शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

लेखक का एकांत - शैलजा पाठक

                                  शैलजा पाठक 


शैलजा पाठक ने अपनी बातों को कहने की एक नयी शैली विकसित की है | इसका नाम है .....‘लेखक का एकांत’ | पिछले कुछ समय से इसके सहारे वे हमसे लगातार संवाद करती आ रही हैं ....| अब तो फेसबुक पर जिन कुछ पोस्टों का हमें इंतजार रहने लगा है , उनमें शैलजा का यह एकांत भी शामिल है | यह शैली हमें ऐसे जोड़ती चलती है , जैसे हमारे मन में एक दृश्य बनता चला जा रहा हो | और किसी भी लेखक-लेखिका के लिए इससे सार्थक बात और क्या हो सकती है , कि वह अपने पाठकों के मन में अपने शब्दों से दृश्य खींच दे | सिताब दियारा उनकी इस कोशिश पर हार्दिक बधाई प्रेषित करता है .....


        तो प्रस्तुत है शैलजा पाठक की यह श्रृंखला ‘लेखक का एकांत’      


एक ......


घरों में वजह बेवजह टूटते हैं शीशे .....सुबह तडके ही मोतियाँ बुहारी जाती है.... आग के सामने बिखरे बालों को ठीक करती रात ....अब दिन के हवाले ....कसी चूड़ियों की खनखनाहट नहीं , गोल गोल वृत्त में मौन घूमता है .....चाक पहिया की कहानी इतनी पुरानी भी नही , कि समय न दुहरायें अपने आप को ......

एक से दिखने वालों घरों के छतों से रोज़ सपनें नही टपकते ..तेज़ाब की बूंद भी रिसती है ...बिस्तर पर एक भींगी रात का मायाजाल है ..भोर धीरे से सूखे चप्पल डालती है ..चुभती बिछियाँ की दिशा बदलती है ..और तेज नल की आवाज के साथ पुरानी बिंदी को उतार देती है .....सफ़ेद पड़े दाग को रगड़ कर देखती है ..शायद छूटे न छूटे ...ऊपर से फिर दिन नई बिंदी बन चिपक जाता है ...

एतराज जताने से खाली शीशियों में जहर भरा सा दिखता है ...साफ़ चमकते फर्श पर बच्चे इधर-उधर भागते हैं.....मैं सजग सारी सलवटे बाहर फेंक आती हूँ ..उनके पैरोमें कभी भी कुछ भी चुभ सकता है ...इससे अच्छा है सब साफ़ रखा जाए...मुस्कुराहटें पूरे दिन फर्श में खिलखिलाती रहेगी .....आग पानी खाना पसीना और दिक्कतों के लिए बनाई गयी है घर के कोने में एक जगह.....इसे ही हम रसोई कहते हैं ....नमक , तीखापन और मिठास का हिसाब करती घर की लक्ष्मी जलती आरती से उतारती है घर की नजर ..और औंछ लेती है दुश्वारियां अपने नाम .....आखिरी हथेली का दीपक उसकी आँख में समां जाता है ...

झिलमिल की मुस्कान ..मुठ्ठी भर दुनियां ...धूपबत्ती का धुआं ...आँख भर उम्मीद ...

लेखक का एकांत ..घरों की किरचें जिनसे बनती हैं शुभ लाभ वाली रंगोली दरवाजों के बाहर ........



दो.....


इश्क मासूम है इल्ज़ाम लगाने पे ना जा ..मेरी नजरों की तरफ देख नजारों पे ना जा ......

इस खूबसूरत गीत के साथ आज नजर फेरती हूँ , उस खाली पड़ी सड़क से जरा पास ही चलने वाली उस डगर की ओर , जहाँ चाहतों के गुलाब खिले हो ..इन्तजार की पंखुरियां पसरी हों ...मीठे ख्वाब की मखमली घास बिछी हो ...बड़ा खुला सा आकाश हो ..जहाँ रंग उड़ रहे हों और हवाएं पलकों को छू रही हों ...मन को बदलना है कि बदलती दुनियां की दुश्वारियां सह ली जाएँ .....

.लगातार बारिश है ..तेज ..बेहद तेज .... घर की दीवार सिसकियों से नहीं आहत हैं ..आज सब छिपा ले गई ..वह दर्द भी ..जो बेवक्त ही मन को छलनी कर गया था ...अब इस सन्नाटें से दूर भाग रहीं हूँ ....एक ताज़ी हवा ..ठंठी ..जहाँ बीते दिनों की राख नहीं उड़ती हो  ....कि सिमट न जाये कोई बीता दोस्त और मुस्कराता सा पूछे बस....... मना लिया शोक ? तो फाइनली जाऊं ? जाओगे कहाँ ...कवितायें हमसे जुदा नही हो सकती ..वह आवाज भी नही ...जो अपनी बड़ी हथेलियों से माथे कि शिकन साफ़ करती हुई कहे कि धूप नही सह सकती ..बेकार ही आई ना यहाँ ...यह रेगिस्तान है ..पागल ....यहाँ रिश्ते पानी से चमकते हैं .....पास जाओ तो बस हार जाने की पीड़ा ..जाओ वापस जाओ..

पर नही अब तो चल पड़ी हूँ ना ..कहाँ जाऊं वापस ...कितने रिश्तें रेत के बवंडर की बलि चढ़ेंगे ..देखते हैं ..मीठे पानी तक पहुचने का रास्ता भी यही है ...तो मन को भरमाते हैं ..मुस्कराते हैं ..पुरानी फिलम का गाना गुनगुनाते है ...आँख की उदासी को गलती से भी आईने में नही देखते ..बीते दिनों की थमी नब्ज पर नहीं रखते हाथ ..

हमारा दिल धडक रहा है ..कोई नई कविता लिखी ?? नीले आसमान पर छतरियों के नीचे दो प्यार करने वाले एक सरगम पर चलते एक गुलाबी दिशा की ओर जा रहे हैं....

दिल की आवाज ही सुन मेरे फसानों पे ना जा ....लेखक का एकांत


तीन .....


नींद छल रही है ..रात आस पास बनी रहती है ..न जाने किधर किधर भटकाती है ..तकिये के पास आ सिरहाने पालथी जमाये बैठ जाती है ..पर थकी भींगी आँखों में नही आती ..इतनी तो बात है इसके पास ..ऐसा होता वैसा होता ..तुम्हारे मन की हलचल में तुम हमें ही दूर कर देते हो ..क्यों भला ?तो लो इधर ही हूँ तुम्हारे पास ..बोलो अब ..जो सारी रात करवटों में बेचैन होती हो ...मुझे बता दो ..मन से मन को आवाज लगाने से कलेजा बड़ा गहरा दुखता है .....जैसे नदी को एक कमजोर बाँध से बाँधने की कोशिश करता ...बहने दो जो अधिक उमड़ रहा है ...एक बार हहराने से शांत हो जाता है मन ..

पास बैठी नींद की बातें भी वाजिब ...बेचारी अकेली पड जाती हैं ..हमारी परेशानियों में ...भूख का भी हाल वही ..खाना है स्वाद गायब ..अब रोटी गले के नीचे उतारनी है तो गटागट पानी सी उदासी से गटक लो ...हमारी डायरी का मन भी बड़ा दुखता होगा ..जब हम चुपचाप सबसे अकेले कमरे में उसका कोई भी पन्ना खोल कर कहीं भी देखते हुए कहीं भी नही देखते ...फिर अजीब भारी शब्दों की फीकी रंगोली बनाते है ..आधी अधूरी ही बनी कि पन्ने झाड कर ..फिर कोरे हो जाते हैं ...

ऐसा मन हो जाने पर अम्मा एक पुराना स्वेटर उधेड़ती थी ..एक पुरानी कहानी के साथ ..एक नए डिजाइन की खोज करती हुई सरिता का कोई पुराना अंक पलटती और दो पत्तो की बेल वाली डिज़ाइन से सजा देती एक हाफ बाहीं का स्वेटर ..पूरे से आधा हो जाती पर कुछ नया ही बुन लेती .....

हम भी इस आधे मन से कुछ नई शुरुआत करें .....तुम्हारे लिए लिखने को शब्द कम नही ..पर हम ही कमतर है शायद ..चलो एक मुस्कराहट पहन लेते हैं ..तुम्हें सोचती हुई कोशिश करती हूँ कुछ और भी सोचूं ..आकाश उतना ही नीला ..नदी कितनी गहरी ...बांसों के घने जंगल में ये हु हु सी सीटियाँ फूकती हवा ..रुको ..जरा डरे हुए हैं हम ..

.नींद माथा सहलाती है ..सिरहाने बड़ी भीड़ थी रात..कहाँ गये सब ??? फिर छली गई क्या ????

एकांत में बुनी जा रही कहानी सा खाली मन .......


चार ....


यादें हमारी निजी थाती होती हैं ...जब चाहें जैसे चाहें उनसे दो चार होते रहें ...एक बड़े आँगन में विलाप की चादर बिछी है लोग छाती कूट कर रो रहे हैं ..हम हिस्सा नही बन पाते ..हम अपने हिस्से का सन्नाटा खंगालते हैं .. एक खाली कुर्सी पर बैठ बिना वजह हिलते हुए शून्य में एक चेहरा काढते हैं ..जिसकी आँखें इतनी छोटी हैं कि आपकी आखों में डूब कर ख़तम हो जाएँ ..वो दावा भी यही था ..रहा तो प्रेम पर बेहतर कवितायेँ लिखूंगा ..गर नही तो यहीं तुम सबकी आँखों में दिलों में मर जाऊँगा कि जी जाऊँगा शायद .

.बेवकूफी ही सही पर करने का मन करता है कि वापस आ जाते... एक बात करनी है ..एक आखिरी बार तुम्हारी कही टुकड़ो वाली उदासी को समझने के लिए ..पर नही ..जाने के तमाम रास्ते हैं ..वापस लौट आने का कोई भी नही ...उस आखिरी साँस पर तुमसे जुडा हर शख्स एक बार जरुर बेचैन हुआ होगा ..अचानक जलने लगी होंगी आँखें ..परदे हटा कर उजाले को देखा होगा ...एकदम से बेतहाशा पीने लगा होगा ठंठा पानी की कुछ अटक सा गया निगलना है .

.मुझे हमेशा लगा ..बिछड़ने की दस्तक हर प्यार करने वाले के दिलों में होती है ..पर समय रहते हम कभी नही समझ पाते ..दरवाजे के उस पार एक प्यासा है ग्लास भर पानी की खातिर जान से चला गया ...ओह ..तुम्हें छूते हुए जैसे ही गांठों से हमारे हाथ गुजरे हम रुक कर क्यों नही पूछ पाए ...सब ठीक तो हैं ना ??दोस्त प्रेम लिखता हुआ टूट रहा हो ..हर दिन एक नई उदासी से धो रहा हो अपने हाथ ..अपने आँखों में किसी और ही दुनियां का नक्शा बना रहा हो ...बिलकुल हमारे पास से मुस्कराता हुआ उठ कर चला जाये ये कहता .चलो मिलते है फिर ...हमने रोक कर एक बार गले क्यों ना लगा लिया ..अरे रुको अभी कहाँ जा रहे हो ..चलते हैं ना साथ ..

.पर तुमने अपने लिए अपना जाना चुन लिया ..धुआं राख मिट्टी और पानी की किधर होती है शक्ल ...सब एक हो गये ..ये जीना मरने के बाद का मरना है ...एक आग की जहर में बुझी खबर ..वो नही रहे...काला पड़ता शरीर ..मूक होते शब्द ..सन्नाटे को धुनना खाली कुर्सी पर तेज हिलना ..नही मानने के झूठ में ..आँखों में डूबती एक बेहद छोटी आँख ..नदियाँ ..ज्वार ...बाढ़ ....बिलकुल हरी पत्ती जो लहराती हुई ...नदी की छाती पर सवार ..फिर गोते लगाती सी ...

बस आँख बंद ..और कुछ नही ....एकांत रुदन ..ये मरना मारता है ...


पांच .....


तुम मुझे जरा भी अच्छे नही लगते ..कि कभी समझा ही नही मन मेरा ...तुम्हारी तस्वीरों से रोज़ न जाने कितने परदे उठाती गिराती बतियाती और सबसे पुरानी किताब की तहों में तुम्हें सहेज लेती हूँ ..अब कल फिर यहीं से शुरू करुँगी दिन का सिलसिला ..तुम्हारी ओर देखते बार बार दुहराऊगी ..तुम मुझे जरा भी अच्छे नही लगते ...

.दिल के कोहनी मारने पर नही दूंगी जबाब ...हाँ सच क्या ? हुह ..तुम्हें क्या ..किताब तस्वीर ..बात ..और कुछ भी अच्छा नही ..हाँ हाँ सच ..............

ये मन को छलना ..और कहना ..सिलसिला चलता रहे ..बस...आँखों के किनारों पे ठहरता ही नही ..वक़्त ..प्यार..याद ..ओस ...आंसू ....टपक...टपक ..ये गिरा... वो भींगा ..जरा सुस्ता ले की रात सपने भी सँभालने हैं ..संभल ..समेट....ये जिंदगी की धार है ....चल ..थाम ले ....साँस की डोर ..अब धडक ....

चुभती आवाज का साथ .....आदतन या इरादतन ...एकांत की धुन ......


छः

इया के ताखे पर रखी मट्टी तेल की ढेबरी भक कर के बुझ जाती थी ..पूरा ताखा काला रंग जाता ..कुछ ताखे की दीवार पर भी ऊपर की ओर चढ़ जाता ...अब मान लो कि रात निकालनी हैं इसी अँधेरे में ....मन के अन्दर भी कभी ऐसी ही कोई तस्वीर सी बन जाती है ..आले पर जलता है कुछ ...भक कर बुझता भी है ..अजीब उदास रंग छोड़ जाता है ...सुबह भींगे कपड़ों से पोंछ पांछ कर जरा साफ़ सुफ़ कर लो ...और चल पड़ो.

.इस जलते समय में सबसे नर्म ख्यालों को बचाना एक चुनौती भरा काम है ...कहीं कुछ अच्छा नही हो रहा ..सड़कों की छाती भी कितनी लहुलुहान है ..बेवक्त ..बेसबब ..बेहिसाब लाशों से पट जाती हैं ..आग इतनी कि जलाये जा रही है अपने आस पास को ..जहाँ नही पहुच पाती वहां उसके धाह से गर्माता रहता है माहौल ..अब आज ही खिले फूलों को कौन बचाए ..अभी जनम लिए सपनों को बचाना है ..नदी में कम होते पानी में डूब भी नही पाती आँखें ..उसपर उदास सरकते दिए को दिशा दिखाना है...रिश्तों में बढती दूरी को नेह से सींचना है कि बने रहे जिंदगी में ...

अजीब खौफ का कीड़ा रेंगता रहता है रात भर खुले शरीर पर ..मन उदास सा नही बुझा बुझा सा है ...रास्तों को रौदती गाड़ियाँ भाग रही हैं ...आज फिर आजमाते हैं जिंदगी को ...कुछ उजाला बटोर लायें .......

एकांत की बातें ..डरा सहमा जीवन ..हुह

सात ...


जिंदगी बड़ी लटाई पर लपेटा जाने वाला मंझा है ...चुस्त लिपटा रहे तो पतंग की उड़ान ऊँची हो जाती है ..ढीला ढाला रहे तो उलझता रहता है ..आप सुलझाते रहो ऊपर पतंग डूबती उतराती रहेगी ..या कि पटकइयां खा जाए ..अब आप फिर से सर पकड़ कर बैठ जाओ ..रेशा रेशा सुलझाओ ..सुलझे हुए को लपेटो जो उलझ कर गांठें सी बन जाएँ उन्हें तोड़ मरोड़ कर फेक दो ..तब तक बाकी की पतंगे ..नीले आसमान पर लहराती सी कितनी दिशायों के किनारे छू कर लौंट भी आयें ....

चुस्त दुरुस्त कसी हुई जिंदगी ..संभले हुए रिश्ते ..धार पर चलने का गुण ..उम्मीदों के आकाश पर इक्षाओं के इन्द्रधनुष ...सब संभव है ...

खोने के दुःख का लम्बा रास्ता है ..पाने की खुशियों की छोटी डगर क्यों? आंसू से भरी आँखों पर कितनी कवायद ..मुस्कराहट की उपेक्षा क्यों ...रोटी पर लगे परथन सी झटक कर नही उतार सकते परेशानियाँ ..पर खुशियों के नाम पर कुछ मीठा हो जाए का फंडा साथ हो तो चलती जिंदगी को ठोकरों के साथ भी संभाला जा सकता है ...

हमारे गंदे मुंह को अपने आंचल में अम्मा कैसे पोंछ कर साफ़ कर देती और अपने पल्लू को झटक कर सुखा लेती ..हवा में लहलह सी ...बस वैसे जिन्दगी भी ..दुःख दर्द खुशियों से भींगता रहे ..लहराता रहे ...

उदासियाँ लम्बी हो तो भरे ठंठे पानी के ग्लास से ना जाने किस मटमैले रंग का धुआं सा उठता है ..

.घूंट घूंट मुस्कराहटों से जिंदगी को अपना कर्जदार बना दो ..जितने रंग देने हैं दो मैं तैयार हूँ ......लेखक का एकांत ..अजब गजब




परिचय 

शैलजा पाठक

कवयित्री
बनारस में पली-बढीं
आजकल मुंबई में रहती हैं     

  

                              

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