डा. अम्बेडकर
पिछले
लगभग दो साल से अपनी ट्रेड-यूनियन की पत्रिका के लिए मैं एक नियमित कालम लिख रहा
हूँ | पत्रिका के हिसाब से एक पृष्ठ की सीमा को ध्यान में रखते हुए यह कालम विशुद्ध
परिचयात्मक स्तर का होता है , और उन लोगों को समर्पित होता है , जिन्होंने साहित्य
के माध्यम से समाज को रास्ता दिखाने का काम किया है | इस महीने के कालम में मैंने
साहित्य से थोड़ा अलग हटने की कोशिश की है , और लेख का रुख समाज की तरफ मोड़ा है |
जाहिर है , कि भारत में सामाजिक-परिवर्तन की बात करते समय सबसे पहले जो नाम जेहन
में आता है , वह महान युगदृष्टा डा. भीम राव आंबेडकर का ही होता है | आज १४ अप्रैल
को उनकी जयन्ती के अवसर पर पूरे आदर और सम्मान के साथ मैं इस परिचयात्मक लेख को ‘सिताब
दियारा ब्लॉग’ पर भी प्रकाशित कर रहा हूँ , और उम्मीद करता हूँ , कि समता , बंधुता
और न्याय आधारित समाज के लिए देखे गए , बाबा साहब के सपने एक न एक दिन जरुर पूरे
होंगे |
महान युगदृष्टा - डा. भीमराव अम्बेडकर
14 अप्रैल को बाबा साहब डा. भीम राव आंबेडकर की
जयन्ती पड़ती है | उस संविधान निर्माता , युगदृष्टा , कानूनविद , समाज सुधारक और
अर्थशास्त्री की , जिसे भारत सहित दुनिया में भी , पिछली सदी के सबसे महानतम
व्यक्तियों में शुमार किया जाता है | उनका जन्म महार जाति में हुआ था , जो
तत्कालीन समय में वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से एक अछूत जाति मानी जाती थी | डा.आंबेडकर
के पिता अंग्रेजी शासन द्वारा नियंत्रित भारतीय सेना में मुलाजिम थे , और ‘महू
सैन्य छावनी’ में पद-स्थापित थे | जाहिर है , कि आजादी के छः दशकों बाद , आज भी
जिस समाज में जातिगत भेदभाव और श्रेष्ठता बोध के लक्षण सामान्यतया दिखाई पड़ जाते
हों , ऐसे में उस दौर में डा. अम्बेडकर को किन विपरीत परिस्थितियों से गुजरना पड़ा
होगा , समझना कठिन नहीं है |
डा. आंबेडकर बचपन से ही पढने में बहुत तेज थे |
उन्हें अपनी पढाई के लिए बम्बई आने का अवसर मिल गया | वहीँ से उन्होंने मैट्रिक की
परीक्षा उत्तीर्ण की , और फिर कालेज में दाखिला लिया | ऐसा करने वाले वे , अपने
वर्ग में पहले व्यक्ति थे , | बम्बई विश्व-विद्यालय से स्नातक करने के बाद उन्हें
अमेरिका के कोलंबिया विश्व-विद्यालय में फेलोशिप मिल गयी , और वे आगे की पढाई के
लिए अमेरिका चले गए | उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा | कोलंबिया ,
लन्दन स्कूल आफ इकोनामिक्स और उस्मानिया विश्व-विद्यालय से उन्होंने लगभग हर वह
पढ़ाई पढ़ी , जो उस समय हासिल की जा सकती रही | बी.ए. , एम् ए. , पी.एच.डी. ,
एल.एल.डी. और डी.लिट् सहित कई उपाधियाँ उनकी झोली में थी | पढाई के बाद डा.आंबेडकर
भारत लौट आये | हालाकि उन परिस्थितियों में उन्हें विदेश में कहीं भी अच्छी नौकरी
मिल सकती थी | लेकिन उनके दिमाग में
भारतीय समाज को लेकर कई योजनायें थी , और जिसका समाधान यहीं रहकर किया जा सकता था
|
डा. आंबेडकर ने वह चुनौती स्वीकार की | बीस और
तीस के दशक में उन्होंने जाति-व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ , तथा सामाजिक
समानता के पक्ष में बड़ी लड़ाईयां आरम्भ की | अपने लेखों के माध्यम से उन्होंने
धर्मग्रंथों में उल्लिखित अमानवीय भेदभावों को चुनौती दी और उन्हें खारिज करना
आरम्भ कर दिया | उनका यह मानना था , कि जब तक हम इस सम्पूर्ण वर्ण-व्यवस्था को
नहीं उखाड़ फेंकते , तब तक जातिविहीन और समरसता आधारित समाज का निर्माण संभव नहीं
हो सकेगा | इन्ही आधारों पर उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों को भी चुनौती दी ,
कि वे भले ही हरिजनों के उत्थान की बात करते हैं , और भेदभाव तथा छुआ-छूत को हटाने
की बात करते हैं , लेकिन वे वर्ण-व्यवस्था के खात्मे के सवाल पर चुप्पी साध लेते
हैं , इसलिए उनके विचारों पर चलते हुए हम इस गुलामी से मुक्त नहीं हो सकते हैं |
उन्होंने समाज के वंचित तबके के लिए पृथक-निर्वाचन
की मांग रखी , जिसको लेकर हिन्दू समाज में काफी हंगामा हुआ | बाद में महात्मा
गांधी ने डा.अम्बेडकर के साथ ‘पूना-पैक्ट’ के माध्यम से इसे सुलझा लिया | उनके
लेखन और आन्दोलन दोनों ही साथ-साथ चलते रहे | देश आजाद हुआ , और उसे संचालित करने
के लिए नियम और कानूनों के सूत्रीकरण , अर्थात संविधान के निर्माण की जरुरत पड़ी |
उन्हें संविधान निर्माण की ‘प्रारूप समिति’ का अध्यक्ष बनाया | इसी समिति की
देखरेख में सविधान को लिखे जाने की प्रकिया होनी थी | दुनिया के सारे संविधानो का
अध्ययन करने के बाद , अपने देश-काल की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सन 1949
में हमारा संविधान तैयार हुआ , और आगे चलकर 1950 में लागू हुआ | इस बड़े और
महत्वपूर्ण कार्य में उनके योगदान को देखते हुए , उन्हें संविधान निर्माता के रूप
में भी याद किया जाता है |
आजाद भारत में वे देश के पहले कानून मंत्री बने
| लेकिन अपने प्रगतिशील विचारों के कारण उन्हें जल्दी ही इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी
, जब ‘हिन्दू कोड बिल’ पर उनका सरकार और संसद से मतभेद हो गया , और उन्होंने अपने
पद से त्याग-पत्र दे दिया | उनके कानूनविद होने की बात तो बहुत सारे लोग जानते हैं
, लेकिन उनकी प्रतिभा का विस्तार ‘अर्थशास्त्र’ के क्षेत्र में भी बड़ा जबरदस्त था
| अपने आरंभिक शोध-कार्यों में उन्होंने देश और समाज की आर्थिक प्रगति और अवनति को
कई दृष्टियों से जांचा और परखा था | ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ की अवधारणा भी
डा.आंबेडकर की ही थी , जो यह बताने के लिए काफी है , कि उनके आर्थिक विचारों में
किस तरह की दूरदर्शिता पाई जाती थी | प्रसिद्द अर्थशात्री और नोबेल पुरस्कार
विजेता ‘अमर्त्य सेन’ ने एक बार कहा था , कि अर्थशास्त्र के विषय में डा. आंबेडकर
मेरे पिता हैं |
अपने जीवन के अंतिम वर्ष ( 1956 ) में उन्होंने ‘बौद्ध धर्म’ अपना लिया था |
जाहिर है , कि ‘हिन्दू धर्म’ की जड़ता ने उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य किया होगा |
इसके कुछ साल पहले से ही उनकी तबियत ख़राब रहने लगी थी , और मधुमेह की बीमारी ने
उन्हें अपने गिरफ्त में ले लिया था | अंततः 1956 में उनकी मृत्यु हो गयी | लेकिन
यह मृत्यु केवल भौतिक ही थी , क्योंकि उसके बाद उनके विचारों को आगे लेकर , जिस
तरह से सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक समानता के प्रयास ज़ारी हैं , उनमें डा.आंबेडकर
आज भी ज़िंदा हैं | जाहिर है , कि ऐसे प्रयासों में ज़िंदा होना , किसी भी महान
व्यक्ति का सबसे बड़ा योगदान माना जा सकता है | निश्चित तौर पर उन प्रयासों को अभी भी
बहुत आगे ले जाने की आवश्यकता है , लेकिन अभी तक के उनके सकारात्मक विकास को देखकर
आगे के लिए उम्मीद तो की ही जा सकती है | उस महान समाज-सुधारक और युगदृष्टा की
स्मृति को हमारा नमन |
परिचय
और संपर्क
रामजी
तिवारी
बलिया ,
उ.प्र.
09450546312
करोड़ों भारतीयों की अस्मिता के ऐतिहासिक सर्जक -नायक के प्रति यह आपकी उचित ही श्रद्धांजलि है .
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख.. बाबा साहेब के जीवन के सारे पहलू इसमें आ गये हैं.. बधाई
जवाब देंहटाएंभईया बेहद समग्र लेख! अपने ब्लॉग पर लगाने के अनुरोध के साथ !
जवाब देंहटाएंपरिचयात्मक ही सही, लेकिन आपके ये आलेख बहुत महत्वपूर्ण हैं. एक रचनाकार का यह भी प्रमुख दायित्व है की वह समाज को अपने पुरोधाओं से परिचित कराये. बधाई.
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