बुधवार, 7 नवंबर 2012

मीनाक्षी जिजीविषा की कवितायें


                                 मीनाक्षी जिजीविषा 

मीनाक्षी जिजीविषा की ये कवितायें स्त्री-स्वर की वे कवितायेँ हैं , जिनमें सहज और साधारण तरीके से समाज की आधी दुनिया की दास्तान दर्ज है | उस आधी दुनिया की , जो इक्कीसवीं सदी में भी अपने आपको हाशिये से बाहर ही पाने के लिए अभिशप्त है | चमत्कारिक बिम्बों और नारेबाजी के शोर से बचते हुए मीनाक्षी अपनी बातों को जिस तरह से कविता में ढालती हैं , वह देखने लायक है | सिताब दियारा ब्लाग उनका स्वागत करता है |

          
           तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर मीनाक्षी जिजीविषा की कवितायें





1 ... क्रान्ति


अपने प्रति
तुम्हारे किये गए
हर अन्याय पर
आहत होती हूँ
भीतर ही भीतर
खदबदाती ,खौलती हूँ
नदी की तरह !
चाहती हूँ
लूँ प्रतिकार
अपने हर अपमान का
पाकर दुत्कार
करती हूँ खुद को तैयार
हर बार
एक बड़ी क्रान्ति के लिए
पर तुम्हारे
जरा सा पुचकारते ही
प्यार जताते ही
चुपचाप
गाय सी बांध जाती हूँ
गृहस्थी के खूंटे से
सारा आक्रोश
बैठ जाता है
दूध के उफान सा
सारा विद्रोह
मिट जाता है
पानी के बुलबुले सा
आत्मग्लानि से भरी
क्रान्ति के परचम को
फिर बना लेती हूँ
झाड़न
और डंडे को बेलन
औरतों की सारी क्रांतियाँ
सारे विद्रोह
ऐसे ही
चुपचाप
बड़ी चालाकी से ख़त्म
कर दिए जाते है !



2 .... भीतर की स्त्री


मैं खींचती हूँ उसे पीछे
वह धकेलती है मुझे आगे
मैं नाराज़ होती हूँ उससे
उसकी मुंहजोरियों पर
वह धिक्कारती है मुझे
मेरी कमजोरियों पर
मैं समझाती हूँ उसे जितना ही
वह उकसाती है मुझे उतना ही
मैं चाहती हूँ खामोश हो जाए वह
 
वह चाहती है और आवाज़ बुलंद करूँ मैं
एक जिद्द सी ठानी है हम दोनों में
मैं चाहती हूँ किसी भी सूरत न रहे वजूद उसका
वह चाहती है हर हाल में जिन्दा रहे मेरा अस्तित्व
सच ! मुझसे कहीं ज्यादा ....साहसी ..जिंदादिल ...है
मेरे भीतर की यह स्त्री.............
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3 .....कैलेण्डर


इसकी किसी तारीख पर                
नही बैठी
कोई रंगीन तितली
किसी खूबसूरत मुलाकात की ,
नही बिखरा
किसी तारीख पर
कोई षोख रंग
किसी मीठी गुलाबी याद का ,
नहीं खिला कोई हसीन फूल
किसी मासूम चाहत का
इसकी कोई तारीख पर ,
नही खिलखिलाई
खुल कर कभी
बच्चों की शरारतों सी ,
नही उतरा
इसकी किसी तारीख पर कभी
वसंत हंसता-गाता
उल्लास और उन्माद लिए ,
इसकी तारीखों पर तो लगे हैं
कुछ नीले घेरे
अखबार वाले के हिसाब के
कुछ लाल क्रास
दूध वाले की गैरहाज़िरी के
कुछ तिकोने निशान

धोबी के हिसाब के
हरे निशान
याद दिलाते हैं उसे
बच्चों के एग्जाम और
पी.टी.एम. की
काले निशान लगाये हैं
उसने
याद रखने के लिए
पति की जरुरी
आफिस मीटिंग और दूर
चौरस निशान लगा छोड़े हैं 
ममिया सास की क्रिया
और चचिया सास के पोते
के मुण्डन पर जाना
याद रखने के लिए
ये किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी
का ग्लैमरस.....
दिलकश ....हसीन कलैण्डर
नहीं
ये तो हल्दी नून, तेल
के चिकने निशान
और महक भरा
एक साधारण सी स्त्री का
सादा सा कलैण्डर है
जिस पर रखती है वह
दुनिया भर का हिसाब
अपनी ही दुनिया को
भुलाए हुये ।


4 ... स्त्री

सुनो  ।
झाड़ू बुहारते हुए
बीन लेना कचरे से
छूट गई
काम की चीजों की तरह
अपनी कुछ इच्छाएं भी ,
जूठे बर्तन साफ करते हुए
संभाल लेना
बर्तनों की चमक की तरह
आंखों में कुछ सपने भी ,
खाना बनाते हुये
जीभ के स्वाद की तरह
सहेज लेना स्मृति में
कविता भी ,
मैले कपड़े पछिहारते हुए
पसीने की महक की तरह
बसा लेना रोम रोम में
जिजीविशा भी ,
चूल्हा जलाते हुए
रख लेना कुछ चिंगारियां
शब्दों की
अपने सीने में
ताकि मिल सके
उर्जा..................
जीने के लिये ।

5 ... स्त्रियों का बसंत

वसंत झांकता रहा 
मेरे घर की खिड़की से 
पुकारता रहा मुझे 
और उसे 
अनसुना कर 
व्यस्त रही 
रसोईघर में 
अतृप्त आत्मा लिए 
करती रही 
सबकी तृप्ति का प्रबंध 
टेरती रही उसे 
वसंत ने फिर टोका 
मुझे 
मगर मैं हड़बड़ी में थी 
दफ़्तर जाने की 
झिड़क  दिया मैंने उसे 
वसंत ने फिर 
इशारा किया मुझे 
मगर उलझी थी मैं 
बच्चों के होमवर्क में 
उनके
गणित के  मुश्किल सवालों को हल करने में 
उनकी जरूरतों और फरमाइशों के मकडजाल में 
मैंने आँखे तरेरी उसे 
वसंत ने फिर मनुहार की 
मगर मुझे निपटाने थे अभी 
ढेरों काम घर ले 
धोने थे मैले कपडे 
लगाने थे बच्चों के स्कूल बैग 
करनी थी उनकी यूनिफार्म प्रेस 
निपटानी थी कुछ ऑफिस की फाइलें 
रात में करनी थी अगली सुबह की तैय्यारी 
झुंझलाकर टाल दिया मैंने उसे 
वसंत जा खड़ा हुआ देहरी पर 
प्रतीक्षारत 
और मैं उलझी ही रही 
घर गृहस्थी ....दफ्तर 
के झंझटों में।।
अब जब सिमट गए से 
दीखते हैं कुछ काम 
घिर आया है अँधियारा 
कुछ फुर्सत में हूँ मैं भी 
उत्सुक अधीर ढूँढती हूँ 
वसंत को 
झरोखे में 
आँगन में 
दीवार के पीछे 
देहरी पर 
वसंत 
कहीं नहीं दीखता 
जा चूका है 
चुपचाप 
घर,आँगन ,देहरी ...द्वार  जीवन से 
क्यों 
आखिर क्यों 
ऐसे ही बीत जाता है 
रीत जाता है 
स्त्रियों के जीवन से 
बसंत !



परिचय और संपर्क

मीनाक्षी जिजीविषा
892 सेक 10 हौसिंग बोर्ड
फरीदाबाद हरियाणा
126001 फ़ोन  08901186300
                     

3 टिप्‍पणियां:

  1. achchi kavitaen hain... kamkaji aurat, usaka jeevna, usake jhanjhat aur in sabake beech kahi khud ko talashane kee tadap ... kitane bhinn bhinn sandarbhon ke baawjood yah jeevan kyon ek roop sa jaan padata hai auraton ka.. ham sab ka?

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  2. इन कविताओं की ताकत इनकी सहजता है | साथ ही अति दार्शनिक और अति क्रांतिकारी बनने से परहेज भी |जीवन लय को इस तरह से साधने का प्रयास अच्छा लगता है | ...केशव तिवारी

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  3. कविताएँ विचारणीय हैं. मैंने बताया कि पुराने किस्म का आदमी हूँ. कागज़ पर कविता से ही उसपर सोचने-विचरने का समय मिलता है. फिर भी, बधाई.

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