आज सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रस्तुत है
कैलाश वानखेड़े के कहानी संग्रह ‘सत्यापन’ पर लिखी मेरी यह समीक्षात्मक टिप्पड़ी
‘सत्यापन’ कैलाश वानखेड़े का कहानी संग्रह है | इसमें कुल नौ कहानियाँ
हैं, और ये सभी कहानियां उस भाव-भूमि को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं, जिनमें
हमारे समाज एक बड़ा तबका समय के एक लम्बे दौर में अमानवीय जीवन जीता आया है | दुर्भाग्य देखिये कि यह अमानवीय जीवन उसी समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों ने इस बड़े तबके को रसीद किया है | ‘कैलाश वानखेड़े’ का यह
संग्रह हमें यह भी बताता है, कि यह महज कहानी या कोई गल्प नहीं, वरन एक नंगी
सच्चाई है, जिसे हमें न सिर्फ स्वीकार करना चाहिए ,वरन उसे सार्थक दिशा
में बदलने का प्रयास भी करना चाहिए | इसलिए यह कहानी संग्रह समस्याओं पर तो उंगली
रखता ही है, हमारे सामने प्रकारांतर से एक विकल्प भी सुझाता चलता है कि इस समाज को
कैसा होना चाहिए |
ऊपर से देखने पर यह कहानी संग्रह एक सा नजर आता है, क्योंकि इसकी
विषय-वस्तु उस क्रूर और अमानवीय समाज के इर्द-गिर्द ही बुनी गयी है | लेकिन अन्दर
से पड़ताल करने पर यह पता चलता है, कि ऐसा करते समय अभी भी उन अमानवीयताओं में से कितना
कुछ छूट गया है | जाहिर है, हजारों सालों की क्रूरताएं नौ कहानियों में तो समेटी
भी नहीं जा सकती हैं, लेकिन जितना कुछ किया जा सकता है ,कैलाश वानखेड़े ने उसमें
सार्थक करने का प्रयास किया है | इस संग्रह की कहानियां न सिर्फ सामाजिक भेदभाव,
जातीय घृणा, झूठी श्रेष्ठता, छुआछूत और अमानवीय स्थितियों से टकराते हुए चलती हैं
,वरन संवेदनशील तरीके से उस वर्ग की आवाज भी बन जाती हैं, जिसने सदियों से ये
क्रूरताएं झेली हैं | ये कहानियां उस परम्परागत सौन्दर्य-शास्त्र से अलग रास्ता भी
चुनते हुए उसे सार्थक तरीके से विकसित भी करती चलती हैं | यहाँ कला के अपने पैमाने
हैं, जिनमें कल्पना से अधिक यथार्थ भरा हुआ है | जहाँ समाज का रेखांकन तो है ही,
झूठ और आडम्बर से लड़ाई भी है और अपनी बात को कह देने पर दिया जाने वाला बल भी |
‘सत्यापित’ इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी है, जो हमें उस विडंबना की
तरफ लेकर जाती है, जिसमें संविधान और सरकार प्रदत्त सुविधाओं पर एक बड़ा ग्रहण लगा
हुआ है | संविधान, जहाँ इन वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष सुविधाएँ दे
रहा होता है, तो दूसरी तरफ विडम्बना यह है, कि इन वर्गों के लोगों को ‘सत्यापित’
करने की जिम्मेदारी अभी भी उन्हीं लोगों के हाथों में बनी हुयी है, जो आज तक इनका
शोषण करते आये हैं | तभी तो यह कहानी यह सवाल उठाती है कि “ जो हमें नहीं जानता,
नहीं पहचानता, वही हमें सत्यापित करता हैं, और उसी न जानने वाले के दस्तखत से हमें
जाना जाता है | कभी-कभी लगता है कि ये कौन लोग हैं, कहाँ से आये हैं जिनके पेन से
तय होती है हमारी पहचान ?”(पृष्ठ स. १७) |
और अपने इन्तजार कराये जाने से तंग आकर, तब उसका पात्र इस सवाल को मुखरित
करते हुए उस समूचे वर्ग की आवाज बन जाता है , “ साहब ....अब टेम तो हमारे पास भी
नहीं है |” मतलब कि हम दरवाजे तक पहुँच गए हैं, इसलिए अब तो यही बेहतर है कि इस बात
को समाज भी समझ ले |
‘तुम लोग’ कहानी उस पीड़ा को व्यक्त करती है, जिसमें यह समाज इन वर्गों
को अपने आप से अलगाता आया है | यह एक मार्मिक और संवेदनशील कहानी है | एक अंश
देखिये | “ तुम लोग ..तुम लोग ....दुकानदार कहता है तुम लोग ...सब्जी वाला कहता है
तुम लोग ...तिवारी कहता है तुम लोग ...तुम लोग....तुम लोग ....| बोलते वक्त क्या
रहता है इनके दिमाग के भीतर ?” (पृष्ठ स. – २९ ) | वही एक दूसरी कहानी ‘अंतर्देशीय
पत्र’ में लेखक ने शिक्षा की महत्ता को दर्शाते हुए यह माना है कि
सामाजिक-परिवर्तन में उसकी सबसे अहम भूमिका होती है | इस संग्रह की एक और अच्छी
कहानी ‘महू’ है, जो डा. अम्बेडकर के जन्मस्थान को अपने लिए एक क्रांतिकारी स्थान
घोषित करती है, और इस सवाल से टकराती है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ने के लिए
पहुँचने वाले दलित लड़के–लडकियां इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्या क्यों करते हैं ?
आखिर वे कौन सी परिस्थितियां हैं, जिनमें व्यवस्था तो उन्हें पहुँचने के लिए
रास्ता देती है, लेकिन समाज उन्हें जीने लायक परिस्थिति नहीं देता | कहानी कई
स्तरों पर चलती है, और कई बड़े सवालों से टकराती है |
‘स्कालरशिप’ कहानी में भी कुछ ऐसे ही ज्वलंत सवाल हैं, कि व्यवस्था
द्वारा उपलब्ध कराये गए अवसर समाज द्वारा कैसे ‘रिड्यूस’ किये जा रहे हैं | ‘कितने
बुश कितने मनु’ कहानी में ‘मनुवाद’ की तुलना ‘बुशवाद’ से की गयी है, जहाँ पर
‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाला सिद्धांत चलता है | संग्रह की अंतिम कहानी ‘खापा’ है,
जो इस संग्रह की सबसे अच्छी कहानियों में से एक भी है | इसका शिल्प तो लाजबाब है
ही, इसकी संवेदनशील बुनावट इसे बहुत ऊँचाई प्रदान करती है | जालिम व्यवस्था के
अवशेषों को समाप्त कर देनें की गुहार लगाती हुयी इस कहानी में ‘कैलाश वानखेड़े’ के
भीतर का कथाकार खुलकर मुखरित होता है |
कुल मिलाकर यह संग्रह काफी उम्मीद जगाता है | कहानी की दशा और दिशा के
साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की ओर बढ़ने वाले प्रयास के प्रति भी | बस कुछ चीजें
अखरती हैं | जैसे कि कहानियों की भाषा, जिसमें मराठी शब्दों का प्रयोग खटकने के
स्तर तक मिलता है | और फिर कथाकार ने कुछ मुखरित अंतर्विरोधों पर भी बात नहीं की
है | मसलन उस समाज में आगे निकल जाने वाला तबका क्यों और कैसे उसी विशिष्ट
अभिजात्य वर्ग की तरफ बढ़ने लगता है, जिसके विरोध में उसने यह सारी लड़ाई लड़ी है ?
आखिर वे कौन से कारक हैं, कि दलित-आरक्षण का सबसे अधिक मुखर विरोध उत्तर प्रदेश
में राज करने वाली पिछड़े वर्ग की सरकार द्वारा ही किया जाता है ...? उम्मीद की
जानी चाहिए, कि अपनी अगली कहानियों में कैलाश वानखेड़े इन जैसे कई और ज्वलंत सवालों
से भी टकराने का प्रयास करेंगे | फिलहाल तो यह संग्रह उनसे काफी उम्मीद जगाता है |
कहानी संग्रह – सत्यापन
लेखक – कैलाश वानखेड़े
आधार प्रकाशन
प्रस्तुतकर्ता
रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो.न. 09450546312
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