रामजी तिवारी
सिताब दियारा ब्लॉग पर आज अपनी दो कवितायें
एक
...
रेडीमेड
युग की पीढ़ी
धन,सता और
ऐश्वर्य के पीठ पर बैठी
कुलाँचे भरती इस
बदहवास दुनिया में
किसके पास है
वक्त
जानने,समझने और
सोचने का
कौन रखता है आजकल
जमीन पर पांव ,
जहाँ विचार
बुलबुले की तरह
उठते और बिला
जाते हैं
कैसे बन सकती है
कोई धारा
खेयी जा सके
जिसके सहारे
इस सभ्यता की
नाव |
रेडीमेड युग की यह पीढ़ी
रोटी और भात की
जगह
पिज्जा और बर्गर
भकोसती ,
बेमतलब की
माथापच्ची को बिलकुल नहीं सोचती |
कि क्यों जब
खनकती हैं जेबें
मैकडोनाल्ड और
हल्दीराम की ,
उसी समय चनकती है
किस्मत
रेंड़ी जैसे किसान
की |
रेमंड के शो रूम
में गालों से
सूतों की
मुलायमियत मापने वाले दिमाग
नहीं रखते इस समझ
के खाने ,
व्यवस्था यदि
उकडू बैठी हो तो
इतने महीन और
मुलायम धागों पर भी
टांग सकते हैं
लाखों अवाम
अपने जीवन के
अफ़साने |
कंक्रीट के
जंगलों में रहते हुए
आश्चर्य नहीं वह
यह कहने लगे ,
उगाते हैं लोहे
को टाटा , सीमेंट को बिड़ला
घरों को बिल्डर ,
ऐसी ही माला जपने लगें |
उत्पाद है यह
के.बी.सी. युग की
विकल्पों से
करोड़पति बनने का देखती है सपना
श्रम तो बस मन
बहलाता है ,
इस प्रश्न के लिए
भी भले ही
लेनी पड़ती है उसे
‘विशेषज्ञ सलाह’
पिता की बहन से
उसका रिश्ता क्या कहलाता है |
नैतिक विधानों को
ठेंगे पर रखती हुई
नाचती रहती है
प्रतिपल
ज्योतिषी की
अनैतिक उँगलियों पर
नहीं हिचकती करने
से कोई पाप ,
कोसती ग्रह
नक्षत्रों की चाल को
किसी तरह काबू
में करने को उतावली
अकबकाई गिरती है
ढोंगियों के आँगन में
‘इसी मुहूर्त में
चाहिए सवा करोड जाप ’ |
रेडीमेड युग के
घाँघ निकालते हैं ‘स्टाक’ से माल
‘बच्चा जब भी
जरुरत हो आना’ ,
बानर की तरह
घूरते – बुदबुदाते
बैठे चेलों की
कतारों को दिखाते हुए
‘अरबों- खरबों
जापों का रेडीमेड है खजाना’ |
हम पौधों के साथ
बीजों को संजोने वाले ,
डरते हैं देखकर
संचालकों के करतब निराले |
कि इनके जीवन का
रेडीमेड
जो इतनी आपाधापी
में चलता जाए ,
कहीं इनके हमारे
साथ - साथ
इस सभ्यता के अंत
पर भी लागू न हो जाए |
दो ...
बाजार में माँ
अपनी भाषा का नन्हा
सा
अदना सा शब्द ‘माँ’
जीवन में उतरते ही
फैल जाता है आकाश
की ऊँचाईयों में ,
रखता है हमारा ख्याल
धरती जैसा ही
सिरजते संभालते
पोसते पालते
जब तक हमारी जड़ें
फैली होती है उसकी
गहराईयों में |
बनना पड़ता है लायक
संतान कहलाने के लिए
भी तन मन में ,
कि जिसके आँचल तले
पले हैं हम
थामना पड़ता है
उसे भी
एक दिन अपने जीवन
में ,
कि जिसकी छातियों
पर खड़े हैं हम
गर्व से मस्तक उठाये
उसकी भी होती है जगह हमारे उपवन में।
आह ! उठती है टीस आत्मा में धसे
काँटे से बनी गोरखुल के बीचोबीच
आज जमाने की चाल देखकर
,
कि बेटों का माँ के
लिए
बुना हुआ शब्दों का
जाल देखकर |
तड़पती है रूह उसकी
कविताओं के पीछे , कहानियों के नीचे |
चित्रों की ओट में
,
मूर्तियों को गढ़ती हथेलियों की चोट में |
जितने अधिक बेटे
उतने अधिक गोल
बने इस जहान में ,
पास की जाती है
माँ उनके बीच फुटबाल बनाकर
इस आपाधापी के मैदान
में |
‘चीफ की दावत’ का
नायक
सिर धुनता है देखकर
हमारी कलाबाजियों
की कारोबार ,
यह कैसा समय है भाई
?
जब ‘चीफ’ क्या
दुनिया को लहालोट
करने के लिए
सजा है माँ का बाजार
|
कैसे खत्म हुआ
मेरे भाई
वो झंझट वो पचड़ा
,
वो कोनें में उसको छिपाने का लफड़ा |
बाँटी तो जा सकती
है अंत की समझ
आज भी उस कहानी
की ,
किन्तु लिखी-समझी
जा सकती है कथा
एक ही बार इस
जिंदगानी की |
शब्दों जितनी ही छेंकती
है जगह
माँ हमारे घरों
में ,
सटा दो पुस्तकों
कलाकृतियों को
बना दो एक कोना
अपने दरों में |
शब्दों से नहीं बनता
है जीवन ,
यह जीवन है जो देता
है उन्हें यौवन |
कि आसमान की ऊँचाईयाँ
नापती
पतंग को थामें रहती
है डोर
दुनिया की नजर से
ओझल
धरती की गुमनामी में
छिपी जिसकी छोर |
कि जीवन रहित चमड़े
का ढोल बनाकर
किया तो जा सकता है
केवल शोर ,
जीवन राग बजाने
के लिए
मांगती हैं सांसे
अंतर्मन का जोर |
ये पुस्तकें ये कलाकृतियाँ
उनके पीछे पलती अमरता
की ईच्छा ,
बिला जायेंगी एक दिन
अन्तरिक्ष में गये
शब्दों की तरह
माँ की तलाश में
ली जाएगी जब
तुम्हारे घरों कोने-अँतरों
की परीक्षा |
उस समय के लिए ही
सही
बचाकर तो रखो उसे
थोड़ी देर सुस्ताने
के लिए ,
जैसे जड़ों से उखड़कर अरराकर गिरता है पेड़
तो आँचल पसारती
है वही धरती
अन्तिम प्रयाण से
पहले
उसे विश्राम कराने
के लिए |
परिचय
और संपर्क
रामजी
तिवारी
बलिया
, उ.प्र.
मो.न.
09450546312
दूसरी कविता बहुत ह्रदयस्पर्शी लगी रामजी भाई ...बधाई
जवाब देंहटाएंदूसरी कविता ने दिल को छू लिया .
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद