शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

'मनाही के ठीक बगल से गुजरते हुए' - विपिन चौधरी



                                    विपिन चौधरी 


कविता की युवा पीढ़ी पर सामान्यतया दो आरोप चस्पा किये जाते हैं | पहला कि यह पीढ़ी बहुत हड़बड़ी में है , और दूसरा कि यह हमेशा पंचम स्वर में ही बात करती है | और जब बात युवा कवयित्रियों की आती है , तो इस आरोप में थोड़ी ताकत और भर दी जाती है | लेकिन गौर से इन आरोपों को देखने पर यह समझना कठिन नहीं रह जाता , कि इसके लगाने के पीछे कौन सी बर्चस्ववादी मानसिकता कार्य कर रही है | वही मानसिकता ,जो समाज की इस आधी आबादी को सदियों से चूल्हे-चौके की चीज समझती आयी है | इसलिए यह अनायास नहीं है , कि अब तक जो परिदृश्य में कहीं नहीं थीं , उनकी हल्की सी उपस्थिति भी हड़बड़ी नजर आती है , और उनके द्वारा जताया गया सामान्य प्रतिरोध भी पंचम स्वर में आता सुनाई देता है |

विपिन चौधरी जैसी कुछ कवयित्रियां ऐसी भी हैं , जो अपनी रचनाओं से , न सिर्फ इन आरोपों को बचकाना साबित करती चलती हैं , वरन कविता के किसी भी सौन्दर्यशास्त्र के पैमाने पर खरी भी उतरती दिखाई देती हैं | अपनी साफ़-सुथरी भाषा , कथ्य की विस्तृत रेंज , चुभते हुए व्यंग्य और अनूठे-मौलिक शिल्प के सहारे लिखी गयीं ये कवितायें ऊपर से सामान्य दिखाई देती इस दुनिया के भीतरखाने की पड़ताल करने वाली कवितायें हैं , जिनमे हमारे समय का उलझा हुआ धुंधला सच , सुलझकर और आर-पार दिखाई देने लगता है | यहाँ प्रस्तुत पांच कवितायें इस तथ्य की गवाहीं में खड़ी हैं |

         
          तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर ‘विपिन चौधरी’ की पांच कवितायें  


1...   कापुरुष

पुरुष लम्बे समय तक अपने पुरुषत्व को टिकाये रखने में मशगूल दिखे
स्त्रियाँ अपनी ताज़गी बरकरार रखने के लिये उत्सुक
युवा"सफलता कैसे प्राप्त करें" जैसी पुस्तकें पढ़ कर आगे निकलने की होड़ में

नदियों के तटों पर नकली योजनाएँ काबिज हो गई
'रात की रानी
को अब रात का भरोसा नहीं रहा

सार्वजनिक शौचालयों पर खड़े पहरेदारों की आमद को देख  
मूत्र - नलियाँ बेचैनी में सिकुड़ने लगी
शर्तिया इलाज के धोखे में हमारे कई साथी 
झोला छाप डाक्टरों के हत्थे चढ़ गये
 
खुद हमने कई बार होम्योपैथ की बारीक गोली
आसमान जैसे भरोसे के साथ  निगली
फिर भी पारा १०२ से नीचे नहीं उतरा 

हमारा परीक्षा परिणाम चुका है
हमकापुरुषसाबित हुए हैं जनाब


2....    गुज़रे ज़माने की अभिनेत्री

सूरज कूद कर सबसे ऊंचे मचान पर जा बैठता है
तब जाकर उस बिस्तर का बंद हाजमा खुलता है
जिस पर गुज़रे समय की अभिनेत्री सोया करती है 

ताकीदगी के साथ
तांबे के लोटे मे रखे पानी से आंखे धो,
घर में काढ़ा हुआ अंजन लगा
होले से मुस्कुराती है वह
माँ ठीक ही कहा करती थी
अंजन से आंखे और भी निखर आती हैं
खुद से ही बोलती है अभिनेत्री  
उसकी बड़ी-बड़ी आँखों के नीचे मोटी सूजन उभर आई है
लेकिन इनके भीतर उन्मुक्त झील आज भी लहलहाती  है

अभिनय पर अच्छी पकड़ के इस्तेमाल को सामने लाते हुए
आज के अपने एकमात्र दर्शकआईनेके सामने अद्भुत अभिनय कर
वह खुद पर ही मुगध हो उठती है
उसकी चमड़ी से आज भी अभिनय के रंगीन निशान नहीं छूट सके हैं

श्वेत-श्याम चित्रों की पुरानी एलबम को पलटते हुये
उसे अनायास ही उन भँवरों की याद आने लगती है
जो कभी उसके चेहरे की आग से
अपनी आँखों की चिलमों को भर लिया करते थे

समय की चोट
खरे सोने को कैसे
कलई उतरा, तांबे में तब्दील कर देती है
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखने के लिए
अभिनेत्री के कल को पलट कर देखा जा सकता है

भड़कीले दिनों की तरह आज भी   
गहरी लाल लिपस्टिक, चटक नाखून-पालिश और
सोलह सिंगार के तमाम ताम-झाम के साथ अभिनेत्री 
तैयार होने में कई घंटे जाया करती है

बरसों पुराने फिल्मी स्टुडियों पर
बुलडोजर चला दिये गये और अभिनेत्री के सह-अभिनेता और प्रोड्यूसर
बारी-बारी से दुनिया को विदा कह गए
बस वह ही समय  द्वारा छोड़े गए गुबार की धूल फाँकती रह गई

रोज़ की तरह शाम के अंतिम पहर
बड़े से झाड़-फानूस के ठीक नीचे
बाबा आदम के जमाने के घड़ियाल
(जिसकी मिनट वाली सुई टूट गई है)
के बगल वाली आराम कुर्सी पर अधलेटी
अभिनेत्री यादों का कायदा
पढ़ते-पढ़ते सो जाती है

एक उम्रदराज़ निर्देशक के प्रेम में अधमरी अभिनेत्री
उस खंडहरी और जर्जर बंगले की मालकिन सी लगती है
जो यादों की अधबुझी मोमबती ले कर  दिन रात
हवेली में लंबे-लंबे चक्कर लगाया करती है
  
पुरानी ची़जें,
यादों को अच्छी तरह से जज़्ब कर लेती हैं
 
तभी बंगले की हर चीज़ यादों की गर्म भाँप छोड़ती हैं
पुराने मुड्ढे और सोफ़े बरसों से किसी बाट में हैं
सूनेपन को घूरती दीवारों की दरारों से
समय की चिपचिपी पीप रिसती है
फर्नीचर मरम्मत की मांग करते-करते निढाल हो चुका है
कालीन चूहों की मेहरबानी छेदशुदा हो गए हैं
कीमती ची़जें एक-एक कर ‘“फॉर सेल’” की भेंट चढ़ गई

भले-चंगे दिन
फूक मारते ही उड़ गए
उसके बाद हाथी के से भारी और मोटे पाँवों चलते वे दिन नज़दीक आए
जब अभिनेत्री के बंगले की बिजली काट दी गई और
पड़ोसियों ने उसके बंगले के पीछे वाले हिस्सा कब्जा लिया

चिंता में डूबी अभिनेत्री की भूख अक्सर मारी जाने लगी
जिसके चलते रसोईघर को लंबी छुट्टियाँ मिल गई
अब किसी हठयोगिनी की तरह अभिनेत्री अपने गुज़रे हुये दिनों को
मंत्रों की तरह लयबद्ध सुर में दिन-रात बुदबुदाने लगी थी
हर वक़्त उसके फड़फाड़ते होँठ देख कर
अभिनेत्री के बचे-खुचे प्रशंसकों को भय की कंपकंपी छूटने लगी

वे पुराने दिन दुबारा हरे नहीं होने थे
हुए
जिनकी भुरभुरी डाल पर अभिनेत्री अटकी रहती थी

जिस दिन अभिनेत्री की सांस टूटी
उस दिन यादों के काले प्रेत भी
बंद पिंजरे के पक्षियों की तरह अपनी जान छुड़ा कर उड़ भागे

पीछे रह गई वह दुनिया 
जो आज भी इसी रहस्य के साथ जी रही है
कि अपने समय की सबसे खूबसूरत अभिनेत्री
क्यों जीवन भर अकेली रह जाती है?
और फिर उस अभिनेत्री को केंद्र पर रख कर लिखी किताब
पर क्यों लोग दीवानावार टूट पड़ते हैं ?



3....  मनाही के ठीक बगल से गुज़रते हुये

बड़े बड़े शब्दों मे लिखा है
फूल तोड़ना सख्त मना है
फिर भी  कई फूल अपनी जान से जाते हैं

सूरज की आंच से भोजन पकाने वाला फूल
बेहद नरमाई से धरती से खनिज सोख कर
अपने हाथ-पाँव बाहर की ओर निकाल कर
धरा के जरूरी श्रम में  मुस्तैदी से शामिल होता  है

चंपा- कुसुम, हरसिंगार और कमल की सुंदरता को अपने भीतर समेटे
अपनी प्रजनन संरचना की जटिल सीढ़ियों पर चढ़ता उतरता हुआ
उस यम का चेहरा भी नहीं देख पाता जिसने उसे बिना कसूर के हलाल कर
दिया है

यहाँ पेशाब करना मना है
लिखे को अनदेखा करने वाले नहीं जानते 
विज्ञान की कक्षा में बच्चे कितनी तन्मयता से पढ़ते हैं 
मूत्र बनने की जटिल प्रक्रिया को
कंठस्थ करते हैं विज्ञान के उस शाश्वत सत्य को
जिसके जरिये पानी से क्षतिग्रसत प्रदार्थ, नमक, ग्लूकोस और दूसरे घुलनशील रसायनिक प्रदार्थ अलग होते हैं

इन सारे उतार चढ़ावों को समझने के लिए
दिमाग को कितनी कसरत करनी पड़ती है

प्रकृति के श्रम और
शरीर के धर्म से विचलित इन लोगों को
फारिग होने की आज़ादी से
मिलने वाली खुशी के घेरे से हमें 
जल्दी ही बाहर खींच लाना चाहिये


4....    आग

हमारा सबसे पहला भरोसा आग पर था
आग, जिसे हम दुनिया की डोर मे उलझा कर अपने बिलकुल नज़दीक ले आए
हमने देखा आग
पानी से भय खाती थी
और पानी हमारा प्राण था
अब दक्षता दिखाने की बारी हमारी थी

हमने आग और पानी के बीच एक अनोखा रिश्ता बनाया
तालमेल बैठाना हमने यहीं से सीखा

कई और चीज़ें इसी आग के ज़रिये हमने जानी
मसलन डर और रोशनी
डर जो खोपड़ी के एक हिस्से की उपज था
डर जो दर्द देता था
और सरवाईवल ऑफ फिटेस्ट का सूत्र भी
और रोशनी
जिसे हमने अपनी आँखों का हथियार बनाया

प्रकृति के प्राण पी-पी कर
आग जवान हुई
अपनी चपलता से उसने कभी
धरती की सतह से फूटते ज्वालामुखी में पनाह ली तो कभी
चूल्हे में फूकनी की सांस सी बहकती रही

प्रभु और पूजा के बीच पुल बनाती आग से
हमने मध्यस्तता का गुर सीखा और समझा
नारायण-प्रभु की जीभ पर बैठ
आग ने खुद अपना नामकरण किया

आग, अग्नि,पावक, अनल
इन सभी पर्यायवाचियों के सामने झुकते हुये
हमने दीपक में एक बत्ती रोप दी
तब सूरज ने धरती की  इस आग में अपना प्रतिबिंब देखा
पहली बार  

धरती पर जीवन नापती देहों से लेकर
मृत देह को पल में रसायनिक युग्म में तबदील करने वाली यह आग
कोई मामूली चीज़ नहीं थी

धरती की नाभि में ध्यानरत   
आग ने अपने लिए एक नक्शा तैयार किया
जो कई बुनावटों में हमारे करीब आकर ठहर गया

आग में गर कोई कमी है तो बस इतनी ही
कि जब एक बार सलीके से मन भीतर लगती है
तो बामुश्किल ही बुझती है


5....    . मिसफिट

कोई भी पूर्ण रूपेण नहीं था
सब अपने अधूरेपन से त्रस्त
इधर-उधर भटक रहे थे
मालिक
नौकर पर अपनी खीज निकल रहे थे
सास
बहू पर
आकाश
धरती पर
धरती
किसानों पर
सरकार
जनता पर
जनता
नेताओं पर
वर्तमान
इतिहास पर
बच्चे
परीक्षाओं पर 
शिक्षिका
स्वेटर की सलाईयों पर
स्त्रीवादी
पुरुषों पर 
पुरुष
दफ्तर पर

पर वह किसी पर खीज नहीं उतार सकती थी
कि उसे सभी से प्रेम से पेश आना था
ठीक सोने से पहले सास के पाँव दबाने थे
ससुर को शाम छह बजे केकड़े का सूप देना था
देवर का बेतरतीब कमरा रोज़ साफ करना था
देवरानी के सिर पर चमेली का तेल मल
दो चोटियाँ बनानी थी
पति की हर छींक पर रुमाल ले कर दौड़े चले आना था

और साथ ही हर हाल में खुद के मन को भी खुश रखना था
क्योंकि मन खुश हो तभी
पकाए खाने में
अच्छा स्वाद आता है



विपिन चौधरी 

20 टिप्‍पणियां:

  1. bahut badhiya kavitayein. kisi ek ko khaas kahna mushkil ho gaya kyonki sabhi achhi lagin, satik,naye aur anokhe vishay uthati hui, hamaare dhyaan ko ekagra krti huin. vipin ji ko shubhkaamnayein. shukriya ramji itni achhi prastuti k liye....tithi dani

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  2. मुझे विपिन की कविताएँ इसलिए बहुत पसंद हैं क्योंकि इनकी कवितायेँ शरीर के सबसे कोमल तंतु को स्पर्श कराती हैं...बधाई।

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  3. बहुत ही बढ़िया कविताएँ!
    ख़ासकर "कापुरुष" ने एक अलग जगह बनायी.

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  4. अच्छी कवितायें हैं. विपिन जी नए विषयों को डील करती हैं और भाषा में साफ़-सुथरेपन और सलीके की बात से सहमत हूँ. "आग" का शिल्प बाकी कविताओं से अलग लगा. आख़िरी दोनों कवितायें ज्यादा ही आयीं

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  5. विपिन न सिर्फ अच्छा लिख रही हैं, बल्कि लगातार लिख रही हैं. उनके संकलन की प्रतीक्षा तीव्र होती जा रही है..

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  6. अपने कथ्य मैं बिलकुल अलहदा कवितायेँ हैं अभिजात्य सौन्दर्यशास्त्र को चुनौती देती हुयी......रामजी भाई ने सटीक टिपण्णी की है इन पर.

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  7. जीवन के विविध रूपों को उभारती है विपिन चौधरी की ये कवितायेँ !सीधे कथनो और बिम्बों से गुंथी हुई सुदर अभिव्यक्ति ! बधाई !

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  8. विपिन को बधाई इन विचारपूर्ण कविताओं के लिए.आग , मनाही के ठीक बगल से गुजारते हुए और गुज़रे ज़माने की अभिनेत्री ज्यादा अच्छी लगीं . अभिनेत्री वाली कविता को थोड़ा सा और एडिट नहीं करना चाहेंगी विपिन?

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  9. विपिन मुखर हैं , वह वर्जनाएं स्वीकार नहीं करतीं और धड़ल्ले से उन क्षेत्रों में प्रविष्ट कर जाती हैं जहां स्त्री लगभग अनआमंत्रित है 'मनाही के ठीक बगल से गुजरते हुए'. उनका कविता टेम्पर सिर्फ पुरुषों के अंह रूप पर ही कटाक्ष नहीं करता ..बल्कि समाज की तमाम कमियों व सामजिक संबंधों आये जड़तावादी अवरोध को अपना निशाना बनाता है .वह भी नए मुहावरों व शब्दों के गठन में ...इसके लिए वह जाहिर है 'दिमाग की खूब कसरत कर रही हैं .
    प्रकृति के विभिन्न रूपों को संस्कृति के रचाव , सभ्यता के विस्तार को ..विज्ञान की विकसित समझ की सहायता से अपनी संवेदना के व्यापक दायरे में विस्तार देतीं ' सूरज ने इस आग में अपना प्रतिबिम्ब देखा ..' भाषा के प्रवाह में ...कुछ तल्ख़ ...कुछ निर्लिप्त ..कुछ उदास सा ....
    उनको मेरी शुभकामनाएं .....और रामजी भाई को इन कवितायों को हम सब से साझा करने का आभार।

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  10. विपिन अपनी कविताओं में हर तरह की अतियों और ज्‍यादतियों पर बहुत सटीक चोट करती है, साथ ही इस बात का खयाल भी कि उसका बयान अतिवादी और अटपटा बनकर न रह जाए। अपने समय की मानवीय दुर्बलताओं और सामाजिक संरचना में स्‍त्री के साथ होते अलोकतांत्रिक बरताव को वे अक्‍सर अपनी कविता का विषय बनाती रही हैं, उस पर अपना विरोध दर्ज करती रही हैं, बाजार ने स्‍त्री को किस दशा में पहुंचा दिया है, इस तथ्‍य से भी वे अनजान नहीं हैं, इसके बावजूद वे प्रकृति और मनुष्‍य की अदम्‍य ऊर्जा और उसके संघर्ष के प्रति नाउम्‍मीद नहीं है। 'आग' जैसी दमदार कविता इसी बात को पुष्‍ट करती है। विपिन को इन अच्‍छी कविताओं के लिए बधाई।

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  11. विपिन की कविताएं हमेशा की तरह ताज़गी से भर देने वाली हैं। नये विषयों के प्रति उनकी गहरी उत्‍सुकता नई काव्‍य संभावनाओं की ओर ले जाती है। अभिनेत्री कविता तो लाजवाब है, जिसे पढ़ते हुए पता नहीं क्‍यों सत्‍यजित रे की 'जलसाघर' याद आती रही... शुभकामनाएं विपिन।

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  12. vipin jee kee kavitaayen hamen aashvast kartee hain ki kavitaa abhee bhee behatar tarike se likhee jaa rahee hai. 'aag' kavitaa ne vishesh taur par hamaara dhyan aakrisht kiyaa. ise padte huye dushyan kumar ki pankti yaad aayee- ho kahee bhi aag lekin aag jalnee chahiye.' badhaaee. behatar kavitaa ke liye.

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  13. अपने समय और परिवेश को एक बेहद संतुलित टोन में व्यक्त करती कविताएँ। विपिन को बधाई।

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  14. adbhut kavtaye..vipin ji ko badhayi

    Regards
    Yogita yadav

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