बलिया के सूदूर गाँव से निकलकर नौकरी की तलाश
में आरसी चौहान उत्तराखंड पहुंचे , जहाँ उसी तरह की दूर-दराज और विपरीत
परिथितियों वाली जगह उनका इन्तजार कर रही थी | उन्होंने अपने हौसले को बुलंद रखा |
नौकरी के साथ-साथ साहित्य सृजन और सामाजिक दायित्वों को निभाने की इच्छा ने उन्हें
सदा ही बेहतर करने के लिए प्रेरित किया | उनकी कविताओं में भी हम यह देख सकते हैं
, कि वे किस तरह न सिर्फ अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं , वरन उसमें आये बदलाओं की
शिनाख्त भी करते हैं | बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस युवा कवि का सिताब दियारा ब्लॉग
हार्दिक स्वागत करता है |
तो
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर युवा कवि आरसी चौहान की कवितायें
1 ... बेदखल किसान
यह अलग बात है
बहुत दिन हो गये उसे किसानी छोड़े
फिर भी याद आती है
लहलहाते खेतों में
गेहूं की लटकती बालियां
चने के खेत में
गड़ा बिजूका
ऊख तोड़कर भागते
शरारती बच्चों का हूजुम
मटर के पौधों में
तितलियों की तरह, चिपके फूल
याद आती है
अब भी शाम को खलिहान में
इकट्ठे गाँव के
युवा, प्रौढ़ व बुजुर्ग लोगों से
सजी चौपाल
ठहाकों के साथ
तम्बू सा तने आसमान में
आल्हा की गुँजती हुई तानें
हवा के गिरेबान में पसरती हुई
चैता-कजरी की धुनें
खेतों की कटाई में टिडि्डयों सी
उमड़ी हुई
छोटे बच्चों की जमात
जो लपक लेते थे
गिरती हुई गेहूँ की बालियाँ
चुभकर भी इनकी खूँटिया
नहीं देती थी
आभास चुभने का
लेकिन ये बच्चे
अब जवान हो गये हैं
दिल्ली व मुंबई के आसमान तले
नहीं बीनने जाते गेहूँ की बालियाँ
अब यहीं के होकर रह गये हैं
या बस गये हैं
इन महानगरों के किनारे
कूड़े कबाडों के बागवान में
इनकी पत्नियाँ सेंक देतीं हैं रोटियां
जलती हुई आग पर
और पीसकर चटनी ही परोस देतीं हैं
अशुद्ध जल में
घोलकर पसीना
सन्नाटे में ठंडी बयार के चलते ही
सहम जाते हैं लोग
कि गाँव के किसी जमींदार का
आगमन तो नहीं हो रहा है
जिसने नहीं जाना
किसी की बेटी को बेटी
बहन को बहन और माँ को माँ
हमने तो हाथ जोड़कर कह दिया था
कि- साहब ! गाँव हमारा नहीं है
खेत हमारा नहीं है
खलिहान हमारा नहीं है
ये हँसता हुआ आसमान हमारा नहीं है
नींद और सपनों से जूझते
सोच रहा था
वह बेदखल किसान
महानगरों से चीलर की तरह
चिपकी हुई झोपड़ी में
कि क्यों पड़े हो हमारे पीछे
शब्द् भेदी बाण की तरह
क्या अभी भी नहीं बुझ पायी है प्यास
सुलगती आग की तरह।
बहुत दिन हो गये उसे किसानी छोड़े
फिर भी याद आती है
लहलहाते खेतों में
गेहूं की लटकती बालियां
चने के खेत में
गड़ा बिजूका
ऊख तोड़कर भागते
शरारती बच्चों का हूजुम
मटर के पौधों में
तितलियों की तरह, चिपके फूल
याद आती है
अब भी शाम को खलिहान में
इकट्ठे गाँव के
युवा, प्रौढ़ व बुजुर्ग लोगों से
सजी चौपाल
ठहाकों के साथ
तम्बू सा तने आसमान में
आल्हा की गुँजती हुई तानें
हवा के गिरेबान में पसरती हुई
चैता-कजरी की धुनें
खेतों की कटाई में टिडि्डयों सी
उमड़ी हुई
छोटे बच्चों की जमात
जो लपक लेते थे
गिरती हुई गेहूँ की बालियाँ
चुभकर भी इनकी खूँटिया
नहीं देती थी
आभास चुभने का
लेकिन ये बच्चे
अब जवान हो गये हैं
दिल्ली व मुंबई के आसमान तले
नहीं बीनने जाते गेहूँ की बालियाँ
अब यहीं के होकर रह गये हैं
या बस गये हैं
इन महानगरों के किनारे
कूड़े कबाडों के बागवान में
इनकी पत्नियाँ सेंक देतीं हैं रोटियां
जलती हुई आग पर
और पीसकर चटनी ही परोस देतीं हैं
अशुद्ध जल में
घोलकर पसीना
सन्नाटे में ठंडी बयार के चलते ही
सहम जाते हैं लोग
कि गाँव के किसी जमींदार का
आगमन तो नहीं हो रहा है
जिसने नहीं जाना
किसी की बेटी को बेटी
बहन को बहन और माँ को माँ
हमने तो हाथ जोड़कर कह दिया था
कि- साहब ! गाँव हमारा नहीं है
खेत हमारा नहीं है
खलिहान हमारा नहीं है
ये हँसता हुआ आसमान हमारा नहीं है
नींद और सपनों से जूझते
सोच रहा था
वह बेदखल किसान
महानगरों से चीलर की तरह
चिपकी हुई झोपड़ी में
कि क्यों पड़े हो हमारे पीछे
शब्द् भेदी बाण की तरह
क्या अभी भी नहीं बुझ पायी है प्यास
सुलगती आग की तरह।
2 ... भूख के विरुद्ध
विश्व की धरोहर
में शामिल
नहीं है
गंगा यमुना का
उर्वर मैदान
जहां धान रोपती
बनिहारिनें
रोप रही हैं
अपनी समतल सपाट
सी जिंदगी
उनकी झुकी पीठें
जैसे पठार हो
कोई
और निर्मल झरना
झर रहा हो
लगातार
उनके गीतों में
धान सोहते हुए
सोह रही
हैं
अपने देश की
समस्याएं
काटते हुए काट
रही हैं
भूख की जंजीर
और ओसाते हुए
छांट रही हैं
अपने देश की
तकदीर
लेकिन
अब उनके धान
रोपने के
दिन गये
धान
सोहने के
दिन गये
धान काटने के
दिन गये
धान ओसाने के
दिन गये
कोठली में धान
भरने के
दिन गये
अब धान सीधे
मंडियों में
पहुंचता है
सड़ता है भंडारों
में
और इधर पेट
कई दिनों से
अनशन पर
बैठा है
भूख के विरुद्ध
जबसे काट लिए
हैं इनके
हाथ
मशीनों ने
बड़ी
संजीदगी से।
३ .... बंधुआ मुक्त हुआ कोई
किसान की जेहन में
अब दफन हो चुकी है
दो बैलों की जोड़ी
वह भोर ही उठता है
नांद में सानी-पानी की जगह
अपने ट्रैक्टर में नाप कर डालता है तेल
धुल-पोंछ कर दिखाता है अगरबत्ती
ठोक-ठठाकर देखता है टायरों में
अपने बैलों के खुर
हैंडिल में सींग
व उसके हेडलाइट में
आँख गडा़कर झांकता
बहुत देर तक
जो धीरे-धीरे पूरे बैल की आकृति मे
बदल रहा है
समय-
खेत जोतते ट्रैक्टर के पीछे-पीछे
दौड़ रहा है
कठोर से कठोर परतें टूट रही हैं
सोंधी महक उठी है मिट्टी में
जैसे कहीं
एक बधुंआ मुक्त
हुआ हो कोई।
अब दफन हो चुकी है
दो बैलों की जोड़ी
वह भोर ही उठता है
नांद में सानी-पानी की जगह
अपने ट्रैक्टर में नाप कर डालता है तेल
धुल-पोंछ कर दिखाता है अगरबत्ती
ठोक-ठठाकर देखता है टायरों में
अपने बैलों के खुर
हैंडिल में सींग
व उसके हेडलाइट में
आँख गडा़कर झांकता
बहुत देर तक
जो धीरे-धीरे पूरे बैल की आकृति मे
बदल रहा है
समय-
खेत जोतते ट्रैक्टर के पीछे-पीछे
दौड़ रहा है
कठोर से कठोर परतें टूट रही हैं
सोंधी महक उठी है मिट्टी में
जैसे कहीं
एक बधुंआ मुक्त
हुआ हो कोई।
संक्षिप्त परिचय
आरसी चौहान ( जन्म - 08 मार्च 1979 )
जन्मस्थान - चरौवॉ, बलिया, उ0 प्र0 )
शिक्षा- परास्नातक - भूगोल एवं हिंदी
सृजन विधा- गीत, कविताएं, लेख एवं समीक्षा आदि
प्रसारण - आकाशवाणी इलाहाबाद, गोरखपुर एवं नजीबाबाद से
प्रकाशन – देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ बेब पत्रिकाओं में भी
‘
पुरवाई ’ नामक पत्रिका का संपादन
संपर्क-
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मो. न. 09452228335
ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com
Aarsee Chahvan jee aapko padkar acchaa laga.
जवाब देंहटाएंAage bhee padana chahunga. Ramjee bhai Abhaar.
वाह बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति, खेत खलिहानों की जगह कांक्रीट के मैदान और मनुष्यता के मशीनी हो जाने का सजीव चित्रण। लेखक को और रामजी को बहुत बधाई उत्कृष्ट से उत्कृष्ट को उभारने के लिए।
जवाब देंहटाएंकविताएँ पसंद आईं.इधर बहुत दिनों बाद आपकी कविताएँ देखीं .बधाई और शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंकविताएँ प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद सर।
जवाब देंहटाएंumda kavitaen.badhai....
जवाब देंहटाएंजीवन- संघर्षोँ की राह मेँ लोक आस्थाओँ और लोक स्मृतियोँ की उर्जा बड़ी काम आती हैँ। आरसी चौहान की कविताओँ मेँ ऐसी हीँ आभा महसूस होती है। Singh Suman
जवाब देंहटाएंShailesh Veer wakai..sach baat
जवाब देंहटाएंसुन्दर कवितायें .कवि के पास यथार्थ बोध की अपनी तासीर, अपना अवबोध और अपना अंदाज़ें -बयां है. भीड से अलग . इसी रास्ते किसी युवा कवि में भावी संभावनाओं का आगाज़ होता है और उसमें हमारी वास्तविक दिलचस्पी जागती है. कवि को बधाई !
जवाब देंहटाएंvicharottejak kavitaen..badhai....
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