विश्व पुस्तक मेले की डायरी के पन्नों से
पहला दिन -------28-02-2012
विश्व पुस्तक मेले में भाग लेने के लिए आज ही दिल्ली पहंचा हूँ | यहाँ आने से पहले मन में एक तरफ जहाँ उत्साह भी है कि किताबों के साथ साथ फेसबुक और ब्लाग की दुनिया के मित्रों से मिलना भी संभव हो सकेगा , तो दूसरी ओर यह डर–भय भी सता रहा है कि मेरा हश्र भी उस दिल्ली में कमलेश्वर की कहानी “खोयी हुई दिशाएं” के पात्र सरीखा न हो जाए , जो प्रतिदिन इस आशा में घर से निकलता है कि काश ! ,इस शहर में उसे भी कोई पहचान लेता | आज 28 फ़रवरी को जब पहली बार मैं मेले में पहुंचा , तो सबसे पहले मेरी मुलाकात गार्गी प्रकाशन के अरविन्द से हुई | वे मेरे ही जिले बलिया के रहने वाले हैं | मार्क्सवादी विचारधारा और साहित्य पर जिस गहनता और सरलता के साथ अपनी बात रखते हैं , वह चकित करने वाला है | हमेशा लो-प्रोफाइल में रहने वाले अरविन्द और उनकी टीम ने सोवियत संघ और चीन में साम्यवाद के पतन के कारक दस्तावेजों को जिस प्रकार से संकलित और प्रकाशित किया है , वह अनूठा है | अरविन्द से हुई मुलाकात ने मेरे भीतर आशा और उर्जा को जो संचार पैदा किया ,वह मानीखेज है | फिर “समयांतर” के स्टाल पर उस पत्रिका के सहयोगी संपादक सुभाष गौतम से मुलाकात होती है | समयांतर जैसी महत्वपूर्ण वैचारिक पत्रिका को सहयोग करने वाले सुभाष भाई भी उसी सादगी और ईमानदारी से काम करते हैं , जैसी कि खुद समयांतर | वे अपने स्टाल पर एक विक्रेता के बजाय एक सहयोगी और मार्गदर्शक की भूमिका निभाते नजर आते हैं | और तभी हमारी मुलाकात बी.एच.यू. के शोधार्थी मित्र रविशंकर और उनके मित्रों से होती है | वे भी आज ही बनारस से यहाँ पहुचे हैं | मेले को देखने ,घूमने और खरीदारी करने का उनका टिप बहुत काम लायक है | “पहले दिन हम लोग सभी स्टालों से पुस्तक-सूची एकत्रित करेंगे , शाम को घर जाकर उसमे अपने काम लायक किताबों को अलग छाटेंगे और अगले दिन खरीदारी पर उतरेंगे” | रविशंकर की यह युक्ति मुझे बहुत भाती है | हां ...उनके पास किताबों पर छूट लेने की भी मौलिक युक्ति है |..सभी बड़े स्टालों पर पहले ही दिन वे अपने लायक परिचय भी ढूंढ लेते हैं | खरीदारी करते समय यह इतना काम लायक सिद्ध होता है कि 5000 मूल्य की किताबो से भरे बैग की बिल 3000 की ही बनती है | अब इसे आप चांहे तो छूट के बजाय कम्यूटर की गडबडी भी मान सकते हैं , लेकिन यह गडबडी हर स्टाल पर होती है | ऐसे में अपनी प्रिय किताबों को खरीदने का उत्साह कई गुना बढ़ जाता है |
हमारी मुलाकात फेसबुक के सबसे चर्चित चेहरे अशोक कुमार पाण्डेय से होती है | फेसबुक के हमारे मित्र जानते ही हैं कि अशोक के सोचने-समझने का दायरा कितना विस्तृत है | शिल्पायन के स्टाल पर , जहाँ से उनका कविता संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ आया है, वे अपनी आगामी योजनाओं पर जमकर बात करते हैं | आपसे राय लेते हैं और आपको अपनी राय देते भी हैं | वहीँ मृत्युंजय , हरीश पंड्या और सत्य नारायण पटेल से भी मुलाकत होती है कि तभी मनोज पटेल का आगमन होता है | सब लोग कहते है , “अपना परिचय देकर हमें शर्मिंदा मत कीजिये , ‘पढते-पढते’ को फेसबुक और ब्लॉगों की दुनिया का कौन आदमी नहीं जानता है” | मनोज जिस संजीदगी से “पढते-पढते” ब्लाग का काम करते है , उसी संजीदगी से बात भी करते हैं | फिर दुबला-पतला छरहरा सा युवक , जिसके चेहरे पर मुस्कराहट स्थाई वास करती है , अवतरित होता है | अशोक कहते है “ये कुमार अनुपम” हैं | ओह ....कुमार अनुपम | अपनी कविताओं की ही तरह उनके मिलने में भी आत्मीयता साफ़ झलकती है | शाम को वापस गेस्ट-हॉउस लौटता हूँ.., पूरे उत्साह के साथ | आखिर कल खरीददारी भी तो करनी है |......
दूसरा दिन ----29.02.2012
साहित्य पढ़ने के शुरूआती दिनों में मैं यही सोचता था कि यदि पचास प्रतिष्ठित पुस्तकों का अध्ययन कर लिया जाए , तो काफी कुछ जाना जा सकता है | लेकिन जैसे–जैसे उन्हें पढ़ने का सिलसिला आगे बढ़ता गया , साहित्य रूपी पेड़ में भाषाओँ और विधाओं की कंछिया फूटती चलीं गयीं और तब एक भाषा की एक विधा में ही पचास पुस्तकों की यह संख्या नाकाफी लगने लगी | जिस ‘कवि ने कहा’ की बीस पुस्तकों की सीरीज के जरिये मैं आधुनिक कविता को समझ लेने का स्वप्न देख रहा था , इस पुस्तक मेलें में आने के बाद यह एहसास हुआ कि वह सीरीज इस महासागर में एक नदी से अधिक की औकात नहीं रखती | मन में किसी का कहा हुआ कौंधने लगा कि आप जितना अधिक जानते जाते हैं , आपको यह लगने लगता है कि आप कितना कम जानते हैं और यह भी कि आपके सामने जानने के लिए कितना कुछ बाकी पड़ा है |
आज का दिन मेले में हमारे लिए खरीददारी का दिन है | रविशंकर और उनके साथियों के पास पुस्तकों की लंबी सूची है जिसे मैं उपस्थित होकर थोडा और फ़ैला देता हूँ | मुलाकातों के हिसाब से आज का दिन भी काफी घटना प्रधान साबित होता है | लीना मल्होत्रा , जिनका पहला कविता संकलन “मेरी यात्रा का जरुरी सामान” अभी कुछ ही दिन पहले आया है , से मुलाकात होती है | अपनी कविताओं की बेबाकी और तेवर के विपरीत वे काफी सरल, संकोची और मृदुभाषी हैं | अपनी प्रशंशा पर झेंपने का उनका अंदाज बिलकुल हमारे और आप ही जैसा है | आगे बढ़ता हूँ तो ज्योति चावला मिल जाती हैं | वे मुस्कुराते हुए उलाहना देती हैं कि आपने लीना की खबर तो ली , लेकिन मुझे नजरंदाज कर दिया | “अरे नहीं...आप ऐसा क्यों सोचती हैं ..?” मैं हर तरह से उन्हें आश्वस्त करता हूँ कि मैंने आपको पहचाना नहीं , अन्यथा जब मैं लीना से मिला (वे उस समय लीना से बातचीत कर रही होती हैं) तभी मैं आपसे भी मिलता | ज्योति तुरंत ही मुझे सहज कर देती है | मैं उमाशंकर चौधरी के बारे में पूछता हूँ | “साहित्य अकादमी” के युवा पुरस्कार के लिए उन्हें बधाई देनी है” | ‘तो मुझे ही दे दीजिए’ , ज्योति मुस्कुराते हुए कहती हैं | “नहीं ...क्या पता कल ये आपको मिल जाए ...तब ...? ...तब के लिए इसे बचाकर रखना चाहता हूँ” | मैं उस बधाई को वापस जेब में रख लेता हूँ |
फिर मेरी मुलाकात पंकज बिष्ट से होती है | वे जिस आत्मीयता और उर्जा के साथ हमसे फोन पर बात करते हैं , उसी तरह से मिलते भी हैं | समयांतर के मार्च अंक में छपने वाले मेरे लेख “आस्कर विजेता फ़िल्में और हमारी दुनिया” की वे तारीफ़ करते हैं | मैं झेंपते हुए बात को दूसरी तरफ मोड़ता हूँ | समयांतर से होती हुई बात उनके यात्रा संस्मरण “खरामा-खरामा” और उपन्यास “पंख वाली नाव” तक चली जाती है | वीरेन्द्र यादव , विजय गौड़ , अरुण कुमार असफल और विष्णु नागर से मिलते हुए सामयिक प्रकाशन की तरफ लौटता हूँ कि ‘पाखी’ के संपादक प्रेम भारद्वाज से मुलाकात हो जाती है | यहीं से उनका कहानी संग्रह “इन्तजार पांचवे सपने का” आया है | उनसे काफी बातचीत होती है | फिर अंतिका प्रकाशन पर आता हूँ | यहीं ‘नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़ती” और “वह भी कोई देश है महाराज” के लेखक अनिल यादव से मुलाकात होती है | आत्मीयता भरी इस मुलाकात के बाद मैं राजकमल की तरफ बढ़ता हूँ...| वहाँ सुशील सिद्धार्थ बैठे हुए हैं | उनसे भी मेरी पहली मुलाकात है | आर चेतन क्रांति से मिलता हूँ | नागार्जुन केंद्रित आलोचना के अंक में मुझे अपना लेख दिखाई नहीं देता | “तो क्या वह छंट गया ..?” मैं पूछता हूँ | हमारे जैसे दूर दराज में रहने और नए लिखने वाले इसी तरह से सोचते हैं | “नहीं ...इस अंक में सामग्री अधिक हो गयी थी..आपका लेख अगले अंक में आएगा” | चेतन क्रांति की बातों से आशा बंधती है | उनके बगल में एक सज्जन खड़े है | वे हमारा नाम पूछते हैं | ‘जी मैं ही हूँ’ , मैं हामी भरता हूँ | ‘और आप ...?’ “मैं अशोक मिश्र हूँ ...रचना क्रम का संपादक ...आपका लेख मेरी पत्रिका के मीडिया विशेषांक में छपा था” | ‘ओह....क्षमा कीजिये ....मैं पहचान नहीं पाया ’ |
मेले से वापसी में आज किताबों का बण्डल कंधो के साथ-साथ मेरे हौसले की भी परीक्षा ले रहे हैं | शाम के समय चार झोलों के साथ मेट्रो में किये जाने वाले सफर का सुख-दुःख क्या होता है , दिल्ली वाले ही बता सकते हैं ..| बहरहाल ...किताबों का सुख तो प्रेमिकाओं जैसा ही होता है , जिनके साथ चलते हुए सफर की तमाम दुश्वारियाँ भी भलीं ही लगने लगती हैं ....|
कनाट प्लेस की इनर सर्किल से होते हुए अपने अतिथि गृह की तरफ बढ़ता हुआ मैं , उन लोगो के भाग्य पर तरस खाता हूँ , जो मेरे द्वारा खरीदी गयी इन पचासों किताबों से अधिक के मूल्य का परिधान पहनें मैकडोनाल्ड और हल्दीराम के कबाड़ को अपने उदर में भरने के लिए उतावले हो रहे हैं ...|....तो क्या ईश्वर के दरबार में वाकई न्याय भी होता है , जो उसने इन बेचारों के दिमागों में विचारों के खाने ही नहीं बनाये ....?........
तीसरा और अंतिम दिन ---01.03.2012
पता पूछने के लिए भारत में पूजा स्थलों का किया जाने वाला उपयोग मुझे भी पसंद आता है | किसी भी अजनबी इलाके में आप इनके सहारे अपनी मंजिल तक पहुच सकते है | अब यह अलग बात है कि उनके दरवाजे के भीतर दाखिल होते ही आपका सारा दिशाबोध जाता रहे | भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यालय तक पहुचने में भी साईं मंदिर स्थल आपके काम आता है | जहाँ सामने मंदिर की सीढियां उतरते भक्तजन ईश्वर को मिठाई के डब्बों में बंद कर ले जा रहे हैं , उन्ही के बगल से भारतीय ज्ञानपीठ का रास्ता खुलता है | यहाँ कुणाल सिंह , कुमार अनुपम और महेश्वर से मिलना होता है | काम के दबाव के मध्य उन सबसे आधे घंटे की वह मुलाकात दिल को छू लेने वाली होती है | उनके सामने रचनाओं का ढेर लगा हुआ है | सोचकर दिल दहल जाता है कि एक लेखक कैसे इनके बीच से रास्ता बनाता हुआ ‘नया ज्ञानोदय’ के पन्नों तक पहुचता होगा | एक संपादक के लिए भी रचनाओं का यह बड़ा ढेर किसी चुनौती से कम नहीं | कुणाल अपना दुःख रोते है “ मुझे अपनी प्रशंसा असहज कर देती है , ऐसे में कोई रचनाकार अपनी रचना भेजते समय जब मेरी तारीफों के पुल बांधना शुरू कर देता है , तो मन में एक खीझ पैदा होने लगती है | मेरा तो स्पष्ट मानना है कि यदि आपकी रचना में दम होगा , तो कोई भी उसे सामने आने से रोक नहीं सकता | फिर बेमतलब की चापलूसी क्यों ...?”
कुणाल की बातों में दम है | “लेकिन क्या पत्रिकाओं में छपने वाली सारी रचनाये स्तरीय और उनमे नहीं छपने वाली सारी स्तरहीन ही होती हैं” | मन में उठते हुए इस सवाल को दबाता हुआ उन सबसे विदा लेता हूँ | जबकि महेश्वर अपने चश्मे में खूब जम रहे हैं , लेकिन यह सोचकर कि कहीं हमारी इस प्रशंसा को भी चापलूसी की श्रेणी में ही न रख लिया जाए , संकोचवश मैं इसे व्यक्त नहीं कर पाता | मेले में वापस लौटता हूँ | आज रामाज्ञा जी बनारस से पधारे है | उनके साथ विद्यार्थियों की पूरी टोली है | पेंग्युइन के स्टाल पर कथाकार राजेंद्र दानी मेरा हाथ थामते हुए मुझे नाम से पुकारते हैं | ‘जी मैं ही हूँ’ | लेकिन आप कैसे मुझे पहचानते हैं | “ आप फेसबुक पर मेरी बेटी के मित्र हैं , उसी ने आपसे मेरा परिचय कराया है” | वे राज खोलते हैं | तो फेसबुक इतने काम का हो सकता है | तब तक उनकी बेटी तिथि दानी भी आ जाती हैं | परिकथा के नवलेखन अंक में मेरे साथ-साथ उनकी कहानी भी छपी है | बातचीत काफी सुखद रहती है | राजेंद्र सच्चर , कमल नयन काबरा , लाल बहादुर वर्मा , नामवर सिंह , काशीनाथ सिंह , विभूति नारायण राय , अनामिका, निर्मला भुराडिया आदि बड़े नामो को देखने का सौभाग्य भी इस मेले में मिलता है | आज ही उमाशंकर चौधरी से भी मुलाकात होती है | जेब में रखी उनकी बधाई उन्हें सौंपता हूँ | जयश्री राय , मनीषा , गीता श्री , कविता , राकेश बिहारी आदि से मुलाकात के बाद फेसबुक के मेरे मित्र मनोज पाण्डेय और प्रेमचंद गाँधी भी मिलते हैं | आभासी दुनिया के मित्रों से यह मुलाकात जब हकीकत की गर्मजोशी में बदलती है , तो बहुत अच्छा लगता है |
मेरे लिए यह विश्व-पुस्तक मेला आज समाप्त हो रहा है | दिल्ली से बलिया लौटने के लिए ट्रेन पकडता हूँ तो मेले से खरीदी गयी किताबों के साथ-साथ स्मृतियों की गठरी भी होती है | एक ऐसी गठरी जिससे काफी कुछ सीखा जा सकता है , जिसको आजीवन संजोया जा सकता है | आभासी दुनिया की यह आत्मीयता सुखद और उत्साहवर्धक प्रतीत होती है | डायरी के पन्नों पर बेशक बहुत सारे मित्रों के नाम छूट गए हैं , लेकिन मन स्मृतियों में वे कहीं गहरे जरुर दर्ज हैं | फेसबुक को दिल से धन्यवाद देनें की इच्छा होती है , जिसने मेरे जैसे दूर-दराज और रिमोट में बैठे आदमी के लिए इस विस्तृत जहान में खड़ा होकर अपनी पहचान बनाने का अवसर प्रदा किया | शुक्रिया मित्रों ....| आप सबका बहुत आभार ,जिन्होंने इन स्मृतियों को सतरंगी बनाया , और उन सबसे सादर क्षमा , जिनसे चाहते हुए भी नहीं मिल पाया |
रामजी तिवारी
आँखों देखा हाल जैसा लेख....बधाई
जवाब देंहटाएंवाह भाई...काश मैं भी संस्मरण लिख पाता...:(
जवाब देंहटाएंअशोक भाई . आपकी कविताओ और लेखों को पढ़ने के बाद मैं भी ऐसी ही आहें भरता हूँ...
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