सिताब दियारा ब्लॉग पर आज अपनी दो कवितायें
कल्पित
सिद्धान्तों का भ्रम
उँगलियों को
थामें शनि गुरू लगायत मंगल,
सुनहले पालने में
लाकेट बन झूलते त्रिपुरारी
रोज लड़ते हैं उसके
लिए दंगल |
रक्षासूत्र बन
कलाईयों पर लिपटे
सत्यनारायण भगवान ,
मोबाइल में वाल पेपर
बन
चीरते हैं सीना
पवनसुत हनुमान ,
और बजते हैं फोन आने
की धुन में
ओम् साईं , ओम्
साईं, ओम् साईं राम |
सुबह का बिलानागा
एकघण्टा
धरती के गर्भ से
पूजाघर में कैद
देवताओं के लिए ,
वह दौड़ता है नंगे
पांव प्रतिवर्ष दरबार में
वैष्णवी जैसी माताओं
के लिए |
प्रत्येक सावन में
अखण्ड हरिनाम जाप ,
पूर्णाहुति पर होती
है कथा
सब माया है , कैसा
शोक ? कैसा संताप ...?
ये तो चन्द उदाहरण
भर हैं
उसकी अगाध आस्था को
देखने-सुनने के
पकड़ पाया मैं मतिमंद
जिसे आधे-आधे में ,
हरि से जुड़े रहने की
यह कथा
लगती अनन्त है हरि
जितनी ही
अभिवादन का जवाब भी
जब वह
देता है ‘राधे-राधे’ में |
तो कौन मानेगा कि
जाँत रखकर
समाज की छाती पर
प्रतिपल
वह मूंग भी दलता
होगा ,
करता होगा ताण्डव
नृत्य उसके कपाल पर
धन सत्ता और ऐश्वर्य
के शिखर को चूमने के लिए
नैतिकताओं को
चुटकियों से मसलता होगा |
अरे ठहरो ....!
भ्रम में वह नहीं हम
हैं ,
कि होते हैं घटित
कल्पित सिद्धांत भी
कार्यकारण और कर्मफल
जैसे
जबकि जानता है जगत
बात बिलकुल बेदम है
|
तभी तो इतने सारे
ईश्वर भी मिलकर
नहीं बना सकते उसे
एक अदना सा इन्सान ,
और न ही तमाम
धर्मग्रन्थों में
बिन्दुओं की औकात
रखने वाले
आतताइयों जितना ही
निर्धारित कर सकते हैं उसके लिए
कोई भी दण्ड विधान |
बिजूका
अपने कोने-अँतरों
से निकलकर
वे पहुँचे थे
मन्त्रों और
मुहावरों वाली
दुनिया में हमारी ,
सामना हुआ उनका
हमारे समय की चमकती
चीजों से
निकली आह ..! लम्बे
शोध के बाद
यह कैसी दुनिया है
तुम्हारी ..?
है यह एक ‘जुआखाना’ ,
जिसने एक बार खेला
लत लग गयी
लाख समझाता रहे
जमाना |
और परिणाम तो पता ही
था
दो चार की जीत ,
अधिकांश की हार ,
परन्तु हारने वाले
इस आशा में
कि यह नहीं तो अगली
या इस नहीं तो उस
जनम में
करेंगे जरूर बाजी का
दीदार |
और ‘डाकू’
लगा दिया कनपटी पर
आस्था का तमंचा
खत्म हुआ सोचना ,
उतरवा लिया दिल में रखी
आत्मा
मस्तिष्क में रखा
विवेक
और जेहन में रखी
चेतना |
और ‘पुजारियों का
कर्जदार’
जो हो चुका है अब
कंगाल
लोगों से लेकर इनका
उतार रहा है
पता नहीं उनकी ईच्छा
का कब रखेगा ख़याल ?
और ‘दुनिया का सबसे बड़ा
नियोजक’
लघु कुटीर और भारी
उद्योगों को
एक साथ संचालित करता
जाए ,
मुनाफे की सुनिश्चित
गांरटी जिसमे
और भविष्य में अपार
सम्भावनाएँ |
और ‘घाट’
जहाँ कोई भी आततायी
अपने ऊपर लगे खून के
धब्बे को
एक कथा सुनने का
ढोंगकर धो डाले ,
कैसा पाप ? कैसा
पुण्य ..?
वह अगली हत्या की
निरापदता का
आशीर्वाद भी पा ले।
और ‘प्रदर्शनी’
जहाँ कोई भी मदान्ध
आकर
अपने ऐश्वर्य का
नंगा नाच कर जाए ,
कहलाने लगे वही
दानवीर
जो चन्द मुहरों का
तमाचा जड़ जाए |
और ‘बिल्डरों का लठैत’
जो सार्वजनिक स्थलों
को कब्जियाता है ,
और पूरा गांव
मोहल्ला
किसी बहरे की सनक का
शिकार बन
सारी रात तारे गिना किरता
है |
भनक लगी हमारी
दुनिया को
मिला जब शोध पत्र
‘और’ की श्रृंखलाओं वाला ,
सब हँसे उन पर
चरितार्थ हुआ किस्सा
अन्धों के गाँव में
हाथी वाला |
“तो क्या यह
तुम्हारा आराध्य है ?”
वे ठठाकर हँसे
“ये तुम्हारा साध्य
है ?”
चारे को बंशी में
नाथने से
फँस तो सकती है
मछलियाँ ,
माटी को उर्वर नहीं
बनाया जा सकता
जानती समझती है
दुनिया |
उसी तरह आत्मा से
खदेड़कर
मूर्तियों में
बिठाया गया ईश्वर
संभव है मुनीमगिरी
जमा ले ,
परन्तु अशरफियों को
गिनने वाली उँगलियाँ
नहीं रह पाती इतनी
ताकतवर
गोवर्धन को उठाकर वे
ईश्वर का दर्जा पा ले |
अपने फैलते जा रहे
पेट को भरने के लिए तुम
समाज के खेत में
धोखे की फसल उगाते हो ,
काटते हो
सुविधानुसार
और उसी का गीत गाते
हो |
सब जानते हैं जिसकी
रखवाली में तुमने
एक बिजूका गढा है ,
इन लहलहाती फसलों के
बीच जो
आराध्य के नाम से
तुम्हारी चाकरी में
खड़ा है |
परिचय
और संपर्क
रामजी
तिवारी
बलिया
, उ.प्र.
मो.न.
09450546312
धर्म और ईश्वर के नाम पर चल रही धोखाधड़ी और पाखण्ड को बेबाकियत से बेनकाब करती सशक्त कवितायेँ | बधाई |
जवाब देंहटाएंआत्मा से खदेड़ कर मूर्तियों में बिठाये गए ईश्वर
जवाब देंहटाएं***
क्या सटीक तस्वीर उभरी है इन कविताओं के माध्यम से!
सशक्त कवितायेँ!
दोनों ही कविताएँ धारदार .....सादर
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन
मुझे ऎसी कवितायें रुचती हैं. तीखी, खुरदुरी सी लगती लेकिन धारदार और एक आंतरिक लय में बंधी. इनका पाठ अगर डूब के किया जाय तो बड़ा प्रभावी होता है. रामजी भाई, इस जोनर में लगातार लिखिए. संभव है यह शुद्ध कविता की मांग करने वालों के काम की चीज़ न हो लेकिन जनता के काम की चीज़ तो है ही. बिरादराना सलाम!
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आप सबका ....
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