"हम बचे रहेंगे" कवि-कथाकार विमलेश त्रिपाठी का प्रथम काव्य संकलन है। सबसे पहले मैं युवा कवि को अपनी ओर से हार्दिक बधाई देना चाहूंगा । कविताओं के सच बोलते शब्दो के गांभीर्य को पढने के बाद समीक्षा लिखने की स्वयं की अर्हता पर मुझे संकोच होता है फिर भी, बतौर पाठक प्रतिक्रिया व्यक्त करना मेरा सौभाग्य और कर्तव्य है। हिन्दी के सरल, सीधे और सहज-आंचलिक, आसान भोजपुरिया शब्दों के समावेश के बाबजूद इस संकलन को एक नजर मे सरसरी तौर पर पढना मेरे जैसे एक पाठक के लिए संभव नही है, कई पंक्तियों पर नजरें ठहर जाती हैं। शब्दों के प्रतीक-बिम्बों से निकलते भाव, सच के सौंदर्य को महसूस करने के लिये विवश कर देते हैं। कई जगहों पर पर मैं इतना मंत्रमुग्ध हो जाता हूं कि वहाँ ठहरकर मैं शब्दों के भाव -सौंदर्य को देखता रह जाता हूं। ऐसा लगता है, कोई विवश निर्दोष प्रेममय प्रतिभा घोर उपेक्षा, पीडा, संत्रास, संघर्ष झेले, या जीवन के उतार-चढाव की कडी धूप में जले बगैर,.. मात्र कोरी कलात्मक कल्पनाओ, तर्क व अनुमान से इस प्रकार के सच को इतना स्पष्ट और बेबाक नही लिख सकता है। शब्द इतने तपे, तपाये हैं, जो कवि के उदगार के यथार्थ को एक सही वजन देते दिखते हैं। हिन्दी के शब्दो के साथ ठेठ भोजपुरिया शब्दों का मेल संकलन को एक पक्का रंग देकर, अनूठा बना देता है। सीधी, सरल और सपाट शैली मे लिखी पंक्तियों में एक अदभुत धार है, जो आज के एक पाठक के मन की भटकी नैराश्य मनोवृतियों को काटती हुई और उस पर, अपने पैर जमाती हुई चलती चली जाती है,.. जो एक नये सिरे से सोचने का एक साकार दृष्टिकोण देती है, नये आत्मविश्वास गढती है। इस दिशा मे यह संकलन एक सफ़ल और प्रभावी प्रयास है।
हिन्दी कविता, कई काल और वाद के दौर से गुजरती हुई, मुक्तछंद के आज जिस मुकाम पर है, २१ वी सदी मे तेजी से बदलती परिस्थितियों मे जो बदलाव आया है उसमे साहित्य का बदलना भी लाजिमी है। जैसा कि हम जानते हैं, कविताओं का अपने तत्कालीन युग से एक गहरा संबंध होता है, अब इतना कुछ अधिक लिखा पढा जा रहा है, जो एक तरह से हिन्दी के प्रति, एक प्रेम को ही दर्शाता है, यह एक अच्छी बात है, पर इसी प्रक्रम में कहीं-कहीं, रोष, विखराव व भटकाव भी है, वहाँ यह संकलन साहित्य में एक आदर्श आयाम बनने में सहायक हो सकता है।
कम्पूटर पर पहली बार मैने दो पंक्तियाँ पढी -
जितने कम समय मे लिखता हू मै एक शब्द,
उससे कम समय मे मेरा बेरोजगार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय मे
बहन " औरत से धर्मशाला" मे तब्दील हो जाती है।
...तभी से सोचता था कि वह कौन कवि है, जो इतनी पैनी और अलग सोच रख सकता है, पहली बार मै ठहर गया था,.. खोजते, ढूँढते, विमलेश त्रिपाठी जी को पाया व आज उनका यह काव्य संकलन देखने का मौका भी उन्ही के प्रयासों से मिला। मेरा अनुमान सही निकला, यह काव्य संकलन, सच मे एक अलग-से, रंग मे है। इसमें एक अलग बात है।
कविताओं मे कई ऐसी पंक्तिया है, जो अत्यंत मर्मस्पर्शी, भावुकता पूर्ण सच देखती हुई, एक अकूत प्रेम को दर्शाती है, जहाँ मेरे जैसे पाठक को देखने के लिये ठहरना पडता है-
बूढे इन्तजार नही करते .....
अपनी हड्डियों मे बचे रह गये अनुभव के सफ़ेद कैलसियम से
खीच देते है एक सफ़ेद और खतरनाक लकीर --
और एक हिदायत,
जो कोइ भी पार करेगा उसे बेरहमी से कत्ल कर दिया जायेगा....।
यहाँ कैलसियम और लकीर पर मै ठहर जाता हूँ,
कितना वजन आज भी इस लकीर में है, मै ठहर कर महसूस करता हूँ, रीति-रिवाजों और परंपराओ की ओट मे सदियों से रहते आए आदमी के लकीर के फ़कीर बनने पर, वहाँ अपने विवेक, साहस, और निर्णय लेने की न्याय- पूर्ण क्षमता से कवि मनुष्यता के सच को वरीयता देता है।
कवि राजघाट पर राष्ट्रपिता से आज के वर्तमान निर्मम स्थिति से जुडे कुछ प्रश्न करता है, यहाँ एक भोजपुरी शब्द का प्रयोग है --"-ढठियाये-"- अर्थ है (बहला, फ़ुसलाकर या, फ़रेब से अथवा सुसुप्तावस्था मे, हत्या करना) इसके व्यापक अर्थ को जानकर मन सिहर उठता है, अदभुत है यह शब्द। जो आज की स्थिति के चित्रण भाव को उपयुक्त अर्थवत्ता देता है।
---हत्यारे पहुँच रहे है,
सडक से संसद तक....
इन पंक्तियो से चलते -चलते मुझे कवि धूमिल की यादे भी कुछ ताजा हो गयी ।
कवि की संवेदना को देखते ही बनता है, वह अपनी माँ के गँवई चेहरे पर की झुर्रिया देखता है, उससे महुए को टपकता देख कर सफ़ेद कागज पर अंकित करने का बिम्ब अत्यंत मर्मस्पर्शी है, कविता में देश काल और राष्ट्रचेतना मे शब्दों, बिम्बो का गठन बहुत सुन्दर है, जहाँ मै ठहर सा जाता हूँ।
कवि की दृष्टि एक दिहाडी मजदूर पर भी है जब वह रंगो के दर्द भुलाने के लिये मटर के चिखने के साथ पीता है बसन्त के कुछ घूँट। यहाँ भी मेरा ठहरना होता है।
कविता के प्रति कवि का सच भी अदभुत सच है।
---मैने लिखा--कविता
और मैने देखा
कि शब्द मेरी चापलुसी में
मेरे आगे पीछे घूम रहे है ..... ।
जहाँ कही भी मैं कविता मे देखता हूँ, कवि, तपे तपाए हुए शब्दो में कही भी किसी तरह का अभिनय, चाटुकारिता, दिखावा, अनर्गल प्रलाप या, व्यर्थ के अर्थ खोजता हुआ नही लगता बल्कि, वह सीधे और सपाट शब्दों से केवल वह सच देखता है, जो एक राष्ट्र के परिपक्व जिम्मेदार जन साहित्य चेतना के प्रहरी कवि को देखना चाहिये। कविताओं मे केवल एक प्रेम, और सच झलकता है, जो मन को छू जाता है जो मुझे एक राहत दे जाता है।
....एक ऎसे समय मे जब शब्दो को सजाकर,
नीलाम किया जा रहा है , रंगीन गलियो मे,
और कि नंगे हो रहे है शब्द,
कि हाँफ़ रहे है शब्द,
एक एसे समय मे शब्दो को बचाने की लड रहा हूँ लडाई.....।
देश, काल, साहित्य, समाज के सच को कवि एक खतरनाक और निर्मम समय के रूप मे व्यक्त करता है। इस बुरे समय मे भी विचलित उद्वेलित या रोष मे नही लगता वह तटस्थ भाव से गहरे पानी की तरह शांत होकर एक राह बनाता है।
कवि के आत्मविश्वास से भरे उठे हाथ हमें बचे रहने के भविष्य का आगाह करते हैं।
कवि को यकीन है -----
एक उठे हुए हाथ का सपना,
मरा नही है,
जिन्दा है आदमी,
अब भी थोडा सा चिडियों के मन मे,
बस ये दो कारण काफ़ी है
परिवर्तन की कविता के लिये ..।
---पुन: कुछ और भी मिला मुझे,...
कोइ भी समय इतना गर्म नही होता
कि करोडों मुठ्ठियों को एक साथ पिघला सके
न कोइ भयावह आंधी,
जिसमे बह जाये सभी
मैंने एक जगह और देखा ,...
---शब्दों से मसले हल करने वालें बहरूपिये समय मे
.........प्यार करते हुए
..............पालतू खरगोश के नरम रोओं से
या आइने से भी नही कहूँगा
कि कर रहा हूँ मै सभ्यता का सबसे पवित्र और खतरनाक
कर्म----
काव्य संकलन मे अर्थ इतना साफ़ है जो हमे सोचने को बाध्य कर देता है कि कवि का अभिप्राय क्या हैं। एक जगह और कुछ पंक्तियाँ मिली।
जहाँ सब कुछ खत्म होता है,
सब कुछ वही से शुरु होता है....
कि तुम्हारे हिस्से की हवा मे
एक निर्मल नदी बहने वाली है...
तुम्हारे लहु से
सदी की सबसे बडी कविता लिखी जानी है।
मै समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ ।
किसानो की आत्महत्या के बाद भी
गुजरात के दंगो के बाद भी
बाकी बचे रहेगें ,
रिश्तो के सफ़ेद खरगोश ,
जब उम्मीदे तक हमारी बाजार मे गिरवी पडी है,
कितना आश्चर्य है ,ऎसा लगता है, पूरब से एक ,
सूरज उगेगा.. ।
यह शर्म की बात है,
कि मै लिखता हूँ ,कविताएँ,
यह गर्व की बात है,
कि ऎसे खतरनाक समय मे मै,
कवि हूँ....कवि हूँ..।
---.उपरोक्त पंक्तियाँ, काव्य संकलन की कविताओ के मात्र कुछ अंश है, इनसे पूरी कविता का भाव बगैर पूरी कविता पढे स्पष्ट नही होगा, यह मात्र एक बानगी या खाका खीचने भर का प्रयत्न है, पूरे संकलन की कविताओ को, प्रतिक्रिया के इस छोटे दायरे मे लाना संभव नही जान पडता है।
मै एक पाठक हूँ, मेरे भी कुछ निजी विचार है, जिसे व्यक्त करने के लिये स्वतंत्र हूँ। "हम बचे रहेगें "-- काव्य संकलन की, कविताएँ पढने के बाद मुझे लगा, यह एक बहुत अच्छा, सम्मानित, संग्रह योग्य, काव्य साहित्य है, ऐसे संग्रह का सम्मान के साथ, मै स्वागत करता हूं। जब पिसता है आदमी ,.. और पीसने वाला भी है आदमी,.. तो ऐसे क्रूर और बुरे समय में एक अच्छा साहित्य ही हमें राह दिखाता है, अगर यह विधा कविता हो तो बात और भी दमदार हो जाती है। यह संकलन, एक पिसते आदमी को राहत देता है, मेरा मतलब बिखरने और भटकने से बचाता है, प्यार सिखलाता है। और यह केवल हमें वर्तमान में ही नही राह दिखाता,.. बल्कि अच्छे साहित्यिक गुणो से हमारी आने वाली पीढियों की फसलों के दाने को भी पुष्ट, परिपक्व बनाने के इतिहास में एक उर्वरक का काम भी करता है। कभी- कभी हम यह भूल जाते हैं, यह भूल इस काव्य संकलन में नही है।
कवि के पास मानव जीवन के अनेक सरल और संगीन सामाजिक व राजनैतिक और वसुधा के प्रेम से भरी हुई सत्य के विहंगम दृश्य को देखने की एक परिपक्व अन्तर्द्ष्टि है, जो विशिष्ट है.. , और यह वैशिष्टय प्राय: सभी कविताओ मे दिखता है, जो हमे सत्य के सौन्दर्य से सराबोर कर मन को झकझोर देती है, जो हमारे नैराश्य से सुप्त पडे मनुष्यता के प्रेम को जगाकर एक आत्मविश्वास की प्रेरणा देने की दिशा देती है। संकलन मे कविताए .., गाँव , गँवई ,जवार, बूढे गवाह बरगद, फुरगुदी, खेत, पगडंडी, खलिहान, छान्ही पर की चिडियाँ अनगराहित भाई, सूकर जादो, सफ़ेद खरगोश, होरी और चईता के स्वर के धुनों सहित कई पात्र व माध्यम के एक सजीव रंगो, से वह प्रेम जगाते हैं, जो आज के समय की जरूरत है। जब तक, साहित्य में सच का सौन्दर्य जीवित रहेगा, शब्दो मे प्रेम, कविता मे चेतना का आत्मविश्वास, सौहार्द और सहिष्णुता की, सही दिशा रहेगी ,... रिश्तो के खरगोश बचें है, हम बचे है,..और रहेंगे हम,...यानी ,..."हम बचे रहेंगे ",.....।
इस बात पर मुझे इकबाल साहब की, अपने देश की ही अपनी रागिनी की गुँज आ रही है।
...कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी,,, युनान, मिस्र रोंम्या सब मिट गये जहाँ से,... , सारे जहाँ से.........।
अगर कोइ मुझसे पूछे कि इसमे क्या बात है?.. तो मै कहूंगा, इसमें यही बात है।
विमलेश जी आपने मुझे इतना छुआ है कि क्या बताउं? बहुत दिनो के बाद कुछ अच्छा पढने को मिला।
अंत मे एक संदेश है,....., मेरा जो आपकी कविता का ही एक अंश है।
मुझे ,.. दूसरे संकलन, का इंतजार रहेगा,
ठीक वैसे ही ---
मन्दिर की घंटियो के आवाज के साथ
रात के चौथे पहर,
जैसे पंछियो की नींद को चेतना आती है।
जैसे लंबे इंतजार के बाद सुरक्षित घर पहुँचा देने का
मधुर संगीत लिये प्लेटफ़ार्म पर पैसेंजर आती है।
पुन: धन्यवाद और प्रिय कवि की दीर्घजीवी रचनात्मकता के लिए अशेष शुभकामनाएं.।
कम्पूटर पर पहली बार मैने दो पंक्तियाँ पढी -
जितने कम समय मे लिखता हू मै एक शब्द,
उससे कम समय मे मेरा बेरोजगार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय मे
बहन " औरत से धर्मशाला" मे तब्दील हो जाती है।
...तभी से सोचता था कि वह कौन कवि है, जो इतनी पैनी और अलग सोच रख सकता है, पहली बार मै ठहर गया था,.. खोजते, ढूँढते, विमलेश त्रिपाठी जी को पाया व आज उनका यह काव्य संकलन देखने का मौका भी उन्ही के प्रयासों से मिला। मेरा अनुमान सही निकला, यह काव्य संकलन, सच मे एक अलग-से, रंग मे है। इसमें एक अलग बात है।
कविताओं मे कई ऐसी पंक्तिया है, जो अत्यंत मर्मस्पर्शी, भावुकता पूर्ण सच देखती हुई, एक अकूत प्रेम को दर्शाती है, जहाँ मेरे जैसे पाठक को देखने के लिये ठहरना पडता है-
बूढे इन्तजार नही करते .....
अपनी हड्डियों मे बचे रह गये अनुभव के सफ़ेद कैलसियम से
खीच देते है एक सफ़ेद और खतरनाक लकीर --
और एक हिदायत,
जो कोइ भी पार करेगा उसे बेरहमी से कत्ल कर दिया जायेगा....।
यहाँ कैलसियम और लकीर पर मै ठहर जाता हूँ,
कितना वजन आज भी इस लकीर में है, मै ठहर कर महसूस करता हूँ, रीति-रिवाजों और परंपराओ की ओट मे सदियों से रहते आए आदमी के लकीर के फ़कीर बनने पर, वहाँ अपने विवेक, साहस, और निर्णय लेने की न्याय- पूर्ण क्षमता से कवि मनुष्यता के सच को वरीयता देता है।
कवि राजघाट पर राष्ट्रपिता से आज के वर्तमान निर्मम स्थिति से जुडे कुछ प्रश्न करता है, यहाँ एक भोजपुरी शब्द का प्रयोग है --"-ढठियाये-"- अर्थ है (बहला, फ़ुसलाकर या, फ़रेब से अथवा सुसुप्तावस्था मे, हत्या करना) इसके व्यापक अर्थ को जानकर मन सिहर उठता है, अदभुत है यह शब्द। जो आज की स्थिति के चित्रण भाव को उपयुक्त अर्थवत्ता देता है।
---हत्यारे पहुँच रहे है,
सडक से संसद तक....
इन पंक्तियो से चलते -चलते मुझे कवि धूमिल की यादे भी कुछ ताजा हो गयी ।
कवि की संवेदना को देखते ही बनता है, वह अपनी माँ के गँवई चेहरे पर की झुर्रिया देखता है, उससे महुए को टपकता देख कर सफ़ेद कागज पर अंकित करने का बिम्ब अत्यंत मर्मस्पर्शी है, कविता में देश काल और राष्ट्रचेतना मे शब्दों, बिम्बो का गठन बहुत सुन्दर है, जहाँ मै ठहर सा जाता हूँ।
कवि की दृष्टि एक दिहाडी मजदूर पर भी है जब वह रंगो के दर्द भुलाने के लिये मटर के चिखने के साथ पीता है बसन्त के कुछ घूँट। यहाँ भी मेरा ठहरना होता है।
कविता के प्रति कवि का सच भी अदभुत सच है।
---मैने लिखा--कविता
और मैने देखा
कि शब्द मेरी चापलुसी में
मेरे आगे पीछे घूम रहे है ..... ।
जहाँ कही भी मैं कविता मे देखता हूँ, कवि, तपे तपाए हुए शब्दो में कही भी किसी तरह का अभिनय, चाटुकारिता, दिखावा, अनर्गल प्रलाप या, व्यर्थ के अर्थ खोजता हुआ नही लगता बल्कि, वह सीधे और सपाट शब्दों से केवल वह सच देखता है, जो एक राष्ट्र के परिपक्व जिम्मेदार जन साहित्य चेतना के प्रहरी कवि को देखना चाहिये। कविताओं मे केवल एक प्रेम, और सच झलकता है, जो मन को छू जाता है जो मुझे एक राहत दे जाता है।
....एक ऎसे समय मे जब शब्दो को सजाकर,
नीलाम किया जा रहा है , रंगीन गलियो मे,
और कि नंगे हो रहे है शब्द,
कि हाँफ़ रहे है शब्द,
एक एसे समय मे शब्दो को बचाने की लड रहा हूँ लडाई.....।
देश, काल, साहित्य, समाज के सच को कवि एक खतरनाक और निर्मम समय के रूप मे व्यक्त करता है। इस बुरे समय मे भी विचलित उद्वेलित या रोष मे नही लगता वह तटस्थ भाव से गहरे पानी की तरह शांत होकर एक राह बनाता है।
कवि के आत्मविश्वास से भरे उठे हाथ हमें बचे रहने के भविष्य का आगाह करते हैं।
कवि को यकीन है -----
एक उठे हुए हाथ का सपना,
मरा नही है,
जिन्दा है आदमी,
अब भी थोडा सा चिडियों के मन मे,
बस ये दो कारण काफ़ी है
परिवर्तन की कविता के लिये ..।
---पुन: कुछ और भी मिला मुझे,...
कोइ भी समय इतना गर्म नही होता
कि करोडों मुठ्ठियों को एक साथ पिघला सके
न कोइ भयावह आंधी,
जिसमे बह जाये सभी
मैंने एक जगह और देखा ,...
---शब्दों से मसले हल करने वालें बहरूपिये समय मे
.........प्यार करते हुए
..............पालतू खरगोश के नरम रोओं से
या आइने से भी नही कहूँगा
कि कर रहा हूँ मै सभ्यता का सबसे पवित्र और खतरनाक
कर्म----
काव्य संकलन मे अर्थ इतना साफ़ है जो हमे सोचने को बाध्य कर देता है कि कवि का अभिप्राय क्या हैं। एक जगह और कुछ पंक्तियाँ मिली।
जहाँ सब कुछ खत्म होता है,
सब कुछ वही से शुरु होता है....
कि तुम्हारे हिस्से की हवा मे
एक निर्मल नदी बहने वाली है...
तुम्हारे लहु से
सदी की सबसे बडी कविता लिखी जानी है।
मै समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ ।
किसानो की आत्महत्या के बाद भी
गुजरात के दंगो के बाद भी
बाकी बचे रहेगें ,
रिश्तो के सफ़ेद खरगोश ,
जब उम्मीदे तक हमारी बाजार मे गिरवी पडी है,
कितना आश्चर्य है ,ऎसा लगता है, पूरब से एक ,
सूरज उगेगा.. ।
यह शर्म की बात है,
कि मै लिखता हूँ ,कविताएँ,
यह गर्व की बात है,
कि ऎसे खतरनाक समय मे मै,
कवि हूँ....कवि हूँ..।
---.उपरोक्त पंक्तियाँ, काव्य संकलन की कविताओ के मात्र कुछ अंश है, इनसे पूरी कविता का भाव बगैर पूरी कविता पढे स्पष्ट नही होगा, यह मात्र एक बानगी या खाका खीचने भर का प्रयत्न है, पूरे संकलन की कविताओ को, प्रतिक्रिया के इस छोटे दायरे मे लाना संभव नही जान पडता है।
मै एक पाठक हूँ, मेरे भी कुछ निजी विचार है, जिसे व्यक्त करने के लिये स्वतंत्र हूँ। "हम बचे रहेगें "-- काव्य संकलन की, कविताएँ पढने के बाद मुझे लगा, यह एक बहुत अच्छा, सम्मानित, संग्रह योग्य, काव्य साहित्य है, ऐसे संग्रह का सम्मान के साथ, मै स्वागत करता हूं। जब पिसता है आदमी ,.. और पीसने वाला भी है आदमी,.. तो ऐसे क्रूर और बुरे समय में एक अच्छा साहित्य ही हमें राह दिखाता है, अगर यह विधा कविता हो तो बात और भी दमदार हो जाती है। यह संकलन, एक पिसते आदमी को राहत देता है, मेरा मतलब बिखरने और भटकने से बचाता है, प्यार सिखलाता है। और यह केवल हमें वर्तमान में ही नही राह दिखाता,.. बल्कि अच्छे साहित्यिक गुणो से हमारी आने वाली पीढियों की फसलों के दाने को भी पुष्ट, परिपक्व बनाने के इतिहास में एक उर्वरक का काम भी करता है। कभी- कभी हम यह भूल जाते हैं, यह भूल इस काव्य संकलन में नही है।
कवि के पास मानव जीवन के अनेक सरल और संगीन सामाजिक व राजनैतिक और वसुधा के प्रेम से भरी हुई सत्य के विहंगम दृश्य को देखने की एक परिपक्व अन्तर्द्ष्टि है, जो विशिष्ट है.. , और यह वैशिष्टय प्राय: सभी कविताओ मे दिखता है, जो हमे सत्य के सौन्दर्य से सराबोर कर मन को झकझोर देती है, जो हमारे नैराश्य से सुप्त पडे मनुष्यता के प्रेम को जगाकर एक आत्मविश्वास की प्रेरणा देने की दिशा देती है। संकलन मे कविताए .., गाँव , गँवई ,जवार, बूढे गवाह बरगद, फुरगुदी, खेत, पगडंडी, खलिहान, छान्ही पर की चिडियाँ अनगराहित भाई, सूकर जादो, सफ़ेद खरगोश, होरी और चईता के स्वर के धुनों सहित कई पात्र व माध्यम के एक सजीव रंगो, से वह प्रेम जगाते हैं, जो आज के समय की जरूरत है। जब तक, साहित्य में सच का सौन्दर्य जीवित रहेगा, शब्दो मे प्रेम, कविता मे चेतना का आत्मविश्वास, सौहार्द और सहिष्णुता की, सही दिशा रहेगी ,... रिश्तो के खरगोश बचें है, हम बचे है,..और रहेंगे हम,...यानी ,..."हम बचे रहेंगे ",.....।
इस बात पर मुझे इकबाल साहब की, अपने देश की ही अपनी रागिनी की गुँज आ रही है।
...कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी,,, युनान, मिस्र रोंम्या सब मिट गये जहाँ से,... , सारे जहाँ से.........।
अगर कोइ मुझसे पूछे कि इसमे क्या बात है?.. तो मै कहूंगा, इसमें यही बात है।
विमलेश जी आपने मुझे इतना छुआ है कि क्या बताउं? बहुत दिनो के बाद कुछ अच्छा पढने को मिला।
अंत मे एक संदेश है,....., मेरा जो आपकी कविता का ही एक अंश है।
मुझे ,.. दूसरे संकलन, का इंतजार रहेगा,
ठीक वैसे ही ---
मन्दिर की घंटियो के आवाज के साथ
रात के चौथे पहर,
जैसे पंछियो की नींद को चेतना आती है।
जैसे लंबे इंतजार के बाद सुरक्षित घर पहुँचा देने का
मधुर संगीत लिये प्लेटफ़ार्म पर पैसेंजर आती है।
पुन: धन्यवाद और प्रिय कवि की दीर्घजीवी रचनात्मकता के लिए अशेष शुभकामनाएं.।
-------शिव शंभू शर्मा
(लेखक कविता के गंभीर पाठक हैं। प.बंगाल के मिदनापुर में रहते हैं।)
सार्थक समीक्षा।
जवाब देंहटाएंहोली की ढेर सारी शुभकामनाएं।