबड रामायण, रामस्वरूप वर्मा जी द्वारा लिखित ‘मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक ‘’, आंबेडकर की जीवनी
जिसे धनंजय कीर ने लिखा था .इस सबका मुझपर बहुत प्रभाव पड़ा.बाबा चचा से बहुत स्नेह
था मुझे . वे खिचड़ी बहुत अच्छा पकाते थे .मेरी फरमाइश होने पर जरुर पकाते .मुझे
आंबेडकर ,ज्योति फुले के किस्से सुनाते .जब मेरा इंटर का
रिजल्ट बहुत अच्छा हुआ ,वे बहुत खुश हुए .सूबे में चौथा
स्थान था .विज्ञान विषयों के आधार पर पहला .विज्ञान का विद्यार्थी होने पर भी हमे
बिहार विद्यालय समिति के पाठ्यक्रमानुसार हिंदी,अंग्रेजी और
उर्दू लेना पड़ता.उसी साल मेरा दाखिला भारत से सर्वप्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान में
हो गया .अब्बू बहुत खुश हुए .दफ्तर में उनकी इज्ज़त बढ़ गई थी .उनके सवर्ण बॉस ,जो हमेशा अब्बू का मजाक उड़ाते , का बेटा तीसरे
प्रयत्न में भी प्रवेश परीक्षा में असफल रहा था .बाबा चचा ने खुश होकर ज्योति बा
फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ भेंट की
.मुझे बहुत अच्छा लगा .मेरे लिए बाबा चचा ही ज्योति बा थे .कैम्पस से ही नौकरी लग
गई .हालाँकि वहां भी दबंग जाति के शिक्षको –छात्रो ने बहुत
परेशान किया .हालाँकि बाद में मेरी राय बनी कि अभियंत्रण संस्थानों की अपेक्षा
मेडिकल कालेज के उच्च जाति छात्र ज्यादा दकियानूसी,रट्टूछाप ,
भोंदू तथा सामंती होते हैं .मेरे उच्चजाति सहपाठियो में राजपूत और
कायस्थ जाति के लोगो ने मेरे साथ सबसे अच्छा व्यवहार किया .मेरे गहरे मित्र भी बने
.नौकरी लगने के कारण आर्थिक कष्ट दूर हो गये .मगर सामाजिक कष्ट बढ़ गये .सभ्य समाज
में मुझे अवांछित गवार ,पिछड़ा और भोंदू समझा जाता.इस पर
आश्चर्य व्यक्त किया जाता कि मैंने मैकेनिकल फेलियर के नए सिद्धांत कैसे निकाल दिए
.जर्मनी से आया कंसलटेंट मुझसे प्रभावित क्यों है और मुझे मेधावी क्यों समझता है
जबकि मै तथाकथित छोटी जाति का होने के कारण भोंकू हूँ, जिसे
ढंग से शर्ट पहनने नहीं आता. जबकि मुझे लगता शिल्पी जाति से होने के कारण मेरा
यहाँ excel करना स्वाभाविक है .मुझे लगता मै उनसे ज्यादा
आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला हूँ .मेरा हाल दोस्तोवोस्की के पात्र बोझोरोव
जैसा था .मेरे लिए थोडा शकून का विषय मेरे महिला सहकर्मियों की राय थी .वे मुझे
बहुत आधुनिक और तार्किक समझती .मुझे उनके ड्रेस से कोई मतलब नहीं था .इस बात की वे
तारीफ करती .मेरा आत्मविश्वास इससे कुछ दृढ हुआ .यह एक तवील किस्सा है और
मुस्तकबिल में कभी तफसील से इसपर लिखूंगा .
फ़िलहाल किस्सा कोताह यह कि प्रतिक्रियावादी संघी तो
मुझसे घृणा करते ही ,उदारवादी उच्चवर्णी लोग मुझसे उनसे भी
ज्यादा घृणा करते .वे चाहते थे मै हमेशा दयनीय बना रहूँ .हममें से जो दयनीय थे ,उनपर वे उदारवादी गाँधीवादी तथाकथित उच्चवर्णी जान छिडकते .मगर हममे से जो
स्वतंत्रचेता थे, उनकी आंख की किरकिरी थे .मेरा भी यह
स्वतंत्र दुस्साहसी व्यक्तित्व इन्हें पसंद न था .उन्हें रैदास पसंद था जबकि मै
कबीर था .फ्रायड ने गहरी घृणा के फलस्वरुप उपजने वाले जिस घोर प्यार की चर्चा अपने
Interpretation of Dream में की है ,वैसा
ही आत्यंतिक गांधीवादी प्रेम वे हमे करते .हमारे अपने लोग उसी जहालत में पड़े थे .गैर
ज्यादा कलावंत और विकसित था .मगर गैर मुझे शरणागत होने की शर्त पर , निषाद –सा रीढ़हीन भक्त होकर चरण धोने की शर्त पर ही
अपनाने को तैयार था .मैंने इस फ्रायडीय प्रेम से इंकार कर दिया .फलतः मै खिलवतनशी
हो रहा .
अब्बू
देखते कि मै किताबो में ही डूबा रहता हूँ .उन्होंने जहालत में पड़े अपनों के लिए
कुछ करने की सलाह दी .कहा कि तुम्हारा पढ़ाने में जी लगता है ,कोई संस्थान हो खोल लो .मै सुधारवाद के खिलाफ था .मै रेडिकल इन्कलाब चाहता
था .अब्बू से तीखी झडपे हुई.तभी नारीवादी जर्मन ग्रेएर का इंटरव्यू पढ़ा जिसमे
उन्होंने सुधारवाद की वकालत इस बिना पर की थी कि सुधारवाद ही रेडिकल चेंज की जमीन
तैयार करता है .कुछ जर्मन ग्रेएर की तासीर, कुछ ज्योति बा
फुले का जीवन और सबसे ज्यादा अब्बू की उल्फत ने मेरा मन बदल दिया .मैंने मरहूमा मा
के नाम पर एक ट्रस्ट खोला. इधर कुछ फ्रेंच और रुसी लोगो को शौकिया उर्दू और हिंदी
पढाता था .उनमे से दो ने मेरी बहुत मदद की –निको रईस और
लौरेंट पोपोव .गणित ,हिंदी, उर्दू और
अंग्रेजी विषयों को लेकर पढाना शुरू किया ugc-NET परीक्षा के
लिए .ज्योति बा फुले को फॉलो करते हुए मैंने सबके लिए दरवाजे खुले रखे ,मगर आये ज्यादातर अपने ही लोग .वस्तुतः इसे मुफ्त कोचिंग जान इसे इन्होने
दोयम तियम दर्जे का समझा गया. हतोत्साहित न हो मैंने सीमित साधनों के साथ अपना काम
निको के साथ मिलकर शुरू कर दिया .मै उस समय दंग रह गया जब मेरे दर्ज़न भर
विद्यार्थियों में सारे के सारे UGC-NET परीक्षा में
क्वालीफाई कर गये .बड़ी मसर्रत हुई .हम चार फैकल्टी को आत्मिक तोष मिला .इस बाबत एक
स्टेटस फेसबुक पर डाला .सबसे उर्जस्वित भावोद्विग्न सन्देश अनीता भारती का मिला
.मन भींग गया .बार बार पुष्पा केरकेट्टा का ध्यान आता जो एक दातून बेचने वाली
आदिवासी की लड़की थी जिसके प्रति मेरा विशेष स्नेह था .उसने हिंदी से परीक्षा देकर
बहुत अच्छे अंको से सामान्य श्रेणी में JRF के लिए क्वालीफाई
किया था .हिंदी उसके लिए लगभग पराई भाषा थी .उसकी मातृभाषा खड़िया थी .वह उदास उदास
सी रहती थी . मगर जब रिजल्ट आया बहुत खुश थी .वह बाद में रांची चली गई.फिर एक दिन
उसका फोन आया—मै कोलकाता आपसे मिलने आ रही हूँ .’ वह मेरे काम में सहयोग करना चाहती थी .बहुत कम बोलने वाली वह लडकी उस दिन
जब मुझसे मिलनी आई ,तब दामोदर नदी सी क्षिप्र धारा उसकी भाषा
में प्रविष्ट हो गई थी .वह खड़िया मिश्रित हिंदी में बोलती जा रही थी .उसके शब्द
लोरी से लगे ,मुझे .नींद आ गई .नींद खुली तो वह मेरे लिए
जामुन ले आई थी तोड़कर अपने गाँव से ,वह लिए बैठी थी .उसने
जामुन चखे नहीं थे ,यह पता करने के लिए कि खट्टे हैं कि मीठे
? उसे एतबार था खट्टे भी हों तो प्यार से ही खाऊंगा इसलिए कि
मै भी उसी का गोतिया दयाद हूँ .हमारे लिए जिंदगी का इतना नखरा नहीं है .हम आदिवासी
हैं .
दुनिया में केरकेट्टाएं हैं कि जिंदगी भली लगती है
.
“वी आल आर स्टार्स’ के फेसबुक वाल से साभार
ज़िन्दगी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुज़रते हुए अपने लिये शानदार मुकाम बनाने वाले युवाओं के रहनुमा इस फकीर को मेरा क्रान्तिकारी अभिवादन
जवाब देंहटाएंसच्चाई से लिखी ये डायरी मन को छू गयी है .......बेसब्री से इन्तजार है अगली किश्त का .......जय फकीर को सलाम दिलसे
जवाब देंहटाएंपर्त दर पर्त जीवन का कटु सत्य उजागर होता जा रहा है. दर्द के सुर में गाया गया यह मधुर गीत अत्यधिक दिलचस्प और जीवतट से भरपूर है. अगली कड़ी की उत्सुकता बनी हुई है.
जवाब देंहटाएंकटु यथार्थ .मुश्किल हालात से लड़ते भिड़ते हुए अपने आपको इस कदर बचाए हुए है कि कुछ कर गुजरना है कि पिता के जज्बात समझते हुए मुकाम हासिल करना है.
जवाब देंहटाएंखूब.
जवाब देंहटाएंज्यों-ज्यों मैं आपको पढता जा रहा हूँ ..मेरी दृढ़ता प्रगाढ़ हो रही है | तिरस्कृत वर्ग के सभी लोग फ़क़ीर जैसे जीवट नहीं हो सकते क्योंकि उन्हें उजालों की ओर देखने दिया ही नहीं जाता | ये कहानी हर हाल में उन तक पहुंचानी चाहिए ...इसके लिए भी बेशक संघर्ष हो लेकिन नामुमकिन नहीं लगता| फ़क़ीर भाई की सबसे अच्छी बात ये लगी कि उन्होंने नफरतों को अपनी उपलब्धियों में बदल दिया| उनका रेस्टिकेट हो जाना उनको रसातल में भेजने के लिए काफी था किन्तु अब्बा का रोना और फ़क़ीर भाई का संजीदा होना उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट था |
जवाब देंहटाएंफ़क़ीर जी का संघर्ष पढ़ कर रूह काँप उठती है. किस तरह दकियानूसी लोगों ने इस समाज और देश का बंटाधार किया है, यह इसकी एक बानगी है. फ़क़ीर भाई के संघर्ष को सलाम. सिताबदियारा का शुक्रिया कि आपने सहज रूप से हमें इसे पढने के लिए उपलब्ध कराया.
जवाब देंहटाएंमैं फिलहाल कुछ नही कहना चाहता हूँ .........चुप रहना भला लग रहा है
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ...मार्मिक आत्मकथा...विपरीत परिस्थितियों में जीने की प्रेरणा देती...लेखक की जिजीविषा को सलाम
जवाब देंहटाएंझकझोर कर रख देने वाला जीवन संघर्ष। इस जीनियस साथी को सलाम !!
जवाब देंहटाएंचुपचाप पढ़ रहा हूँ। मानो सुन रहा हूँ। गुन रहा हूँ। इस टीप को बीच की 'हूँ' माना जाय।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ! !
जवाब देंहटाएंहम उनसे प्यार करते-करते उनके परिवार , उनके समाज (जाति/वर्ण) से प्यार करने लग गए .....वे .....उनके मामले में ठीक उल्टा हुवा .....धुंवा धुंवा ।
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