मनोज पटेल
यह भी कोई जाने
की उम्र थी साथी ....
10 अगस्त 2017 की वह मनहूस शाम थी | सर्दी-जुखाम से जकड़े
शरीर ने रोज दिन की दिनचर्या के विपरीत उस दिन जल्दी ही मुझे बिस्तर पर भेंज दिया
था कि रात नौ बजे के आसपास मित्र सईद अयूब का फोन आया | बहुत साफ़ आवाज के धनी सईद
भाई उस दिन फोन पर लड़खड़ा रहे थे | मुझे लगा कि मैं नींद में हूँ इसलिए उनकी आवाज
मेरे कानों में ठीक से नहीं पहुँच पा रही है | या कि नेटवर्क में कोई दिक्कत है
जिसकी वजह से एक भारी और अस्पष्ट आवाज मेरे कानों में घुमड़ रही है | तीन-चार बार
प्रयास करने के बाद उनके शब्द फूटे थे ...
“मनोज पटेल भाई की कोई खबर है क्या आपके पास
....?”
“हां .... उनसे मेरी बात तो है, लेकिन लगभग दस
दिन पहले | मगर हुआ क्या सईद भाई ....? किसी अनहोनी की आशंका ने मेरे आसपास जल्दी-जल्दी
एक घेरा बुनना शुरू कर दिया था |
“उनके बारे में बहुत दुखद खबर आ रही है भाई | आप
जरा अपने संपर्क से पता कीजिये और जैसे ही कुछ पता चले, मुझे भी जरुर बताईये | यह
तो अनर्थ हो जाएगा |” कांपती हुई आवाज में सईद ने कहा था |
आशंका वाले घेरे की पकड़ दिल तक चली गयी | लगा कि
सामने की दीवार कुछ घूम सी गयी है | मैं उठकर खड़ा होने को हुआ, तब पता चला कि यह
दरअसल अपने भीतर की टूट-फूट है, जिसने हमारी दुनिया को उलट-पलट दिया है |
इधर छठी इन्द्रिय में कुछ अनिष्ट होता हुआ महसूस
होने लगा था तो उधर मन में यह कामना कुलांचे मार रही थी कि कहीं से सब ठीक-ठाक होने
की बात सुनाई दे जाए | उँगलियों ने मोबाइल फोन के की-पैड पर मनोज भाई का नंबर ढूंढ
लिया था | टोपी पहने उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा स्क्रीन पर उभरा | और फिर तर्जनी
ने बिना इस बात का ख्याल किये कि ऐसी सूचनाओं को प्रकारांतर से हासिल करना चाहिए,
उस नम्बर को मिला दिया | जाती हुई काल ने थोड़ी उम्मीद भी जगाई | लगा कि उधर से
मनोज भाई की उत्साह से लबरेज आवाज सुनने को मिलेगी, जिसमें वे हमेशा ही कहते थे कि
“हां ...रामजी भाई ... बोलिए .... कैसे हैं आप...?”
वह एक पल, वह एक क्षण किस उम्मीद और आशंका में
गुजर रहा था, कह नहीं सकता | फोन एक भर्रायी आवाज ने उठाया था, यह कहते हुए कि
“अनर्थ हो गया सर .... मनोज भाई नहीं रहे |” और फिर उस आवाज ने दो-चार पंक्तियों
में यह भी बताया कि मनोज भाई के पार्थिव शरीर को लेकर वे लोग लखनऊ से वापस उनके घर
अकबरपुर लौट रहे हैं |
ये उनके दोस्त राजेश कुमार की आवाज थी | इसी
पुस्तक मेले में उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी, जब वे मनोज भाई के साथ मेले में पहुंचे
थे | उन्होंने मेरी किताब पढ़कर एक लम्बी पाठकीय टिप्पड़ी भी भेंजी थी, सो इस नाते
मेरा उनसे ठीक-ठाक परिचय भी हो गया था | मैं वापस कमरे में आया | आंसूओं के साथ पिछले
पांच-सात वर्षों की घटनाएं भी भीतर से बाहर की तरफ फूट निकली | यह जानते हुए कि इस
दुनिया में आने वाला हर आदमी एक दिन इससे विदा भी होता है, मनोज भाई की असमय विदाई
बहुत भारी लग रही थी | अव्वल तो यह जाने की कोई उम्र नहीं थी | और फिर इस उलझे हुए
समय में उनके जैसे सुलझे हुए आदमी की दरकार भी बहुत थी |
वर्ष 2011 में सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद जिन
कुछ लोगों से मेरा पहला परिचय हुआ, उनमें भाई मनोज पटेल भी थे | तब भारत में ब्लागों
का जलवा छा रहा था और उसके पीछे फेसबुक भी जवान हो रहा था | अधिकाँश लिखने-पढने
वाले युवा ब्लागिंग की तरफ आ रहे थे | तो ऐसे में मेरे मन में भी ब्लॉग बनाने की
ईच्छा जगी | अपनी बात को कह सकने की आजादी और सार्वजनिक डोमेन में ले जा सकने की
उसकी क्षमता ने मुझे भी आकर्षित किया | लगा कि साहित्य के केन्द्रों से बाहर बैठकर
भी अपनी साहित्यिक अभिरुचि पूरी की जा सकती है |
इधर-उधर से हाथ-पाँव मारकर ब्लॉग तो बना लिया, लेकिन
उसे कैसे व्यवस्थित किया जाए, यह समझ में नहीं आ रहा था | ऐसे में मनोज भाई मेरे
लिए संकटमोचन के रूप में सामने आये | मैंने उनके इनबाक्स में एक सन्देश छोड़ा और
कुछ देर बाद आये उनके फ़ोन ने मेरे ब्लॉग ‘सिताब दियारा’ को व्यवस्थित कर दिया | अब
मैं ब्लॉगर भी था और उसकी बारीकियों से थोड़ा-बहुत परिचित भी |
इधर इंटरनेट की साहित्यिक दुनिया में कबाड़खाना,
सबद, पढ़ते-पढ़ते, नयी बात, जनपक्ष, जानकी पुल, समालोचन, पहली बार, कर्मनाशा और
अनुनाद जैसे ब्लॉग फ़िजा को रोशन कर रहे थे | मेरे दिमाग में यह बात कौंधी कि
साहित्यिक ब्लागों की दुनिया से पाठकों का एक व्यवस्थित परिचय होना चाहिए | उन्हें
पता होना चाहिए कि साहित्य की किस विधा में किस ब्लॉग पर कैसा काम हो रहा है | इन
बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने एक लेख लिखा | उस लेख में दस ब्लागों का जिक्र
था, जिन्हें मैंने वरीयता सूची के हिसाब से सजाया था | मैंने पोस्ट लगाकर जैसे ही
उसे फेसबुक से जोड़ा, दस मिनट के भीतर मनोज भाई का फोन आ गया | उन्होंने कहा कि “आपके
उस लेख में एक तथ्यात्मक गलती चली गयी है | उस पोस्ट को हाईड कीजिये, फिर मैं आपसे
बात करता हूँ |” मैंने उनकी सलाह को ध्यान में रखते हुए पोस्ट को फेसबुक से हाईड
किया और फिर ब्लॉग पर जाकर भी उसे ड्राफ्ट में डालकर सेव किया | इतने में उनका फिर
से फोन आया | उन्होंने कहा कि आपका लेख अच्छा है, लेकिन तथ्यों की कुछ गलती चली गयी
है | यदि किसी ने देख लिया तो वह उसका स्क्रीन शाट लेकर आपके खिलाफ उपयोग कर सकता
है | मैं जानता हूँ कि आपने यह पोस्ट ब्लागों की दुनिया को समझने के लिए ही लगायी
है, और इसमें आपकी तरफ से कोई दुर्भावना काम नहीं कर रही है, लेकिन तब भी कोई
नकारात्मक व्यक्ति इसको लेकर बात का बतंगड़ तो बना ही सकता है |”
“उन्होंने कहा कि अव्वल तो ब्लागों की दुनिया
में ऐसा मानक बनाना ही कठिन है कि कौन ब्लॉग नंबर एक है और कौन नंबर दस | लेकिन
यदि आप कोई ऐसी सूची बनाने पर आमादा ही हैं तो शीर्ष पर ‘कबाड़खाना’ को रख लीजिये |
और फिर अपनी पसंद से ऊपर-नीचे करते रहिये | क्योंकि हिंदी साहित्यिक ब्लागों की
दुनिया में हम सबने कबाड़खाना की ऊँगली पकड़कर ही चलना सीखा है |” उनकी सलाह ने मेरे
अति-उत्साह को विवेक की तरफ मोड़ा | मैंने लेख को उनकी सलाह के अनुसार संशोधित किया
और फिर प्रकाशित किया | कहना न होगा कि उसने पाठकों का बहुत स्नेह पाया | आज बैठकर
लगता है कि यदि मनोज भाई ने उस समय में मेरी गलती पर मुझे टोका नहीं होता, तो
प्रशंसा की जगह मेरी झोली आलोचनाओं से भरी हुई होती |
मनोज पटेल ने अपने ब्लाग ‘पढ़ते-पढ़ते’ की शुरुआत
वर्ष 2010 में की थी | अगले वर्ष उस ब्लॉग ने थोड़ी गति पकड़ी और फिर उसके आगे तो वह
पाठकों के दिलों पर छा गया | वर्ष 2012-2013 में उन्होंने जमकर ब्लागिंग की | लगभग
रोज दिन उन्होंने कोई न कोई पोस्ट लगायी | वही दौर ब्लागिंग का सबसे सुनहरा दौर भी
था | दसियों ब्लॉग अपने नए कलेवर और कंटेंट के साथ एक दूसरे का मुकबला कर रहे थे |
‘कबाड़खाना’ अपने दसियों कबाड़ियों (सहयोगियों) के जरिये सिरमौर था | प्रभात रंजन का
‘जानकी पुल’ हर नयी हलचल का वाहक था | अनुराग वत्स का ‘सबद’ उत्कृष्ट सामग्री के
लिए जाना जाता था | वैचारिक बहसों के लिए अशोक पाण्डेय के ‘जनपक्ष’ का कोई सानी
नहीं था | अरुण देव के ‘समालोचन’ ने तय कर लिया था कि गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं
करना है | शिरीष मौर्य के ‘अनुनाद’ और सिद्धेश्वर सिंह के ‘कर्मनाशा’ की मौजूदगी
इस दुनिया को अलग से रोशन कर रही थी | और फिर संतोष चतुर्वेदी के ‘पहली बार’ के
पीछे मैं भी ‘सिताब दियारा’ को लेकर निकल ही पड़ा था |
लेकिन इन सबमें मनोज भाई की पहचान अगल से देखी
जा सकती थी | कारण कि वे समकालीन विश्व कविता के बेहद मौलिक स्वरों को हिंदी में
ला रहे थे | अभी तक आधुनिक विश्व कविता में हिंदी पाठकों की पहुँच पाब्लो नेरुदा, ब्रेख्त,
एमिली डिकिन्सन, नाजिम हिकमत, महमूद दरवेश, एर्नेस्तो कार्देनाल, लैंग्स्टन ह्यूज,
चेस्लाव मिलोश, निजार कब्बानी, दुन्या मिखाइल और येहूदा आमिखाई जैसे कुछ अन्य
नामों तक ही सिमटी हुई थी | अब ‘पढ़ते-पढ़ते के जरिये उसका एक बड़ा लोकतांत्रिक विस्तार
हो रहा था | हालाकि हमारी पीढ़ी से पूर्व के अनुवादकों ने दुनिया के बहुत सारे अन्य
कवियों से भी हिंदी का परिचय कराया था | लेकिन जहाँ सैकड़ों भाषाओँ में हजारो-हजार
लोग कविता रच रहे हों, वहां पर दस-बीस नामों की ऐसी सूची बहुत सीमित मालूम पड़ती थी
|
इसका यह कत्तई अर्थ नही है कि मनोज पटेल ने
दुनिया के सारे महत्वपूर्ण कवियों को हिंदी में लाकर खड़ा कर दिया | या कि उनके
अलावा किसी और ने विश्व कविता से समकालीन कवियों को अनुदित नहीं किया | वरन मनोज
पटेल का महत्व इस बात में महसूस किया जाना चाहिए कि उन्होंने समकालीन विश्व कविता
के कुछ बेहद मौलिक स्वरों को हिंदी में लाकर विश्व कविता का एक बड़ा दरवाजा खोला |
हालाकि इंटरनेट के प्रभाव और सूचना के बढ़ते माध्यमों में यह काम देर-सबेर होना ही
था | लेकिन मनोज पटेल के जरिये यह बहुत व्यवस्थित और संयमित तरीके से हुआ |
व्यवस्थित इसलिए कि उन्होंने वर्षों की मेहनत लगाकर विश्व कविता के इन समकालीन
हस्ताक्षरों को ढूँढा और उन्हें सोशल मीडिया के एक बड़े प्लेटफार्म के जरिये हिंदी
पाठकों के सामने रखा | और संयमित इसलिए कि इस मैराथन कार्य को करते हुए भी वे कहीं
से भी अति-उत्साही नहीं हुए और न ही उसके श्रेय के लिए कभी हांका लगाया |
उनका प्रयास इसलिए भी मानीखेज माना जाएगा कि
उन्होंने विश्व कविता के इतने सारे शेड्स को चुनने में जो असीम ऊर्जा लगाई, वही
विवेकशील ऊर्जा उन्होंने उन कविताओं को हिंदी में अनुदित करते हुए भी प्रदर्शित की
| उनके अनुवाद में वह ताकत थी कि चिली से लेकर कनाडा तक, दक्षिण अफ्रिका से लेकर
मिश्र तक, ईरान से लेकर जापान तक और यूरोप में सुदूर पश्चिम इंग्लैण्ड से लेकर सूदूर
पूर्व रूस तक की कवितायेँ हमारी अपनी भाषा और अपने दिल के आसपास की लगती थीं |
उन्होंने इस अथाह विस्तार से जिन महत्वूर्ण कवियों और उनकी कविताओं को चुना, उस
आधार पर भी उनकी समझ और संवेदना की दाद देनी चाहिए | उन कविताओं के माध्यम से
हिंदी के पाठकों ने समकालीन दुनिया के समाज को थोडा और अधिक समझा, थोडा और अधिक जाना
|
मनोज पटेल के ब्लॉग ‘पढ़ते-पढ़ते’ पर हजार से अधिक
समकालीन विश्व कवितायें मौजूद हैं | उन्हें पढ़ते हुए हमारे सामने एक नई दुनिया का दरवाजा
खुलता है, जिसमें वेरा पावलोवा, मरम अल मसीरी, और नाजिम हिकमत का प्रेम भी है, तो
उसी महान हिकमत, महमूद दरवेश और सादी युसूफ का संघर्ष भी | उनके पिटारे में
बोस्नियाई कवि इजत सरजेलिक की वे मर्मस्पर्शी कवितायें भी हैं, जो युगोस्लावीयाई
विभीषिका की प्रतिनिधि दास्तान हैं, तो मध्य पूर्व में संघर्ष के चटख रंग भी उनकी
कविताओं में प्रमुखता से नुमाया हुए हैं | अफ्रीकी लूट और लैटिन अमेरिकी संघर्ष को
भी उनके अनुवादों में बहुत प्रमुखता मिली है | युद्ध के विरोध और मनुष्यता के पक्ष
उनकी कविताओं का विस्तार जापान से लेकर अर्जेंटीना तक फैला हुआ है | और यदि कहीं उनकी
चुनिन्दा कविताओं में युद्ध दिखाई भी देता है, तो इस चेतावनी के साथ कि वह
मनुष्य-विरोधी और व्यर्थ है | आततायी से भिड़े हुए हाथ यदि सफल नहीं भी दिखाई देते
हैं, तो वे इतनी प्रेरणा जरूर देते हैं कि दुनिया के प्रत्येक हिस्से का मनुष्य
दमन और अत्याचार के विरोध में खड़ा है | साम्राज्यवाद और नव-उपनिवेशवाद से कराहती
हुई दुनिया में उनकी अनुदित कवितायें उम्मीद और भविष्य की बेहतरी का रास्ता दिखाती
हैं |
जितनी सहजता और सफाई के साथ के उन्होंने कविताओं
का अनुवाद किया है, वह हमारी नयी पीढ़ी के लिए आदर्श हो सकता है | उनके ब्लॉग ने
विश्व कविताओं का जो दरवाजा हिंदी के युवाओं के लिए खोला है, उसमें दो-तीन
सकारात्मक परिणाम तो साफ़-साफ़ दिखाई डेते हैं | पहला यह कि इन कविताओं को पढ़ते हुए
हमारे अनेकानेक अनुवादकों ने दुनिया के विभिन्न कोनों में कवियों की तलाश शुरू की
है | अब समकालीन विश्व कविता के बहुत सारे हस्ताक्षर हिंदी में दिखाई देते हैं |
दूसरा यह कि उन्होंने अनुवाद में गुणवत्ता के जिस स्तर को स्थापित किया है, वह
काबिलेतारीफ़ है | उन्होंने अनुवादकों के लिए एक ऐसा मानदंड स्थापित किया है, जिससे
नीचे उतरना अब संभव नहीं हैं | और फिर मनोज जी का तीसरा काम जो बहुत महत्वपूर्ण
है, वह यह है कि कविताओं को अनुदित करते समय कैसे शब्दानुवाद और भावानुवाद का
संतुलन कायम किया जाए |
ऐसे में ‘पढ़ते-पढ़ते’ के माध्यम से समकालीन विश्व
कविता को हिंदी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने वाले इस मैराथन धावक को बारबार सलाम
करने की ईच्छा होती है | और इसलिए भी कि इतने शीर्ष पर पहुंचकर भी वे स्टंटबाजी और
अहंकार से सर्वथा दूर रहे | यह बात देखने में भले ही छोटी लगती हो, लेकिन तलाशने
में बहुत बड़ी निकलती है |
मनोज भाई को देखकर इस बात की तस्दीक की जा सकती
थी कि एक रचनात्मक व्यक्ति को कैसा होना चाहिए | जो व्यक्ति एक रचनात्मक विधा से
प्यार करता है, वह अन्य रचनात्मक विधाओं का भी शाहकार होता है | मसलन वे जितने अधिक
कविता-प्रेमी थे, उतने ही अधिक सिने-प्रेमी भी | विश्व-सिनेमा की अपनी लाइब्रेरी को
समृद्ध करने के लिए वे शहर-दर-शहर भटकते फिरते | जहाँ से भी क्लासिक फिल्मों के
मिलने की आहट होती, वे पहुँच जाते | इन यात्राओं के जरिये उन्होंने विश्व-सिनेमा
की हजार से अधिक चुनिन्दा फिल्मों को इकठ्ठा किया था | और जब मैं विश्व-सिनेमा की
बात कर रहा हूँ तो इसका मतलब हालीवुड समझने की भूल करना बिलकुल भी उचित नहीं होगा
| विश्व दृष्टि रखने वाले एक वास्तविक फिल्म समीक्षक की तरह वे भी हालीवुड को
फ्रेंच, इटेलियन, ईरानी, चीनी, रशियन, जापानी और कोरियन सिनेमा के साथ ही रखने के
हामी थे | इनसे ऊपर नहीं | इसीलिए वे ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ आन्दोलन के बड़े
समर्थकों में से एक थे, जो गोरखपुर से आरम्भ होकर पूरे भारत में फ़ैल चुका है |
जब भी दुनिया के स्तर पर कोई अच्छी या चर्चित
फिल्म आती, वे उसे ढूँढने में लग जाते | महीने-दो महीने बाद वह फिल्म उनके पास
होती | मुझे याद है कि जब हंगेरियन फिल्म “सन आफ सोल” को सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा
की फिल्म के लिए आस्कर पुरस्कार दिया गया था, तो उनका एक लंबा व्हाट्सअप सन्देश आया
था | उन्होंने उस सन्देश में लिखा था कि इस फिल्म को देखने के बाद वे कैसे हफ़्तों
विचलित रहे | उनके पास भारतीय क्लासिक फिल्मों का भी बड़ा संग्रह था और सिनेमा को
समझने के लिए विष्णु खरे और प्रहलाद अग्रवाल सिने-समीक्षकों को पढने का मन भी |
वे साहित्य के दुर्लभ और विलक्षण पाठक भी थे |
उनके पास अपनी भाषा हिंदी की क्लासिक किताबों का खजाना तो था ही, विश्व क्लासिक को
पाने के लिए भी वे सदा प्रयासरत रहते | चुकि उनका अंग्रेजी का ज्ञान बहुत अच्छा
था, इसलिए उनका पाठकीय दायरा भी बहुत विस्तृत हो गया था | हालाकि सामान्यतया वे
पुस्तकों को अपनी भाषा में तलाशते हुए दिखाई देते | लेकिन जहाँ उनकी हिंदी में
उपलब्द्धता नहीं होती, वहां वे अंग्रेजी की तरफ भी हाथ बढ़ाने में नहीं हिचकते |
वर्ष 2012 से 2017 तक के छः विश्व पुस्तक मेले
में हमारा और उनका साथ रहा | वे महीने दिन पहले से ही बतौर पाठक मेले की तैयारी
शुरू कर देते | हालाकि इंटरनेट के साथ बढ़िया सामन्जस्य के कारण वे नई किताबों की आनलाइन
खरीददारी भी करते रहते | लेकिन फिर भी उनके पास मेले को लेकर बहुत सारी योजनायें
होतीं | नवम्बर में उनका पहला सन्देश व्हाट्सअप पर चमकता, जिसमें वे मुझसे मेले के
लिए खरीदी जाने वाली किताबों की सूची मांगते | मैं थोड़ा आनाकानी करता तो उनका सन्देश
मैसेंजर में तैर जाता | फिर सप्ताह बीतते-बीतते उनका फोन आ धमकता, जिसमें एक अनुरोध
भी होता कि अब हम लोगों को मेले की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए, और एक चेतावनी भी
कि ऐसा नहीं करने से हम लोग महत्वपूर्ण किताबों से वंचित रह जायेंगे | उनकी सलाह
के अनुसार हम लोग फेसबुक पर मेले में खरीदी जाने वाली संभावित किताबों की सूची
लगाते | वह सूची पाठकों के द्वारा समृद्ध की जाती | दसियों दिन उस पोस्ट पर नई-नई
किताबों की आमद होती रहती | और फिर मेले से पहले वह सूची इतनी समृद्ध हो जाती कि
उसे कई पुस्तक प्रेमी लोग संरक्षित करके अपने पास रख लेते | मेले के दौरान या उसके
बाद भी उपयोग करने के लिए |
मेले के लिए प्रतिवर्ष मनोज भाई बाकायदा बजट
तैयार करते | वे कहते कि मध्यवर्गीय लोगों का अपना पैशन तभी पूरा हो सकता है, जब
वे उसकी तैयारी करें | अन्यथा उनके आर्थिक दबाव इस तरह के होते हैं कि वे हमेशा ही
उसमें दबकर बिखर जायेंगे | जैसे हम अपने बच्चों की पढाई के लिए बजट रखते हैं,
बीमारी-ईलाज के लिए व्यवस्था रखते हैं, देशाटन के लिए योजनायें रखते हैं, उसी तरह
से हमें किताबों के लिए भी एक बजट रखना चाहिए | यह भी जीवन के अन्य महत्वपूर्ण
कार्यों की तरह ही महवपूर्ण कार्य है | यदि हम थोड़ा भी शिथिल हुए तो हमारी कटौती
की गाज सबसे पहले हमारे पैशन पर ही पड़ती है | और फिर इस पठन-पाठन विरोधी माहौल में
किताबों को उसकी सबसे अधिक कीमत चुकानी पड़ सकती है | उन्होंने किताबों के लिए
प्रतिमाह दो हजार रूपये का बजट रखा था | वर्ष भर की आनलाइन खरीददारी में पांच-सात
हजार रूपये लग जाते और शेष पंद्रह हजार रूपये से वे विश्व पुस्तक मेले में
खरीददारी करते | मैंने भी उनकी सीख के पीछे चलते हुए अपने बजट को हजार रूपये मासिक
से आरम्भ किया था, जो आज भी सफलतापूर्वक चल रहा है |
बाहर से देखने पर वे एक बेहद साधारण मनुष्य की
तरह दिखाई देते | लेकिन उनके भीतर की मनुष्यता उन्हें हर हिसाब से असाधारण बनाती |
दरअसल वे चर्चा और आत्ममुग्द्धता से इतने दूर थे कि उनके कामों का कभी उचित
मूल्यांकन नहीं हो पाया | यह हिंदी भाषा की बदकिस्मती कही जायेगी कि उसने समय रहते
अपने एक बहुमूल्य रत्न को नहीं पहचाना | हमारी भाषा ने उनके अनछूए पहलूओं को तो
अनदेखा किया ही, उनके सामने आये कामों की भी उपेक्षा की | अन्यथा क्या वजह थी कि
किसी प्रकाशक ने उनके रहते हुए उनकी एक किताब भी छापने में दिलचस्पी नहीं दिखाई |
जबकि उनके अनुवाद के खजाने में कम से कम दस किताबों लायक बेहतरीन कवितायें मौजूद
थीं | मनोज भाई से जब भी मैं इस बारे में जिक्र करता तो वे बड़ी ही संजीदगी से कहते
कि “रामजी भाई ..... मैं अपना काम कर रहा हूँ | और वही काम मैं कर भी सकता हूँ |
जो काम प्रकाशकों का है, मैं उसके बारे में क्यों चिंता करूँ |” देखते हैं कि उनके
काम को लेकर प्रकाशक कब अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं |
उनको याद करते हुए दिल में एक हूक सी उठती है |
पचास से कम की अधेड़ उम्र में उनका ऐसे चले जाना बहुत खलता है | इकलौते पुत्र को
खोने की व्यथा सोचकर उनके माँ-बाप के लिए और भी दिल बैठने लगता है | और बेटे-बेटी
के लिए भी, जिनके बारे में मनोज भाई हमेशा से कहते थे कि ये और चाहें जो भी बने,
मगर आदमी पहले बनें | जिस दौर में एक करके पांच गिना जाता हो, उस दौर में दस करके
भी उन्होंने कोई गिनती नहीं लगाई | जिसने एक साधारण जीवन जीते हुए मनुष्यता की सारी शर्ते पूरी
की, उसके लिए अलविदा कहना बहुत खलता है |
यह भी कोई जाने की उम्र थी साथी ......... !
प्रस्तुतकर्ता
रामजी तिवारी
(यह स्मृति लेख 'अनहद' पत्रिका में छपा है )
मनोज पटेल द्वारा अनुदित चुनिन्दा कवितायें
साभार – “पढ़ते-पढ़ते ब्लाग”
1 …. इज़त सरजलिक (बोस्नियाई कवि)
सरायेवो में
किस्मत
सबकुछ मुमकिन है
सरायेवो की
1992 की बसंत ऋतु में
कि आप खड़े हों एक कतार में
ब्रेड खरीदने के लिए
और पहुँच जाएं किसी
इमरजेंसी वार्ड में
अपनी टाँगे कटवाए हुए
और तब भी कह सकें
कि किस्मतवाले रहे आप .....
|
हमारी जिंदगियों में युद्ध
दो बाल्कन और दो विश्व
युद्धों को
देखा है मार्को बसिक ने
अपनी जिंदगी में
यह पांचवां है उसका
मेरी और मेरी संतान के लिए
दूसरा
और जहाँ तक ब्लादिमीर की
बात है
अट्ठारह महीने की उसकी उम्र
को देखते हुए
फिलहाल यह कहा जा सकता है
कि अपनी आधी जिंदगी
वह गुज़ार चुका है युद्ध में
...|
2 ….. यूसफ़ अल साइघ (ईराक़ी कवि)
एक ईराक़ी शाम
एक ईराक़ी शाम में
युद्ध भूमि के कुछ दृश्य :
एक अमनपसंद घर
दो लड़के अपना होमवर्क करते
हुए
एक छोटी बच्ची
रद्दी काग़ज पर
अनमनेपन से कुछ अजीब
तस्वीरें बनाते हुए
-- ताजा ख़बरें थोड़ी देर में
पूरा घर कान बन जाता है
दस ईराक़ी आँखें चिपक जाती
हैं
टेलीविजन के परदे से एक
दहशतजदा खामोशी से
अलग-अलग तरह की गंध मिलने
लगती है आपस में
युद्ध की गंध
और गंध ताज़ी सिंकी रोटी की
माँ की निगाहें उठती हैं
दीवार पर लटकी एक तस्वीर की
तरफ
वह बुदबुदाती है
-- ख़ुदा हिफ़ाजत करे
तुम्हारी
और खाना बनाना शुरू करती है
चुपचाप
उसके दिमाग में सावधानी से
चुने गए
युद्धभूमि से परे के दृश्य
चलने लगते हैं
उम्मीद के पक्ष में |
3…. एर्नेस्तो कार्देनाल (निकारागुआ के कवि)
हम दोनों ही हार गए जब
मैंने खो दिया तुम्हें
मैं इसलिए हारा क्योंकि तुम
ही थी
जिसे मैं ज्यादा अधिक प्यार
करता था
और तुम इसलिए हारी क्योंकि
मैं ही था
तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार
करने वाला
मगर हम दोनों में से तुमने
मुझसे ज्यादा खोया है
क्योंकि मैं किसी और को
वैसे ही प्यार कर सकता हूँ
जिस तरह तुम्हें किया करता
था
मगर तुम्हें उस तरह कोई
प्यार नहीं करेगा
जिस तरह मैं किया करता था
.....................................
....................................
यही प्रतिशोध होगा मेरा
कि एक दिन तुम्हारे हाथों
में होगा
एक प्रसिद्द कवि का
कविता-संग्रह
और तुम पढ़ोगी इन पंक्तियों
को
जिन्हें कवि ने तुम्हारे
लिए लिखा था
और तुम इसे जान भी नही
पाओगी ....|
4 ….. सर्गोन बोउलुस (ईराक़ी कवि)
चिट्ठी मिली
....
तुमने बताया
कि तुम्हारे लिखते समय
बम बरस रहे हैं,
छतों के इतिहास
और मकानों के नामोनिशान
मिटाते हुए
तुमने कहा :
मैं तुम्हें यह चिठ्ठी लिख
रहा हूँ
जबकि उन्हें खुदा ने इजाज़त
दे रखी है
मेरी तकदीर लिखने की
इसी बात पर मुझे शंका होती
है
उसके खुदा होने में
तुमने लिखा :
मेरे शब्द, गोलियों की
बरसात में डराए जा रहे प्राणी हैं
इनके बिना मैं जिन्दा नहीं
रह पाऊंगा
“उनके” चले जाने के बाद,
मैं उन्हें फिर से पा लूँगा
उनकी सारी पवित्रता के साथ
जैसे मेरी सफ़ेद पलंग
वहशियों की अँधेरी रात में
हर रात, मैं चौकस रहता हूँ
अपनी कविता में सुबह तलक
फिर तुमने कहा :
मुझे एक पहाड़ की जरुरत है,
एक शरणस्थल की
मुझे दूसरे इंसानों की
जरुरत है
और तुमने चिट्ठी भेंज दिया
...|
5 …. ताहा मुहम्मद अली .... (फिलिस्तीनी कवि)
बदला ....
कभी-कभी कामना करता हूँ
कि किसी द्वंद्व युद्ध में
मिल पाता मैं
उस शख्स से जिसने मारा था
मेरे पिता को
और बर्बाद कर दिया था घर
हमारा
मुझे निर्वासित करते हुए
एक संकरे से देश में
और अगर वह मार देता है मुझे
तो मुझे चैन मिलेगा आखिरकार
और अगर तैयार हुआ मैं
तो बदला ले लूँगा अपना |
किन्तु मेरे प्रतिद्वंद्वी
के नजर आने पर
यदि यह पता चला
कि उसकी माँ है
उसका इन्तजार करती हुई
या एक पिता
जो अपना दाहिना हाथ
रख लेते हैं अपने सीने पर
दिल की जगह से ऊपर
मुलाकात के तयशुदा वक्त से
आधे घंटे की देरी पर भी –
तो मैं उसे नहीं मारूंगा
भले ही मौक़ा रहे मेरे पास |
इसी तरह .... मैं
तब भी क़त्ल नहीं करूंगा
उसका
यदि समय रहते पता चल गया
कि उसका एक भाई है और बहनें
जो प्रेम करते हैं उससे और
हमेशा
उसे देखने की हसरत रहती है
उनके दिल में
या एक बीबी है उसकी
उसका स्वागत करने के लिए
और बच्चे, जो सह नहीं सकते
उसकी जुदाई
और जिन्हें रोमांचित कर
देते हैं उसके तोहफे ...
या फिर, उसके यार-दोस्त हैं
उसके परिचित पडोसी
कैदखाने या अस्पताल के कमरे
के उसके साथी
या स्कूल के उसके सहपाठी
उसे पूछने वाले
या सम्मान देने वाले
मगर यदि
कोई न निकला उसके आगे-पीछे –
पेड़ से कटी किसी डाली की
तरह –
बिना माँ-बाप के
न भाई, न बहन
बिना बीबी-बच्चों के
किसी रिश्तेदार, पड़ोसी या
दोस्त
संगी-सहकर्मी के बिना,
तो उसके कष्ट में कोई इजाफ़ा
नहीं करूँगा
कुछ नहीं जोडूंगा उसके
अकेलेपन में
न तो मृत्यु का संताप
न ही गुजर जाने का गम
बल्कि संयत रहूँगा
उसे नजरअंदाज करते हुए
जब उसकी बगल से गुजरूँगा
सड़क पर ---
क्योंकि समझा लिया है मैंने
खुद को
कि उसकी तरफ ध्यान न देना
एक तरह का बदला ही है अपने
आप से .... |
6 ..... अन्ना स्विर .... (पोलिश कवि)
वे तीसरी
मंजिल से नहीं कूदे
दूसरा विश्व युद्ध
वारसा
आज रात उन्होंने बम गिराए
थियेटर चौराहे पर
थियेटर चौराहे पर
वर्कशाप थी मेरे पिता की
सारी पेंटिंग, मेहनत
चालीस सालों की
अगली सुबह पिताजी गए
थियेटर चौराहे की ओर
उन्होंने देखा
छत नहीं है उनके वर्कशाप की
नहीं हैं दीवारें
फर्श भी नहीं
पिताजी कूदे नहीं
तीसरी मंजिल से
उन्होंने फिर से शुरू किया
बिलकुल शुरुआत से ...... |
7......
बिली कालिंस ..
(अमेरिकी कवि)
भागमभाग
सुबह-सुबह काम पर जाने की
भागमभाग में
हार्न बजाता तेज रफ़्तार में
निकलता हूँ
कब्रिस्तान के बगल से
जहाँ अगल-बगल दफ़न हैं मेरे
माता-पिता
ग्रेनाईट की एक चिकनी पटिया
के नीचे
और फिर पूरे दिन लगता है
जैसे उठ रहे हों वे
नापसंदगी का इजहार करने
वाली
उन्हीं निगाहों से मुझे
देखने के लिए
जबकि माँ शांति से उन्हें
समझाती है
फिर से लेट जाने को ... |
8 …. रॉक डाल्टन .... (अल-सल्वाडोर के कवि)
चोर बाजार
में जनता की संपत्ति का बंटवारा
उन्होंने हमें बताया कि
पहली शक्ति है
कार्यपालिका शक्ति
और विधायी शक्ति दूसरी
शक्ति है
जिसे ठगों के गिरोह ने
‘सत्ता पक्ष’ और ‘विपक्ष’
में बाँट रखा है
और चरित्र भ्रष्ट हो चुका
(फिर भी माननीय) सुप्रीम कोर्ट
तीसरी शक्ति है ..
अखबारों, रेडियो और टी.वी.
ने खुद को
चौथी शक्ति का दर्जा दे रखा
है और वाकई
वे तीनों शक्तियों के हाथ
में हाथ डाले चलते हैं
अब वे हमें यह भी बता रहे
हैं कि
नई लहर वाले युवा पांचवीं
शक्ति हैं
और वे हमें यह भी भरोसा
दिलाते हैं
कि सभी चीजों और शक्तियों
के ऊपर
ईश्वर की महान शक्ति है
“और अब चुकि सभी शक्तियों
का बंटवारा हो चुका है
-- वे निष्कर्ष के रूप में
हमें बताते हैं –-
किसी और के लिए कोई शक्ति
नहीं बची है
और अगर कोई कुछ और सोचता है
तो उसके लिए फ़ौज और नेशनल
गार्ड हैं”
शिक्षाएं ....
1 – पूंजीवाद शक्तियों की
एक बड़ी मंडी है
जहाँ केवल चोर अपना धंधा
करते हैं
और सच्ची शक्ति की वास्तविक
मालिक
यानि आम जनता की बात करना
जानलेवा हो सकता है |
2 – शक्ति के वास्तविक
मालिक को उसका
हक़ दिलाने के लिए यह जरुरी
होगा
कि चोरों को व्यापार के
मंदिरों से लतिया कर
केवल बाहर ही न कर दिया जाए
क्योंकि वे बाहर जाकर फिर
संगठित हो जायेंगे
बल्कि बाजार को
व्यापारियों के सर तक ले
जाना होगा ... |
9...... लैंग्स्टन ह्यूज़ ....
(अमेरिकी कवि)
थक चुका हूँ
मैं तो थक चुका हूँ इन्तजार करते-करते,
क्या तुम नहीं थके इस इन्तजार में
कि एक दिन हो जायेगी यह दुनिया
खुबसूरत, बेहतर और मेहरबान ?
आओ एक चाकू उठाकर
दो टुकड़ों में काट दे यह दुनिया –-
और देखें कि कौन से कीड़े
खाए जा रहे हैं इसे ..... |
अश्वेत मजदूर
बहुत मेहनत करती हैं मधुमक्खियाँ
उनसे छीन लिया जाता है
उनकी मेहनत का फल
हम भी हैं मधुमक्खियों की ही तरह –
मगर ऐसे ही नहीं चलेगा
हमेशा .... |
10 ... जैक एग्यूरो
... (प्युर्टोरिको के कवि)
खुली
खिड़कियों और बादलों के लिए प्रार्थना
प्रभु,
मेरे लिए एक जगह बचा रखना
स्वर्ग में किसी बादल पर
इन्डियन, अश्वेत, यहूदी
आयरिश और इटली के लोगों के
साथ
पुर्तगाली और तमाम एशियाई
स्पेनी, अरबी लोगों के साथ
प्रभु,
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता
अगर
वे जोर-जोर से बजाते हैं
अपने संगीत,
या खुली छोड़ देते हैं अपनी
खिड़कियाँ --
मुझे तो पसंद है तरह-तरह के
भोजन की खुशबू
मगर प्रभु,
यदि स्वर्ग एकीकृत न हो,
और नस्लवादी हो कोई
फ़रिश्ता,
जान लीजिये, मैं तो आने से
रहा
क्योंकि प्रभु,
नरक तो पहले ही देख चुका
हूँ मैं ..... |
11 .... नाओमी शिहाब न्ये ....(फिलिस्तीनी कवि)
मशहूर ....
मछली के मशहूर होती है नदी
तेज आवाज मशहूर होती है
ख़ामोशी के लिए
जिसे पता है कि वह ही वारिश
होगी धरती की
इससे पहले कि कोई ऐसा सोचे
भी
चहारदीवारी पर बैठी बिल्ली
मशहूर होती है चिड़ियों के
लिए
जो देखा करती हैं उसे घोसले
से
आंसू मशहूर होते हैं गालों
के लिए
तसव्वुर जिसे आप लगाए फिरते
हैं अपने सीने से
मशहूर होते हैं आपके सीने
के लिए
जूते मशहूर होते हैं धरती
के लिए
ज्यादातर मशहूर बनिस्बत
भड़कीले जूतों के,
जो मशहूर होते हैं फकत फर्श
के
उसी के लिए मशहूर होती है
वह मुड़ी-तुड़ी तस्वीर
जो उसे लिए फिरता है अपने
साथ
उसके लिए तो तनिक भी नहीं
जो है उस तस्वीर में
मैं मशहूर होना चाहती हूँ
घिसटते चलते लोगों के लिए
मुस्कुराते हैं जो सड़क पार
करते,
सौदा-सुलुफ के लिए पसीने से
लथपथ
कतार में लगे बच्चों के लिए,
जबाब में मुस्कुराने वाली
शख्श के रूप में
मैं मशहूर होना चाहती हूँ
वैसे ही
जैसे मशहूर होती है गरारी,
या एक काज बटन का,
इसलिए नहीं कि इन्होने कर
दिया कोई बड़ा काम
बल्कि इसलिए कि वे कभी नहीं
चूके उससे
जो वे कर सकते थे .... |
12 ..... दुन्या मिखाईल ..... (इराकी कवि)
दुनिया का
आकार
अगर चपटी होती दुनिया
किसी जादुई कालीन की तरह,
तो हमारे दुःख का कोई आदि
होता और कोई अंत
अगर चौकोर होती दुनिया,
तो किसी कोने में छिप जाते
हम
जब “लुका-छुपी” खेलती जंग
अगर गोल होती दुनिया,
तो चर्खी झूले पर चक्कर
लगाते हमारे ख़्वाब,
और एक बराबर होते हम ... |
13 ..... नाज़िम हिकमत ..... (तुर्की के कवि)
हिरोशिमा की
बच्ची
मैं आती हूँ और खड़ी हो जाती
हूँ हर दरवाजे पर
मगर कोई नहीं सुन पाता
मेरे कदमों की खामोश आवाज
दस्तक देती हूँ मगर फिर भी
रहती हूँ अनदेखी
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ,
मर चुकी हूँ मैं
सिर्फ सात साल की हूँ
भले ही मृत्यु हो गई थी
मेरी
बहुत पहले हिरोशिमा में,
अब भी हूँ सात साल की ही,
जितनी की तब थी
मरने के बाद बड़े नहीं होते
बच्चे
झुलस गए थे मेरे बाल आग की
लपलपाती लपटों में
धुंधला गई मेरी आँखें, अंधी
हो गईं वे
मौत आई और राख में बदल गईं
मेरी हड्डियां
और फिर उसे बिखेर दिया था
हवा ने
कोई फल नहीं चाहिए मुझे,
कोई चावल भी नहीं
मिठाई नहीं, रोटी नहीं
अपने लिए कुछ भी नहीं मांगती
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ,
मर चुकी हूँ मैं
बस इतना चाहती हूँ कि अमन
के लिए
तुम लड़ो आज, आज लड़ो तुम
ताकि बड़े हो सकें, हंस-खेल
सकें
बच्चे इस दुनिया के ....
14 ..... पीटर चर्चेस ....
(अमेरिकी कवि)
अपना दाहिना
हाथ ऊपर उठाओ
अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाओ,
वह बोली
मैंने अपना दाहिना हाथ ऊपर
उठा लिया
अपना बायाँ हाथ ऊपर उठाओ,
वह बोली
मैंने अपना बायाँ हाथ ऊपर
उठा लिया,
मेरे दोनों हाथ ऊपर हो गए
अपना दाहिना हाथ नीचे कर
लो, वह बोली
मैंने उसे नीचे कर लिया
बायाँ हाथ नीचे कर लो, उसने
कहा
मैंने ऐसा ही किया
दाहिना हाथ ऊपर उठाओ, वह
बोली
मैंने उसका कहा माना
नीचे कर लो अपना दाहिना हाथ
मैंने कर लिया
अपना बायाँ हाथ उठाओ
मैंने उठा लिया
नीचे कर लो बायाँ हाथ
मैंने कर लिया
खामोशी छा गई
मैं दोनों हाथ नीचे किए
उसके अगले हुक्म का इन्तजार
करता रहा
थोड़ी देर बाद बेचैन होकर
मैंने कहा
अब क्या करना है
अब तुम्हारी बारी है हुक्म
देने की, वह बोली
ठीक है, मैंने कहा
मुझसे दाहिना हाथ ऊपर उठाने
के लिए कहो .... |
चयन और प्रस्तुति
रामजी तिवारी
बलिया,
उ.प्र.
मो.न. 9450546312
रामजी भाई आपने मनोज जी के बारे में बहुत संजीदगी से लिखा है। कविता के वैश्विक परिदृश्य के विस्तार को हम मनोज के ज़रिए जिस तरह से देख पा रहे थे वह बहुत सुखद था। वह सुख छिन गया है। इतनी कम उम्र में उनका चले जाना हम सभी को ग़मज़दा करता है। उनकी स्मृति को नमन।
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